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My Editorials - Dr Sharad Singh

Thursday, August 3, 2017

चर्चा प्लस ... जरूरी है जड़ों तक पहुंचना ... डॉ. शरद सिंह


Dr Sharad Singh
"सार्थक संवाद और शोधपूर्ण लेखन विचारों को जिस तेजी से उद्वेलित करता है, उतना ही दूरगामी प्रभाव भी छोड़ता है। यही मूल अवधारणा होनी चाहिए प्रत्येक साहित्यिक आयोजनों की जैसी कि #पावस_व्याख्यान_माला’ की अवधारणा है।"
.... पढ़िए मेरे कॉलम " #चर्चा_प्लस " सागर दिनकर (02.08.2017) में मेरा लेख "जरूरी है जड़ों तक पहुंचना" ।
 
चर्चा प्लस
जरूरी है जड़ों तक पहुंचना  
- डॉ. शरद सिंह
 
अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की बाढ़ और अंग्रेजी की ओर अभिभावकों की अंधी दौड़ ने मातृभाषाओं को उपेक्षित कर दिया है। दिलचस्प बात तो यह है कि हिन्दी के प्राध्यापक, साहित्यकार एवं पक्षधर भी इस अंधी दौड़ में सम्मिलित हैं। हिन्दी के लिए उपजे ऐसे कठिन दौर में कुछ आयोजन ऐसे भी हैं जो हिन्दी के मान को बचाए रखने के प्रति आश्वस्त कराते हैं। ऐसा ही एक आयोजन है -‘पावस व्याख्यान माला’ जो प्रदेश की राजधानी भोपाल में प्रति वर्ष आयोजित किया जाता है। मेरी लगातार तीन वर्ष की सहभागिता का अनुभव मुझे भरोसा दिलाता है कि हिन्दी के प्रति सत्यनिष्ठा से काम करने वाले अभी भी बहुसंख्यक हैं।

कभी-कभी ऐसा लगता है कि हमारी सारी विद्वता, सारी सोच अंग्रेजों के बनाए माप-दण्ड के अनुरूप चलती है। हम शेक्सपियर, शैली और कीट्स के इतर साहित्य को जानने से कतराते हैं। सोवियत संघ के युग में आम आदमी ने टॉल्सटॉय, गोर्की और पुश्किन के साहित्य को जाना। उससे कुछ आगे फ्रैंज काफ्का, सार्त्र और कामू को पढ़ा। आज ‘ अलकेमिस्ट’ के लेखक पाओलो कोएलो को भी हिन्दी लेखक और पाठक कम ही जानते हैं। जो जानते हैं उनमें भी पाओलो कोएलो की साहित्यिक प्रवृत्तियों को समझने वाले कम ही हैं। अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की बाढ़ और अंग्रेजी की ओर अभिभावकों की अंधी दौड़ ने मातृभाषाओं को उपेक्षित कर दिया है। ऐसी दशा में आज हमें मेहनत करनी पड़ेगी त्रिलोचन के सॉनेट की मूलप्रवृत्तियों को समझने के लिए। खैर त्रिलोचन और उनके सॉनेट की बात मैं बाद में करूंगी पहले उस आयोजन के बारे में जहां त्रिलोचन और उनके सॉनेट को पूरी आत्मीयता से याद किया गया। विगत 24 वर्ष से मध्यप्रदेष राष्ट्रभाषा प्रचार समिति भोपाल द्वारा ‘पावस व्याख्यान माला’ का आयोजन किया जा रहा है। इस वर्ष भी 28 से 30 जुलाई 2017 तक हिन्दी भवन, भोपाल में 24वीं पावस व्याख्यानमाला का तीन दिवसीय आयोजन किया गया। व्याख्यान के लिए चार विषय चुने गए थे - रामायण में प्रतिष्ठापित मूल्यों की सार्वभौमिकता, अमृतलाल नागर के उपन्यासों का वैशिष्ट्य, त्रिलोचन : गांव के कवि का सॉनेट शिल्प तथा चौथा विषय था लोक साहित्य में संस्कृति की मधुरिम छटा। जितना सच यह है कि लोक साहित्य ने हिन्दी साहित्य को समृद्ध बनाया है उतना ही सच यह भी है कि पाश्चात्य साहित्यिक प्रवृत्तियों ने भी हिन्दी साहित्य को विस्तार दिया है। इस क्रम में सॉनेट का स्थान सबसे पहले आता है। पश्चिमी जगत की साहित्यिक विधा सॉनेट को भारतीय परिवेश में ढालने का श्रेय यदि किसी को है तो वह है कवि त्रिलोचन शास्त्री को। 
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper
 
