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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, October 24, 2018

चर्चा प्लस - शरद पूर्णिमा, महारास और संत प्राणनाथ के विचार - डॉ. शरद सिंह


Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ...
  शरद पूर्णिमा, महारास और संत प्राणनाथ के विचार
   - डॉ. शरद सिंह
 
बुंदेलखंड में पन्ना नगर एक ऐसा स्थान है जहां शरद पूर्णिमा के अवसर पर विदेशों से भी भक्तगण आते हैं और फिर होता है महारास का आयोजन। यह ‘महारास’ उस संत की एकेश्वरवादी प्रेरणा है जिन्हें हम महामति प्राणनाथ के नाम से जानते हैं। ये वही संत हैं जिन्होंने महाराज छत्रसाल को जानकारी दी थी कि पन्ना की भूमि में हीरे मौजूद हैं। उनके विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने की सत्रहवीं शताब्दी में थे।  
Charcha Plus Column by Dr (Miss) Sharad Singh
        
अच्छा लगता है यह सोच कर कि मेरी जन्मभूमि पन्ना (मध्यप्रदेश) मंदिरों की धनी है। एक से एक भव्य मंदिर और संतो के अद्वितीय विचारों ने पन्ना को न केवल बुंदेलखण्ड अपितु समूचे विश्व में एक अलग पहचान दी है। शरद पूर्णिमा आते ही दुनिया के कोने-कोने से श्रद्धालु पन्ना आने लगते हैं। ये भक्त जो प्रणामी धर्म को मानते हैं और संत प्राणनाथ के शब्दों में ‘सुंदर साथ’ कहलाते हैं, उनकी उमंग और उत्साह देखते ही बनता है। यह तो यूं भी शताब्दी वर्ष के रूप में महत्वपूर्ण है। मेरी माता जी डॉ. विद्यावती ‘मालविका’ ने महामति प्राणनाथ के जीवन, विचार और दर्शन का गहन अध्ययन किया है। उन्होंने एक पुस्तक भी लिखी है जिसका नाम है -‘‘महामति प्राणनाथ : एक युगान्तरकारी व्यक्तित्व’’। यह पुस्तक महामति प्रणनाथ के बारे में जानने के इच्छुक एवं प्रणामी धर्म के अनुयायियों के लिए तो विशेष महत्व की है ही, किन्तु मेरे लिए इसका एक महत्व यह भी है कि यह एक ऐसी किताब है जिसमें मां ने मुझे सहलेखिका के रूप में शामिल किया सत्रहवीं शताब्दी के इतिहास का अध्याय उन्होंने मुझसे लिखवाया। यदि मैं यह कहूं तो अतिशयोक्ति नहीं होगा कि अपनी मां के साथ सहलेखिका होने का सुख और गौरव मुझे महामति प्राणनाथ के अनुग्रह से मिला। आज ‘चर्चा प्लस’ में मैं महामति के विचारों की प्रासंगिकता का जो उल्लेख कर रही हूं वह मूलतः ‘‘महामति प्राणनाथ : एक युगान्तरकारी व्यक्तित्व’’ पुस्तक से ही लिया गया है।

मां के साथ पुस्तक लिखने के सिलसिले में मैंने भी महामति प्राणनाथ के विचारों एवं दर्शन का अध्ययन किया और उन्हें समझने का प्रयास किया। मैं यह देख कर चकित रह गई थी कि सत्रहवीं शताब्दी में, जिस समय औरंगजेब का शासन था, एक संत ने किस प्रकार धार्मिक एकता, भाषाई एकता और वैश्विक एकता का संदेश मुखर किया था। सखी भाव ग्रहण करते हुए उन्होंने भाषा के संबंध में कहा कि कि मैं ‘‘मैं कहूंगी हिन्दुस्तानी’’। यानी हिन्दुस्तान की भाषा हिन्दुस्तानी।

पन्ना महामति प्राणनाथ की कर्मस्थली, ध्यानस्थली और परिनिर्वाण स्थली रही, जबकि उनका जन्म सन् 1618 में गुजरात के जामनगर में दीवान केशव ठाकुर के घर हुआ था। मातापिता ने उनका नाम मेहराज ठाकुर रखा था जो आगे चल कर संत प्राणनाथ के नाम से विख्यात हुए। ‘श्री कुलजम स्वरूप’ ग्रंथ में संत प्राणनाथ की वाणी 524 प्रकरण 18758 चौपाइयों में संग्रहीत हैं।

छत्ता तेरे राज में, धक-धक धरती होय
जित-जित घोड़ा पग धरे, उत-उत हीर होय।।
यह आशीर्वाद दिया था महामति ने महाराज छत्रसाल को। महाराज छत्रसाल उन दिनों औरंगजेब के विरुद्ध संघर्षरत थे और उन्हें सैन्यबल के लिए धन की भी बहुत आवश्यकता थी। उसी दौरान संत प्राणनाथ बुंदेलखंड आए और महाराज छत्रसाल की भेंट उनसे हुई। संत प्राणनाथ उन्हें देखते ही उनके संकट को भांप गए और उन्होंने जानकारी दी कि पन्ना की भूमि साधारण नहीं है, इस भूमि में हीरे मौजूद हैं। इसके बाद ही पन्ना में हीरे-उत्खनन का कार्य आरम्भ हुआ।

