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My Editorials - Dr Sharad Singh

Thursday, January 31, 2019

गुम हो रहे बुंदेलखंड से बच्चे और बेख़बर हम - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

Dr (Miss)Sharad Singh
'नवभारत' , 31.01.2019 में #बुंदेलखंड से गुम होते बच्चों पर मेरा प्रकाशित लेख ... इसे आप भी पढ़िए...
🙏हार्दिक आभार #नवभारत 🙏

  गुम हो रहे बुंदेलखंड से बच्चे और बेख़बर हम              - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
    देश में प्रतिदिन औसतन चार सौ महिलाएं और बच्चे लापता हो जाते हैं और इनमें से अधिकांश का कभी पता नहीं चलता। हर साल घर से गायब होने वाले बच्चों में से 30 फीसदी वापस लौटकर नहीं आते। नाबालिगों की गुमशुदगी का आंकड़ा साल दर साल बढ़ रहा है। बुंदेलखंड इससे अछूता नहीं है। बच्चों के गुम होने के आंकड़े बुंदेलखंड में भी बढ़ते ही जा रहे हैं। सागर के अलावा टीकमगढ़, दमोह और छतरपुर जिलों से भी कई बच्चे गुम हो चुके हैं। चंद माह पहले सागर जिले की खुरई तहसील में एक किशोरी को उसके रिश्तेदार द्वारा उसे उत्तर प्रदेश में बेचे जाने का प्रयास किया गया। वहीं बण्डा, सुरखी, देवरी, बीना क्षेत्र से लापता किशोरियों का महीनों बाद भी अब तक कोई पता नहीं है। इन मामलों में ह्यूमेन ट्रेफिकिंग की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है।
गुम हो रहे बुंदेलखंड से बच्चे और बेख़बर हम - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह, Gum ho rahe Bundelkhand se Bachhe aur Bekhabar Hum - An Article of Dr (Miss) Sharad Singh in Navbharat, 31.01.2019 
सागर, टीकमगढ़, दमोह और छतरपुर जिलों से जनवरी 2018 से अगस्त 2018 के बीच 513 किशोर-किशोरी लापता हुए हैं। इनमें से करीब 362 बच्चे या तो स्वयं लौट आए या पुलिस द्वारा उन्हें विभिन्न स्थानों से दस्तयाब किया गया। लेकिन अब भी 151 से ज्यादा बच्चों को कोई पता ही नहीं चला है। वर्ष 2018 में जिले में किशोर-किशोरियों की गुमशुदगी के आंकड़ों में पहले की अपेक्षा बहुत अधिक है। कुल 178 गुमशुदगी दर्ज हुए मामलों में किशोरों की संख्या लगभग 55 थी और किशोरियों 123 थी।  वर्ष 2015 में गुमशुदगी का आंकड़ा 136 था जो 2016 में 167 और पिछले साल 2017 में 215 तक पहुंच गया था। इन आंकड़ों को देखते हुए इस वर्ष 2018 के दिसम्बर तक यह संख्या ढाई सौ के आसपास पहुंच गई थी। लापता होने वालों में सबसे ज्यादा 14 से 17 आयु वर्ग के किशोर-किशोरी होते हैं। इनमें भी अधिकांश कक्षा 9 से 12 की कक्षाओं में पढ़ने वाले स्कूली बच्चे हैं।
आखिर महानगरों के चौराहों पर ट्रैफिक रेड लाइट होने के दौरान सामान बेचने या भीख मांगने वाले बच्चे कहां से आते हैं? इन बच्चों की पहचान क्या है? अलायंस फॉर पीपुल्स राइट्स (एपीआर) और गैर सरकारी संगठन चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राइ) द्वारा जब पड़ताल की गई तो पाया गया कि उनमें से अनेक बच्चे ऐसे थे जो भीख मंगवाने वाले गिरोह के सदस्य थे। माता-पिता विहीन उन बच्चों को यह भी याद नहीं था कि वे किस राज्य या किस शहर से महानगर पहुंचे हैं। जिन्हें माता-पिता की याद थी, वे भी अपने शहर के बारे में नहीं बता सके। पता नहीं उनमें से कितने बचचे बुंदेलखंड के हों। बचपन में यही कह कर डराया जाता है कि कहना नहीं मानोगे तो बाबा पकड़ ले जाएगा। बच्चे अगवा करने वाले कथित बाबाओं ने अब मानो अपने रूप बदल लिए हैं और वे हमारी लापरवाही, मजबूरी और लाचारी का फायदा उठाने के लिए नाना रूपों में आते हैं और हमारे समाज, परिवार के बच्चे को उठा ले जाते हैं और हम ठंडे भाव से अख़बार के पन्ने पर एक गुमशुदा की तस्वीर को उचटती नज़र से देख कर पन्ने पलट देते हैं। यही कारण है कि बच्चों की गुमशुदगी की संख्या में दिनोंदिन बढ़ोत्तरी होती जा रही है। बच्चों के प्रति हमारी चिन्ता सिर्फ अपने बच्चों तक केन्द्रित हो कर रह गई है।
मध्यप्रदेश राज्य सीआईडी के किशोर सहायता ब्यूरो से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार हाल ही के वर्षों में बच्चों के लापता होने के जो आंकड़ें सामने आए हैं वे दिल दहला देने वाले हैं।  2010 के बाद से राज्य में अब तक कुल 50 हजार से ज़्यादा बच्चे गायब हो चुके हैं। यानी मध्यप्रदेश हर दिन औसतन 22 बच्चे लापता हुए हैं। एक जनहित याचिका के उत्तर में यह खुलासा सामने आया। 2010-2014 के बीच गायब होने वाले कुल 45 हजार 391 बच्चों में से 11 हजार 847 बच्चों की खोज अब तक नहीं की जा सकी है, जिनमें से अधिकांश लड़कियां थीं। सन् 2014 में ग्वालियर, बालाघाट और अनूपुर ज़िलों में 90 फीसदी से ज़्यादा गुमशुदा लड़कियों को खोजा ही नहीं जा सका। ध्यान देने वाली बात ये है कि लड़कों की अपेक्षा लड़कियों के लापता होने की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है जो विशेषरूप से 12 से 18 आयु वर्ग की हैं। निजी सर्वेक्षकों के अनुसार लापता होने वाली अधिकांश लड़कियों को ज़बरन घरेलू कामों और देह व्यापार में धकेल दिया जाता है। पिछले कुछ सालों में एक कारण ये भी सामने आया है कि उत्तर भारत की लड़कियों को अगवा कर उन्हें खाड़ी देशों में बेच दिया जाता है। इन लड़कियों के लिए खाड़ी देशों के अमीर लोग खासे दाम चुकाते हैं। बदलते वक्त में अरबों रुपए के टर्नओवर वाली ऑनलाइन पोर्न इंडस्ट्री में भी गायब लड़कियों-लड़कों का उपयोग किया जाता है। इतने भयावह मामलों के बीच भिक्षावृत्ति तो वह अपराध है जो ऊपरी तौर पर दिखाई देता है, मगर ये सारे अपराध भी बच्चों से करवाए जाते हैं।
बच्चों के लापता होने के पीछे सबसे बड़ा हाथ होता है मानव तस्करों का जो अपहरण के द्वारा, बहला-फुसला कर अथवा आर्थिक विपन्ना का लाभ उठा कर बच्चों को ले जाते हैं और फिर उन बच्चों का कभी पता नहीं चल पाता है। इन बच्चों के साथ गम्भीर और जघन्य अपराध किए जाते हैं जैसे- बलात्कार, वेश्यावृत्ति, चाइल्ड पोर्नोग्राफी, बंधुआ मजदूरी, भीख मांगना, देह या अंग व्यापार आदि। इसके अलावा, बच्चों को गैर-कानूनी तौर पर गोद लेने के लिए भी बच्चों की चोरी के मामले सामने आए हैं। आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों के बच्चे मानव तस्करों के आसान निशाना होते हैं। वे ऐसे परिवारों के बच्चों को अच्छी नौकरी देने के बहाने आसानी से अपने साथ ले जाते हैं। ये तस्कर या तो एक मुश्त पैसे दे कर बच्चे को अपने साथ ले जाते हैं अथवा किश्तों में पैसे देने का आश्वासन दे कर बाद में स्वयं भी संपर्क तोड़ लेते हैं। पीड़ित परिवार अपने बच्चे की तलाश में भटकता रह जाता है।
सच तो यह है कि बच्चे सिर्फ़ पुलिस, कानून या शासन के ही नहीं प्रत्येक नागरिक का दायित्व हैं और उन्हें सुरक्षित रखना भी हर व्यक्ति की जिम्मेदारी है, चाहे वह बच्चा किसी भी धर्म, किसी भी जाति अथवा किसी भी तबके का हो।
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(दैनिक ‘नवभारत’, 31.01.2019)
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Wednesday, January 30, 2019