हिन्दी साहित्य के काव्य इतिहास में सॉनेट को पूरी भारतीयता के साथ समावेशित करने का श्रेय त्रिलोचन शास्त्री को ही है किन्तु उनके देहान्त के बाद मानो साहित्य जगत ने त्रिलोचन के सॉनेट को महाविद्यालयीन पाठ्यक्रम के एक लघु अध्याय के रूप में लेख कर के छोड़ दिया। यह महत्वपूर्ण रहा कि मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, भोपाल ने अपनी 24 वीं पावस व्याख्यानमाला में त्रिलोचन के सॉनेट पर पूरा एक सत्र समर्पित किया। विषय था -‘‘त्रिलोचन : गांव के कवि का सॉनेट शिल्प’’। इस सत्र में मैंने कवि त्रिलोचन जी को याद करते हुए अपनी उन स्मृतियों को सबके साथ साझा किया जब त्रिलोचन जी सागर विश्वविद्यालय में मुक्तिबोध सृजन पीठ में अपने प्रथम कार्यकाल में पदस्थ थे। जितने ख्यातिनाम, उतने ही सहज व्यक्ति। उन दिनों मैं नवगीत लिखा करती थी (आज भी यदाकदा नवगीत लिखती हूं।) मैं चाहती थी कि त्रिलोचन जी मेरे नवगीतों पर अपनी राय दें। विश्वविद्यालय कैंपस में उनके निवास पर ही मुक्तिबोध पीठ का कार्यालय था। इसलिए प्रथम परिचय में ही उनकी धर्मपत्नी से भी मेरा परिचय हो गया। अत्यंत ममतामयी स्त्री थीं वे। दिलचस्प बात यह है कि दो मुलाक़ातों के बाद अचानक घर-परिवार की चर्चा निकली और तब त्रिलोचन जी ने मुझसे मेरे परिवार के बारे में पूछा कि मैं किस परिवार से हूं, घर में कौन-कौन हैं आदि-आदि? मैंने उन्हें जब अपनी माता जी डॉ. विद्यावती ‘मालविका’ के बारे में बताया तो उन्हें सुखद आश्चर्य हुआ और वे मुझे लगभग डपटते हुए बोले,‘‘पहले क्यों नहीं बताया कि तुम विद्यावती ‘मालविका’ जी की बेटी हो और संत श्यामचरण जी की नातिन हो!’’
त्रिलोचन जी से पारिवारिक परिचय निकल आया। मैं उन्हें ‘अंकल’ और उनकी धर्मपत्नी को ‘आंटी’ कह कर पुकारती थी। त्रिलोचन जी ने जब मेरे नवगीत देखे तो मुझे सलाह दी कि उन नवगीतों को संग्रह के रूप में प्रकाशित करा लूं। मैंने उनसे पूछा कि कौन प्रकाशक छापेगा इन्हें? इस पर उन्होंने भी दो-टूक उत्तर दिया कि कोई नहीं, पहला संग्रह तुम्हें स्वयं अपने खर्चे पर छपवाना होगा। अंततः सागर के स्थानीय मुकेश प्रिंटिंग प्रेस से मेरा नवगीत संग्रह ‘‘आंसू बूंद चुए’’ सन् 1988 में प्रकाशित हुआ। अपने वादे के अनुरूप जिसका बर्ल्ब स्वयं त्रिलोचन जी ने लिखा था।
यहां मुझे स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि उन दिनों त्रिलोचन जी से उनके सॉनेट्स सुन कर मैंने भी हाथ आजमाने का प्रयास किया था। गिनती के दस सॉनेट्स लिखने के बाद ही मुझे समझ में आ गया कि यह विधा देखने में भले ही सरल लगे किन्तु लिखने में बहुत कठिन है।
मुक्तिबोध पीठ में त्रिलोचन जी का दूसरा कार्यकाल विषादयुक्त रहा। उस दौर में उन्होंने अपनी जीवनसंगिनी को खो दिया था और धीरे-धीरे वे स्मृतिभ्रम के शिकार होते जा रहे थे। तमाम विपरीत परिस्थितियां होते हुए भी साहित्य के प्रति उनका उत्साह यथावत रहा। वे अकसर अपने सॉनेट्स की चर्चा किया करते। सॉनेट विधा से उन्हें विशेष लगाव-सा हो गया था। वे कहा करते थे कि ‘‘सॉनेट में मैं अपनी बात अधिक स्पष्ट रूप से कह पाता हूं।’’ मुझे लगता है कि सॉनेट के प्रति उनका यह विश्वास उनके भीतर मौजूद उस व्यक्ति का विश्वास था जो जमीन से जुड़ा हुआ था और आमजन की बातें करना बखूबी जानता था।
