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My Editorials - Dr Sharad Singh

Thursday, March 7, 2019

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष : ‘बैलेंस फॉर बेटर’ वाया बुंदेलखंड - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह ... ' नवभारत ' में प्रकाशित

Dr (Miss) Sharad Singh

आज (07.03.2019 ) को नवभारत  में प्रकाशित ‘बैलेंस फॉर बेटर’ वाया बुंदेलखंड मेरा लेख....इसे आप भी पढ़िए !
🙏 हार्दिक धन्यवाद नवभारत
 





अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष :  ‘बैलेंस फॉर बेटर’ वाया बुंदेलखंड
          - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
                      
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की इस वर्ष की थीम है ‘बैलेंस फॉर बेटर’। इस थीम के अंतर्गत् वर्ष भर प्रयास किए जाएंगे कि महिलाओं और समाज की बेहतरी के लिए लैंगिक संतुलन और समानता स्थापित की जा सके। इस थीम का तय किया जाना ही इस बात को सिद्ध करता है कि तमाम दावों और प्रयासों के बावजूद महिलाओं के साथ लैंगिक मतभेद जारी है। दरअसल, लैंगिक समानता के लिए सिर्फ़ कानून बना दिया जाना ही पर्याप्त नहीं है। इसके लिए जरूरी है कि इन कानूनों को अमलीजामा भी पहनाया जाए। जिनके हित में ये कानून हैं, उन्हें इनकी जानकारी हो और वे इसका सहारा ले कर स्वयं को प्रगति की मुख्यधारा से जोड़ सकें।
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष :  ‘बैलेंस फॉर बेटर’ वाया बुंदेलखंड - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह ... ' नवभारत ' में प्रकाशित ... An article of Dr (Miss) Sharad Singh in ' Navbharat ' on International Women's Day

