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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, December 12, 2018

चर्चा प्लस ...चुनाव-विजेता की याददाश्त और बुंदेलखंड की समस्याएं - डॉ. शरद सिंह

Dr Sharad Singh
चर्चा प्लस ... 

 चुनाव-विजेता की याददाश्त और बुंदेलखंड की समस्याएं
    - डॉ. शरद सिंह                                      
मतदान हुआ, मतगणना हुई और चुनावों के नतीजे भी आ गए। एक बार फिर सरकार का गठन और मंत्रीमंडल में नए-पुराने चेहरों के गणित। इसके ठीक पहले रिजर्वबैंक के गवर्नर उर्जित पटेल का इस्तीफा और अर्थशास्त्रियों के माथे पर चिन्ता की लकीरें। इन सबके बीच मध्यप्रदेश के पिछड़े हुए क्षेत्र बुंदेलखंड की समस्याओं का अंबार। कहावत हैं कि चुनावी विजेताओं की याददाश्त कमजोर होती है। चुनावों के दौरान किए गए वादे वे विजय के बाद भूलने लगते हैं। उम्मींद तो यही की जानी चाहिए कि इस बार के विजेताओं की यादाश्त तगड़ी निकले।    
चर्चा प्लस ...चुनाव-विजेता की याददाश्त और बुंदेलखंड की समस्याएं  - डॉ. शरद सिंह   Charcha Plus column of Dr (Miss) Sharad Singh
 बुंदेलखंड में राजनीति की फसल हमेशा लहलहाती रही है। यहां सूखे और भुखमरी पर हमेशा राजनीति गर्म रहती है। कभी सूखा राजनीति का मुद्दा बन जाता है तो कभी पीने का पानी, वाटर ट्रेन और घास की रोटियां। इस राजनीति में केंद्र और राज्य सरकारों के साथ सभी पार्टियों के नेता कूद पड़ते हैं। यह बात अलग है कि बुंदेलखंड के लोगों को सूखे और भूखमरी से भले कोई राहत न मिली हो लेकिन इन मुद्दों पर राजनीति खूब होती है। चुनाव जीतने के लिए भले ही जातीय समीकरण फिट किए जा रहे हों, लेकिन जनसभाओं में सभी नेता इन मुद्दों को हवा देते रहते हैं। 
बुंदेलखंड की भुखमरी भी सुर्खियों में रही है। यहां से खबरें आई कि लोग घास की रोटियां बनाकर खा रहे है। एनबीटी ने इस मुद्दे को जोर-शोर से उठाया था। सरकार ने इसे नकारा लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लेकर अपनी टीम मौके पर जांच के लिए भेजी। उस टीम को लोगों ने घास की रोटियां दिखाईं और बताया कि इनको ही खाकर वे जिंदा रहते हैं। मध्य प्रदेश में वर्ष 2017 में 760 किसान और खेतिहर मजदूरों ने आत्महत्या की. विधानसभा में जुलाई, 2017 में मध्यप्रदेश सरकार ने बताया था कि राज्य में सात माह में खेती से जुड़े कुल 599 लोगों ने खुदकुशी की, जिनमें 46 बुंदेलखंड से थे।
बुंदेलखंड को सन् 2007 में सूखाग्रस्त घोषित किया गया। 2014 में ओलावृष्टि की मार ने किसानों को तोड़ दिया। सूखा और और ओलावृष्टि से यहां के किसान अब तक नहीं उबर पाए हैं। खेती घाटे का सौदा बन गई है और किसान तंगहाली में पहुंच चुके हैं। यहां के किसान लगातार कर्ज में डूबते जा रहे हैं। लगभग 80 प्रतिशत किसान साहूकारों और बैंको के कर्जे में डूबे हैं। ओलावृष्टि के दौरान तो सैकड़ों किसानों ने आत्महत्याएं तक कर लीं। इन आत्महत्याओं की वजह से ही बुंदेलखंड देश भर में सुर्खियों में रहा। अब भी हर साल यहां से किसानों की आत्महत्या की खबरें आती रहती हैं। नदियों और प्राकृतिक वॉटरफॉल वाले इस क्षेत्र में मैनेजमेंट न होने के कारण लोग बूंद-बूद पानी के लिए तरसते रहते हैं। पिछले साल 2016 में यहां पीने के पानी की ऐसी समस्या हुई कि केंद्र सरकार को ‘‘वाटर ट्रेन’’ भेजनी पड़ी। यद्यपिइ स पर खूब राजनीति हुई। कई गांव ऐसे हैं जहां 10 किलोमीटर से भी ज्यादा दूर से पीने का पानी लाना पड़ता है।