चर्चा प्लस ... राजनीति में बिगड़े बोलों का बोलबाला - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ...
राजनीति में बिगड़े बोलों का बोलबाला
- डॉ. शरद सिंह
चुनाव आते-आते नेताओं की जबान कुछ अधिक ही फिसलने लगती है और वे देश और जनता की समस्याओं पर बोलने के बजाए प्रतिद्वंद्वी दलों की महिलाओं पर अपशब्द बोलने लगते हैं। यही गति रही तो कहीं जनता इन्हीं बोलों के आधार पर उन्हें खारिज़ करना न शुरू कर दें। जिन कर्णधारों को जनता चुन कर विधान सभा और संसद में भेजती है जब वे ही लोग बिगड़े बोल बोलने लगें को तो हो चुका देश का उद्धार। भारतीय राजनीति में ऐसी फिसलन पहले कभी नहीं रही जैसे विगत कुछ चुनावों के दौरान और चुनावों के बाद देखने-सुनने को मिल रही है। 
चर्चा प्लस ... राजनीति में बिगड़े बोलों का बोलबाला  - डॉ. शरद सिंह  Charcha Plus - Rajniti Me Bigare Bolon Ka Bolbala -  Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh in Sagar Dinkar

  चुनाव नजदीक आते ही वादों-विवादों का दौर चल पड़ता है। एक दूसरे की टांग खींचने का कार्यक्रम शुरू हो जाता है। यदि मामला एक-दूसरे के भ्रष्टाचार या कामों तक सीमित रहे तो फिर भी गनीमत है, कान तो तब गर्म होने लगते हैं जब अपनी भड़ास निकालने और दूसरे को नीचा दिखाने के लिए महिलाओं को निशाना बनाया जाता है। उस समय सोचने को विवश होना पड़ता है कि क्या ये वही हमारे कर्णधार हैं जिनके हाथों में देश के विकास और सुरक्षा की बागडोर हमने सौंपी है।
आज राजनीतिक गलियारों में भाषा स्वयं शर्मिंदा हो रही है। जब बात हो जबान फिसलने की तो राजनीतिक दलों के भी भेद मिट जाते हैं। स्वयं को संस्कारी कहने वाले दल भी असंस्कारी भाषा बोलने लगते हैं। चाहे सत्ताधारी हो या विपक्षी दोनों एक-दूसरे से आगे बढ़ कर अशोभनीय टिप्पणियां करने लगते हैं। मकसद सिर्फ यही कि वे मीडिया में छाए रहें। कई नेता तो अपने विकास कार्यों नहीं बल्कि अपनी ओछी टिप्पणियों के लिए ही जाने जाते हैं। क्योंकि उन्होंने विकास कार्य किया ही नहीं होता है और इसे छिपाने के लिए अभद्र टिप्पणियों का सहारा लेने लगते हैं। जिससे सभी का ध्यान बंटा रहे। नेताओं के विवादित और फूहड़ बोल हमेशा मीडिया में छाए रहते हैं और आमतौर पर इन नेताओं के निशाने पर महिलाएं होती हैं, फिर चाहे वह महिला राजनीति से जुड़ी हो या नहीं। उनके लिए महिलाएं आसान निशाना होती हैं, क्योंकि इनके रंग, रूप, कद-काठी, मोटापे या बालों को लेकर कुछ भी बोलने पर अच्छा-खासा कव्हरेज मिल जाता है।
अभी विगत दिनों भारतीय जनता पार्टी के महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने कहा था कि कांग्रेस चॉकलेटी चेहरों पर चुनाव लड़ना चाहती है। उन्होंने बाद में सफाई भी दी, यह बयान प्रियंका गांधी के लिए नहीं बल्कि बॉलिवुड ऐक्टर्स के लिए था। अब इसी पर मध्य प्रदेश सरकार में मंत्री सज्जन सिंह वर्मा ने कहा है कि बीजेपी का दुर्भाग्य है कि उनकी पार्टी में खुरदुरे चेहरे हैं। सज्जन सिंह वर्मा ने बॉलिवुड अदाकारा और बीजेपी सांसद हेमा मालिनी पर भी टिप्पणी की। उन्होंने कहा, ‘’बीजेपी का दुर्भाग्य है कि उनकी पार्टी में खुरदुरे चेहरे हैं, ऐसे चेहरे जिनको लोग नापसंद करते हैं। एक हेमा मालिनी है, उसके जगह-जगह शास्त्रीय नृत्य कराते रहते हैं, वोट कमाने की कोशिश करते हैं। चिकने चेहरे उनके पास नहीं हैं।’’
भाजपा नेता और राज्यसभा सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी ने उनके खिलाफ विवादित बयान देते हुए प्रियंका को मानसिक बीमारी का शिकार बताया और कहा कि प्रियंका को सार्वजनिक जीवन में काम नहीं करना चाहिए। स्वामी ने प्रियंका के सक्रिय राजनीति में आने के फैसले पर कहा कि ‘‘उसको एक बीमारी है जो सार्वजनिक जीवन में अनुकूल और उपयुक्त नहीं है। उस बीमारी को बायपॉलट्री कहते हैं, यानी उसका चरित्र हिंसक है। लोगों को पीटती है। पब्लिक को पता होना चाहिए कि वह कब संतुलन खो बैठेगी, किसी को पता नहीं है।’’ इस तरह की अशोभनीय टिप्पणी करने पर संबंधित महिला के चरित्र का हनन होता हो या नही,ं पर टिप्पणी करने वाले नेता का मानसिक चरित्र जरूर सामने आ जाता है।
कुछ दशक पूर्व बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने बिहार की सड़कों की तुलना हेमा मालिनी के गालों से करते हुए कहा था कि ‘‘हम बिहार की सड़कों को हेमा मालिनी के गालों की तरह चिकना बना देंगे।’’ तब हेमा मालिनी के गालों जैसी चिकनी सड़कों का उनका जुमला काफी चर्चित हुआ था। फिर इसी जुमले को अप्रैल 2013 में उत्तर प्रदेश के खादी और ग्रामोद्योग मंत्री राजा राम पांडेय ने दोहरा दिया था। पांडेय ने यह विवादित बयान यूपी के प्रतापगढ़ में दिया था। उन्होंने पत्रकारों से कहा था, ’बेला की सड़कें हेमा मालिनी के गालों जैसी चमकेंगी। अभी तो फेशल हो रहा है।’ बेहतर यह हुआ कि सड़कों की तुलना हेमा मालिनी के गालों से करना उन्हें भारी पड़ गया था। इस बयान ने उनकी कुर्सी छीन ली थी।
फूहड़ बयानबाजी का सिलसिला थमा नहीं है। वर्ष 2018 में भी इसी तरह के फूहड़ बयान सुनने को मिले। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद में जिस अंदाज में कांग्रेस नेता रेणुका चौधरी की हंसी की तुलना शूर्पणखा से की और इस पर जिस अंदाज में संसद में बैठे नेताओं ने ठहाके लगाए वह अशोभनीय था। लोकतांत्रिक जनता दल के नेता शरद यादव ने राजस्थान चुनाव के दौरान तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे पर बहुत ही फूहड़ तंज कसते हुए कहा था, “वसुंधरा को आराम दो, बहुत थक गई हैं, बहुत मोटी हो गई हैं, पहले पतली थीं। हमारे मध्य प्रदेश की बेटी हैं।“ मध्य प्रदेश के गुना से भजापा विधायक पन्नालाल शाक्य ने बहुत ही घटिया बयान दिया था। उन्होंने कहा था कि ‘‘महिलाएं बांझ रहें, मगर ऐसे बच्चे को जन्म न दें, जो संस्कारी न हो और जो समाज में विकृति पैदा करते हों।’’ उत्तर प्रदेश से भाजपा विधायक विक्रम सैनी ने देश की बढ़ती आबादी के बावजूद हिंदुओं को बच्चे पैदा करते रहने की सलाह दी थी। उन्होंने बड़े शर्मनाक ढंग से अपनी पत्नी के साथ अपनी बातचीत का जिक्र सार्वजनिक तौर पर किया था- “मैंने तो अपनी पत्नी से कह दिया है कि जब तक जनसंख्या नियंत्रण पर कोई कानून नहीं आ जाता, बच्चे पैदा करती रहो।“
भारतीय राजनीति में भाषा की ऐसी गिरावट शायद पहले कभी नहीं देखी गयी। ऊपर से नीचे तक सड़कछाप भाषा ने अपनी बड़ी जगह बना ली है। राजनीति जिसे देश चलाना है और देश को रास्ता दिखाना है, वह खुद गहरे भटकाव की शिकार है। लोग निरंतर अपने ही बड़बोलेपन से ही मैदान जीतने की जुगत में हैं और उन्हें लगता है कि अभद्र टिप्पणी उन्हें रातों-रात सुर्खियों में बिठा देगी। होता भी यही है। टीवी चैनल्स उन्हें नकारते नहीं वरन् उनकी अभद्र टिप्पणी को ले कर बात पर डिबेट करने लगते हैं। ‘‘बदनाम हुए तो क्या नाम तो हुआ’’ वाली कहावत चरितार्थ होने लगती है। यही तथ्य उकसाता है है ऐसी टिप्पणियां करने को।
डॉ. राममनोहर लोहिया शायद इसीलिए कहते थे “लोकराज लोकलाज से चलता है।” लेकिन ऐसा लगता है कि आज के कतिपय नेताओं की डिक्शनी में ‘‘लोकलाज’’ जैसा शब्द ही नहीं बचा हैं। वहीं पं. दीनदयाल उपाध्याय ने अपनी पुस्तक ‘‘पॉलिटिकल डायरी’’ में लिखा ऐसे भटके हुए नेताओं के लिए बड़ा अच्छा सुझाव दिया है कि - “कोई बुरा उम्मीदवार केवल इसलिए आपका मत पाने का दावा नहीं कर सकता कि वह किसी अच्छी पार्टी की ओर से खड़ा है। बुरा-बुरा ही है और वह कहीं भी और किसी का भी हित नहीं कर सकता। पार्टी के हाईकमान ने ऐसे व्यक्ति को टिकट देते समय पक्षपात किया होगा या नेकनियती बरतते हुए भी वह निर्णय में भूल कर गया होगा। अतः ऐसी गलती सुधारना उत्तरदायी मतदाता का कर्तव्य है।”
दुर्भाग्य यह कि महिला नेताएं भी पुरुष नेताओं से पीछे नहीं हैं। अभद्र टिप्पणी करते समय वे गोया भूल जाती हैं कि वे भी एक स्त्री हैं। केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को मंजूरी देने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद बड़े गर्व से कहा था कि “क्या आप अपने किसी दोस्त के घर खून से सना हुआ नैपकिन लेकर जाएंगे, नहीं ना! तो भगवान के घर में कैसे जा सकते हैं?“ दरअसल महिला नेताएं भी इस संबंध में कहीं न कहीं दोषी हैं। यदि वे अपने ऊपर की गई अशोभनीय टिप्पणी को राजनीतिक, व्यक्तिगत अथवा किसी भी तरह के दबाव में आ कर टाल जाती हैं और प्रतिरोध नहीं करती हैं तो इससे गलत मानसिकता को बढ़ावा मिलता है। यदि लालू प्रसाद यादव की टिप्पणी पर हेमामालिनी ने कड़ी आपत्ति जताई होती तो उत्तर प्रदेश के मंत्री महोदय उसे दोहराने की जुर्रत नहीं करते। इसी तरह जुलाई 2013 में मंदसौर की एक आमसभा में मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने अपने आप को राजनीति का पुराना जौहरी बताते हुए कहा था, ‘’मुझे पता है कि कौन फर्जी है और कौन सही है. इस क्षेत्र की सांसद मीनाक्षी नटराजन सौ टंच माल है।’’ जब बयान को लेकर जब विवाद बढ़ता गया तो पढ़ी-लिखी और स्वयं एक लेखिका होते हुए भी मीनाक्षी नटराजन दिग्विजय सिंह के बचाव में उतर आई थीं। उन्होंने कहा था कि दिग्विजय सिंह ने उनकी तारीफ में ऐसा कहा था, इसलिए इस मामले को तूल दिए जाने की जरूरत नहीं है। भला कोई महिला स्वयं को ‘माल’ शब्द कहे जाने पर कैसे शांत रह सकती है? लेकिन राजनीति की इसी कमजोरी ने बोलों के बिगाड़ को निरंतर बढ़ावा दिया है। यदि नेताओं के बोलों के बिगड़ने की यही गति रही तो कहीं जनता इन्हीं बोलों के आधार पर उन्हें खारिज़ करना न शुरू कर दें।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 30.01.2019)
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Saturday, January 26, 2019