त्रिलोचन जी के सॉनेट्स के संदर्भ में एक और घटना मुझे याद आ रही है जिसका यहां मैं उल्लेख करना चाहूंगी। इसी वर्ष, विश्व पुस्तक मेला 2017 में सामयिक प्रकाशन के स्टॉल पर मैं, अशोक वशिष्ठ और नंदभारद्वाज जी बैठे थे, साहित्यिक चर्चा कर रहे थे कि बातों ही बातों में भारतीय साहित्य में पाश्चात्य शैली के प्रभाव की चर्चा चल पड़ी। वहीं पुस्तक पलटते खड़े हुए एक युवक ने अचानक हस्तक्षेप करते हुए पूछा,‘‘त्रिलोचन शास्त्री जी ने भी तो पाश्चात्य शैली को अपनाया। उन्होंने सॉनेट लिखे। क्या उन्हें भारतीय पारम्पिरिक काव्य की शैलियां कम महसूस हुईं?’’
हम तीनों चौंके। पहली बात तो यह कि वह युवक पुस्तक जरूर पलट रहा था लेकिन उसका ध्यान हम लोगों के विचार-विमर्श पर केन्द्रित था। दूसरी बात कि उसने जिस ढंग से हम लोगों के सामने प्रश्न उछाला उससे साफ़ पता चल रहा था कि वह भी बहस में शामिल होना चाहता है। बल्कि शामिल ही नहीं, बहस को आगे भी बढ़ाना चाहता है। उसकी यह जिज्ञासु प्रवृत्ति अच्छी लगी। चर्चा के अंत में उसने स्वयं ही अपना परिचय दिया कि वह जेएनयू का छात्र है और हिन्दी साहित्य की पाश्चात्य प्रवृत्तियों पर ही शोध कर रहा है। अतः स्वाभाविक था उसका इस तरह बहस में शामिल होना। मैंने उस युवक से कहा कि किसी भी साहित्यकार को सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता है। किसी कवि से इस बात की अपेक्षा रखना तर्कसंगत नहीं है कि उसे परंपरागत शैलियों में ही लिखना चाहिए अथवा पाश्चात्य शैली के स्थान पर देशज शैली को अपनाना चाहिए। साहित्यसृजन बलात् नहीं किया जाता। यह भावों, संवेगों और अभिव्यक्ति के संयुक्त उद्घाटन होता है और यह उद्घाटन कवि किस ढंग से करना चाहता है यह उसके मनोभावों पर, या कहा जाए तो उसकी इच्छा पर निर्भर होता है। न तो किसी से बलपूर्वक ग़ज़ल लिखवाई जा सकती है और न किसी से बलपूर्वक गीत लिखवाया जा सकता है। जहां तक मेरा मानना है कि साहित्यिक अभिव्यक्ति अपनी काया स्वयं चुनती है।
त्रिलोचन शास्त्री ने सन् 1950 के आस-पास सॉनेट लिखना आरम्भ किया। यह माना जाता है कि उन्होंने अपनी प्रयोगधर्मिता का समावेश करते हुए अपने अधिकांश सॉनेट्स पेटार्कन एवं शेक्सपीयरन शैली में ही लिखे हैं। शिल्प का आधार भले ही आयातित हो किन्तु त्रिलोचन ने भाव, विचार और शिल्प को ‘त्रिलोचनीय’ अर्थात् मौलिक रूप दिया। जहां तक मेरा मानना है कि समालोचना के दौरान लेखन हमेशा शोधपूर्ण होना चाहिए। यानी पहले जड़ों तक पहुंचो, फिर लिखो। हमें त्रिलोचन के सॉनेट की तुलना शेक्सपियर के सॉनेट से करते हुए ही नहीं ठहर जाना चाहिए बल्कि सॉनेट के मूल स्थान ग्रीस, इटली और सिसली के सॉनेट की प्रवृत्तियों से तुलना करना चाहिए। क्योंकि शेक्सपीयर का सॉनेट एलीटवर्ग का सॉनेट था जबकि सिसली का सॉनेट कृषक और मजदूरवर्ग का था और इस प्रकार के सॉनेट ही त्रिलोचन ने लिखे हैं। यह भी याद रखा जाना चाहिए कि त्रिलोचन के सॉनेट में आयरिश और कैल्टिक प्रवृत्तियां भी हैं।
बात फिर वहीं जा पहुंचती है कि यदि ‘पावस व्याख्यान माला’ जैसा आयोजन नहीं होता तो मुझे त्रिलोचन के सॉनेट की जड़ों की प्रत्यक्ष चर्चा करने का उन्मुक्त अवसर नहीं मिलता। सार्थक संवाद और शोधपूर्ण लेखन विचारों को जिस तेजी से उद्वेलित करता है, उतना ही दूरगामी प्रभाव भी छोड़ता है। यही मूल अवधारणा होनी चाहिए प्रत्येक साहित्यिक आयोजनों की जैसी कि ‘पावस व्याख्यान माला’ की अवधारणा है। मैं तो यूं भी लेखन में शोधपूर्ण तथ्यात्मक लेखन की पक्षधर रही हूं। क्योंकि शोध और सत्य की मज़बूत जड़ें ही लेखन रूपी वृक्ष को फलदायी बनाती हैं।
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