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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, October 4, 2017

चर्चा प्लस ... कला राजनीतिक सीमाओं में न बंधे - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh

मेरा कॉलम चर्चा प्लस, सागर दिनकर में, इस बार उन विदेशी कलाकारों के बारे में जो बॉलीवुड से जुड़े हुए हैं। 04.10.2017...



चर्चा प्लस
कला राजनीतिक सीमाओं में न बंधे
- डॉ. शरद सिंह 


कला सीमाओं में नहीं बंधना चाहती है। यही कारण है कि कलाकार भी देश की सीमाओं को लांघ कर दूसरे देशों में अपनी कला का प्रदर्शन करने को आतुर रहते हैं। बॉलीवुड इसका अपवाद नहीं है। बॉलीवुड के कालाकार पाकिस्तानी फिल्मों में अभिनय करने गए तो पाकिस्तान से कई कलाकारों ने बॉलीवुड का रुख किया। इस समय तो अनेक देशों के कलाकार बॉलीवुड में अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं। वैसे भी वे नुकसानदायक नहीं हैं बल्कि भारतीय फिल्म इंडस्ट्री का प्रचार ही करते हैं फिर उनके आने से परहेज क्यां किया जाए? बेहतर है कि राजनीति में बांधने की बजाए कला को कला ही रहने दिया जाए। 
Charcha Plus Column by Dr Miss Sharad Singh in Sagar Dinkar Daily News Paper
‘मुझे जीवन भर इस बात का दुख रहा कि मुझे मेरी कला से नहीं बल्कि मेरी नस्ल से पहचाना गया। मैं विदेशी नहीं, भारतीय हूं। भारत मेरी जन्मभूमि है।’ यह कहा था टॉम आल्टर ने अपने एक साक्षात्कार में। इंग्लिश और स्कॉटिश पूर्वजों के अमेरिकी ईसाई मिशनरियों के पुत्र भारतीय नागरिक एवं भारतीय अभिनेता पद्मश्री स्व. टॉम आल्टर के पिता मसूरी में बस गए थे। उनके दादा दादी नवंबर 1916 में ओहियो से भारत आए थे। इलाहाबाद, जबलपुर और सहारनपुर में रहने के बाद, वे अंततः सन् 1954 में उत्तर प्रदेश में मसूरी में बस गए।
सच है, कलाकारों को उनकी नस्ल से नहीं बल्कि उनकी कला से पहचाना जाना चाहिए। उन्हें राजनीतिक सीमाओं में नहीं बांधा जाना चाहिए। फिर भी कभी-कभी राजनीति कला को बुरी तरह प्रभावित कर बैठती है। कश्मीर घाटी में उड़ी हमले के बाद महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने पाकिस्तानी कलाकारों को भारत से चले जाने का अल्टीमेटम दिया था और घोषणा की थी कि वो ऐसी फ़िल्मों को रिलीज़ नहीं होने देंगे जिनमें पाकिस्तानी कलाकारों ने काम किया हो। इस धमकी के कारण पाकिस्तानी कलाकारों की फिल्मों, उनके टीवी सीरियल्स का भारत में प्रदर्शन बंद करना पड़ा था। पाकिस्तान की राजनीतिक एवं सैन्य कुचेष्टाओं को ध्यान में रखते हुए यह विरोध स्वाभाविक था जिसका नुकसान उठाना पड़ा उन पाकिस्तानी कलाकारों को जो बॉलीवुड में निरंतर काम करना चाहते हैं। यह सर्वविदित है कि पाकिस्तान में भारतीय फिल्में बड़े चाव से देखी जाती हैं। ऐसे में भारतीय फिलमों में पाकिस्तानी कलाकारों को शामिल किया जाना पाकिस्तानी दर्शकों के लिए और भी आनन्ददायक होता है। यूं भी आमनागरिक किसी भी देश का हो, वह लड़ाई-झगड़े से दूर रहना चाहता है किन्तु राजनीतिज्ञ उन्हें भेड़ों के समान हांकते रहते हैं और कई बार वैमनस्य या आतंक के कुए की ओर बढ़ा देते हैं। जबकि भारतीय फिल्म इंडस्ट्री और भारतीय कलाकारों को आज सारी दुनिया प्रशंसा की दृष्टि से देखती है। नसीरुद्दीन शाह, ओमपुरी, नंदिता दास, जैसे कलाफिल्मों के कलाकारों से ले कर प्रियंका चोपड़ा, ऐश्वर्या राय, अनिल कपूर, सोनू सूद जैसे कामर्शियल फिल्मों के कलाकार भी हॉलीवुड में लोकप्रिय हो चुके हैं। जिस तरह हॉलीवुड दुनिया भर की नस्ल, जाति और धर्म के कलाकारों के लिए अपने दरवाज़े खुले रखता है, उसी प्रकार बॉलीवुड को भी स्वतंत्रता मिलनी ही चाहिए। कहते हैं न कि कला बंधनों से जितनी आजाद रहती है उतनी ही निखरती है।
