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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, January 30, 2019

चर्चा प्लस ... राजनीति में बिगड़े बोलों का बोलबाला - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ...
राजनीति में बिगड़े बोलों का बोलबाला
- डॉ. शरद सिंह
चुनाव आते-आते नेताओं की जबान कुछ अधिक ही फिसलने लगती है और वे देश और जनता की समस्याओं पर बोलने के बजाए प्रतिद्वंद्वी दलों की महिलाओं पर अपशब्द बोलने लगते हैं। यही गति रही तो कहीं जनता इन्हीं बोलों के आधार पर उन्हें खारिज़ करना न शुरू कर दें। जिन कर्णधारों को जनता चुन कर विधान सभा और संसद में भेजती है जब वे ही लोग बिगड़े बोल बोलने लगें को तो हो चुका देश का उद्धार। भारतीय राजनीति में ऐसी फिसलन पहले कभी नहीं रही जैसे विगत कुछ चुनावों के दौरान और चुनावों के बाद देखने-सुनने को मिल रही है। 
चर्चा प्लस ... राजनीति में बिगड़े बोलों का बोलबाला  - डॉ. शरद सिंह  Charcha Plus - Rajniti Me Bigare Bolon Ka Bolbala -  Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh in Sagar Dinkar

  चुनाव नजदीक आते ही वादों-विवादों का दौर चल पड़ता है। एक दूसरे की टांग खींचने का कार्यक्रम शुरू हो जाता है। यदि मामला एक-दूसरे के भ्रष्टाचार या कामों तक सीमित रहे तो फिर भी गनीमत है, कान तो तब गर्म होने लगते हैं जब अपनी भड़ास निकालने और दूसरे को नीचा दिखाने के लिए महिलाओं को निशाना बनाया जाता है। उस समय सोचने को विवश होना पड़ता है कि क्या ये वही हमारे कर्णधार हैं जिनके हाथों में देश के विकास और सुरक्षा की बागडोर हमने सौंपी है।
आज राजनीतिक गलियारों में भाषा स्वयं शर्मिंदा हो रही है। जब बात हो जबान फिसलने की तो राजनीतिक दलों के भी भेद मिट जाते हैं। स्वयं को संस्कारी कहने वाले दल भी असंस्कारी भाषा बोलने लगते हैं। चाहे सत्ताधारी हो या विपक्षी दोनों एक-दूसरे से आगे बढ़ कर अशोभनीय टिप्पणियां करने लगते हैं। मकसद सिर्फ यही कि वे मीडिया में छाए रहें। कई नेता तो अपने विकास कार्यों नहीं बल्कि अपनी ओछी टिप्पणियों के लिए ही जाने जाते हैं। क्योंकि उन्होंने विकास कार्य किया ही नहीं होता है और इसे छिपाने के लिए अभद्र टिप्पणियों का सहारा लेने लगते हैं। जिससे सभी का ध्यान बंटा रहे। नेताओं के विवादित और फूहड़ बोल हमेशा मीडिया में छाए रहते हैं और आमतौर पर इन नेताओं के निशाने पर महिलाएं होती हैं, फिर चाहे वह महिला राजनीति से जुड़ी हो या नहीं। उनके लिए महिलाएं आसान निशाना होती हैं, क्योंकि इनके रंग, रूप, कद-काठी, मोटापे या बालों को लेकर कुछ भी बोलने पर अच्छा-खासा कव्हरेज मिल जाता है।
अभी विगत दिनों भारतीय जनता पार्टी के महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने कहा था कि कांग्रेस चॉकलेटी चेहरों पर चुनाव लड़ना चाहती है। उन्होंने बाद में सफाई भी दी, यह बयान प्रियंका गांधी के लिए नहीं बल्कि बॉलिवुड ऐक्टर्स के लिए था। अब इसी पर मध्य प्रदेश सरकार में मंत्री सज्जन सिंह वर्मा ने कहा है कि बीजेपी का दुर्भाग्य है कि उनकी पार्टी में खुरदुरे चेहरे हैं। सज्जन सिंह वर्मा ने बॉलिवुड अदाकारा और बीजेपी सांसद हेमा मालिनी पर भी टिप्पणी की। उन्होंने कहा, ‘’बीजेपी का दुर्भाग्य है कि उनकी पार्टी में खुरदुरे चेहरे हैं, ऐसे चेहरे जिनको लोग नापसंद करते हैं। एक हेमा मालिनी है, उसके जगह-जगह शास्त्रीय नृत्य कराते रहते हैं, वोट कमाने की कोशिश करते हैं। चिकने चेहरे उनके पास नहीं हैं।’’