डॉ (सुश्री) शरद सिंह द्वारा गणतंत्र दिवस पर ध्वजारोहण

Flag Hoisting by Dr Sharad Singh on Republic Day Ceremony 2019
आज 70 वें गणतंत्र दिवस के अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में मैंने (यानी डॉ. शरद सिंह ने) सरस्वती शिशु मंदिर उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, मोतीनगर, सागर में ध्वजारोहण किया।         
        राष्ट्रगान के उपरांत विद्यालय प्रांगण में आयोजित गणतंत्र दिवस समारोह में मैंने अपना उद्बोधन देने के साथ ही विद्यालय की प्रतिभाशाली छात्राओं को तिलक लगा कर सम्मानित किया । इस गरिमामय आयोजन में विशिष्ट अतिथि के रूप में मेरी दीदी डॉ. वर्षा सिंह ने अपना काव्यपाठ किया।
         कार्यक्रम में विशिष्ट अतिथि श्री संजीव जड़िया एवं सरस्वती शिशु मंदिर समिति के सहसचिव श्री आशीष द्विवेदी (डायरेक्टर इंक मीडिया) तथा नगर के युवा कर्मठ पत्रकार  अतुल तिवारी की उपस्थिति महत्वपूर्ण रही।  विद्यालय के छात्र-छात्राओं ने सांस्कृतिक कार्यक्रम में बड़ी संख्या में अपनी मनमोहक प्रस्तुतियां दे कर वातावरण में उल्लास का इंद्रधनुष बिखेर दिया।
            इस गरिमामय समारोह के आयोजन के लिए विद्यालय के प्राचार्य राजकुमार ठाकुर एवं उनकी उत्साही टीम को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं 🙏
Flag Hoisting by Dr Sharad Singh on Republic Day Ceremony 2019



















