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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, September 12, 2018

चर्चा प्लस ... हिन्दी की उपेक्षा पर स्व. अटल जी की पीड़ा - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ... 
 हिन्दी की उपेक्षा पर स्व. अटल जी की पीड़ा
- डॉ. शरद सिंह
 
जब हमारी बात सुनी नहीं जाती है, मानने योग्य हो कर भी मानी नहीं जाती है तो क्षोभ होता है अपनी स्थिति पर। कुछ इसी तरह की पीड़ा से गुज़रे थे पूर्व प्रधानमंत्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी। हिन्दी के गहन समर्थक स्व. अटल जी देश में हिन्दी की उपेक्षा को देख कर तड़प उठे थे और वे कह उठे थे कि-‘अच्छा होता यदि मैं किसी अहिन्दी प्रांत में पैदा हुआ होता...’।
हिन्दी की उपेक्षा पर स्व. अटल जी की पीड़ा - डॉ. शरद सिंह .. चर्चा प्लस ... Column of Dr (Miss) Sharad Singh in Sagar Dinkar News Paper
अटल बिहारी भली-भांति जानते थे कि कब, कहां, क्या कहना है? अटल बिहारी अपने भाषण के श्रोताओं से अपने उद्गारों द्वारा सीधा सम्बन्ध स्थापित करने में माहिर रहे। चाहे साहित्यिक मंच हो, चाहे राजनीतिक मंच हो अथवा संसद हो, अटल बिहारी के ओजस्वी भाषणों को सभी ध्यानपूर्वक सुनते रहे हैं, यहां तक कि उनके राजनीतिक विरोधी भी उनके भाषणों की प्रशंसा करते रहे हैं। चाहे कितना भी आक्रामक विषय क्यों न हो, वे अपने भाषणों में शालीनता बनाए रखते और शब्दों की गरिमा बनाए रखते। ‘‘राष्ट्रवादी व्यक्तित्व अटल बिहारी वाजपेयी’’ को लिखने के दौरान मुझे स्व. अटल बिहारी वाजपेयी के विचारों को गहराई से जानने का अवसर मिला। मेरी यह किताब सन् 2015 में सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई। अपनी इसी किताब में सहेजा गया उनके भाषा के प्रमुख अंश मैं यहां प्रस्तुत कर रही हूं जो 22 फरवरी 1965 को राज्यसभा में राजभाषा नीति पर परिचर्चा के दौरान उन्हांने दिया था, इसमें हिन्दी की उपेक्षा के प्रति उनकी पीड़ा को स्पष्ट रूप से अनुभव किया जा सकता है- µ
‘‘सभापति जी! मेरा दुर्भाग्य है, मेरी मातृभाषा हिन्दी है। अच्छा होता यदि मैं किसी अहिन्दी प्रांत में पैदा हुआ होता क्योंकि तब अगर हिन्दी के पक्ष में कुछ कहता तो मेरी बात का ज्यादा वजन होता। हिन्दी को अपनाने का फैसला केवल हिन्दी वालों ने ही नहीं किया। हिन्दी की आवाज पहले अहिन्दी प्रांतों से उठी। स्वामी दयानंद जी, महात्मा गांधी या बंगाल के नेता हिन्दीभाषी नहीं थे। हिन्दी हमारी आजादी के आंदोलन का एक कार्यक्रम बनी और चौदह सूत्रीय कार्यक्रम के अंतर्गत उसका समावेश किया गया। हमारे संविधान का जो पहला मसविदा बना, उसमें अंग्रेजी के लिए पांच साल देना तय किया गया था, लेकिन श्री गोपालास्वामी अयंगार, श्री अल्लादि कृष्णास्वामी और श्री टी.