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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, March 26, 2019

चर्चा प्लस ... अनूठा है बुंदेलखंड और अनूठी है बुंदेलखंड की होली - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ... 
अनूठा है बुंदेलखंड और अनूठी है बुंदेलखंड की होली
- डॉ. शरद सिंह 

सतरंगे बुंदेलखंड की सतरंगी छटा अगर देखनी हो तो होली से बेहतर त्योहार कोई और हो ही नहीं सकता है। यहां हर दिन समस्याओं से जूझती ग्रामीण महिलाएं भी होली में चुनौती देने का साहस रखती हैं कि ‘लला फिर आइयो खेलन होरी!’ बुंदेलखंड में मान्यता है कि होली का त्योहार यहीं से शुरु हुआ। वहीं होली की पंचमी में ही मनौती पूरी होने पर राई नृत्य भी कराया जाता है। उस पर ईसुरी और कवि पद्माकर की फाग रचनाओं ने इस भू-भाग को देश-दुनिया में एक अलग अनूठी पहचान दी है।
मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश, इन दो राज्यों में फैला बुंदेलखंड संस्कृति संपदा का धनी है। भले ही यहां बड़े-बड़े युद्ध लड़े गए, भले ही यहां सदियों से आमजन के लिए समस्याएं अपने रूप बदल-बदल कर साहस की परीक्षा लेती रहीं, भले ही यह भू-भाग पिछले इलाके के टैग के साथ दशकों से जी रहा है फिर भी इसने अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं को अपने कलेजे से लगाए रखा है। होली जैसे रंगपर्व पर ये विशेषताएं अपनी अलग ही छटा बिखेरती हैं। बुंदेलखंड में माना जाता है कि होली का त्योहार बुंदेलखंड से ही आरम्भ हुआ। एक किंवदंती के अनुसार झांसी से लगभग 66 कि.मी. दूर स्थित एरच नामक गांव से इसकी शुरुआत हुई। कथा के अनुसार एरच कभी राजा हिरयाकश्यपु की राजधानी हुआ करता था। भगवान विष्णु के भक्त बालक प्रहलाद को एरच में ही होलिका अपनी गोद में ले कर उसे जला कर भस्म करने को बैठी थी किन्तु विष्णु के चमत्कार से बालक प्रहलाद सही-सलामत बच गया और होलिका स्वयं जल कर भस्म हो गई। इसके बाद ही होलिका दहन की परम्परा आरम्भ हुई जो धीरे-धीरे समूचे देश में फैल गई। एरच में होली के त्योहार को मनाने के लिए एक महीने पहले से ही तैयारियां शुरू कर दी जाती हैं और गर्व के साथ होली जलाई और खेली जाती है।
चर्चा प्लस ... अनूठा है बुंदेलखंड और अनूठी है बुंदेलखंड की होली - डॉ. शरद सिंह Charcha Plus - Anutha Hai Bundelkhnd Aur Anuthi Hai Bundelkhnd Ki Holi  -  Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh
          बरसाने की ‘लट्ठमार‘ होली विश्वविख्यात है लेकिन बुंदेलखंड में भी कुछ स्थानों पर ‘लट्ठमार‘ होली खेलने की परम्परा सदियों से चली आ रही है। एक लट्ठमार होली का संबंध हिरण्यकश्यपु की कथा से ही है। झांसी जिले के रक्सा विकास खंड के पुनावली कलां गांव की लट्ठमार होली बरसाने से ज्यादा रोचक होती है। यहां महिलाएं गुड़ की भेली एक पोटली में बांधकर कर पेड़ की डाल पर टांग देती हैं। फिर महिलाएं लट्ठ लेकर स्वयं उसकी रखवाली करती हैं। यह पुरुषों के लिए चुनौती के समान होता है। जो भी पुरुष इस पोटली को पाने का प्रयास करता है, उसे महिलाओं के लट्ठ का सामना करना पड़ता है। इस रस्म के बाद ही यहां होलिका दहन होता है और फिर रंग खेला जाता है। इस परम्परा के संबंध में एक कथा प्रचलित है कि राक्षसराज हिरणकश्यपु के समय होलिका विष्णुभक्त प्रह्लाद को अपनी गोदी में लेकर जलती चिता में बैठी थी। वहां उपस्थित महिलाओं से यह दृश्य देखा नहीं गया और उन्होंने राक्षसों के साथ युद्ध करते हुए विष्णु से प्रार्थना की कि वे प्रहलाद को बचा लें। उन साहसी महिलाओं की पुकार सुन कर विष्णु ने प्रहलाद को बचा लिया। इसी घटना की याद में ’लट्ठमार होली’ का आयोजन किया जाता है, जिसके द्वारा महिलाएं यह प्रकट करती हैं कि वे अन्याय के विरुद्ध लड़ भी सकती हैं।