Thursday, January 24, 2019

बुंदेलखण्ड में पिछड़ते महिलाओं के मुद्दे - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
 समाचार पत्र #नवभारत में बुंदेलखंड की महिलाओं के मुद्दों की उपेक्षा पर मेरा आज 24.01.2019 को प्रकाशित लेख ... इसे आप भी पढ़िए...
🙏हार्दिक आभार #नवभारत 🙏
Bundelkhand me pichharate mahilaon ke mudde - Dr (Miss) Sharad Singh in Navbharat newspaper, 24.01.2019
बुंदेलखण्ड में पिछड़ते महिलाओं के मुद्दे  
   - डॉ. शरद सिंह 
   इसमें कोई संदेह नहीं है कि बुंदेलखण्ड ने अपनी स्वतंत्रता एवं अस्मिता के लिए लम्बा संघर्ष किया है और इस संघर्ष के बदले बहुत कुछ खोया है। अंग्रेजों के समय में हुए बुंदेला संघर्ष एवं स्वतंत्रता आंदोलन के कारण इस भू-भाग को विकास के मार्ग से बहुत दूर रखा गया। यहां उतना ही विकास कार्य किया गया जितना  अंग्रेज प्रशासकों अपनी सैन्य सुविधाओं के लिए आवश्यक लगा। जब कोई क्षेत्र विकास की दृष्टि से पिछड़ा रह जाता है तो उसका सबसे बुरा असर पड़ता है वहां की स्त्रियों के जीवन पर। अतातायी आक्रमणकारी आए तो स्त्रियों को पर्दे और सती होने का रास्ता पकड़ा दिया गया। उसे घर की दीवारों के भीतर सुरक्षा के नाम पर कैद रखते हुए शिक्षा से वंचित कर दिया गया। यह बुंदेलखण्ड की स्त्रियों के जीवन का सच है। मानो अशिक्षा का अभिशाप पर्याप्त नहीं था जो उसके साथ दहेज की विपदा भी जोड़ दी गई। नतीजा यह हुआ कि बेटी के जन्म को ही पारिवारिक कष्ट का कारण माना जाने लगा। जब बेटियां ही नहीं होंगी तो बेटों के लिए बहुएं कहां से आएंगी?   
एक सर्वे के अनुसार प्रति हजार लड़कों के अनुपात में लड़कियों की संख्या पन्ना में 507, टीकमगढ़ में 901, छतरपुर में 584, दमोह में 913 तथा सागर में 896 पाया गया। यह आंकड़े न केवल चिंताजनक हैं अपितु इस बात का भी खुलासा करते हैं कि बुंदेलखंड अंचल में ओडीसा से लड़कियां ब्याह कर क्यों लाई जा रही हैं। बुंदेलखण्ड के विकास के लिए उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश दोनों राज्यों में वर्षों से पैकेज आवंटित किए जा रहे हैं। जिनके द्वारा विकास कार्य होते रहते हैं। लेकिन विकास के सरकारी आंकड़ों से परे ऐसे कड़वे सच भी हैं जो पिछड़ेपन की एक अलग ही कहानी कहते हैं। जहां तक कृषि का प्रश्न है तो औसत से कम बरसात के कारण प्रत्येक दो-तीन वर्ष बाद बुंदेलखंड सूखे की चपेट में आ जाता है। कभी खरीफ तो कभी रबी अथवा कभी दोनों फसलें बरबाद हो जाती हैं। जिससे घबरा कर कर्ज में डूबे किसान आत्महत्या जैसा पलायनवादी कदम उठाने लगते हैं। इन सबके बीच स्त्रियों की दर और दशा पर ध्यान कम ही दिया जाता है। उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश के लगभग बारह जिलों में फैला बुंदेलखंड आज भी जल, जमीन और सम्मानजनक जीवन के लिए संघर्षरत है। महिलाओं की दुखगाथाएं एक अलग ही तस्वीर दिखाती हैं। क्या इन सबके लिए सिर्फ सरकारें ही जिम्मेदार हैं अथवा बुंदेलखण्ड के नागरिक भी अपने दायित्वों के प्रति कहीं न कहीं लापरवाह हैं? यह एक अहम् प्रश्न है। 
बुंदेलखण्ड में  पिछले दशकों में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों का अनुपात तेजी से घटा और इसके लिए कम से कम सरकारें तो कदापि जिम्मेदार नहीं हैं। यदि कोई जिम्मेदार है तो वह परम्परागत सोच कि बेटे से वंश चलता है या फिर बेटी पैदा होगी तो उसके लिए दहेज जुटाना पड़ेगा। बुंदेलखण्ड में औरतों को आज भी पूरी तरह से काम करने की स्वतंत्रता नहीं है। गांव और शहरी क्षेत्र, दोनों स्थानों में आर्थिक रूप से निम्न तथा निम्न मध्यम वर्ग के अनेक परिवार ऐसे हैं जिनके घर की स्त्रियां आज भी तीज-त्यौहारों पर ही घर से बाहर निकलती हैं और वह भी घूंघट अथवा सिर पर साड़ी का पल्ला ओढ़ कर। जिन तबकों में शिक्षा का प्रसार न्यूनतम है, ऐसे लगभग प्रत्येक परिवार की एक ही कथा है कि आमदनी कम और खाने वाले अधिक। आर्थिक तंगी के कारण अपने बच्चों को शिक्षा के बदले काम में लगा देना इस प्रकार के अधिकांश व्यक्ति अकुशल श्रमिक के रूप में अपना पूरा जीवन व्यतीत कर देते हैं। ठीक यही स्थिति इस प्रकार के समुदाय की औरतों की रहती है। ऐसे परिवारों की बालिकाएं अपने छोटे भाई-बहनों को सम्हालने और अर्थोपार्जन के छोटे-मोटे तरीकों में गुज़ार देती हैं। इन्हें शिक्षित किए जाने के संबंध में इनके माता-पिता में रुझान रहता ही नहीं है। ‘लड़की को पढ़ा कर क्या करना है?’ जैसा विचार इस निम्न आर्थिक वर्ग पर भी प्रभावी रहता है। इस वर्ग में बालिकाओं का जल्दी से जल्दी विवाह कर देना उचित माना जाता है। ‘आयु अधिक हो जाने पर अच्छे लड़के नहीं मिलेंगे’, जैसे विचार अवयस्क विवाह के कारण बनते हैं। छोटी आयु में घर-गृहस्थी में जुट जाने के बाद शिक्षित होने का अवसर ही नहीं रहता है। 
अन्य प्रदेशों की भांति बुंदेलखण्ड में भी ओडीसा तथा आदिवासी अंचलों से अनेक लड़कियां  को विवाह करके लाया जाता हैं। यह विवाह सामान्य विवाह नहीं है। ये अत्यंत ग़रीब घर की लड़कियां होती हैं जिनके घर में दो-दो, तीन-तीन दिन चूल्हा नहीं जलता है, ये उन घरों की लड़कियां हैं जिनके मां-बाप के पास इतनी सामर्थ नहीं है कि वे अपनी बेटी का विवाह कर सकें, ये उन परिवारों की लड़कियां हैं जहां उनके परिवारजन उनसे न केवल छुटकारा पाना चाहते हैं वरन् छुटकारा पाने के साथ ही आर्थिक लाभ कमाना चाहते हैं। ये ग़रीब लड़कियां कहीं संतान प्राप्ति के उद्देश्य से लाई जा रही हैं तो कहीं मुफ़्त की नौकरानी पाने की लालच में खरीदी जा रही हैं। इनके खरीददारों पर उंगली उठाना कठिन है क्योंकि वे इन लड़कियों को ब्याह कर ला रहे हैं। इस मसले पर चर्चा करने पर अकसर यही सुनने को मिलता है कि क्षेत्र में पुरुष और स्त्रियों का अनुपात बिगड़ गया है। लड़कों के विवाह के लिए लड़कियों की कमी हो गई है।
यदि परिवार की स्त्री पढ़ी-लिखी होगी, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होगी तो वह अपने बच्चों के उचित विकास के द्वारा आने वाली पीढ़ी को एक विकसित दृष्टिकोण दे सकेगी। इसी विचार के साथ ‘बेटी बचाओ’ और ‘बालिका शिक्षा’, ‘जननी सुरक्षा’ जैसे सरकारी अभियान चलाए जा रहे हैं। फिर भी बुंदेलखंड में स्त्रियों के विकास की गति धीमी है। बुंदेलखण्ड का वास्तविक विकास तभी हो सकता है जब बेटियों के अस्तित्व को बचाया जाए और उन्हें एक गरिमापूर्ण सुरक्षित वातावरण प्रदान किया जाए। बुंदेलखण्ड में किए गए लगभग सभी आंदोलनों एवं विकास की तमाम मांगों के बीच स्त्रियों के लिए अलग से कभी कोई मुद्दा नहीं उठाया गया जिससे विकास की वास्तविक जमीन तैयार हो सके।
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(दैनिक ‘नवभारत’, 24.01.2019)
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अस्तित्व की लड़ाई में थर्ड जेंडर की एक और जीत - डॉ शरद सिंह

Dr ((Miss) Sharad Singh
अस्तित्व की लड़ाई में थर्ड जेंडर की एक और जीत https://m.patrika.com/sagar-news/latest-articles-on-third-gender-4028425/

Dr Sharad Singh article in Patrika.com
आज 24.01.2019 को 'Patrika.com' में  थर्ड जेंडर पर केंद्रित मेरे लेख को पोस्ट के रूप में प्रकाशित किया गया है...जिसे आप ऊपर दिए इस लिंक पर जा कर पढ़ सकते हैं....