टी. कृष्णमाचारी के आग्रह पर वह पांच साल की अवधि बढ़ाकर पन्द्रह साल की गयी। हिन्दी अंकों को अंतर्राष्ट्रीय अंकों का रूप नहीं दिया गया। राष्ट्रभाषा की जगह हिन्दी को राजभाषा कहा गया। उस समय अहिन्दी प्रान्तों से हिन्दी का विरोध नहीं हुआ था। संविधान में जो बातें थीं, उनका विरोध या तो राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन ने किया, जो अंग्रेजी नहीं चाहते थे या स्वर्गीय मौलाना आजाद ने किया, जो हिन्दी की जगह हिन्दुस्तानी चाहते थे, मगर दक्षिण में हिन्दी के विरोध में आवाज नहीं उठी थी, लेकिन पंद्रह साल में हमने क्या किया? यदि पन्द्रह साल में जैसा कि सभा ने निर्णय किया था और जैसा कि संविधान में लिखा गया था, हिन्दी पढ़ाने की व्यवस्था होती तो फिर आज जो परिस्थिति पैदा हो गई है, वह न होती, लेकिन केन्द्र तो मद्रास में हिन्दी नहीं ला सकता था। मद्रास की सरकार ने हिन्दी को अनिवार्य नहीं किया। अनिवार्यता हटा ली गयी। परीक्षाओं में पास होना भी अनिवार्य नहीं रहा और वहां हिन्दी की पढ़ाई एक मजाक बनकर रह गयी। जनता का राज जनता की भाषा में ही चलना चाहिए, मगर उत्तर प्रदेश में, बिहार में, राजस्थान में भी अंग्रेजी चल रही है क्योंकि सब नईदिल्ली की तरफ देखते हैं, दिल्ली से प्रेरणा लेते हैं। अगर नईदिल्ली और प्रांतों में हिन्दी नहीं चला सकती तो हिन्दी प्रांतों में उसे अंग्रेजी चलाने का अधिकार नहीं होगा।
मैं एक सुझाव देना चाहता हूं कि अगर हमारे गैर हिन्दी वाले हिन्दी को जोड़ भाषा, लिंक लैंग्वेज मानने के लिए तैयार नहीं हैं तो ईमानदारी से केवल मद्रास में, नईदिल्ली में कहना काफी नहीं है। अतुल्य बाबू संसद में कहेंगे कि हमने हिन्दी मान ली है, बंगाल में कहेंगे हिन्दी नहीं लदेगी। श्री कामराज रायपुर में कहेंगे हिन्दी चलनी चाहिए और वहां सिण्डीकेट के सदस्यों के साथ बैठकर हिन्दी के खिलाफ होने वाले आंदोलन में आहुति डालेंगे, यह दुरंगी बात, यह दोमुंही बात बंद होनी चाहिए। आप ईमानदारी से कहिए कि हम हिन्दी नहीं मानेंगे।
आप तय कर लीजिए कि आप कौन-सी भाषा मानते हैं। जिसकी भाषा हिन्दी नहीं है मैं उन्हें दावत देता हूं कि वे अपनी सभा कर लें और उसमें निश्चय कर लें कि हिन्दी जोड़ भाषा नहीं होगी, हिन्दी राजभाषा नहीं होगी और हम जो भाषा तय करते हैं, वह रहेगी और अगर वे सब मिलकर एक भाषा तय कर लेंगे तो हम हिन्दी वाले पंद्रह साल में उसको सीख कर दिखाएंगे। उसे हिन्दी वालों पर लाद दो, मगर अंग्रेजी को हटाओ। मगर वह खुद कोई भाषा तय नहीं करेंगे। हिन्दी नहीं चलने देंगे और हमारे ऊपर अंग्रेजी लादे रखना चाहते हैं।
एक सुझाव मैं और देना चाहता हूं। कहा जाता है कि झगड़ा नौकरियों का है, बच्चों का भविष्य क्या बनेगा? मेरा निवेदन है कि यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन के लिए अंग्रेजी चल रही है। यह सिफारिश पहले भी की गई थी कि अंग्रेजी के साथ हिन्दी और एक अन्य भारतीय भाषा का ज्ञान हर एक उम्मीदवार के लिए आवश्यक कर दिया जाए। अंग्रेजी में परीक्षा हो लेकिन उसके साथ हिन्दी