भाजपा नेता और राज्यसभा सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी ने उनके खिलाफ विवादित बयान देते हुए प्रियंका को मानसिक बीमारी का शिकार बताया और कहा कि प्रियंका को सार्वजनिक जीवन में काम नहीं करना चाहिए। स्वामी ने प्रियंका के सक्रिय राजनीति में आने के फैसले पर कहा कि ‘‘उसको एक बीमारी है जो सार्वजनिक जीवन में अनुकूल और उपयुक्त नहीं है। उस बीमारी को बायपॉलट्री कहते हैं, यानी उसका चरित्र हिंसक है। लोगों को पीटती है। पब्लिक को पता होना चाहिए कि वह कब संतुलन खो बैठेगी, किसी को पता नहीं है।’’ इस तरह की अशोभनीय टिप्पणी करने पर संबंधित महिला के चरित्र का हनन होता हो या नही,ं पर टिप्पणी करने वाले नेता का मानसिक चरित्र जरूर सामने आ जाता है।
कुछ दशक पूर्व बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने बिहार की सड़कों की तुलना हेमा मालिनी के गालों से करते हुए कहा था कि ‘‘हम बिहार की सड़कों को हेमा मालिनी के गालों की तरह चिकना बना देंगे।’’ तब हेमा मालिनी के गालों जैसी चिकनी सड़कों का उनका जुमला काफी चर्चित हुआ था। फिर इसी जुमले को अप्रैल 2013 में उत्तर प्रदेश के खादी और ग्रामोद्योग मंत्री राजा राम पांडेय ने दोहरा दिया था। पांडेय ने यह विवादित बयान यूपी के प्रतापगढ़ में दिया था। उन्होंने पत्रकारों से कहा था, ’बेला की सड़कें हेमा मालिनी के गालों जैसी चमकेंगी। अभी तो फेशल हो रहा है।’ बेहतर यह हुआ कि सड़कों की तुलना हेमा मालिनी के गालों से करना उन्हें भारी पड़ गया था। इस बयान ने उनकी कुर्सी छीन ली थी।
फूहड़ बयानबाजी का सिलसिला थमा नहीं है। वर्ष 2018 में भी इसी तरह के फूहड़ बयान सुनने को मिले। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद में जिस अंदाज में कांग्रेस नेता रेणुका चौधरी की हंसी की तुलना शूर्पणखा से की और इस पर जिस अंदाज में संसद में बैठे नेताओं ने ठहाके लगाए वह अशोभनीय था। लोकतांत्रिक जनता दल के नेता शरद यादव ने राजस्थान चुनाव के दौरान तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे पर बहुत ही फूहड़ तंज कसते हुए कहा था, “वसुंधरा को आराम दो, बहुत थक गई हैं, बहुत मोटी हो गई हैं, पहले पतली थीं। हमारे मध्य प्रदेश की बेटी हैं।“ मध्य प्रदेश के गुना से भजापा विधायक पन्नालाल शाक्य ने बहुत ही घटिया बयान दिया था। उन्होंने कहा था कि ‘‘महिलाएं बांझ रहें, मगर ऐसे बच्चे को जन्म न दें, जो संस्कारी न हो और जो समाज में विकृति पैदा करते हों।’’ उत्तर प्रदेश से भाजपा विधायक विक्रम सैनी ने देश की बढ़ती आबादी के बावजूद हिंदुओं को बच्चे पैदा करते रहने की सलाह दी थी। उन्होंने बड़े शर्मनाक ढंग से अपनी पत्नी के साथ अपनी बातचीत का जिक्र सार्वजनिक तौर पर किया था- “मैंने तो अपनी पत्नी से कह दिया है कि जब तक जनसंख्या नियंत्रण पर कोई कानून नहीं आ जाता, बच्चे पैदा करती रहो।“