संत प्राणनाथ ने कृष्ण को अपना ईश्वर माना। किन्तु उनके कृष्ण एकेश्वर थे। संत प्राणनाथ की भक्ति ‘सखीभाव’ की भक्ति थी। उनका मानना था कि परमात्मा एममात्र प्रिय है तो आत्माएं उसकी सखियां हैं। जब सखियां अपने प्रिय के साथ रास रचाती हैं तो ‘महारास’ का दृश्य बनता है और इस महारास के बाद परमात्मा और आत्माएं एकाकार हो जाती हैं। जब ईश्वर एक है, तो फिर झगड़ा किस बात का? संत प्राणनाथ ने यही तो कहा कि नाम सबके भले ही अलग-अलग हो, सबके आकार-प्रकार और स्वरूप अलग-अलग हों लेकिन ईश्वर तो एक ही है न, तो फिर आपस में झगड़ा क्यों किया जाए? -  
जुदे जुदे नामें गावहीं, जुदे जुदे भेख अनेक।
जिन कोई झगरो आप में, धनी सबों का एक।।

देश में आज भी मंदिर-मस्जिद का विवाद है। विश्वमंच पर धार्मिक कट्टरता के वशीभूत नृशंस हत्याएं की जा रही हैं। वर्तमान समय शुष्कता की हद तक संवेदनहीन हो चला है। भूमंडलीकरण और उपभोक्तावादी वातावरण में स्वार्थ की उत्तेजना के सम्मुख परमार्थ की संवेदना गौण हो गई है। मानव में भौतिक पदार्थों के प्रति ललक सीमाहीन हो चली है । आध्यात्मिक विचारों के प्रति उदासीनता ने मानव की चेतना को विकृत करके मानव को  असंवेदनशील बना दिया है। इसका एकमात्र कारण यही है कि मानव एक बार फिर उस सत्य को भूलने लगा है कि नाम चाहे जितनी भी हो किंतु परब्रह्म परमात्मा एक ही है। इस धरती के सभी मानव उसी परमात्मा से बिछड़ी हुई आत्माएं हैं, जो जगत लीला के अंतर्गत यहां प्रकट हुई है। संत प्राणनाथ ने एकेश्वर परब्रह्म के सत्य को ज्ञान की कसौटी पर परखने के बाद विश्व के सामने रखा था। उन्होंने मात्र कही सुनी बातों के आधार पर नहीं वरन वेद और कतेब ग्रंथों के गंभीरता पूर्वक अध्ययन के उपरांत अपने निष्कर्षों को प्रस्तुत किया था। दुर्भाग्यवश आज छोटे-छोटे मठाधीश अपने निहित स्वार्थों के कारण परब्रह्म के स्वरूप और धर्म के सूत्रों की मनमानी व्याख्या करने लगे हैं। इसलिए मानव मन एक बार फिर भ्रमित हो चला है। इस भ्रम के कोहरे ने सच्चे संतों और गुरुओं की वाणी की चमक को किसी ‘स्मॉग’ की तरह ढांक रखा है। यदि आज संत प्रणनाथ जैसे संतों के विचारों और उनकी वाणी को जनमानस आत्मसात करें तो यह विसंगतियों से परिपूर्ण विश्व-समाज ‘सुंदरसाथ’ में परिवर्तित हो सकता है।

संत प्राणनाथ का मानना था कि वैश्विक एकीकरण के लिए भी आध्यात्मिक एकीकरण पहले आवश्यक है। आज जब वैश्विक एकीकरण को साकार करने के प्रयास किए जा रहे हैं और इस प्रयास के अंतर्गत ‘यूरो मुद्रा’ भी चलाई जा रही है, फिर भी सच्चे अर्थों में वैश्विक एकीकरण नहीं हो पा रहा है। स्वार्थ प्रेरित मानसिक वैश्विक एकीकरण के प्रयासों को झकझोर देती है। यदि गंभीरता से विचार किया जाए तो यह तथ्य उभरकर सामने आता है कि वैश्विक एकीकरण के प्रयासों में कहीं कोई कमी अवश्य है, जिनके कारण यह सुंदर परिकल्पना साकार होने से बार-बार रह जाती है। जब हम संत प्राणनाथ के विचारों को पढ़ते हैं तो हमें अपने प्रयासों में मौजूद उस कमी का तत्काल पता चल जाता है। यह कमी है आध्यात्मिक एकीकरण की कमी। जब तक मानव इस भ्रम में रहेगा कि प्रत्येक देश जाति अथवा संस्कृति का अपना अलग देवता है तब तक वैश्विक एकीकरण का स्वप्न साकार नहीं हो सकेगा। संत प्राणनाथ ने तो 17 वीं शताब्दी में ही इस सत्य की ओर मानव समुदाय का ध्यान आकृष्ट था। ‘महारास’ उसी विश्व-एकता का स्वरूप है जो प्रत्येक वर्ष शरदपूर्णिमा को प्राणनाथ मंदिर के प्रांगण में आयोजित होता है।

आकाश में अमृत के कटोरे जैसा सुंदर चन्द्रमा, उस चन्द्रमा से फूटती प्रखर किरणें और दुनिया के कोने-कोने से आए लोग समस्त सांसारिकता भुला कर महारास में झूम उठते हैं। यह अलौकिक आनंद उसी भावना को साकार करता है जो संत प्राणनाथ ने वैश्विक एकता के रूप में प्रकट की थी। दरअसल,   संत महामती प्राणनाथ के विचार और दर्शन आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितने कि 17वीं शताब्दी में थे।
और अंत में संत प्राणनाथ की एक वाणी -
नाम सारों जुदे धरे, लई सबों जुदी रसम।
सब में उमत और दुनिया, सोई खुदा सोई ब्रह्म।।
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( सागर दिनकर, 24.10.2018)

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