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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, October 3, 2018

चर्चा प्लस ... संकटग्रस्त कौवे और श्राद्धपक्ष में भूखे पूर्वज - डॉ. शरद सिंह


Dr (Miss) Sharad Singh
इस बार श्राद्ध पक्ष के दौरान सभी ने महसूस किया कि कौवे नज़र नहीं आते हैं। सकी जो वज़ह मैंने पाई वह इस बार के 'चर्चा प्लस' में आपके सामने रख रही हूं...
 चर्चा प्लस …
  संकटग्रस्त कौवे और श्राद्धपक्ष में भूखे पूर्वज
    - डॉ. शरद सिंह
  श्राद्ध पक्ष आरम्भ होते ही आंखें कौवों को ढूंढने लग जाती हैं। हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार श्राद्ध पक्ष में यदि काग अर्थात् कौवे को खाना नहीं खिलाया गया तो पितरों यानी पूर्वजों को भी भूखा रहना पड़ता है। लेकिन अब श्राद्ध पक्ष में भी कौवों का मिलना मुश्क़िल होता जा रहा है। एक ओर हम कौवों को अपने पूर्वजों का दूत मानते हैं, ओर दूसरी ओर वृक्ष काट कर, रासायिक पदार्थों का उपयोग बढ़ा कर उनका घर उजाड़ रहे हैं, उन्हें मार रहे हैं, तो क्या ऐसा कर के हम अपने पूर्वजों को कष्ट नहीं पहुंचा रहे हैं? कौवे जैसे पक्षी हमारी परंपरागत मान्यताओं और पर्यावरण दोनों के संरक्षण लिए जरूरी हैं।                 
Charcha Plus .. Column Of Dr Sharad Singh in Sagar Dinkar, Daily
             

