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My Editorials - Dr Sharad Singh

Friday, February 15, 2019

संकट में है बुंदेलखंड का लोकनाट्य - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह , नवभारत में प्रकाशित

Dr (Miss) Sharad Singh

15.02.2019 को प्रतिष्ठित सामाचार पत्र " #नवभारत " में #बुंदेलखंड के संकटग्रस्त #लोकनाट्य पर केंद्रित मेरा लेख....
🙏 हार्दिक धन्यवाद #नवभारत
संकट में है बुंदेलखंड का लोकनाट्य
                   - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह                    
आधुनिक युग में हमने यदि कुछ गंवाया है तो वह है हमारी लोक परंपराएं, जिनमें लोकनृत्य और लोकनाट्य भी शामिल हैं। लोकनृत्य फूहड़पन की भेंट चढ़ते जा रहे हैं और लोकनाट्य सिमटते जा रहे हैं। बुंदेलखंड के लोकनाट्यों की भी यही दशा है। चंद लोक कला अकादमियां इनके नाम को बचाए हुए हैं, अन्यथा मूल स्वरूप में ये विलुप्ति की कगार पर हैं। बुंदेलखंड में लोकनाट्य बहुत लोकप्रिय रहे हैं लेकिन आज उनका चलन तेजी से घट चला है। शहरी क्षेत्रों के निवासी तो लोकनाट्यों से भलीभांति परिचित भी नहीं हैं। बुंदेलखंड के मध्यप्रदेश स्थित तीन जिलों में विगत दिनों हुए एक सर्वे में यह बात सामने आई कि 95 प्रतिशत लोग बुंदेली लोकनाट्यों के बारे में जानते ही नहीं हैं। वे सिर्फ रामलीला को ही लोकनाट्य के रूप में जानते हैं। जबकि बुन्देखण्ड में लोकनाट्यों की समृद्ध परम्परा रही है। प्रमुख बुन्देली लोकनाट्य हैं - कांड़रा, रहस, स्वांग और भंडैती।
संकट में है बुंदेलखंड का लोकनाट्य
                   - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह    An Article of Dr (Miss) Sharad Singh in Navbharat Daily