प्रकाशित लेख का टेक्स्ट
                 - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
कुंभ के इतिहास में पहली बार मकर संक्रांति पर्व पर मंगलवार को महाकाल के उपासक किन्नर अखाड़े ने शाही स्नान किया। इससे पहले जूना अखाड़े के साथ भव्य पेशवाई निकाली गई। रथ, बग्घी पर सवार होकर आचार्य महामंडलेश्वर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी व अन्य महामंडलेश्वर, मंडलेश्वर त्रिवेणी तट पहुंचे। यहां जूना अखाड़े के संतों के साथ संगम में मोक्ष की कामना के लिए डुबकी लगाई और भगवान सूर्य की उपासना की। अपने अस्तित्व को समाज के बीच बराबरी का सम्मान दिलाने की दिशा में थर्ड जेंडर की यह एक और जीत है। इस जीत का रास्ता आसान नहीं था। किन्नर अखाड़ा चाहता था कि उज्जैन में हुए सिंहस्थ में उनके अखाड़े को मान्यता दे दी जाए किन्तु ऐसा हो नहीं सका था। फिर भी किन्नर अखाड़े ने हार नहीं मानी।
इलाहाबाद के इस कुंभ (अर्द्धकुंभ) में अपने अखाड़े को शामिल कराने के लिए किन्नर अखाड़े को कड़ा संघर्ष ओर कई समझौते करने पड़े। इस बार भी अखाड़ा परिषद से मान्यता न मिलने के बाद किन्नर अखाड़े को देश के सबसे बड़े अखाड़ा जूना अखाड़े में सम्मिलित करने पर सहमति बनी। जूना अखाड़े के संरक्षक और अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के महामंत्री महंत हरिगिरि जी महाराज के बीच यमुना बैंक रोड स्थित मौजगिरि मंदिर में हुई बैठक के बाद एक-दूसरे की परंपराओं व अनुष्ठानों में शामिल होने संबंध में निर्णय लिया गया। दोनों अखाड़ों के बीच कचहरी में अनुबंध पत्र पर हस्ताक्षर भी किए गए। जिसके अनुसार किन्नर अखाड़ा, जूना अखाड़े के साथ-साथ रहेगा और एक दूसरे की परंपराओं, अनुष्ठान में शामिल होगा। किन्नर अखाड़े की आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी ने स्पष्ट शब्दों में कहा था, ‘‘हम जूना अखाड़े के साथ पेशवाई करेंगे लेकिन किन्नर अखाड़ा बना रहेगा, उसका किसी से भी विलय नहीं होगा। साथ ही आचार्य सहित सभी महामंडलेश्वर अपने-अपने पदों पर पूर्व की भांति बने रहेंगे। इतना ही नहीं वह अपनी किसी भी परंपरा को नहीं छोड़ेंगे। किन्नर अखाड़ा देवत्व यात्रा यानी अमरत्व स्नान सहित अन्य परंपराओं का निर्वाह करेगा।’’
यह समझौता ऐतिहासिक सिद्ध हुआ और इलाहाबाद में कुंभ स्नान के आरम्भ होते ही  जूना अखाड़े के साथ किन्नर अखाड़ा प्रमुख लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी ने पेशवाई निकाली और त्रिवेणी में शाही स्नान किया। यह पहला अवसर था जब किन्नर अखाड़े ने कुंभ में शाही स्नान किया।
भारतीय संस्कृति उदार है किन्तु समाज में एक दोहरापन है जो सदियों से लिंग के आधार पर सामाजिक अधिकार तय करता आ रहा है। स्त्रीलिंग और पुल्लिंग इन दोनों को समाजिक संरचना की धुरी माना गया। स्वाभाविक है। क्योंकि यही तो सजनकर्ता हैं मानव जीवन के प्रवाह के। ये दोनों मिल कर जीवन का सृजन करते हैं और पीढ़ियों का निर्माण करते हैं। किन्तु इन दोनों लिंगों के इतर एक और लिंग है जिसे समाज हिचकते हुए स्वीकार करता है। जहां तक भारतीय समाज का प्रश्न है तो उसने इस तीसरे लिंग को धर्म, आशीषों और भय से जोड़ दिया। उसे सहज नहीं रहने दिया। एक विचित्र प्राणी की भांति उसे देखने की आदत डाल ली। एक ऐसा प्राणी जो दिखता तो मनुष्यों की तरह है किन्तु उसे सामान्य मनुष्यों की तरह जीने का अधिकार नहीं दिया गया। वह यदि घरों में आता है तो तालियां बजाते हुए आए। भड़कीले मेकअप से पुता रहे और दुआऐं दे कर जाए। फिर समाज ने एक भय भी पाला कि यदि वह तीसरा मानवीय प्राणी नाराज़ हो गया तो बद्दुआएं दे कर जाएगा इसलिए उसे खुश रखा जाए। उससे दुआएं लेने के लिए उसे चंद रुपए पकड़ा दिए जाएं। यह विवरण भारतीय संस्कृति के उस विचार से मेल नहीं खाता है जिसमें प्रत्येक जीव के लिए अपनत्व और सद्व्यवहार की बात कही गई है। किन्तु दुर्भाग्यवश यह बेमेल विचार आज भी मौजूद है। सकारात्मक पक्ष यह कि यही विचार उस तीसरे मानवीय प्राणी को संघर्ष की प्रेरणा दे रहा है। जिसमें विचार है, संवेदना है वह सदा-सदा के लिए दलित अथवा उपेक्षित नहीं रह सकता है। एक न एक दिन वह सिर उठाता है, आगे बढ़ता है और समाज से अपना अधिकार मांगता है। एक और बहुत ही सकारात्मक तथ्य जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है कि इस ‘माइनॉरिटी जेंडर’ ने अपने अधिकारों के पक्ष में आवाज़ उठाने के लिए ‘एग्रेसिवनेस’ का सहारा नहीं लिया। उन्होंने स्वयं को साबित करने का रास्ता चुना। यह रास्ता लम्बा है लेकिन स्थायी परिणाम देने वाला सिद्ध होगा।
‘तीसरा मानवीय प्राणी’ शब्द समूह अटपटा लग सकता है किन्तु किन्नर, छक्का, हिजड़ा क्या कम अटपटे सम्बोधन नहीं हैं? अब लिंगानुसार ‘थर्ड जेंडर’ कहा जाना सर्वथा उचित लगता है। सारी दुनिया में थर्ड जेंडर अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष करते दिखाई दे रहे हैं। इस दिशा में ब्रिटेन में भी एक ऐतिहासिक घटना घटी। ब्रिटेन के आवासीय स्कूलों के बच्चों ने अपनी पहचान सुनिश्चित करने के लिए मांग की कि उन्हें पुरुष पहचान पर आधारित सम्बोधन ‘ही’ अथवा स्त्री पहचान पर आधारित ‘शी’ कह कर न पुकारा जाए अपितु ‘जी’ कह कर पुकारा जाए। ब्रिटेन में ‘जी’ को एक लिंग-निरपेक्ष उच्चारण माना जाता है। ब्रिटिश सरकार ने बच्चों की इस मांग को गंभीरता से लिया और ब्रिटेन के आवासीय स्कूलों के शिक्षकों को आदेश दिया कि वे ट्रांसजेंडर बच्चों को ‘ही’ या ‘शी’ की बजाय ‘जी’ कहकर बुलाएं ताकि वे असहज महसूस न करें। ब्रिटेन आवासीय स्कूल एसोसिएशन की ओर से जारी आधिकारिक दिशानिर्देश में शिक्षकों से अपील की गई कि वे ट्रांसजेंडर छात्रों को ‘जी’ कहें। साथ ही, शिक्षकों से कहा गया कि वे उन्होंने ऐसे छात्रों की बढ़ती संख्या के लिए एक ‘नई भाषा’ सीखने की जरूरत है जो ‘ही’ या ‘शी’ के तौर पर खुद पुकारा जाना पसंद नहीं करते। यद्यपि भारत में थर्ड जेंडर की स्थिति योरोपीय देशों की तुलना में शोचनीय है। यहां नाचने, गाने, फूहड़ अभिनय करने वाले और बलात् पैसे वसूलने वाले के रूप में इनकी छवि स्थापित हो चुकी है। इस ओर समाज का ध्यान नहीं जाता है कि थर्ड जेंडर भी समाज का अभिन्न अंग है। इन्हें भी वे सारे अधिकार मिलने चाहिए जो एक स्त्री या पुरुष को मिलते हैं। अधिकारों के क्रम में सबसे पहला बिन्दु है माता-पिता का प्रेम और अपने परिवार में सामाजिक स्वीकृति। यह कितना कठिन होता होगा कि जब आप अपने माता-पिता के बारे में जानते हों फिर भी आप उनके साथ संबंध न रख सकें और उनके पास जा कर न रह सकें, वह भी मात्र इसलिए कि आप मनुष्य के रूप में प्रकृति की एक अनूठी संरचना हैं।
शबनम मौसी, कमला जान, आशा देवी, कमला किन्नर, मधु किन्नर और ट्रांसजेंडर एक्टिविस्ट लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी वे नाम हैं जिन्होंने चुनाव में बहुमत से विजय प्राप्त कर के विधायक और महापौर तक के पद सम्हाले। देश की पहली किन्नर प्राचार्य मानबी बंदोपाध्याय और पहली किन्नर  वकील तमिलनाडु की सत्य श्री शर्मिला ने सिद्ध कर दिया कि किन्नर अथवा ‘थर्ड जे़ंडर’ किसी भी विद्वत स्त्री-पुरुष की भांति बुद्धिजीवी वर्ग की किसी भी ऊंचाई को छू सकते हैं। किन्नर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी ने अपनी आत्मकथा लिखी ‘मैं हिजड़ा, मैं लक्ष्मी’। उन्होंने लम्बा संघर्ष किया। महामंडलेश्वर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी का कहना है कि ’हम सनातन धर्म के हैं, उपदेवता हैं। हमने सालों संघर्ष झेला है। आज उसी संघर्ष का परिणाम है कि स्वयं इस धर्म मेले ने हमें अपनाया। संगम ने गोद में खिलाया। आज जितने भी किन्नर संन्यासियों ने यहां स्नान किया है, उनकी ओर से मैं पूरे मानव समाज के हित की कामना और प्रयास करती हूं। यह सनातन धर्म की ही महिमा हो सकती है कि जहां सालों तक संस्कृति और समाज से अलग रखा, वहीं सबसे बड़े संस्कृति के मेले ने बांहें फैलाकर हमारा स्वागत किया।’
इसमें कोई संदेह नहीं कि यदि इसी प्रकार थर्ड जेंडर और समाज परस्पर एक-दूसरे को अपनाता रहेगा तो एक दिन समाज का नज़रिया भी थर्ड जेंडर के प्रति बदल ही जाएगा और वे एक सामान्य मनुष्य की तरह जी सकेंगे।
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Wednesday, January 23, 2019

चर्चा प्लस ... सम्मान के संघर्ष में थर्ड जेंडर को संविधान, साहित्य और धर्म का समर्थन - डॉ. शरद सिंह

चर्चा प्लस ...             सम्मान के संघर्ष में थर्ड जेंडर को
Dr (Miss) Sharad Singh
संविधान, साहित्य और धर्म का समर्थन
- डॉ. शरद सिंह