बुंदेलखंड में हमीरपुर (उ.प्र.) के कुंडौरा गांव में भी लट्ठमार होली खेली जाती है। यहां रंगों की होली एक नहीं बल्कि दो दिन होती है। होलिका दहन के ठीक अगले दिन महिलाएं होली खेलती हैं और उसके बाद दूसरे दिन पुरुष होली खेल पाते हैं। पहले दिन की होली में महिलाओं का ज़ोर चलता है। इस दिन पुरुष अपने घर से निकलने से हिचकते हैं। जो पुरुष घर से बाहर नज़र आ जाता है उसे महिलाओं के लट्ठ की मार का सामना करना पड़ता है। इसलिए रंगवाली होली के पहले दिन वे महिलाओं से बच कर रहते हैं। दूसरे दिन वे महिलाओं के साथ मिल कर होली खेल पाते हैं। इस अनोखी परंपरा के पीछे एक रोचक कथा है। कथा के अनुसार ग्राम कुंडौरा में कभी एक रसूख वाला व्यक्ति हुआ करता था जिसका नाम था मेंहर सिंह (या मेंबर सिंह)। एक बार होली के त्यौहार पर जब गांव के राम-जानकी मंदिर में फाग गाई जा रही थी। उसी समय मेंहर सिंह ने आपसी रंजिश में मंदिर में ही एक व्यक्ति की हत्या कर दी। उसने वहां उपस्थित लोगों को भी धमकाया। क्योंकि उसे संदेह था कि मंदिर में उसके दुश्मन को पनाह दी गई थी। इस घटना से डर कर गांव वालों ने होली का त्योहार मनाना छोड़ दिया। वर्षों तक गांव में होली नहीं मनाई गई। तब वहां की महिलाओं ने पहल की और वे हुरियारों की तरह होली खेलने लट्ठ ले कर निकल पड़ीं। तभी से कुंडौरा में लट्ठमार होली खेली जाने लगी।
बुंदेलखंड में प्रचलित होली की इन कथाओं और परम्पराओं के संदर्भ में कवि पद्माकर का यह कवित्त सटीक बैठता है जिसमें यहां की महिलाओं के साहस भरे पक्ष को बड़ी सुंदरता से सामने रखा गया है -
फागु की भीर, अभीरिन ने गहि गोविंद लै गई भीतर गोरी
भाय करी मन की पद्माकर उपर नाई अबीर की झोरी
छीने पीतांबर कम्मर तें सु बिदा कई दई मीड़ि कपोलन रोरी।
नैन नचाय कही मुसकाय ’’लला फिर आइयो खेलन होरी।
ऐसा नहीं है कि बुंदेली महिलाएं सामान्य होली के अलावा सिर्फ़ लट्ठमार होली ही खेलती हों। अनेक स्थानों पर वे फूलों की होली भी खेलती हैं। मौसम बदलता है और इसके साथ ही वनस्पतियां भी फूलों से लद जाती हैं। ये रंग-बिरंगे फूल होली के त्योहार में और भी रंग भर देते हैं। बुंदेलखंड के मध्यप्रदेश अंचल के सागर नगर में गोपालगंज झंडा चौक स्थित श्री नृत्यगोपाल मंदिर में होलाष्टक के अवसर पर महिलाएं राधा-कृष्ण के साथ फूलों की होली खेलती हैं। वे फाग गीत और भजन गाती हैं और उल्लास से भर कर नृत्य करती हैं। इस दौरान वे परस्पर एक-दूसरे पर फूलों की वर्षा करती हैं। इसके साथ ही वे सभी को अष्टगंध, चंदन व टेसू के फूलों से होली की शुभकामनाएं देती हैं। मथुरा वृंदावन की तर्ज पर सागर में फूलों की होली की यह परम्परा कई वर्ष से अनवरत चल रही है।
महिलाओं द्वारा फूलों से होली खेलने की परम्परा उत्तरप्रदेश के बुंदेली अंचल कुलपहाड़ में भी है। कुलपहाड़ महोबा जिले में स्थित है। टेसू के फूलों की वर्षा और ईसुरी के गीतों के गायन के साथ यहां फूलों की होली खेली जाती है।