भारत में हिन्दू धर्म में श्राद्ध पक्ष के समय कौओं का विशेष महत्त्व है और प्रत्येक श्राद्ध के दौरान पितरों को खाना खिलाने के तौर पर सबसे पहले कौओं को खाना खिलाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि व्यक्ति मर कर सबसे पहले कौए का जन्म लेता है। मान्यता है कि कौओं को खाना खिलाने से पितरों को खाना मिलता है। जो व्यक्ति श्राद्ध कर्म करता है, वह एक थाली में भोजन परोसकर अपने घर की छत पर जाता है और आवाज़ दे कर कौवों को बुलाता है। कौवों के आने पर उन्हें भोजन और पानी दिया जाता है। जब कौआ घर की छत पर खाना खाने के लिए आता है तो यह माना जाता है कि जिस पूर्वज का श्राद्ध किया गया है, वह प्रसन्न है और खाना खाने आ गया है। कौए की देरी व आकर खाना न खाने पर माना जाता है कि वह पितर नाराज़ है और फिर उसको राजी करने के उपाय किए जाते हैं। इस दौरान हाथ जोड़कर अपनी प्रत्येक गलती के लिए उससे क्षमा मांगी जाती है। इसके बाद कौए को फिर भोजन दिया जाता है। जब कौवा भोजन कर लेता है तब माना जाता है कि पितर यानी पूर्वज ने भोजन ग्रहण कर लिया है। वह अब भूखा नहीं है और अपने वंशजों से प्रसन्न है।
पिछले कुछ वर्षों से यह पाया गया है कि कौवों की संख्या में निरंतर गिरावट आ रही है। पहले घर की मुंडेर पर बैठ कर कांव-कांव करते दिखाई-सुनाई दे जाते थे किन्तु अब महानगरों ओर शहरों में को कौवे कभी-कभार ही दिखते हैं। पक्षियों में एकता ओर सामाजिकता की मिसाल कायम करने वाले कौवे धीरे-धीरे विलुप्ति की ओर धकेले जा रहे हैं। यह एक गहन चिंता का विषय है। कौंवों की संख्या घटने का सबसे प्रमुख कारण है वृक्षों का कटना। आम, नीम, पीपल जैसे ऊंचे वृक्षों की शाखाओं में अपना घोंसला बनाने वाले कौवे अब अपना घोंसला कहां बनाएं जब वृक्षों को ही निमर्मता से काटा जा रहा है। जंगल सिमट रहे हैं और शहरों में वृक्षों के लिए कोई स्थान नहीं रह गया है। बाल्कनी या टेरेस में गमलों में सिकुडी-सिमटी हरियाली कौवों को पनाह नहीं दे सकती है। रासायनिक तत्वों से भरपूर वातावण, ध्वनि प्रदूषण और मोबाईल टावारों तथा अन्य तरंगों का संजाल उन पक्षियों के लिए घातक साबित हो रहा है जो  प्राकृतिक पदार्थों को खा कर जीवित रहते हैं और भूमि की चुम्बकीय तरंगों के सहारे आव्रजन-प्रव्रजन करते हैं। प्रदूषण के साथ-साथ सिमट रही बायो-डायवर्सिटी के कारण भी कौओं की संख्या तेजी से घटी है। वातावरण असंतुलन के कारण ही अनेक सुंदर पक्षियों की भांति कौए भी लुप्त होने की कगार पर आ गए हैं। मानव की खान-पान की आदतें बदली हैं। कौए गंदगी खाते हैं। कूड़ा अब पालीथिन में फेंका जाता है। मरे हुए जानवरों की हड्डियों तक में केमिकल होते हैं। खेतों में कीटनाशकों के रूप में जहर फैला हुआ है। अध्ययन से पता चला है कि ऑक्सीटोसिन के इंजेक्शन जिन पशुओं में लगाए जाते हैं, उनकी मौत के बाद मांस खाकर पक्षियों की किडनी बर्बाद हो गई। वह पक्षी विलुप्ति की कगार पर आ गए। यही कौओं के साथ भी हुआ है।
कौए की छः प्रजातियां भारत में मिलती हैं। भारत के ख्याति प्राप्त पक्षी विज्ञानी सालिम अली ने अपनी हैन्डबुक में कौवों की प्रमुख दो का प्रजातियों की चर्चा की है- एक जंगली कौआ (कोर्वस मैक्रोरिन्कोस) तथा दूसरा घरेलू कौआ (कोर्वस स्प्लेन्डेंस)। जंगली कौआ पूरी तरह से काले रंग का होता है, जबकि घरेलू कौआ गले में एक भूरी पट्टी लिए हुए होता है। घरेलू कौवे का वर्णन ’काग भुशुंडि’ नाम कवि तुलसीदास ने किया है, जिसके गले में कंठी माला-सी पड़ी है। पुराणों के अनुसार कौए अपनी मौत नहीं मरते। उन्हें अमरत्व का वरदान है। यह माना गया है कि इस अमरत्व गुण पर काग प्रजाति ने पितृलोक तक पहुंच बनाई है। इन्हें पितृलोक का संदेशवाहक माना गया है। यही कारण है कि श्राद्ध का नैवेद्य (कागुर) कौओं को चढ़ाया जाता है। पितृपक्ष नैवेद्य को कागुर कहा जाता है, जो काग को समर्पित है। रजो-तमोगुण का समावेश रहता है। श्राद्ध के लिए बनाया गया भोजन धार्मिक भावना को बढ़ाता है। साथ ही यह परलोक संबंधी ज्ञान और भक्तिभाव को विकसित करता है। यही कागुर काग को अर्पित किया जाता है। इस पर पांच विकल्पों का प्रावधान भी है। इनमें गोग्रास बलि, श्वान बलि, काग बलि, देवाधि बलि तथा पिपीलिकादि बलि शामिल है। काग बलि को सर्वाधिक महत्व इसलिए मिला है, क्योंकि शिवजी के गणों में काग भुशुंडि को स्थान मिला था। रामचरित मानस की घटनाओं पर काग भुशुंडि से शिवजी चर्चा किया करते थे। पृथ्वी लोक तथा देवलोक इनके लिए समान सुलभ थे। पृथ्वी लोक की सारी खबरें देवलोक, पितृलोक तक काग ही पहुंचाते थे। इसलिए इनका विशेष महत्व है। पितृपक्ष में कागुर के पांच भाग काग को चढ़ाए जाते हैं। एक भाग श्वान यानी कुत्ते को तथा एक भाग गौमाता के हिस्से चढ़ाने का उल्लेख पुराणों में दर्ज है। वहीं विष्णु भगवान को धरती का पालनहार माना जाता है तथा प्रभु राम को विष्णुजी का अवतार। पृथ्वी लोक की इस व्यवस्था में भोले भंडारी को संहार का देवता माना गया है। भगवान शिव के शीश पर चंद्रमा विराजमान हैं जहां पितृलोक स्थापित है। शिवजी ने काग भुषुंडि को अमरत्व का दिया था। सभी युगों में घटी घटनाओं के साक्षी रहे काग को शिवजी के गणों में शामिल किया गया है। इसी कारणवश काग बलि को प्राथमिकता दी जाती है। पुराणों में वर्णित काग भुषुंडि चरित्र से कौओं की विशिष्टताएं पता चलती हैं।
देखा जाए तो हमारे पूर्वज हमसे कहीं अधिक विद्वान और पर्यावरण हितैषी थे। उन्होंने उन पशु-पक्षियों को भी महत्व दिया जिन्हें आज उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता है। कौवे आज हैं या नहीं अथवा उनकी आबादी कितनी बची है, इसकी चिन्ता आमतौर पर किसी को नहीं है। जबकि कौवे पर्यावरण के अभिन्न अंग हैं। ये मानव जीवन के लिए खतरनाक कीट-पतंगों को अपना भोजन बनाकर हमारी रक्षा करते हैं । पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से पक्षियों का मानव जीवन में बहुत बड़ा महत्व है । आकाश में उड़ते ये पंखवाले परोपकारी जीव पर्यावरण की सफाई के बहुत बड़ा योगदान करते है । गिद्ध, कौआ, चील ऐसे पक्षी है जो मृत जानवरों के अवशिष्ट का सफाया करके धरती को साफ-सथुरा रखने में मदद करते हैं।
पर्यावरण संरक्षण के लिए यह जरूरी हो गया है कि हम पक्षियों को बचाने की दिशा में जागरूक हो जाएं। पक्षियों की संख्या यदि इसी तरह कम होती गई तो पर्यावरण में जो असंतुलन पैदा होगा उसका खामियाजा हमारी आने वाली पीढ़ियों को भोगना होगा । कौए, चील तथा ऐसे बड़े पक्षियों की प्रजाति पूरी तरह नष्ट हो जाए इससे पहले, आधुनिकता की अंधी दौड़ के नाम पर इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। वृक्षों को काट कर पक्षियों का घर उजाड़ कर यदि हम उन्हें अपनी प्रजाति बढ़ाने से रोकते हैं, उनकी आबादी को संकट में डालते हैं तो यह मान कर चलना चाहिए कि हम पर्यावरण ही नहीं बल्कि अपने धार्मिक मूल्यों ओर मान्यताओं की भी जड़े काट रहे हैं। यदि हम अपनी परम्परागत, संस्कारगत मानयताओं को बचाए रखना चाहते हैं और अपनी भावी पीढ़ी को विरासत में एक स्वस्थ पर्यावरण देना चाहते हैं तो हमें कौवे तथा संकटग्रस्त सभी पक्षियों का संरक्षण एवं संवर्द्धन करना ही होगा।
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       ( सागर दिनकर, 03.10.2018)

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