भारतीय राजनीति में भाषा की ऐसी गिरावट शायद पहले कभी नहीं देखी गयी। ऊपर से नीचे तक सड़कछाप भाषा ने अपनी बड़ी जगह बना ली है। राजनीति जिसे देश चलाना है और देश को रास्ता दिखाना है, वह खुद गहरे भटकाव की शिकार है। लोग निरंतर अपने ही बड़बोलेपन से ही मैदान जीतने की जुगत में हैं और उन्हें लगता है कि अभद्र टिप्पणी उन्हें रातों-रात सुर्खियों में बिठा देगी। होता भी यही है। टीवी चैनल्स उन्हें नकारते नहीं वरन् उनकी अभद्र टिप्पणी को ले कर बात पर डिबेट करने लगते हैं। ‘‘बदनाम हुए तो क्या नाम तो हुआ’’ वाली कहावत चरितार्थ होने लगती है। यही तथ्य उकसाता है है ऐसी टिप्पणियां करने को।
डॉ. राममनोहर लोहिया शायद इसीलिए कहते थे “लोकराज लोकलाज से चलता है।” लेकिन ऐसा लगता है कि आज के कतिपय नेताओं की डिक्शनी में ‘‘लोकलाज’’ जैसा शब्द ही नहीं बचा हैं। वहीं पं. दीनदयाल उपाध्याय ने अपनी पुस्तक ‘‘पॉलिटिकल डायरी’’ में लिखा ऐसे भटके हुए नेताओं के लिए बड़ा अच्छा सुझाव दिया है कि - “कोई बुरा उम्मीदवार केवल इसलिए आपका मत पाने का दावा नहीं कर सकता कि वह किसी अच्छी पार्टी की ओर से खड़ा है। बुरा-बुरा ही है और वह कहीं भी और किसी का भी हित नहीं कर सकता। पार्टी के हाईकमान ने ऐसे व्यक्ति को टिकट देते समय पक्षपात किया होगा या नेकनियती बरतते हुए भी वह निर्णय में भूल कर गया होगा। अतः ऐसी गलती सुधारना उत्तरदायी मतदाता का कर्तव्य है।”
दुर्भाग्य यह कि महिला नेताएं भी पुरुष नेताओं से पीछे नहीं हैं। अभद्र टिप्पणी करते समय वे गोया भूल जाती हैं कि वे भी एक स्त्री हैं। केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को मंजूरी देने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद बड़े गर्व से कहा था कि “क्या आप अपने किसी दोस्त के घर खून से सना हुआ नैपकिन लेकर जाएंगे, नहीं ना! तो भगवान के घर में कैसे जा सकते हैं?“ दरअसल महिला नेताएं भी इस संबंध में कहीं न कहीं दोषी हैं। यदि वे अपने ऊपर की गई अशोभनीय टिप्पणी को राजनीतिक, व्यक्तिगत अथवा किसी भी तरह के दबाव में आ कर टाल जाती हैं और प्रतिरोध नहीं करती हैं तो इससे गलत मानसिकता को बढ़ावा मिलता है। यदि लालू प्रसाद यादव की टिप्पणी पर हेमामालिनी ने कड़ी आपत्ति जताई होती तो उत्तर प्रदेश के मंत्री महोदय उसे दोहराने की जुर्रत नहीं करते। इसी तरह जुलाई 2013 में मंदसौर की एक आमसभा में मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने अपने आप को राजनीति का पुराना जौहरी बताते हुए कहा था, ‘’मुझे पता है कि कौन फर्जी है और कौन सही है. इस क्षेत्र की सांसद मीनाक्षी नटराजन सौ टंच माल है।’’ जब बयान को लेकर जब विवाद बढ़ता गया तो पढ़ी-लिखी और स्वयं एक लेखिका होते हुए भी मीनाक्षी नटराजन दिग्विजय सिंह के बचाव में उतर आई थीं। उन्होंने कहा था कि दिग्विजय सिंह ने उनकी तारीफ में ऐसा कहा था, इसलिए इस मामले को तूल दिए जाने की जरूरत नहीं है। भला कोई महिला स्वयं को ‘माल’ शब्द कहे जाने पर कैसे शांत रह सकती है? लेकिन राजनीति की इसी कमजोरी ने बोलों के बिगाड़ को निरंतर बढ़ावा दिया है। यदि नेताओं के बोलों के बिगड़ने की यही गति रही तो कहीं जनता इन्हीं बोलों के आधार पर उन्हें खारिज़ करना न शुरू कर दें।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 30.01.2019)
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