समानता पाने का दुनिया की महिलाओं का यह संघर्ष एक शताब्दी से भी अधिक समय का है। सन् 1908 में 15000 महिलाओं ने न्यूयॉर्क सिटी में प्रदर्शन करते हुए एक मार्च निकाला था। उनकी मांगें थीं - मतदान का अधिकार, काम के घंटे कम करने के लिए और योग्यतानुसार पुरुषों की तरह वेतन दिया जाए। इस प्रदर्शन के लगभग एक साल बाद 28 फरवरी 1909 को अमेरिका की सोशलिस्ट पार्टी ने महिला दिवस मानाने की घोषण की और अमेरीका में में पहला राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया। दुनिया के इस पहले महिला दिवस ने मानो समूचे महिला जगत को प्रेरणा दी और सन् 1910 में जर्मनी की क्लारा जेटकिन ने अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाने का विचार रखा। क्लारा ने सुझाव दिया की दुनिया के हर देश की महिला को अपनी मांगे प्रकट करने और विचार साझा करने के लिए एक दिन तय करते हुए महिला दिवस मनाना चाहिए। क्लारा के इस सुझाव को 17 देशों की 100 से ज्यादा महिलाओं का समर्थन मिला और इस प्रकार अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस सुनिश्चित किया गया। उस समय प्रथमिक उद्देश्य था महिलाओं को मतदान का अधिकार दिलाना। इसके बाद, 19 मार्च 1911 को पहली बार आस्ट्रिया डेनमार्क, जर्मनी और स्विट्ज़रलैंड में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया। सन् 1913 में अंतर्राट्रीय महिला दिवस के लिए एक सर्वमान्य तिथि घोषित की गई। यह तिथि है 8 मार्च।  अब हर वर्ष 8 मार्च को पूरी दुनिया में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है।
दुनिया की अनेक संस्थाएं और सरकारें प्रयासरत हैं कि समाज में सि़्त्रयों और पुरुषों में समानता स्थापित हो सके। लेकिन कहीं तो गड़बड़ है जो इक्कसवीं सदी के दूसरे दशक के समापन पर खड़े हो कर भी समानता का ही प्रयास करना पड़ रहा है। वह कहावत है न कि चावल का एक दाना ही काफभ् होता है यह जानने के लिए कि चावल पका है या नहीं। इसी तरह देश में अमूमन महिलाओं की दशा को आंकने के लिए बुंदेलखंड में महिलाओं की दशा पर दृष्टिपात किया जा सकता है। वास्तविक दशा यह है कि बुंदेलखण्ड में अभी भी बहुत-सी महिलाएं शिक्षा से कोसों दूर हैं। जो साक्षर हैं उनमें भी बहुत-सी सिर्फ़ हस्ताक्षर करना जानती हैं, वह भी कांपती उंगलियों से। बुंदेलखण्ड में अभी भी महिलाओं को अपनी कोख पर अधिकार नहीं है। उनका मातृत्व उनका परिवार और परिवार के पुरुष तय करते हैं। नौकरी करने का निर्णय अधिकांशतः परिस्थितिजन्य होता है, भले ही उसके पीछे लड़की की अच्छी जगह शादी हो जाने का मंशा ही क्यों न हो। सेहत के मामले में आम भारतीय महिलाओं की भांति बुंदेलखंड की महिलाएं भी जागरुक नहीं हैं। अधिकतर महिलाएं घर के दूसरे सदस्यों का पूरा ध्यान रखती हैं लेकिन स्वयं के पोषण और स्वास्थ्य के बारे में लापरवाही बरतती हैं। क्योंकि यही सिखाया गया है महिलाओं को सदियों से कि स्वयं को समर्पिता बनाए रखें। यहां यह भुला दिया जाता है कि एक कमजोर और बीमार स्त्री परिवार की बेहतर देखभाल नहीं कर सकती हैं। अधिकांश परिवारों में पुरुष सदस्य भी महिला सदस्य की सेहत का ध्यान नहीं रखते हैं। बुंदेलखंड में महिलाएं और बालिकाएं आज भी पीने का पानी भरने के लिए सिर पर घड़े रख कर कई किलोमीटर चलती हैं। यह सच्चाई स्त्री-पुरुष समानता की तो कदापि नहीं हैं। यह सच्चाई तो समाज और हमारी मानसिकता के दोहरेपन को रेखांकित करती है। राजनीति में भी महिलाओं की ‘‘ईमानदार भागीदारी’’ बहुत कम है। ‘ईमानदार भागीदारी’ से आशय है कि वे रबर स्टैम्प बन कर नहीं बल्कि स्वनिर्णय के अधिकार सहित राजनीति में आने से है। जाहिर है कि इसमें पुरुषों को भी अपनी सदाशयता दिखाते हुए स्वयं के अधिकारों के लोभ पर काबू रखना होगा। बेशक़ यह समानता की दिशा में एक महत्वपूर्ण और निर्णायक कदम होगा।
संयुक्त राष्ट्रसंघ का ‘‘महिलाओं के सतत विकास का एजेंडा-2030’’ में लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण की अनिवार्यता को पहली बार समझा गया है और इसकी पुष्टि की गई है। इस एजेंडे में कहा गया है, -‘‘यदि आधी मानव जाति को उसके पूर्ण मानवाधिकारों और अवसरों से वंचित रखा जाता है तो सतत विकास संभव नहीं है।’’ इसे शिखर सम्मलेन स्तर पर दुनिया के 193 देशों द्वारा अपनाया गया है। यह लक्ष्य न केवल लैंगिक समानता को प्राप्त करने के बारे में है बल्कि समस्त महिलाओं और लड़कियों को सशक्त करने के बारे में है, इसमें इस बात पर जोर दिया गया है कि ‘‘कोई भी पीछे न छूटे।’’ महिलाओं और लड़कियों के प्रति हर प्रकार के भेदभाव को क़ानून और व्यवहारिक रूप से समाप्त करना और महिलाओं के विरुद्ध हिंसा को समाप्त करना सतत विकास के लक्ष्य हैं।
हमारे देश में भी संविधान द्वारा समान हक पाने के बावजूद आज भी स्त्रियां दोयम दर्जे पर हैं। यह स्थिति घर की देहरी से लेकर दफ्तर तक, हर जगह मौजूद है। हमारे देश में अनेक स्थानों पर महिलाओं को ना तो समान वेतन मिल रहा है और ना ही आर्थिक, राजनीतिक नेतृत्व में पर्याप्त प्रतिनिधित्व। इतना ही नहीं, अपने ही घर के भीतर भी उन्हें महिला होने के नाते कई तरह के भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। इस दोहरे रवैए के चलते वे आज भी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं। ‘‘बैलेंस फॉर बेटर’’ की थीम को सिर्फ़ कागजी नहीं वरन् वास्तविक व्यवहार में लाते हुए महिलाओं को समता का अधिकार दिया जाए तो समाज की तरक्की का रास्ता कोई नहीं रोक सकता है। ‘‘बैलेंस फॉर बेटर’’ की शुरुआत महानगरों से नहीं बल्कि बुंदेलखंड जैसे देश के पिछड़े इलाकों से होनी जरूरी है।
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  ( Navbharat, 07.03.2019 )

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