अवैध खनन के कारण भी बुंदेलखंड हमेशा चर्चा में रहा है। हर साल सैकड़ों करोड़ रुपये का अवैध खनन होता है। अवैध खनन के लिए खनन माफिया ने कुछ नदियों तक का रुख ही मोड़ दिया। प्रकृतिविद् मानते हैं कि बुंदेलखंड में अकाल जैसे हालात की असल कारण खनन है। जलपुरुष राजेंद्र सिंह कहते हैं- ‘‘नदियों की कोख चीरकर खनन हो रहा है। नदियां गड्ढों में तब्दील हो गई हैं। किसी भी नदी में मौरंग और बालू उसका जीवन होते हैं। जब इन्हें अंधाधुंध निकाला जाएगा तो नदियां कैसे रहेंगी? वह कहते हैं, नदियों का जीवन खत्म होने का मतलब भूजल समाप्त हो जाना है। आज यही सब हो रहा है, यही वजह है कि प्राकृतिक रूप से बने झील और तालाब भी सूख जाते हैं। बोरिंग करके पानी निकालना मुश्किल काम है क्योंकि यहां पानी बहुत नीचे चला गया है। कोई बोरिंग कराए भी तो वह साल-डेढ़ साल से ज्यादा नहीं टिकती। राजेंद्र सिंह कहते हैं कि अंधाधुंध खनन पर रोक लगनी चाहिए।’’
 बुंदेलखंड में खनिज भरा पड़ा है, लेकिन उससे जुड़े उद्योग नहीं हैं। ग्रेनाइट, पाइरोफाइलाइट, सिल्का सेंट, फर्शी पत्थर, बॉक्साइट, लौह अयस्क सहित कई तरह के खनिज होते हैं लेकिन उद्योग न के बराबर हैं। बुंदेलखंड में खेती खत्म होने, उद्योग न होने और बेरोजगारी-भुखमरी के कारण लोग पलायन कर रहे हैं। पलायन इस क्षेत्र के लिए एक बड़ा मुद्दा बन चुका है। जानकारों के मुताबिक 10 साल मे करीब 50 लाख लोग पलायन कर चुके हैं। किसानों ने खेती छोड़ दी है और बाहर मजदूरी कर रहे हैं। पर्यटन के लिहाज से बुंदेलखंड में चित्रकूट सहित कई जगहों का धार्मिक महत्व है। इसके अलावा जंगल, झीलें, नदियां, वाटर फॉल, किले सहित कई दर्शनीय स्थल हैं। लेकिन रखरखाव और आवागमन के साधन न होने की वजह से सभी बदहाल हैं।
बुंदेलखंड में भी पिछले दशकों में पुरुषां की अपेक्षा स्त्रियों का अनुपात तेजी से घटा और इसके लिए कम से कम सरकारें तो कदापि जिम्मेदार नहीं हैं। यदि कोई जिम्मेदार है तो वह परम्परागत सोच कि बेटे से वंश चलता है या फिर बेटी पैदा होगी तो उसके लिए दहेज जुटाना पड़ेगा। बुंदेलखंड में औरतों को आज भी पूरी तरह से काम करने की स्वतंत्रता नहीं है। गांव और शहरी क्षेत्र, दोनों स्थानों में जिन तबकों में शिक्षा का प्रसार न्यूनतम है, ऐसे लगभग प्रत्येक परिवार की एक ही कथा है कि आमदनी कम और खाने वाले अधिक। आर्थिक तंगी के कारण अपने बच्चों को शिक्षा के बदले काम में लगा देना इस प्रकार के अधिकांश व्यक्ति अकुशल श्रमिक के रूप में अपना पूरा जीवन व्यतीत कर देते हैं। ठीक यही स्थिति इस प्रकार के समुदाय की औरतों की रहती है। ऐसे परिवारों की बालिकाएं अपने छोटे भाई-बहनों को सम्हालने और अर्थोपार्जन के छोटे-मोटे तरीकों में गुज़ार देती हैं। इन्हें शिक्षित किए जाने के संबंध में इनके माता-पिता में रुझान रहता ही नहीं है। ‘लड़की को पढ़ा कर क्या करना है?’ जैसा विचार इस निम्न आर्थिक वर्ग पर भी प्रभावी रहता है। इस वर्ग में बालिकाओं का जल्दी से जल्दी विवाह कर देना उचित माना जाता है। ‘आयु अधिक हो जाने पर अच्छे लड़के नहीं मिलेंगे’, जैसे विचार अवयस्क विवाह के कारण बनते हैं। छोटी आयु में घर-गृहस्थी में जुट जाने के बाद शिक्षित होने का अवसर ही नहीं रहता है। 
