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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, May 8, 2019

चर्चा प्लस … चुनावी वार्मिंग तले दबा हुआ ग्लोबल वार्मिंग का मुद्दा - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस …
चुनावी वार्मिंग तले दबा हुआ ग्लोबल वार्मिंग का मुद्दा
- डॉ. शरद सिंह
लोकसभा चुनावों का क्लाईमेक्स हो तो बहसों, नारों, निवेदन और हंगामे के सिवा और कुछ हो ही नहीं सकता है। इस बार के चुनाव में वे मुद्दे कहीं हैं ही नहीं जिन पर भारतीयों की नहीं अपितु इस धरती की जीवनरेखा निर्भर है। पेड़ कट रहे हैं, खेत और हरियाली सिकुड़ रही है, धरती की ऊपरी पर्त्त शुष्क होती जा रही है क्योंकि जल का ठहराव नहीं हो पा रहा है। उस पर हमारे पास कोई ठोस प्लानिंग अथवा दृढ़ इच्छाशक्ति की कमी और हम उत्सवधर्मी साल में एक दिन बच्चों से चित्रकारी करा कर, भाषण दे कर बेखबर बैठे हैं।

Charcha Plus Column of Dr (Miss) Sharad Singh in Sagar Dinkar Daily News Paper चर्चा प्लस ... चुनावी वार्मिंग तले दबा हुआ ग्लोबल वार्मिंग का मुद्दा - Dr (Miss) Sharad Singh

  जापान में आई त्सुनामी भला कौन भुला सकता है? आज भी किसी डिस्कवरी अथवा ‘नेशनल जियोग्राफी चैनल पर जापान में आई त्सुनामी के दृश्य दिखाए जाते हैं तो उन्हें देख कर आत्मा कांप उठती है। अभी हाल ही में पापुआ न्यूगिनी में 7.2 रिक्टर स्केल का भूकंप आया। इससे पहले नेपाल में आए भूकंप के कारण हजारों लोग मारे गए और कई ऐतिहासिक धरोहरें तहस नहस हो गईं। आइए एक नजर डालते हैं सन 2000 के बाद विश्व में आए ऐसे पांच बडे़ भूकंप पर, जिससे मानव जाति को काफी तबाही झेलनी पड़ी। इंडोनेशिया में 26 दिसंबर, 2004 को 9.1 तीव्रता से आए भूकंप के कारण हिन्द महासागर में सूनामी आई। दर्जनभर देशों में दो लाख 30 हजार लोगों की मौत हो गई। इंडोनेशिया के उत्तरी सुमात्रा में 28 मार्च, 2005 को 8.5 की तीव्रता का भूकंप आने से लगभग 1300 लोग काल के गाल में समा गए। चिली में 27 फरवरी, 2010 को 8.8 की तीव्रता से आए भूकंप में 524 लोग असमय मारे गए। जापान के पूर्वोत्तर तट पर 11 मार्च 2011 को 9.0 की तीव्रता से भूकंप आने से भयानक तबाही मची। लगभग 18 हजार से अधिक लोगों की इसमें मौत हो गई। नेपाल में 25 अप्रैल, 2015 को 7.8 की तीव्रता से आए भूकंप ने जो तबाही मचाई वह अभी भूली नहीं है। इस आपदा में 8857 लोगों की मौत हो गई और कई महत्वपूर्ण इमारतें तहस नहस हो गईं।
दुनिया में यह प्राकृतिक आपदाएं भीषण रूप क्यों ले रही हैं? इसका एक ही उत्तर है-ग्लोबल वॉर्मिंग। भारत में ग्लोबल वार्मिंग भले ही अभी एक आंदोलन नहीं बना है। भले ही भाग-दौड़ में लगे रहने वाले हम भारतीयों के लिए इसके बारे में सोचने का समय नहीं है किन्तु हम इससे पूरी तरह अनजान भी नहीं है। जबकि विज्ञान की दुनिया में ग्लोबल वार्मिंग को 21वीं शताब्दी का सबसे बड़ा खतरा बताया जा रहा है।

