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My Editorials - Dr Sharad Singh

Thursday, May 16, 2019

बुंदेलखंड के विलुप्त होते खेलों का आर्त्तनाद - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह - नवभारत में प्रकाशित

Dr (Miss) Sharad Singh
प्रतिष्ठित समाचार पत्र "नवभारत" में बुंदेलखंड के विलुप्त होते खेलों पर मेरा लेख प्रकाशित हुआ है... इसे आपभी पढ़िए... 🙏हार्दिक आभार "नवभारत" 🙏
 

बुंदेलखंड में आज से पच्चीस-तीस वर्ष पहले तक विद्यालयों में ग्रीष्मावकाश होना बच्चों के लिए किसी महा-उत्सव से कम नहीं होता था। वार्षिक परीक्षा के दौरान भी एक उत्साह मन में कुलबुलाता रहता था कि इस बार छुट्टियों में कहां जाना है और कितना खेलना है। एक मई से 30 जून तक होने वाले ग्रीष्मावकाश में खेलों की बाढ़ आ जाती थी। जिनको घर से बाहर निकल कर खेलने की अनुमति रहती वे गिल्ली-डंडा, पिट्टू जैसे खेल खेलते। जिन्हें घर के भीतर रह कर खेलने को मिल पाता वे चपेटा, काना दुआ, सोलह गोटी, बग्गा, लंगड़ी धप्पा जैसे खेल खेलते। इन खेलों को खेलने के लिए उन्हें कहीं जा कर प्रशिक्षण प्राप्त नहीं करना पड़ता था। वे सहज प्रवृति से इन खेलों को खेलते। इन खेलों के दौरान बच्चों के बीच परस्पर प्रेम भी बढ़ता और कभी-कभी छोटे-मोटे झगड़े भी होते जो दूसरे दिन तक स्वयं ही समाप्त हो जाते। अब स्थितियां बदल चुकी हैं। अब बच्चों के परीक्षा परिणाम मेरिट के ‘कटऑफ’ पर टिके होते हैं। गरमी की छुट्टियां बाद में होती हैं, अगली कक्षा में दाखिला पहले हो जाता है। जिससे उनकी छुट्टियां पढ़ाई के बोझ से मुक्त नहीं हो पाती हैं। उस पर ‘समर कैम्प’ और ‘स्किल डेव्हलपमेंट क्लासेस’, ‘ग्रूमिंग क्लासेस’ ‘काम्पिटीशन क्रैश कोर्स’ आदि नाना प्रकार के शैक्षणिक कैम्प तथा कोर्स रहते हैं जिनमें शिक्षा ग्रहण करते हुए बच्चा ‘क्लासरूम इफैक्ट’ से मुक्त नहीं हो पाते हैं। वे पाश्चात्य ज्ञान भले ही अर्जित कर लें किन्तु अपनी परम्पराओं का ज्ञान उन्हें नहीं मिल पाता है और न ही स्वतः करने की उनकी स्किल का विकास हो पाता है। जबकि पारंपरिक खेल बच्चों द्वारा ही ईजाद किए जाते रहे हैं और उनमें संशोधन, परिवर्द्धन भी बच्चों द्वारा ही किया जाता रहा।
Navbharat - Bundelkhand  Ke Vilupt Hote Khelon ka Artnaad .. - Dr Sharad Singh
बुन्देली लोकसंस्कृति भी जीवन के अनुरुप मनुष्य को ज्ञान प्रदान करने में सक्षम रही है। इस तथ्य का एक उदाहरण उन खेलों को के रूप में देखा जा सकता है जिन्हें बालिकाएं सहज भाव से बड़ी रूचि के साथ खेलती बुन्देली बालिकाएं जिन खेलों को खेलती हैं उन पर बारीकी से ध्यान दिया जाए तो उन खेलों की उपादेयता का पता चलता है। ये खेल अंतः क्रीड़ा (इनडोर गेम) तथा बर्हिक्रीड़ा (आउटडोर गेम) दोनों तरह के होते थे। जिन खेलों को कमरे, आन्तरिक आंगन, छज्जे, अटारी अथवा छत पर खेला जा सकता है वे इनडोर गेम की श्रेणी में आते थे। इसके विपरीत जिन खेलों को बाहरी आंगन, मैदानों, खलिहान के परिसर में खेला जाता था वे आउटडोर गेम कहलाते। 

बुन्देलखण्ड बालिकाओं में जो खेल अधिक लोकप्रिय हैं तथा परम्परागत रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक प्रवाहित होते आ रहे हैं, वे हैं- चपेटा, काना दुआ, सोलह गोटी, बग्गा, लंगड़ी धप्पा अथवा गपई समुद्र, गुंइयां बट्ट, घोर-घोर रानी, घोड़ा पादाम साईं, रस्सी-कूद, अंगुल-बित्ता, रोटी-पन्ना, पुतरा-पुतरियां, छिल-छिलाव, आंख-मिंचउव्वल, लंगड़ी छुआउल, छुक-छुक दाना आदि। देश की स्वतंत्रता के पूर्व सुरक्षा की दृष्टि से बुंदेलखंड में बालिकाओं को घर से बाहर कम ही जाने दिया जाता था तथा देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी बुन्देलखण्ड में विकास की दर अपेक्षाकृत धीमी रही। ऐसी स्थिति में स्वप्रेरित खेलों ने उनके जीवन को मनोरंजन के साथ-साथ सुदृढ़ता प्रदान की। 