कांड़रा लोकनाट्य में निर्गुनिया भजन गाता है तथा गीत के अनुरूप आंगिक अभिनय कर नृत्य तथा हाव-भाव प्रदर्शित करता है। इसमें पहले गीतिबद्ध संवाद, फिर कथा तथा स्वांग शैलियों का समावेश हुआ। कांड़रा का मंच चौपाल-चबूतरा, मंदिर प्रांगण आदि होता था। यद्यपि समय के साथ इसे शास्त्रीय मंच पर भी प्रस्तृत किया जाने लगा है। इसकी प्रस्तुति के समय मंच के पृष्ठ भाग के करीब वादक-मृदंग, कसावरी, मंजीरा और झींका पर संगति करते खड़े रहते हैं। जबकि नर्तक सारंगी वादन करता है और निर्गुनिया मंगला-चरण प्रारंभ। वादक वेशभूषा पर ध्यान नहीं देते किन्तु मुख्य नायक कांड़रा जो सम्भवतः कान्हा का स्वरूप है, सराई पर रंग बिरंगा जामा, पहनकर, सिर पर कलंगीदार पगड़ी बांधता है। जामा पर सफेद या रंगीन कुर्ती पहनता है। बीच-बीच में फिरकी की भांति नृत्य करता है।
कृष्ण की रासलीला से प्रभावित बुन्देली अंचल में ’रहस‘ परम्परा प्राप्त होती है। इसके दो रूप प्रचलित है-एक, कतकारियों की रहस लीला और दूसरा लीला नाट्य। कतकारियों का रहस बुन्देलखण्ड की व्रत परम्परा का अंग बन गया है। कार्तिक बदी एक से, पूर्णिमा तक स्नान और व्रत करने वाली कतकारियां गोपी भाव से जितने क्रिया व्यापार करती हैं, वे सब ’रहस‘ की सही मानसिकता बना देते हैं। ’रहस‘ में अधिकांशतः दधिलीला, चीरहरण, माखन चोरी, बंसी चोरी, गेंद लीला, दानलीला आदि प्रसंग अभिनीत किए जाते हैं। ’रहस‘ का मंच खुला हुआ सरोवर तट, मंदिर प्रांगण, नदीतट और जनपथ होता है। कतकारी वस्त्रों में परिवर्तन करके पुरूष तथा स्त्री पात्रों का अभिनय करती हैं। वाद्यों का प्रयोग नहीं होता। संवाद अधिकांशतः पद्यमय होते हैं। लीलानाट्य के रूप में अभिनीत ’रहस‘ अधिकतर कार्तिक उत्सव और मेले में आयोजित होते हैं। इनका मंच मंदिर-प्रांगण, गांव की चौपाल अथवा विशिष्ट रूप से तख्तों से तैयार ’रास चौंतरा होता है।‘ ’राधा-कृष्ण‘ बनने वाले पात्र ’सरूप‘ कहे जाते हैं। वाद्य के रूप में ’मृदंग एवं परवावज‘ (वर्तमान में ढोलक या तबला) वीणा के बदले हारमोनियम, मंजीरे आदि का प्रयोग होता है। संवाद पद्यवद है। विदूषक का कार्य मनसुखा करता है। बीच बीच में राधा-कृष्ण तथा गोपियों का मण्डलाकार नृत्य अनिवार्य है। अंत में सरूप की आरती के बाद मांगलिक गीत से पटाक्षेप होता है। राम विषयक रहस में भी कृष्ण रहस की छटा दिखई देती है। जो इसमें समाहित हास्य एवं श्रृंगार के संवादों से स्पष्ट झलकती है।
राई नृत्य के साथ स्वांग का अभिनीत किया जाना प्रचलन में रहा है। स्वांग लोकनाट्य का विषय सामाजिक, कुरीतियों, विद्रूपताओं पर तीक्ष्ण व्यंग्य होता है। इनके लिए गांवों में कोई मंच नहीं बनाया जाता, कस्बों में मंच निर्माण होता है। स्वांग में विदूषक की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। स्वांग में स्त्रियों की भूमिका अधिकांशतः पुरूष पात्रों द्वारा ही अभिनीत की जाती है। संगीत में ढोलक, ढपला, नगड़िया, मृदंग आदि वाद्य प्रमुख रूप से बजाए जाते हैं।
भंडैती बुंदेलखंड के उत्तरप्रदेशी अंचल की एक लोक प्रचलित नाट्य विधा है। तुलसीदास की ’चोर चतुर वटपार नट, प्रभुप्रिय भंडुआ भंड‘ तो केशव दास की ’कहूं भांड भांडयों करैं मान पावै‘ पंक्तियों 17वीं शती भंडैती के प्रचलन का पता चलता है। भंडैती का मंच खुला मैदान या चबूतरा होता था। पात्र कोई श्रृंगार नहीं करते थे बल्कि अपनी विशिष्टता, वाक्पटुता, हाजिर जवाबी, और चुटीले हास्य प्रस्तुत करते थे। इनमें तीखे व्यंग्य होते थे। वर्तमान में इनका प्रचलन बहुत ही कम हो गया है।
      यद्यपि आधुनिकता के इस दौर में अन्य लोककलाओं की भांति बुन्देली लोक नाट्य का अस्तित्व तेजी से सिमटता जा रहा है जो कि चिंताजनक है। इन्हें सहेजने और पुनः चलन में बनाए रखने के लिए जरूरी है नुक्कड़ नाटकों की तरह इन्हें खेले जाने की तथा इनसे जुड़े कलाकारों को प्रोत्साहित किए जाने की। बिना गंभीर प्रयास के इस कला को बचा पाना संभव नहीं है।
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( नवभारत, 15.02.2019)
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