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My Editorials - Dr Sharad Singh

Saturday, August 18, 2018

चर्चा प्लस ...बुंदेलखंड की महिलाएं और सच्ची राजनीतिक भागीदारी - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस :
स्वतंत्रता से बढ़ कर कोई नेमत नहीं
- डॉ. शरद सिंह
जिन्होंने गुलामी की पीड़ा नहीं झेली उनके लिए आजादी के महत्व को महसूस करना ज़रा कठिन हो सकता है लेकिन वे बुजुर्ग स्वतंत्रता का सच्ची मूल्यवत्ता जानते हैं जिन्होंने कभी परतंत्रता में सांस ली थी। वह समय था जब देश भक्ति के तराने गाना भी अपराध था। आज अभिव्यक्ति की आजादी है जो उस समय नहीं थी। इस अभिव्यक्ति आजादी
का सम्मान करना भी तो हमारा कर्त्तव्य है। स्वतंत्रता एक नेमत है और इसे सम्हाल कर रखना हमारा दायित्व है। 
बुंदेलखंड की महिलाएं और सच्ची राजनीतिक भागीदारी - डॉ (सुश्री) शरद सिंह ... चर्चा प्लस ... Column of Dr (Miss) Sharad Singh in Sagar Dinkar News Paper
 
आज सुबह ही एक मित्र ने दुखी स्वर में कहा कि अब व्हाट्एप्प पर पांच से अधिक मैसेज एक साथ फारवर्ड नहीं किए जा सकते हैं। उन्हें दार्शनिक संदेश भेजने का शौक है। उनके संदेश किसी को नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। उनके संदेशों से किसी माबलिंचिंग की भी रत्ती भर संभावना नहीं रहती है। इसीलिए वे दुखी हैं कि उनके हानिरहित संदेश भी उनके सभी मित्रो के पास एक साथ नहीं पहुंच सकेंगे। अपना यही दुख उन्होंने मेरे सामने प्रकट किया। वे सरकार के प्रति रोषित थे। मैंने उन्हें समझाया कि सरकार को पांच संदेशों की सीमा बांधने की आवश्यकता क्यों पड़ी, यह भी तो सोचिए। देश में मॉबलिंचिंग की अधिकांश घटनाओं में व्हाट्सएप्प पर थोक के भाव भेजे गए संदेशों की अहम भूमिका रही। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए सरकार को यह कदम उठाना पड़ा। देखा जाए तो यह तो एक उदाहरण है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पाने और उसका दुरुपयोग करने का। इससे पहले मध्यप्रदेश सहित देश के विभिन्न राज्यों में हुए जातीय प्रदर्शनों के दौरान भी इसी तरह के दुरुपयोग का मामला सामने आया था। वस्तुतः हमें प्रजातंत्र के अंतर्गत जो अधिकार मिले हैं उनका सही दिशा में उपयोग करके हम मानवीय संबंधों को सुदृढ़ बना सकते हैं किन्तु उन्हीं अधिकारों का दुरुपयोग कर के अमानवीयता को बढ़ावा दे बैठते हैं। इसके बाद यदि पाबंदियों का चाबुक चलता है तो उसका प्रतिवाद करने का भी अधिकार हम खो चुके होते हैं।
अभी पिछले दिनों मेरी मां डॉ. विद्यावती ‘मालविका’ का एक संस्मरण एक दैनिक समाचारपत्र में प्रकाशित हुआ था जिसमें उन्होंने बताया था कि ‘‘ जिस रात देश की स्वतंत्रता की विधिवत घोषणा होनी थी और लाल किले पर तिरंगा फहराया जानेवाला था, उस रात हम सभी जागते रहे। उस समय टेलीविजन तो था नहीं, पूरे मोहल्ले में एक रेडियो था जिसको बीच आंगन में रख दिया गया था और हम सब उसे घेर कर बैठे रहे थे। तिरंगा फहराए जाने की घोषणा ने हमें रोमांचित कर दिया था। अद्भुत था वह पल।’’ मैंने मां से जब संस्मरण उनसे सुना और फिर प्रकसशित होने के बाद पढ़ा तो मैंने उस रोमांच को महसूस करने की कोशिश की जो मेरी मां ने उस समय अनुभव किया होगा। ईमानदारी से कहूं तो मैं उस रोमांच को शतप्रतिशत महसूस नहीं कर सकी क्योंकि मैंने भी परतंत्रता के वे काले दिन नहीं देखे हैं। फिर मैंने स्मरण किया उन बलिदानियों के जीवन का जिन्होंने देश को स्वतंत्र कराने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। भगत सिंह को जब फांसी की सजा दी गई उनकी आयु मात्र 23 वर्ष थी। लुधियाना के पास सराभा गांव के रहने वाले करतार सिंह को अंग्रेजों ने 19 साल