श्रीदेवी अभिनीत फिल्म ‘मॉम’ जिसने में भी देखी होगी, वह उस फिल्म को भुला नहीं सका होगा। इस फिल्म की कहानी एक ऐसी मां के इर्द-गिर्द घूमती है जो अपनी बेटी के साथ गैंगरेप करने वालों को दण्ड देने के लिए कानून अपने हाथ में ले लेती है। इस फिल्म में पाकिस्तानी कलाकार अदनान सिद्दकी और सजल खान ने पिता-पुत्री की भूमिका निभाई थी। फिल्म देखते हुए किसी भी दर्शक को एक पल को भी यह नहीं लगा कि वे दोनों पाकिस्तानी कलाकार हैं। इससे पहले फिल्म ‘इंग्लिश मीडियम’ में इरफान खान की पत्नी की भूमिका में पाकिस्तानी अभिनेत्री सबा कमर अपने अभिनय के जलवे बिखेर चुकी है। सबा कमर ने जिस तरह ठेठ दिल्ली की मध्यमवर्गीय स्त्री जो अपने बेटी का दाखिला इंग्लिश मीडियम स्कूल में कराना चाहती है, की भूमिका निभाई उससे लगा ही नहीं कि उसका दिल्ली से कोई नाता है ही नहीं। क्योंकि कलाकार स्वयं को पात्र में ढाल लेता है। उस समय वह किसी देश का नागरिक नहीं बल्कि उस पात्र का जीवन होता है जिसे उसे जीवन्त करना है। पाकिस्तानी कलाकारों के भारत में प्रवेश पर हंगामें के बाद भी कई फिल्में प्रदर्शित हुईं जिनमें पाकिस्तानी कलाकारों की उपस्थिति की अलग से चर्चा नहीं हुई। रणवीर कपूर अभिनीत ‘तमाशा’ में उसके पिता की भूमिका पाकिस्तानी कलाकार जावेद शेख ने निभाई थी। इससे पहले विपाशा बसु की हॉरर फिल्म ‘क्रिएचर’ में हीरो की भूमिका में थे पाकिस्तान के गायक एवं अभिनेता इमरान अब्बास। सन् 2014 में सोनम कपूर अभिनीत फिल्म ‘खूबसूरत’ में नायक थे पाकिस्तान के मशहूर अभिनेता फवाद खान।
बॉलीवुड में विदेशी कलाकारों का प्रवेश वर्षों से होता आया है। राज कपूर की सुप्रसिद्ध फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ में सरकस की कलाकार के रूप में एडवर्ड जेराडा ने महत्वपूर्ण रोल किया था। यह फिल्म सुपर-डुपर हिट रही। इसमें राज कपूर का अभिनय काफी सराहा गया। फिल्म में असली सरकस दिखाया गया था, जिसके लिये सोवियत स्टेट सरकस से कलाकारों को बुलाया गया था। इसी सरकस में काम करने वाली एडवर्ड जेराडा ने एक ऐसी महिला का अभिनय किया जिसे राजकपूर अपना दिल दे बैठते हैं।
सन् 1979 में इंडो-रशियन सहयोग से बनी ‘अरेबीयन नाइट्स’ की मशहूर कथा पर आधारित फिल्म ‘अलीबाबा और चालीस चोर‘ में जाकिर मुख्वामेद्ज़नोव, सोफिको चिआउरेली, याकूब अख्मेदोव, रोलन बाईकोव आदि कई प्रसिद्ध रशियन कलाकारों ने अभिनय किया था। इस फिलम का डायरेक्शन भी उमेश मेहरा और रूसी फिल्म निदेशक लतीफ़ फैजियेव ने संयुक्त रूप से किया था। सन् 1984 में लतीफ़ फैजियेव ने एक और भारतीय फिल्म का निर्देशन किया जिसका नाम था ‘सोहनी महिवाल’। सनी देओल और पूनम ढिल्लो की प्रमुख भूमिका वाली इस फिल्म में जाकिर मुख्वामेद्ज़नोव, महेर मर्कतच्यान तथा कोमुरोवा ने महत्वपूर्ण रोल अदा किया था।