का ज्ञान हो और हिन्दी के साथ एक भारतीय भाषा का ज्ञान अनिवार्य कर दिया जाए। अभी हिन्दी राज्यों में तीन भाषायी फार्मूला नहीं चल रहा। चलना चाहिए लेकिन जब तक नौकरी के लिए उसकी जरूरत नहीं होगी, कोई दक्षिण की भाषा नहीं पढ़ेगा। यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन के इम्तिहान में जो भी विद्यार्थी बैठे, उन्हें अपनी मातृभाषा के अलावा एक भारतीय भाषा अनिवार्य रूप से जाननी चाहिए। हिन्दी के अलावा एक और भाषा क्या हो, यह अहिन्दी वाले तय कर लें। अगर वे उर्दू तय करेंगे तो हम मान लेंगे। अगर वे पंजाबी के पक्ष में मत देंगे तो हम मान लेंगे मगर वे एक भाषा तय कर दें और हिन्दी प्रांतों के जो भी लड़के आएंगे, उन्हें उस भाषा का पढ़ना अनिवार्य कर दिया जाए। अगर उन्हें नौकरी लेनी है तो वे उस भाषा को पढ़ेंगे किन्तु नौकरियों के कारण देश के सांस्कृतिक विकास को रोका नहीं जा सकता। कितने लोग केन्द्रीय नौकरियों में आते हैं? चाहिए तो जनसंख्या के हिसाब से नौकरियों का कोटा तय कर दीजिए, चाहिए तो हिन्दी वालों को दस साल के लिए केन्द्रीय सेवाओं से वंचित कर दीजिए।
हम हिन्दी वालों को समझाएंगे जाकर, मगर चित भी मेरी, पट भी मेरी, यह नहीं चलेगा। नौकरियों के लिए ऐसा वातावरण पैदा करना कि देश की एकता खतरे में पड़ जाए, यह अच्छा नहीं है। इसलिए इस सवाल को जरा ऊंचे धरातल पर देखना होगा। अंग्रेजी पढ़ने में कितनी शक्ति, कितना समय, कितना धन खर्च होता है? हमारे श्री गोविन्द रेड्डी कह रहे थे कि अंग्रेजी का स्तर गिर रहा है, क्यों कि हवा बदल गई है, वातावरण बदल गया है। लड़के प्राथमिक शिक्षा, माध्यमिक शिक्षा अपनी भाषा में शुरू करते हैं और फिर उनके ऊपर अंग्रेजी लादी जाती है। यह केवल हिन्दी प्रांतों में नहीं है, अहिन्दी प्रांतों में भी है। मद्रास में तमिल को, बंगाल में बंगला को जो स्थान मिलना चाहिए, वह नहीं मिला। इसलिए नहीं कि राजभाषा हिन्दी हो गई, लेकिन इसलिए कि अंग्रेजी वहां पर अभी तक छाई हुई है। कुल दो फीसदी लोग अंग्रेजी जानते हैं। क्या वे चिरन्तन काल तक अठानवे फीसदी अंग्रेजी न जानने वालों पर राज करते रहेंगे? दो फीसदी लोग ऊंचे वर्ण के हैं, ऊंचे वर्ग के हैं और अठानवे फीसदी का शोषण करना चाहते हैं।
राष्ट्र की सच्ची एकता तब पैदा होगी जब भारतीय भाषाएं अपना स्थान ग्रहण करेंगी और अगर भारतीय भाषाएं हर जगह अपना स्थान ग्रहण कर लें तो फिर ‘लिंक लेंग्वेज’ के बनने में दो राय नहीं होंगी। अभी मद्रास में तमिल नहीं आई, बंगाल में बंगला नहीं आई। इसलिए वहां के लोगों को हिन्दी के खिलाफ भड़काया जा सकता है। एक बार वहां के आम आदमी समझ जाएं कि दो फीसदी अंग्रेजी जानने वाले हमें गुलाम रखने के लिए हिन्दी के विरोध का नारा लगा रहे हैं तो फिर अंग्रेजी नहीं रहेगी।’’
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( सागर दिनकर, 12.09.2018)


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