हम अपने छोटी-छोटी समस्याओं में इस कदर उलझे रहते हैं कि बड़ी-बड़ी समस्याआें की ओर हम देख ही नहीं पाते हैं। अब पेयजल के संकट पर कोई बड़े आंदोलन नहीं होते हैं। हमारी सारी चिंताएं सोशल मीडिया में उबलती हैं और सोशल मीडिया से बाहर आते ही ठंडी पड़ जाती हैं। व्हाट्सएप्प पर विवादास्पद किन्तु झूठी सूचनाओं और थोथे ज्ञान की बहार हर समय छाई रहती है। इन सब के बीच ग्रीनहाउस इफैक्ट पर चर्चा को कोई जगह नहीं मिलती है। जबकि ग्रीन हाउस इफैक्ट के कारण सन् 1880 से 2012 की अवधि के दौरान पृथ्वी के औसत तापमान में 0.85 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो चुकी है। सन् 1906 से 2005 की अवधि के दौरान पृथ्वी के औसत तापमान में 0.74 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई । वैज्ञानिको के अनुसार तापमान में इस वृद्धि के कारण प्रकृति में जो परिवर्तन संभावित हैं, वे हैं - ग्लेशियरों का पिघलना यानी ताप बढ़ने से ग्लेशियर पिघलने लगते हैं और उनका आकार कम होने लगता है और ग्लेशियर पीछे हटने लगते हैं। समुद्री जलस्तर में वृद्धि - ग्लेशियरों के पिघलने से प्राप्त जल जब सागरों में मिलता है तो समुद्री जल स्तर में वृद्धि हो जाती है। समुद्री जलस्तर में वृद्धि से नदियों में बाढ़ की संभावना बढ़ जाती है। दरअसल, ग्लेशियरों से कई बारहमासी नदियां निकलती है और ग्लेशियर के जल को अपने साथ बहाकर ले जाती हैं । यदि ग्लेशियरों के पिघलने की दर बढ़ जाएगी तो नदी में जल की मात्रा बढ़ जाएगी जोकि बाढ़ का कारण बन सकती है। वर्षा-प्रतिरूप (पैटर्न) में परिवर्तन होता जा रहा है। वर्षा होने और बादलों के बनने में तापमान की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अतः ताप में वृद्धि के कारण वर्षा-प्रतिरूप या पैटर्न भी बदल रहा है। अर्थात् कहीं वर्षा पहले से कम होने लगी है तो कहीं पहले से ज्यादा होने लगी हैं। वर्षा की अवधि में भी बदलाव आ रहा है।
वैज्ञानिक मानते हैं कि समुद्री जल का ताप बढ़ने से प्रवाल भित्तियों का विनाश होने लगता है । वर्तमान में लगभग एक तिहाई प्रवाल भित्तियों का अस्तित्व ताप वृद्धि के कारण संकट में पड़ गया जो सबसे भयावह दुष्प्रभाव है। प्रवाल भित्तियों के नष्ट होने का दुष्परिणाम है -पेयजल की कमी।