अन्य प्रदेशों की भांति बुंदेलखंड में भी ओडीसा तथा आदिवासी अंचलों से अनेक लड़कियां  को विवाह करके लाया जाता हैं। यह विवाह सामान्य विवाह नहीं है। ये अत्यंत ग़रीब घर की लड़कियां होती हैं जिनके घर में दो-दो, तीन-तीन दिन चूल्हा नहीं जलता है, ये उन घरों की लड़कियां हैं जिनके मां-बाप के पास इतनी सामर्थ नहीं है कि वे अपनी बेटी का विवाह कर सकें, ये उन परिवारों की लड़कियां हैं जहां उनके परिवारजन उनसे न केवल छुटकारा पाना चाहते हैं वरन् छुटकारा पाने के साथ ही आर्थिक लाभ कमाना चाहते हैं। ये ग़रीब लड़कियां कहीं संतान प्राप्ति के उद्देश्य से लाई जा रही हैं तो कहीं मुफ़्त की नौकरानी पाने की लालच में खरीदी जा रही हैं। इनके खरीददारों पर उंगली उठाना कठिन है क्योंकि वे इन लड़कियों को ब्याह कर ला रहे हैं। इस मसले पर चर्चा करने पर अकसर यही सुनने को मिलता है कि क्षेत्र में पुरुष और स्त्रियों का अनुपात बिगड़ गया है। लड़कों के विवाह के लिए लड़कियों की कमी हो गई है। बुंदेलखंड में किए गए लगभग सभी आंदोलनों एवं विकास की तमाम मांगों के बीच स्त्रियों के लिए अलग से कभी कोई मुद्दा नहीं उठाया गया जिससे विकास की वास्तविक जमीन तैयार हो सके। यदि परिवार की स्त्री पढ़ी-लिखी होगी, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होगी तो वह अपने बच्चों के उचित विकास के द्वारा आने वाली पीढ़ी को एक विकसित दृष्टिकोण दे सकेगी। इसी विचार के साथ ‘बेटी बचाओ’ और ‘बालिका शिक्षा’, ‘जननी सुरक्षा’ जैसे सरकारी अभियान चलाए जा रहे हैं। बस, आवश्यकता है इन अभियानों से ईमानदारी से जुड़ने की। 
बुंदेलखंड एक ऐसा भू-भाग है जिसका गौरवशाली इतिहास है। यहां के लोग आक्रमणकारियों के आगे कभी नहीं झुके। स्वतंत्रता आंदोलन में भी कंधे से कंधा मिला कर योगदान दिया और अपने प्राणों की बलि दी। यह कहा जाता है कि अंग्रेजों के शासनकाल में सिर्फ़ इसीलिए बुंदेलखंड को विकास की सुविधाओं से वंचित रखा गया जिससे यहां के लोग ब्रिटिश हुकूमत का प्रतिरोध करने के लिए संसाधन न जुटा सकें। देश गुलामी से स्वतंत्र हुआ, अंग्रेज भारत छोड़ कर चले गए किन्तु दुर्भाग्यवश बुंदेलखंड में विकास की गति कछुआ चाल ही रही। आज भी यह इलाका रेल यातायात की समुचित जुड़ाव के लिए तरस रहा है। आज देश की आर्थिक दशा अनेक उतार-चढ़ाव से गुज़र रही है। ऐसे में बुंदेलखंड जैसे पिछड़े क्षेत्र का ध्यान रखा जलाना और अधिक जरूरी है। क्यों कि कमजोर ही पहले टूटता है और जो टूटा हुआ ही हो उसे सम्हालना और अधिक चुनौती भरा काम है। आज के तकनीकी विकास के आगे यहां की भौगोलिक कठिनाइयों का बहान नहीं किया जा सकता है। यदि कहीं कोई कमी दिखाई देती है तो बुंदेलखंड के विकास की दृढ़ इच्छाशक्ति की। जिन चुनावी विजेताओं ने चुनाव के दौरान अपनी इच्छाशक्ति का दम भरा था, आशा की जानी चाहिए कि वे अपने वादों को भुलाएंगे नहीं और बुंदेलखंड के पक्ष में एक स्वर्णिम अध्याय लिखेंगे।    
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 12.12.2018)
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