प्रयागराज में हो रहे कुंभ में किन्नर अखाड़ा को पेशवाई में शामिल होने का अधिकार मिलना धार्मिक एवं सामाजिक सम्मान की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। इससे पहले थर्ड जेंडर ने अपनी पहचान की लड़ाई लड़ी थी और कानूनी जीत हासिल की थी। वैसे भारतीय संविधान में थर्ड जेंडर को ऐसे कई अधिकार मिले हुए है जो उनके सम्मान रक्षा करने में समर्थ हैं किन्तु संविधान के दस्तावेज़ या कानून की किताबों से बाहर भी वे स्वयं को साबित करने के लिए संघर्षरत हैं। सुखद पक्ष यह कि बुद्धिजीवी वर्ग भी आज उनके समर्थन खड़ा होता जा रहा है। एक ओर साहित्यकार समुदाय उनके पक्ष में आवाज़ उठा रहा है तो दूसरी ओर जूना अखाड़े ने उनकी पेशवाई को स्वीकारा।
चर्चा प्लस ... सम्मान के संघर्ष में थर्ड जेंडर को संविधान, साहित्य और धर्म का समर्थन  - डॉ. शरद सिंह  Charcha Plus - Samman Ke Sangharsha Me Third Gender Ko Sanvidhan, Sahitya Aur Dharm Ka Samarthn -   -  Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh
 संवैधानिक व्यवस्थाएं गणतांत्रिक मूल्यों को बनाए रखने में बहुत मददगार साबित होती हैं। भारतीय संविधान इस तरह बनाया गया जिससे गणतंत्र की रक्षा हो सके और सभी नागरिकों को उसके संवैधानिक अधिकार मिल सकें। जिस समाज में प्रत्येक नागरिक को संवैधानिक अधिकार प्राप्त हों वह समाज किसी भी तानाशाही का बखूबी विरोध कर सकता है। लेकिन समाज का एक ऐसा हिस्सा जो सबके लिए दुआएं देता है और स्वयं के जीवन को एक अभिशप्त जीवन की तरह जीने को विवश है क्योंकि उसे समाज में वह समानता आज भी नहीं मिली है जो समाज के अन्य सदस्यों को मिली हुई है। बेशक, समाज में औरतों की दशा भी उतनी बेहतर नहीं है जितनी कि संवैधानिक कानूनों के लागू होने के बाद हो जानी चाहिए थी। फिर भी औरतों की दशा के बारे में समाज भली-भांति परिचित तो है किन्तु थर्ड जेंडर तो अभी भी अपरिचय के धुंधलके में जी रहा है। यद्यपि थर्ड जेंडर समाज अपने ऊपर छाए धुंधलके को हटा देने के लिए अब दृढ़ प्रतिज्ञ हो चला है। जिसका उदाहरण है अप्रैल 2014 में भारत की शीर्ष न्यायिक संस्था सुप्रीम कोर्ट ने किन्नरों को तीसरे लिंग (थर्ड जेंडर) के रूप में पहचान दी। नेशनल लीगल सर्विसेस अथॉरिटी की अर्जी पर यह फैसला सुनाया गया था।

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ऐतिहासिक निर्णय के द्वारा इस समुदाय को न केवल ‘तृतीय लिंग’ की पहचान देने बल्कि उन्हें सभी ‘विधिक’ और ‘संवैधानिक-अधिकार’ भी प्रदान करने का निर्देश केंद्र सरकार एवं देश की राज्य सरकारों को दिया है। वस्तुतः में यह कार्य तो विधायिका का था, किंतु देश की स्वतंत्रता के छह दशक बाद भी ऐसा नहीं किया जा सका और अंततः इस कार्य को पूरा किया न्यायिक उच्चतम न्यायालय को। ‘राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण’ (नाल्सा) बनाम भारत संघ और अन्य (2014)के मामले में उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति के.एस. राधाकृष्णन और न्यायमूर्ति ए.के. सीकरी की खंडपीठ ने यह निर्णय 15 अप्रैल, 2014 को दिया। इस कानून ने थर्ड जेंडर के अधिकारों को व्यापक बना दिया। उन्हें एक-दूसरे से शादी करने और तलाक देने का अधिकार भी मिल गया। इस निर्णय के बाद वे बच्चों को गोद लेने का अधिकार मिल गया। इसके साथ ही उन्हें उत्तराधिकार कानून के तहत वारिस होने तथा इससे संबंधित अन्य अधिकार भी मिल गए।
उच्चतम न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 16, 19(1) (क) और 21 के अंतर्गत देश के व्यक्तियों/नागरिकों को प्रदत्त सभी मूल अधिकारों को किन्नरों के भी पक्ष में विस्तारित करते हुए यह निर्णय दिया कि - संविधान के अनुच्छेद 14 के अनुसार राज्य किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा। यह अनुच्छेद ‘व्यक्ति’ को केवल ‘पुरुष’ और ‘स्त्री’ तक ही सीमित नहीं करता है। ‘हिजड़ा’ या ‘ट्रांसजेंडर’, जो न तो पुरुष हैं और न ही स्त्री, भी शब्द ‘व्यक्ति’ के अंतर्गत आते हैं। इसलिए राज्य के उन सभी क्षेत्र के कार्यों, नियोजन, स्वास्थ्य सेवाएं, शिक्षा तथा समान सिविल और नागरिक अधिकारों, जिनका उपभोग देश के अन्य नागरिक कर रहे हैं, ये वर्ग भी विधियों का कानूनी संरक्षण प्राप्त करने का हकदार है। अतः उनके साथ लिंगीय पहचान या लिंगीय उत्पत्ति के आधार पर विभेद करना विधि के समक्ष समानता और विधि के समान संरक्षण का उल्लंघन करता है।
संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 संयुक्त रूप से लिंगीय पक्षपात या लिंगीय विभेद को प्रतिबंधित करते हैं। इनमें प्रयोग किया गया शब्द ‘लिंग’ केवल पुरुष या स्त्री के जैविक लिंग तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसके अंतर्गत वे लोग भी शामिल हैं जो स्वयं को न तो पुरुष मानते हैं और न स्त्री। अतः ये वर्ग इन अनुच्छेदों के संरक्षण के साथ-साथ अनुच्छेद 15(4) एवं 16(4) के द्वारा प्रदत्त आरक्षण का भी लाभ प्राप्त करने का अधिकारी है, जिसे देने के लिए राज्य बाध्य है।

संविधान के अनुच्छेद 19(1) (क) का कथन है कि सभी नागरिकों को वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होगी और इसके अंतर्गत किसी नागरिक के अपने ‘स्व-पहचानीकृत लिंग को अभिव्यक्त करने का अधिकार भी सम्मिलित है, जिसे पहनावा शब्द, कार्य या व्यवहार अथवा अन्य रूप में दर्शित किया जा सकता है और संविधान के अनुच्छेद 19(2) में कथित प्रतिबंधों के सिवाय किसी ऐसे व्यक्ति की व्यक्तिगत प्रस्तुति या वेशभूषा पर अन्य कोई प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता है। अतः ट्रांसजेंडर समुदाय के सदस्यों की एकांतता का महत्त्व, स्व-पहचान, स्वायत्तता और व्यक्तिगत अखंडता अनुच्छेद 19(1) (क) के अंतर्गत प्रत्याभूत किए गए मूल अधिकार हैं और राज्य इन अधिकारों की रक्षा करने तथा उन्हें मान्यता प्रदान करने के लिए बाध्य है।

संविधान का अनुच्छेद 21 यह प्रावधान करता है कि ‘‘किसी व्यक्ति को, उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं’’। यह अनुच्छेद मानव जीवन की गरिमा, किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वायत्तता एवं किसी व्यक्ति की निजता के अधिकार को संरक्षण प्रदान करता है। किसी व्यक्ति की लिंगीय पहचान को मान्यता दिया जाना गरिमा के मूल अधिकार के हृदय में निवास करता है। इसलिए लिंगीय पहचान हमारे संविधान के अंतर्गत गरिमा के अधिकार और स्वतंत्रता का एक भाग है। स्व-पहचानीकृत लिंग या तो ‘पुरुष’ या ‘महिला’ या एक ‘तृतीय लिंग’ (थर्ड जेंडर) हो सकता है। ‘हिजड़ा’ तृतीय लिंग के रूप में ही जाने जाते हैं, न कि पुरुष अथवा स्त्री के रूप में। इसलिए इनकी अपनी लिंगीय अक्षमता को सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक समूह के कारण एक तृतीय लिंग के रूप में विचारित किया जाना चाहिए।
न्यायमूर्ति ए.के. सीकरी के हैं, जिन्होंने अन्य मामलों में इसके पूर्व न्यायमूर्ति के.एस. राधाकृष्णन के संपूर्ण तर्कों का समर्थन किया करते हुए इसी बात पर बल दिया था कि ट्रांसजेंडर समूह भी देश के नागरिक हैं और उन्हें थर्ड जेंडर के रूप में पहचान दी जानी चाहिए जिससे वे भी गरिमा और सम्मान के साथ जीवन-यापन कर सकें और देश के अन्य नागरिकों की भांति मतदान के अधिकार, संपत्ति अर्जन के अधिकार, विवाह के अधिकार, पासपोर्ट, राशन कार्ड, वाहन-चालन अनुज्ञप्ति इत्यादि के माध्यम से औपचारिक पहचान प्राप्त करने के अधिकार, शिक्षा, नियोजन एवं स्वास्थ्य इत्यादि के अधिकार का दावा कर सकें। क्योंकि इन अधिकारों से इस समूह को वंचित रखे जाने का कोई कारण नहीं है।