फिल्म ‘निकाह’ की पाकिस्तानी अभिनेत्री सलमा आगा भारतीय दर्शकों के दिलों पर भी छा गई थी। सलमा आगा के पूर्वपति पार्श्वगायक अदनान सामी को तो भारत इतना पसंद आया कि उन्होंने भारत की नागरिकता ही ग्रहण कर ली। फिल्म ‘हिना’ में हिना की भूमिका निभाई थी पाकिस्ता्नी अभिनेत्री ज़ेबा बख्तियार ने। यह फिल्म भारत ही नहीं बल्कि पाकिस्तान के सिनेमाघरों में खूब चली थी। इसमें हिना के साथ थे ऋषि कपूर। यह फिल्म् भारत-पाक बॉर्डर पर बसे गांवों में आये दिन होने वाले विवादों पर बनी बनाई गई थी। सन् 2007 में सलमान खान की फिल्म ‘मैरीगोल्ड’ में अली लार्टर ने बेहतरीन अदाकारी की। अली कार्टर अमेरिकी अभिनेत्री है जिसने हॉलीवुड की कई फिल्मों में काम किया है।
फिल्म ‘लगान’ में ब्रिटिश अभिनेत्री रशेल शैली की प्रभावी भूमिका थी। आमिर खान इस फिल्म् को ऑस्कर के लिये नॉमिनेट किया गया था। यह फिल्म देश भक्ति पर बनी है, जिसमें अंग्रेजों के शासन से मुक्ति पाने के लिये गांव वाले उनसे क्रिकेट मैच खेलते हैं। क्रिकेट का खेल सिखाने के लिये अंग्रेजों के साथ रहने वाली एलीज़ाबेथ रस्सेल यानी रशेल शैली आती हैं। उसी बीच वो भुवन यानी आमिर पर फिदा हो जाती हैं। रशेल शैली इंग्लैंड की मॉडल हैं। कई फिल्मों में काम कर चुकी हैं।
आमिर खान की ही ‘रंग दे बसंती’ में ब्रिटिश अभिनेत्री एलिस ने विदेशी महिला सू की भूमिका निभाई, जो डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाने भारत आती है। यह डॉक्यूमेंट्री भी ब्रिटिश नियमों पर आधारित होती है। ‘किसना’ फिल्म में कैथरीन की भूमिका निभाने वाली एंटोनिया बरनथ इंग्लैंड की अभिनेत्री हैं और कई हॉलीवुड फिल्में कर चुकी हैं। इन्होंन ने कैंब्रिज विश्वविद्यालय से पढ़ाई की है। यह फिल्म 2005 में आयी। फिल्म ‘काइट्स’ में बारबरा मोरी ने रितिक रौशन के साथ काम किया तो फिल्म ‘लव आजकल’ में ब्राजील की अभिनेत्री गिसेली मॉन्टे्रियो ने सैफ अली खान और दीपिका पादुकोण के साथ अभिनय किया। सैफ अली खान की फिल्म ‘एजेंट विनोद’ में स्विडशि मॉडल मरियम जकारिया ने फराह की भूमिका निभाई।
ब्रिटेन की कैटरीना कैफ, श्रीलंका की जैक्लीन फर्नांडीज की लोकप्रियता भारतीय दर्शकों के सिर चढ़ कर बोलती रही है। सलमान खान की ‘बॉडीगार्ड’ में ब्रिटिश मॉडल हज़ेल कीच ने भी यादगार रोल निभाया। स्वीडन की मॉडल एली अवराम ने जो पहले बिग बॉस में आयीं और फिर फिल्म ‘मिक्की वायरस’ में अपना कमाल दिखाया। पोर्न फिल्मों में काम करने वाली अभिनेत्री सन्नी लियोन को जिस तरह भारतीय फिल्म एवं विज्ञापन जगत में प्रमुखता से स्थान दिया वह भी अपने आप में एक मिसाल है।
यूं भी भारतीय सिने जगत में विदेशी कलाकार छोटे-बड़े रोल्स में आते रहते हैं।
कला सीमाओं में नहीं बंधना चाहती है। यही कारण है कि कलाकार भी देश की सीमाओं को लांघ कर दूसरे देशों में अपनी कला का प्रदर्शन करने को आतुर रहते हैं। बॉलीवुड इसका अपवाद नहीं है। बॉलीवुड के कालाकार पाकिस्तानी फिल्मों में अभिनय करने गए तो पाकिस्तान से कई कलाकारों ने बॉलीवुड का रुख किया। इस समय तो अनेक देशों के कलाकार बॉलीवुड में अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं। वैसे भी वे नुकसानदायक नहीं हैं बल्कि भारतीय फिल्म इंडस्ट्री का प्रचार ही करते हैं फिर उनके आने से परहेज क्यां किया जाए? बेहतर है कि राजनीति में बांधने की बजाए कला को कला ही रहने दिया जाए। इस संदर्भ में जाने-माने फ़िल्म समीक्षक मयंक शेखर की यह टिप्पणी मायने रखती है कि “जिस दिन हम कला, संस्कृति और राजनीति में फ़र्क करना बंद कर देंगे उस दिन बदले की भावना और नफ़रत के सिवा कुछ नहीं रह जाएगा।“
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