जनसंख्या के तेजी से बढ़ते दबाव और जमीन के नीचे के पानी के अंधाधुंध दोहन के साथ ही जल संरक्षण की कोई कारगर नीति नहीं होने की वजह से पीने के पानी की समस्या प्रतिवर्ष गंभीर होती जा रही है। सर्दियों में स्थिति कुछ सामान्य रहती है लेकिन जैसे ही गर्मियों को मौसम आता है, जल की कमी अपना विकराल रूप धारण करने लगती है। जिसे दुनिया में सबसे ज्यादा बारिश वाली जगह चेरापूंजी में भी अब लोगों को पीने के पानी के लिए तरसना पड़ता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक आंकड़े के अनुसार भारत में लगभग 9.7 करोड़ लोगों को पीने का साफ पानी उपलब्ध नहीं है। जबकि यह आंकड़ा मात्र शहरी आबादी का है। ग्रामीण क्षेत्रों में 70 प्रतिशत लोग अब भी दूषित पानी पीने को ही विवश हैं। कहीं-कहीं तो वह भी उपलब्ध नहीं है। 17 अगस्त, 2008 को स्वीडन के स्टॉकहोम में हुए विश्व सम्मेलन में यह बात सामने आई कि दूषित पानी के कारण विश्व में हर साल 14 लाख बच्चों की जान जाती है। उस पर सन् 2028 तक भारत की जनसंख्या चीन से भी अधिक हो आने का अनुमान है। इससे पेयजल के स्रोतों पर अत्यधिक दबाव पड़ेगा।
योजनाओं पर अमल करने और प्रबंधन की मॉनीटरिंग के मामले में हमारा देश में दिखावे में अधिक विश्वास किया जाता है, काम पर कम। जो आंकड़े जुटाए जाते हैं वे सच्चाई से बिलकुल अलग रहते हैं। वर्ष 1984 में गंगा को साफ करने के लिए शुरू गंगा एक्शन प्लान के बाद भी गंगा आज भी स्वच्छ नहीं हो पाई है। सन् 2025 तक 1.8 अरब लोग ऐसे क्षेत्रों में रह रहे होंगे जहाँ पानी की बहुत कमी होगी। तेजी से बढ़ते कंक्रीट के जंगल जमीन के भीतर स्थित पानी के भंडार पर दबाव बढ़ा रहे हैं। आईटी सिटी के विकसित होने वाले गुड़गांव में अदालत ने पेय जल की गंभीर समस्या के चलते हाल में नए निर्माण पर तब तक रोक लगा दी थी जब तक संबंधित कंपनी या व्यक्ति पानी के वैकल्पिक स्रोत और उसके संरक्षण का प्रमाण नहीं दे देता। छोटे शहरों में इस पर कड़ाई से पालन नहीं कराया जाता है। प्रतिबंध के बावजूद गरमी के मौसम में भवन निर्माण कार्य निर्बाध गति से चलते रहते हैं।
ग्लोबल वार्मिंग के कारण धरती के तापमान में दो डिग्री सेल्सियस के संभावित वृद्धि से भारत को भयानक लू का सामना करना पड़ सकता है। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी रिपोर्ट में यह आशंका जताई जा चुकी है कि भारत में घातक लू के दौर से कोलकाता के सर्वाधिक प्रभावित होने की आशंका है। इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि नाइजीरिया में लागोस और चीन के शंघाई सहित अन्य महानगरों के तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ोतरी की आशंका के कारण साल 2050 तक प्रभावित महानगरों के लगभग 35 करोड़ लोग भीषण गर्मी से प्रभावित होंगे। रिपोर्ट में वैश्विक स्तर पर जलवायु संबंधी गड़बड़ी को देखते हुए इस बात की चेतावनी दी गई है कि यदि जलवायु में हो रहे इस परिवर्तन को सरकारों द्वारा अनदेखा किया गया तो भविष्य में समाज और वैश्विक अर्थव्यवस्था में व्यापक असर पड़ेगा। ग्लोबल वार्मिंग के कारण समुद्र तटीय इलाकों में जलस्तर बढऩे की कीमत करोड़ों डॉलर के अतिरिक्त आर्थिक बोझ के रूप में चुकानी पड़ेगी। समुद्री जलस्तर बढऩे के खतरे से तटीय इलाकों की लगभग पांच करोड़ आबादी प्रभावित होगी। इसमें चीन, बांग्लादेश, चीन, मिस्र, भारत, इंडोनेशिया, जापान, फिलीपीन, अमरीका और वियतनाम के तटीय क्षेत्र शामिल हैं। यदि दुनियाभर में औद्योगिक गतिविधियों यूं ही चलती रही तो आने वाले 100-50 वर्षों में पृथ्वी के तापमान में 2 से 4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो जाएगी। यह वृद्धि 4 डिग्री सेल्सियस से अधिक भी हो सकती है। पृथ्वी पर अधिक तापमान का सीधा मतलब है कि पृथ्वी पर चलने वाली हवाएं और अधिक गर्म हो जाएंगी और पृथ्वी के कई हिस्से लू की चपेट में रहेंगे. पृथ्वी पर अधिक तापमान और लू के चलते वैज्ञानिकों का दावा है कि समुद्र तल में वृद्धि देखने को मिलेगी। समुद्र तल में यह वृद्धि लगभग 2 से 4 फीट होगी। वहीं दुनिया के कई बड़े देशों के इर्द-गिर्द समुद्र तल में इससे अधिक वृद्धि हो सकती है। तापमान में वृद्धि के कारण होने वाले परिवर्तनों से दुनियाभर में कृषि पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा। इसके चलते खाद्य उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हो सकता है। पृथ्वी के तापमान में वृद्धि से कई पेड़-पौधों और प्रजातियां नष्ट हो जाएंगी। वन्य प्राणियों एवं पक्षियों की प्रजातियों पर भी इसका विपरीत असर पड़ेगा। आज ध्रुवीय भालू, पेंग्विन जैसे पशु संकटग्रस्त घोषित किए जा चुके हैं। यदि यही स्थिति रही तो पक्षियों की अनेक प्रजातियां भी कालकवलित हो जाएंगी।

ये सारी बातें किसी साईंस फिक्शन मूवी की तरह कपोल कल्पित लग सकती हैं किन्तु दुर्भाग्य से यही हमारी वर्तमान से शुरू होने वाली भावी सच्चाई है। यदि हम वंशवाद, जातिवाद, धर्म के झमेलों में उलझे रह कर जलवायु और ग्लोबलवार्मिंग को अनदेखा किए रहेंगे तो हम अपने वंशजों के जीवन के लिए हवा, पानी और जमीन भी नहीं छोड़ सकेंगे। समय रहते हमें अपनी सोच के दायरे को बढ़ाना होगा यदि हम पृथ्वी को अपनी आने वाली पीढ़ी को सौंपना चाहते हैं तो हमें अपने छोटे-छोटे स्वार्थों से आगे बढ़ कर कुछ करना होगा।
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