शबनम मौसी, कमला जान, आशा देवी, कमला किन्नर, मधु किन्नर और ट्रांसजेंडर एक्टिविस्ट लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी वे नाम हैं जिन्होंने चुनाव में बहुमत से विजय प्राप्त कर के विधायक और महापौर तक के पद सम्हाले। देश की पहली किन्नर प्राचार्य मानबी बंदोपाध्याय और पहली किन्नर वकील तमिलनाडु की सत्य श्री शर्मिला ने सिद्ध कर दिया कि किन्नर अथवा ‘थर्ड जे़ंडर’ किसी भी विद्वत स्त्री-पुरुष की भांति बुद्धिजीवी वर्ग की किसी भी ऊंचाई को छू सकते हैं। किन्नर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी ने अपनी आत्मकथा लिखी ‘मैं हिजड़ा, मैं लक्ष्मी’। उन्होंने लम्बा संघर्ष किया। महामंडलेश्वर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी का कहना है कि ’हम सनातन धर्म के हैं, उपदेवता हैं। हमने सालों संघर्ष झेला है। आज उसी संघर्ष का परिणाम है कि स्वयं इस धर्म मेले ने हमें अपनाया। संगम ने गोद में खिलाया। आज जितने भी किन्नर संन्यासियों ने यहां स्नान किया है, उनकी ओर से मैं पूरे मानव समाज के हित की कामना और प्रयास करती हूं। यह सनातन धर्म की ही महिमा हो सकती है कि जहां सालों तक संस्कृति और समाज से अलग रखा, वहीं सबसे बड़े संस्कृति के मेले ने बांहें फैलाकर हमारा स्वागत किया।’

समाज किसी भी परिवर्तन को एक झटके में स्वीकार नहीं करता है। वह दीर्घकालिक प्रक्रिया से गुज़रता है परिवर्तन को आत्मसात करने के लिए। हिन्दी साहित्य को ही ले लीजिए। थर्ड जेंडर के जीवन तथा मनोदशा पर कहानियां, कविताएं, उपन्यास और लेख लिखे जाते रहे। किन्तु थर्ड जेंडर के साहित्यिक विमर्श को खड़े होने में भी लगभग डेढ़ दशक से अधिक समय लग गया। लेकिन अब बहुत कुछ सकारात्मक हुआ। नईदिल्ली के सामयिक प्रकाशन ने अपनी पत्रिका ‘सामयिक सरस्वती’ के अप्रैल-सितम्बर 2018 के संयुक्तांक को ‘थर्ड जेंडर विशेषांक’ के रूप में प्रकाशित करने का निर्णय लिया। इस पत्रिका की कार्यकारी संपादक के रूप में मैंने और संपादक महेश भारद्वाज ने अपने इस इरादे पर अमल किया। विशेषांक छप कर आया तो पाठकों, समीक्षकों और शोधकर्ताओं ने इसे हाथों-हाथ लिया। इसके बाद विचार आया कि क्यों न थर्ड जेंडर के इतिहास से ले कर वर्तमान और भविष्य तक की चर्चा को एक ही ज़िल्द में सहेज कर एक किताब पाठकों को सौंपी जाए और परिणामतः प्रकाशित हुई मेरी पुस्तक ‘‘थर्ड जेंडर विमर्श’’। दरअसल, मुझे व्यक्तिगततौर भी लगता है कि थर्ड जेंडर के संघर्ष को हर स्तर पर चाहे वह साहित्य हो या संविधान हो, उसे वैचारिक संमर्थन एवं प्रोत्साहन यानी विमर्श की जरूरत है। शेष समाज का समर्थन ही थर्ड जेंडर को समाज में वह समतापूर्ण सम्मान दिला सकता है जो स्त्रियों और पुरुषों को प्राप्त है। कानून भी तभी असरकारक होते हैं जब विचारों में सकारात्मकता हो और यह सकारात्मकता साहित्य के पन्नों से मानस तक पहुंचती है। लिहाजा, कानून भी जरूरी है और साहित्य भी।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 23.01.2019)

Tuesday, January 22, 2019

मेरी नई किताब “थर्ड जेंडर विमर्श’’ ... - डॉ शरद सिंह

Third Gender Vimarsh - The  Book of  Dr Sharad Singh on Third Gender
मेरी नई किताब “थर्ड जेंडर विमर्श’’ ... इसकी सामग्री आपको चौंकाएगी और समाज के उस पक्ष से परिचित कराएगी जिसे अभी आप ठीक से नहीं जानते हैं और जानते भी हैं तो सिर्फ़ किन्नर, हिजड़ा, छक्का जैसे संबोधनों तक.... यदि जानना चाहते हैं अधिक तो मेरी इस किताब को एकबार जरूर पढ़िए......सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित...
- डॉ शरद सिंह
Third Gendar Vimarsh - Book Of  Dr (Miss)  Sharad Singh
 My new book "Third Gender Vimarsha" (Third Gender Discourse) ... its contents will surprise you and familiarize you with the side of the society which you do not know right now and know even then only to the words like Kinnar, Hijra, Chhaka .... If you want to know more then please read my book at a time ..... published by the Samayik Paperbacks and Bhartiya Pustak Parishad, Samayik Prakashan New Delhi ...
- Dr. Sharad Singh

Friday, January 18, 2019

चर्चा प्लस ... संक्रांति के राजनीतिक लड्डुओं में चार्जशीट का कंकड़ - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ...
संक्रांति के राजनीतिक लड्डुओं में चार्जशीट का कंकड़
- डॉ. शरद सिंह


मुद्दा राष्ट्र के मान और अपमान का करार दिया जाए और फिर भी चार्जशीट दायर करने में देरी हो तो सवाल उठेंगे ही। इधर संक्रांति के लड्डुओं की मिठास मुंह में घुल ही रही थी कि जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार समेत 10 आरोपियों पर राजद्रोह के आरोप में मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट के समक्ष चार्जशीट दाखिल कर दी गई। चार्जशीट दाखिले में तीन साल लग गए और दाखिल किया गया तो लोकसभा चुनाव से ठीक पहले। लिहाजा, इस बार लोकसभा चुनाव के पहले बांधे जा रहे राजनीतिक लड्डुआें में ‘जेएनयू राजद्रोह’ मामले की चार्जशीट दाखिल किया जाना मेवे का काम करेगा या कंकड़ का यह तो आने वाला समय ही बताएगा।

चर्चा प्लस ... संक्रांति के राजनीतिक लड्डुओं में चार्जशीट का कंकड़ - डॉ. शरद सिंह  Charcha Plus - Sankranti Ke Rajnitik Ladduon Me Charge Sheet Ka Kankar  -  Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh
 तीन साल पहले का वह दृश्य जो टेलीविजन के पर्दे पर दिखा था, आज भी भूलता नहीं है। संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरू को फांसी पर लटकाए जाने के विरोध में वर्ष 2016 में जेएनयू कैंपस में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था। कार्यक्रम के दौरान कथित रूप से देश विरोधी नारे लगाए गए थे। इसके बाद बीजेपी सांसद महेश गिरी और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) की शिकायत पर वसंत कुंज (उत्तर) पुलिस थाने में 11 फरवरी 2016 को अज्ञात व्यक्तियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए तथा 120बी के तहत एक मामला दर्ज किया गया था। राजद्रोह एक गंभीर अपराध है और इसके लिए अधिकतम आजीवन कारावास की सजा का प्रावधान है।
जब सभी मकर संक्रांति मनाने में मग्न थे उसी दौर में जेएनयू राजद्रोह केस का जिन्न उठ खड़ा हुआ। वैसे मकर संक्रांति देश के प्रमुख पर्वो में से एक है। अलग-अलग राज्यों में स्थानीय परंपराओं के अनुसार इसे मनाया जाता है। इसी दिन से गंगा नदी के किनारे माघ मेला या गंगा स्नान का आयोजन किया जाता है। कुंभ के पहले स्नान की शुरुआत भी इसी दिन से होती है। मकर संक्रांति त्योहार विभिन्न राज्यों में अलग-अलग नाम से मनाया जाता है। उत्तर प्रदेश में मकर संक्रांति को खिचड़ी पर्व कहा जाता है. सूर्य की पूजा की जाती है। चावल और दाल की खिचड़ी खाई और दान की जाती है। गुजरात और राजस्थान में उत्तरायण पर्व के रूप में मनाया जाता है। पतंग उत्सव का आयोजन किया जाता है। आंध्रप्रदेश में संक्रांति के नाम से तीन दिन का पर्व मनाया जाता है। तमिलनाडु में किसानों का ये प्रमुख पर्व पोंगल के नाम से मनाया जाता है। महाराष्ट्र में लोग गजक और तिल के लड्डू खाते हैं और एक दूसरे को भेंट देकर शुभकामनाएं देते हैं। पश्चिम बंगाल में हुगली नदी पर गंगा सागर मेले का आयोजन किया जाता है। असम में भोगली बिहू के नाम से इस पर्व को मनाया जाता है। पंजाब में एक दिन पूर्व लोहड़ी पर्व के रूप में मनाया जाता है। सूर्य के एक राशि से दूसरी राशि में जाने को ही संक्रांति कहते हैं। संक्रांति में दाल-चावल की खिचड़ी पकाई और खिलाई जाती है। इस बार लोकसभा चुनाव के पहले बांधे जा रहे राजनीतिक लड्डुआें में ‘जेएनयू राजद्रोह’ मामले की चार्जशीट दाखिल किया जाना मेवे का काम करेगा या कंकड़ का यह तो आने वाला समय ही बताएगा।
यह किसी से छिपा नहीं है। छोटे-छोटे विवादों और मामूली अपराधों के मामलों की सुनवाई में अरसा लग जाता है। देश में निचली अदालतों का कमोबेश यही हाल है, जहां मुकदमे बरसों-बरस घिसटते रहते हैं। दीवानी मुकदमे तो पीढ़ियों तक भी खिंच जाते हैं। न्याय में देरी के मामले न्याय प्रणाली में मौजूद विसंगतियों और गंभीर खामियों की तरफ ही इशारा करते हैं। अदालतों की कार्यप्रणाली कछुआ चाल वाली है। पर केवल अदालतों को दोष क्यों दें, कार्यपालिका भी कम दोषी नहीं है, क्योंकि न्यायिक ढांचे के पर्याप्त विस्तार के लिए संसाधन मुहैया कराना उसी की जिम्मेवारी है। पर सरकारें इस तरफ से उदासीन ही रही हैं। निचली अदालतों से लेकर सर्वोच्च अदालत तक, कुल मिलाकर तीन करोड़ से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं। लेकिन राजद्रोह के मामले में चार्जशीट दाखिल करने में तीन साल का समय लग जाना शायद किसी और देश में संभव नहीं है।