बुंदेली खेलों में चपेटा, काना दुआ, सोलह गोटी, बग्गा जैसे खेल संकटों को दूर कर के उन पर विजय पाने का साहस और कौशल बढ़ाते तो वहीं लंगड़ी धप्पा अथवा गपई समुद्र, घोड़ा पादाम साईं, रस्सी-कूद, अंगुल-बित्ता, छिल-छिलाव, आंख-मिंचउव्वल, लंगड़ी छुआउल जैसे खेल शारीरिक संतुलन के साथ-साथ व्यायाम और आपसी सामंजस्य की शिक्षा देते। घोर-घोर रानी जैसे खेल अन्याय का विरोध करना सिखाते। वहीं छुक-छुक दाना जैसे खेल छल-कपट के प्रति सचेत रहने की चेतना जगाते। रोटी-पन्ना, पुतरा-पुतरियां जैसे खेल गृहस्थ जीवन, पारिवारिक एवं सामाजिक व्यवस्थाओं के प्रति सम्वेदनशील बनाते। इस प्रकार बुन्देली बालिकाओं के जीवन में पारम्परिक खेल जीवन के पाठ की भूमिका निभाते हैं।
बालको में गिल्ली-डंडा, कबड्डी, कुश्ती लोकप्रिय रही। लेकिन आज बालक-बालिकाओं दोनों के हाथों में मनोरंजन के इलेक्ट्रॉनिक उपकरण आ जाने से उन पारंपरिक खेलों से वे दूर होते जा रहे हैं जो उनमें शारीरिक क्षमता का विकास करते तथा आपसी सहयोग भावना को बढ़ाते। अब तो हाथों में झेंगाबॉक्स का रिमोट अथवा मोबाईल का स्क्रीन होता है और होता है अकेले रहने का जुनून। इस जुनून को पबजी जैसे खेल बढ़ावा दे कर मौत के मुंह तक पहुंचा देते हैं। बुंदेलखंड के बच्चे तो अब अपने पारम्परिक खेलों को ठीक से जानते ही नहीं हैं। यह दशा शहरों में ही नहीं गांवों में भी हो चली है। गिल्ली-डंडा की जगह क्रिकेट ने ले रखा है। अब कंचे कोई नहीं खेलता। लड़कियां भी चपेटा खेलने के बदले चैटिंग करने में रमी रहती हैं। यही कारण है कि जहां एक ओर पारंपरिक खेल दम तोड़ रहे हैं वहीं बच्चों की स्वाभाविकता, मासूमियत और खिलंदड़ापन गुम होता जा रहा है। 

फिर भी कुछ लोग हैं जो बुंदेलखंड के पारम्परिक खेलों को बचाने का उल्लेखनीय प्रयास कर रहे हैं। छतरपुर जिले के ग्राम बसारी में डॉ. बहादुर सिंह परमार के अथक प्रयासों से विगत 22 वर्ष से लगातार बुंदेली उत्सव का आयोजन किया रहा है। खजुराहो के निकट होने के कारण इस उत्सव का आनंद लेने न केवल स्वदेशी अपितु विदेशी पर्यटक भी पहुंचते हैं। बुंदेली खेलों को सहेजने की दिशा में इस उत्सव में बुंदेली खेल प्रतियोगिताएं कराई जाती हैं। ऐसा ही एक बुंदेली उत्सव दमोह जिले की हटा तहसील में भी होता है। इस उत्सव में भी बुंदेली खेलकूद प्रतियोगिताएं कराई जाती हैं। इस वर्ष डॉ. हरिसिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय में आयोजित गौर गौरव उत्सव में बुंदेली खेल आयोजित किए गए थे। ये खेल थे-गिल्ली-डंडा, पिट्टू, काना-दुआ, कुश्ती, कबड्डी, गिप्पी आदि। इस तरह के प्रयास देख कर अवश्य लगता है कि अभी भी कुछ लोग ऐसे हैं जो विलुप्त होते बुंदेली खेलों के आर्त्तनाद को सुन रहे हैं और उसके अस्तित्व को बचाए रखने का प्रयास कर रहे हैं। किन्तु खेलों का सीधा संबंध बच्चों से होता है और जब तक बच्चों को इन खेलों से नहीं जोड़ा जाएगा तब तक इन खेलों की दीर्घजीविता खतरे में रहेगी।
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( नवभारत, 11.05.2019 )
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