की उम्र में ही फांसी दे दी थी। खुदीराम बोस की आयु उस मात्र 18 वर्ष थी जब उन्हें फांसी की सजा दी गई थी। इन युवाओं के आगे उनकी सारी उम्र पड़ी थी और युवावस्था के ढेर सारे सपने भी रहे होंगे लेकिन उन्होंने सबसे बड़ा स्वप्न देखा देश को आजाद कराने का और अपने इस सपने को पूरा करने के लिए अपने प्राण निछावर कर दिए। ये तो वे नाम हैं जिन्हें हमने सुन रखा है, जिनके बारे में हम जानते हैं जबकि अनेक ऐसे युवा थे जो स्वतंत्रता के समर में युद्धरत रहे और अंग्रेजों की बर्बता के तले कुचले गए। आत्मबलिदान के सागर से निकाल कर लाया गया स्वतंत्रता का मोती जब मिलने वाला रहा होगा तो रोमांचित होना स्वाभाविक था। बलिदानियों के बलिदान को याद करके मुझे उस रोमांच का अनुभव हुआ और उस पल मुझे लगा कि कितना जरूरी है युवाओं के लिए यह जानना की जो स्वतंत्रता हमें मिली है वह किसी थाली में परोस कर हमें नहीं दी गई है, उसे पाने के लिए हमारे बुजुर्गों ने असीमित कष्ट उठाया है। इसी तारतम्य में मुझे अपने नानाजी स्व. संत श्यामचरण सिंह के उस संस्मरण की याद ताज़ा हो गई जो वे हमें हमारे बचपन में सुनाया करते थे। नानाजी गांधीवादी थे। वे महात्मा गांधी के आदर्शों पर चल कर देश को स्वतंत्र कराना चाहते थे। वह लगभग 1946 की घटना थी। नानाजी उन दिनों वर्धा में थे। वे किसी गुप्त बैठक से वापस घर लौट रहे थे कि अचानक कर्फ्यू की घोषणा कर दी गई। प्रत्येक व्यक्ति को घर से निकलने की मनाही थी। नानाजी को इस बारे में पता नहीं था। वे सड़क पर कुछ दूर ही चले थे कि एक सिपाही ने उन्हें ललकारते हुए रुकने को कहा। नानाजी रुक गए। सिपाही ने उन्हें डांटते हुए उनसे पूछा कि क्या तुम्हें पता नहीं है कि कर्फ्यू के दौरान घर से नहीं निकलना चाहिए। नानाजी ने निर्भीकता से उत्तर दिया कि उन्हें कर्फ्यू के नियम तो पता हैं लेकिन यह पता नहीं था कर्फ्यू लग गया है। इस पर सिपाही तनिक नरम पड़ा। उसने नानाजी को घर में ही रहने की हिदायत देते हुए वहां से जाने दिया। जब हम नानाजी से पूछते थे कि आपको सिपाही से डर नहीं लगा था तो वे उत्तर देते थे कि नहीं वह सिपाही भारतीय था लेकिन अंग्रेजों का नमक खा रहा था, ऐसे गद्दार से डरने का सवाल ही नहीं था। हम और पूछते कि यदि वह आपके साथ मारपीट करता तो? इस नानाजी हंस कर कहते कि जब गांधी जी लाठियां खा सकते थे तो मैं क्यों नहीं? गांधी जी और मेरा पवित्र लक्ष्य तो एक ही था- देश की आजादी।
‘लक्ष्य’-हां, यदि लक्ष्य पवित्र हो तो व्यक्ति निर्भीक रहता है वरना ‘फेक आई’ के पीछे छिप कर जगहर उगलता रहता है और वातावरण दूषित करता है। ऐसे छद्मवेशी महानुभावों के कारनामों का ही यह दुष्परिणाम होता है कि सरकार को लगाम कसनी पड़ती है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में कटौती करनी पड़ती है और सद्विचारों वाले व्यक्तियों को भी इस कटौती की सजा को भुगतना पड़ता है। यह समझना होगा खुराफातियों को कि स्वतंत्रता का अर्थ अधिकारों का दुरुपयोग नहीं होता है। उन अपराधी मनोवृत्तिवालों को भी समझना होगा कि स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं होता है कि किसी मासूम बच्ची या किसी महिला के साथ बलात्कार किया जाए अथवा मॉबलिंचिंग की जाए। स्वतंत्रता का अर्थ यह भी नहीं है कि इस बात पर आरोप-प्रत्यारोप किए जाएं कि किस व्यक्ति या किसी राजनीतिक दल ने देश को आजादी दिलाई। स्वतंत्रता देश की सामूहिक आकांक्षा थी, देश का सामूहिक प्रयास था और यह देश की सामूहिक थाती है, इस पर किसी एक का सील-सिक्का नहीं लगाया जा सकता है। स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और इस अधिकार का सम्मान करना हमारा कर्त्तव्य है।
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