जहां तक होली में गानों का प्रश्न है तो यहां परम्पराएं पीछे छूटती जा रही हैं। पहले समूचे बुंदेलखंड में ईसुरी रचित फागों को गाए बिना लोग होली नहीं खेलते थे। हुरियारे ईसुरी की फागों पर थिरकते थे। ढोलक व मंजीरे बजते थे। इसके अलावा परंपरागत फागों के गायक भी इस त्योहार पर पुरानी फागों को गाते थे। इन गीतों में किसानों, मजदूरों के जीवन का चित्रण होता था। खेती-किसानी की बातें होती थीं। इनमें छेड़-छाड़ के द्विअर्थी संवाद भी होते थे जो लोगों के मन को गुदगुदाते थे। ईसुरी अपनी फाग में कितनी सहजता से यह बात कहते हैं, ज़रा देखिए-
ऐंगर बैठ लेओ कछु काने, काम जनम भर रानें
सबखां लागौ रात जियत भर, जौ नई कभऊं बड़ानें
करियो काम घरी भर रै कैं,बिगर कछु नई जानें
ई धंधे के बीच ’ईसुरी’ करत-करत मर जानें
बुंदेलखंड की परंपराओं के अनुरूप इनमें आल्हा-ऊदल व अन्य वीरों की गाथाएं होती थीं। मगर अब होली के गानों के नाम पर जगह-जगह डीजे पर बजते फिल्मी गाने बजते हैं। तथाकथित लोकगीतों और फिल्मी गानों के शोर तले कहीं दब गई हैं ईसुरी की फागें। ईसुरी की इन पंक्तियों का भाव-सौंदर्य अनूठा है-
दरस परस को है हरस हुलस को है
फागुन को मास सखि, राग और रस को है
बुंदेलखंड के कई इलाकों में पंचमी तक होली खेली जाती है और पंचमी को होली की उमंग अपनी पूरी ऊंचाई पर पहुंच कर अगले वर्ष तक के लिए स्थगित हो जाती है। मध्यप्रदेश का चंदेरी नामक स्थान अपनी साड़ियों के लिए विश्व प्रसिद्ध है। चंदेरी अशोकनगर में स्थित है और इसी अशोक नगर से लगभग 75 कि.मी. दूर है करीला। एक अनूठी परम्परा इसे विश्व के नक्शे पर पहचान दिला दी है। रंगपंचमी के अवसर पर इस छोटे से गांव में भीड़ उमड़ने लगती है। लाखों की संख्या में लोग पहुंचकर यहां स्थित सीता माता के मंदिर में गुलाल अर्पित करते हैं। एक किंवदंती के अनुसार यहीं ऋषि बाल्मीकि के आश्रम में सीता माता ने लव-कुश को जन्म दिया था। लव-कुश के जन्म पर स्वयं अप्सराओं ने यहां नृत्य किया था। नृत्य की इस परम्परा को बेड़नी नर्तकियां आज भी जारी रखे हुए है। मनौतियां पूरी होने पर भी श्रद्धालु मंदिर में गुलाल चढ़ाते हैं और रंग-गुलाल उड़ाते हुए बेड़नियों का नृत्य कराते हैं। करीला में पंचमी का दिन भी होली के प्रथम दिवस की भांति रंगमय हो जाता है। धर्म, रंग और मान्यताओं का सुंदर मेल यहां देखने को मिलता है।
भले ही जंगल कटते जा रहे हैं, भले ही बुंदलखंड की जनता को गर्मी के मौसम में पानी के लिए तरसना पड़ता है, भले ही यहां युवाओं के लिए रोजगार की कमी है, भले ही यहां के युवा पेट की खातिर यहां से पलायन करने को विवश हैं, फिर भी, बुंदेलखंड में होली की उमंग एक समृद्ध परम्परा की तरह मौजूद है। मानो इस सालाना त्योहार में अपने साल भर के दुख भुला कर खुश होने का बहाना ढूंढ लेते हैं। यहां की लट्ठमार होली और फूलों की होली स्त्री-शक्ति की कथाएं कहती हैं ओर बुंदेलखंड की होली को और भी विशिष्ट बना देता है करीला का उत्सव। हर हाल में खुश रहो - यही तो है जीवन बुंदेलखंड की होली का मूलमंत्र।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 20.03.2018)
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