तीन साल बाद दाखिल की गई चार्जशीट में कन्हैया कुमार, उमर खालिद और अनिर्बन समेत 10 आरोपियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए (राजद्रोह), 323 (किसी को चोट पहुंचाने के लिए सजा), 465 (जालसाजी के लिए सजा), 471 (फर्जी दस्तावेज या इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को वास्तविक के तौर पर इस्तेमाल करना), 143 (गैरकानूनी तरीके से एकत्र समूह का सदस्य होने के लिए सजा), 149 (गैरकानूनी तरीके से एकत्र समूह का सदस्य होना), 147 (दंगा फैलाने के लिए सजा) और 120बी (आपराधिक षडयंत्र) के तहत आरोप लगाए गए हैं। पुलिस ने दावा किया कि उसके पास अपराध को साबित करने के लिये वीडियो क्लिप है, जिसकी गवाहों के बयानों से पुष्टि हुई है। पुलिस का कहना है कि कन्हैया कुमार जुलूस की अगुवाई कर रहे थे और उन्होंने जेएनयू परिसर में फरवरी 2016 में देश विरोधी नारे लगाए जाने का कथित तौर पर समर्थन किया था। पुलिस ने यह भी बताया कि आरोपपत्र में भाकपा नेता डी राजा की पुत्री अपराजिता, जेएनयूएसयू की तत्कालीन उपाध्यक्ष शहला राशिद, राम नागा, आशुतोष कुमार और बनोज्योत्सना लाहिरी सहित 36 अन्य लोगों के नाम हैं क्योंकि इन लोगों के खिलाफ सबूत अपर्याप्त हैं।
घटना के दौरान कन्हैया कुमार अखिल भारतीय छात्र परिषद को नेता था। यह अखिल भारतीय छात्र परिषद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्टूडैंट विंग है। कन्हैया कुमार को सन् 2015 में जेएनयू (जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय) छात्रसंघ के अध्यक्ष पद के लिए चुना गया था। फरवरी 2016 में जेएनयू में एक कश्मीरी अलगाववादी, 2001 में भारतीय संसद पर हमले के दोषी, मोहम्मद अफजल गुरु को फांसी दिए जाने के खिलाफ एक छात्र रैली में राष्ट्रविरोधी नारे लगाने के आरोप में देशद्रोह का मामला दर्ज किया गया था। कन्हैया कुमार को तब दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार भी किया था। फिर 2 मार्च 2016 में अंतरिम जमानत पर रिहा कर दिया गया था, क्योंकि राष्ट्र विरोधी नारों में भाग लेने का पुलिस द्वारा कन्हैया कुमार का कोई सबूत प्रस्तुत नहीं किया गया। उल्लेखनीय है कि जेएनयू के कुलपति द्वारा गठित एक अनुशासन समिति ने भी विवादास्पद घटना की जांच की। वहीं, प्रारंभिक जांच रिपोर्ट के आधार पर, कन्हैया कुमार और सात अन्य छात्रों को अकादमिक तौर पर वंचित कर दिया गया। कन्हैया कुमार पर राजद्रोह का मुकादमा चलाया गया। इस बीच कन्हैया कुमार की आटोबायोग्राफिक किताब भी छपी जिसका नाम है- ‘बिहार टू तिहार’।

जहां एक ओर राजनीति में अपराध की घुटपैंठ को रोकने की बात की जाती है वहीं संदिग्ध आरोपी को राजनीतिक प्रचार करने की छूट दी जाती है। या तो पहले क्लीनचिट दी जाती फिर चुनाव प्रचार से रोका जाना चाहिए था। क्योंकि मामला मामूली नहीं देश के मान-सम्मान का था। दूसरी ओर यदि कन्हैया कुमार राजनीति करने की आजादी थी तो शेष आजादी से उसे क्यों वंचित रखा गया? स्वाभाविक है कि इस तरह के प्रश्न प्रकरण को कमजोर बना सकते हैं। चार्जशीट दाखिल किए जाने के बाद कन्हैया कुमार ने आरोप पत्र को ’राजनीति से प्रेरित’ बताते हुए लोकसभा चुनाव से कुछ महीने पहले इसे दायर किए जाने पर इसके समय को लेकर सवाल उठाया। कन्हैया कुमार ने मीडिया से यह भी कहा, ’मुझे कोई समन या अदालत से कोई सूचना नहीं मिली है। लेकिन अगर यह सही है तो हम पुलिस और प्रधानमंत्री मोदी के शुक्रगुजार हैं कि आखिरकार तीन साल बाद जब उनके और उनकी सरकार के जाने का वक्त आ गया है तो आरोपपत्र दायर किया गया है। लेकिन लोकसभा चुनाव से ठीक पहले आरोपपत्र का दायर किया जाना प्रासंगिक है।’’ कन्हैया कुमार ने यह भी कहा कि ‘‘इस मामले में सनी देओल की फिल्म की तरह तारीख पर तारीख न दी जाए। उन्होंने कहा कि कोर्ट में स्पीडी ट्रायल चलाया जाए और फैसला सुनाया जाए। उन्होंने कहा कि मैं निर्दोष हूं, मुझे देश की न्याय व्यवस्था पर पूरा विश्वास है। कन्हैया ने बेगूसराय में कहा कि सरकार के पास कोई मुद्दा ही नहीं बचा है इसलिए वो ऐसे मामले को तूल दे रही है। केंद्र सरकार सिर्फ पाकिस्तान, मंदिर और हिंदू-मुसलमान की बात कर रही है। उन्होंने कहा कि सरकार पूरी तरह डिप्रेशन के दौर में आ गई है और दोबारा सत्ता पाने के लिए वह किसी भी हद से गुजरने को तैयार है।’’
वहीं, उमर खालिद ने बेंगलुरू में सेंट जोसेफ कॉलेज में छात्रों के एक समूह को ‘संविधान की रक्षा में युवकों की भूमिका’ विषय पर संबोधित किया। खालिद ने कहा कि हम आरोपों को खारिज करते हैं। कथित घटना के तीन साल बाद आरोपपत्र दाखिल करने का कदम चुनावों के ठीक पहले ध्यान भटकाने का एक प्रयास है। शहला राशिद ने कहा कि यह पूरी तरह से एक फर्जी मामला है जिसमें अंततः हर कोई बरी हो जाएगा। चुनावों के ठीक पहले आरोपपत्र दाखिल किया जाना दर्शाता है कि किस प्रकार भाजपा इससे चुनावी फायदा उठानी चाहती है। मैं घटना के दिन परिसर में भी नहीं थी। वहीं, भाकपा नेता डी राजा ने कहा कि यह राजनीति से प्रेरित है। तीन साल बाद दिल्ली पुलिस इस मामले में आरोपपत्र दाखिल कर रही है। हम इसे अदालत में और अदालत के बाहर राजनीतिक रूप से लड़ेंगे।

राजनीति में स्वार्थ साधने की कला में सभी माहिर होते हैं। हर दल अपने-अपने ढंग से मामले का व्याख्याकार बन बैठता है। कन्हैया के समर्थन में तेजस्वी भी आ गए। उन्होंने यह भी कहा कि बीजेपी के खिलाफ मुंह खोलने वालों को सीबीआई, इडी, इनकम टैक्स जैसी एजेंसियों से डराया जाता है। इसके अलावा उन्होंने यूपी की राजनीति पर कहा कि हम चाहते हैं कि बीजेपी के खिलाफ पूरे देश में गठबंधन बने। कुल मिला कर राजद्रोह मामले की रेलगाड़ी को एक बार फिर राजनीति की पटरी पर चलाने की जोड़-तोड़ गरमाने लगी है। बहरहाल, जेएनयू राजद्रोह मामले में आरोपपत्र का संज्ञान लेना या नहीं लेना मुख्य मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट पर निर्भर करेगा। लेकिन संक्रांति के लड्डुओं के बीच चार्जशीट का कंकड़ तो आ ही गया है।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 17.01.2019)
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