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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, July 31, 2019

चर्चा प्लस ... कथाकार प्रेमचंद के जन्म-दिवस (31 जुलाई) पर विशेष ... मात्र कथाकार नहीं, समाजशास्त्री भी थे प्रेमचंद - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ... 

कथाकार प्रेमचंद के जन्म-दिवस (31 जुलाई) पर विशेष

 
मात्र कथाकार नहीं, समाजशास्त्री भी थे प्रेमचंद
- डॉ. शरद सिंह

 
    प्रेमचंद के कथापात्र आज भी हमारे गांव, शहर और कस्बों में दिखाई देते हैं। दृश्य बदला है लेकिन इन पात्रों की दशा में बहुत अधिक परिवर्तन नहीं हुआ है। प्रेमचंद का किसान साहूकार के कर्ज तले दबा हुआ था तो आज का किसान भी कर्ज के बोझ से आत्महत्या करने को विवश हो उठता है। प्रेमचंद का किसान साहूकार के निजी बहीखाते में बंधुआ था, तो आज का किसान कर्ज़माफ़ी के सरकारी बहीखाते में बंधुआ है। शराबी पिता-पुत्र के परिवार की बहू के रूप में इकलौती स्त्री ‘कफ़न’ कहानी में तड़प-तड़प कर मरती दिखाई देती है, तो आज झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाली स्त्रियों की दशा इससे अलग नहीं है। प्रेमचंद ने समाज का एक समाजशास्त्री की भांति आकलन किया और सुधार के मार्ग सुझाए। उन्होंने समाज में व्याप्त विसंगतियों को अपनी कथासाहित्य के माध्यम से उजागर किया ताकि लोगों का उस ओर ध्यान आकृष्ट हो और समाज सुधार के क़दम उठाए जा सकें। उन्होंने विधवा स्त्री से विवाह कर स्वयं इस दिशा में पहल की।


चर्चा प्लस ... कथाकार प्रेमचंद के जन्म-दिवस (31 जुलाई) पर विशेष ... मात्र कथाकार नहीं, समाजशास्त्री भी थे प्रेमचंद - डॉ. शरद सिंह -  Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh
     कथाकार प्रेमचंद हिन्दी साहित्य में ‘कथासम्राट’ कहे जाते हैं। 31 जुलाई 1880 को जन्मे प्रेमचंद का मूलनाम धनपत राय श्रीवास्तव था। इन्हें नवाब राय और मुंशी प्रेमचंद के नाम से भी जाना जाता है। उपन्यास के क्षेत्र में उनके योगदान को देखकर बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें ‘‘उपन्यास सम्राट’’ कहकर संबोधित किया था। जबकि के साथ कार्य करने के कारण लोग उन्हें ‘‘मुंशी प्रेमचंद’’ कहने लगे। यद्यपि स्वयं प्रेमचंद ने स्वयं को कभी ‘मुंशी प्रेमचंद’ नहीं लिखा। वस्तुतः प्रेमचंद के नाम के साथ ‘‘मुंशी’’ विशेषण जुड़ने का प्रामाणिक कारण यह है कि ’हंस’ नामक पत्र प्रेमचंद एवं कन्हैयालाल मुंशी के सह संपादन में निकलता था। जिसकी कुछ प्रतियों पर कन्हैयालाल मुंशी का पूरा नाम न छपकर मात्र ’मुंशी’ छपा रहता था। साथ ही प्रेमचंद का नाम इस प्रकार छपा होता था - ‘‘मुंशी, प्रेमचंद’’। किन्तु कालान्तर में ‘मुंशी’ और ‘प्रेमचंद’ शब्दों के बीच का अर्द्धविराम अनदेखा कर कुछ लोगों ने ‘मुंशी’ शब्द को प्रेमचंद के नाम के साथ जोड़ दिया।
प्रेमचंद ने ‘‘नवाबराय’’ के नाम से उर्दू में साहित्य सृजन किया। यह नवाबराय नाम उन्हें अपने चाचा से मिला था जो उनके बचपन में उन्हें लाड़-प्यार में ‘‘नवाबराय’’ कह कर पुकारा करते थे। किन्तु अंग्रेज सरकार के कारण उन्हें अपना लेखकीय नाम ‘‘नवाबराय’’ से बदलकर ‘‘प्रेमचंद’’ करना पड़ा। हुआ यह कि उनकी ’सोज़े वतन’ (1909, ज़माना प्रेस, कानपुर) कहानी-संग्रह की सभी प्रतियां तत्कालीन अंग्रेजी सरकार ने ज़ब्त कर लीं। उर्दू अखबार “ज़माना“ के संपादक मुंशी दयानरायण निगम ने उन्हें सलाह दी कि वे सरकार के कोपभाजन बनने से बचाने के लिए ‘‘नबावराय’’ के स्थान पर ’प्रेमचंद’ लिखने लगें। इसके बाद वे ‘‘प्रेमचंद’’ के नाम से लेखनकार्य करने लगे।

प्रेमचंद ने सन् 1918 सं 1936 के बीच कुल ग्यारह उपन्यास हिन्दी साहित्य को दिए। ये उपन्यास हैं-‘सेवासदन’ (1918), ‘वरदान’ (1921), ‘प्रेमाश्रम’ (1921), ‘रंगभूमि’ (1925), ‘कायाकल्प’ (1926), ‘निर्मला’ (1927), ‘प्रतिज्ञा’ (1929), ‘गबन’ (1931), ‘कर्मभूमि’ (1932), ‘गोदान’ (1936), ‘मंगलसूत्र’। इनमें ‘मंगलसूत्र’ उपन्यास वे पूरा नहीं कर पाए।
प्रेमचंद ने भारतीय समाज की विशेषताओं और अन्तर्विरोधों को एक कुशल समाजशास्त्री की भांति गहराई से समझा। इसलिए उनके साहित्य में भारतीय समाज की वास्तविकता स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। स्त्रियों, दलितों सहित सभी शोषितों के प्रति प्रेमचंद ने अपनी लेखनी चलाई। प्रेमचंद मात्र एक कथाकार नहीं वरन् एक समाजशास्त्री भी थे। उनकी समाजशास्त्री दृष्टि सैद्धांतिक नहीं बल्कि व्यवहारिक थी। इसीलिए वे उस सच्चाई को भी देख लेते थे जो अकादमिक समाजशास्त्री देख नहीं पाते हैं। उन्होंने जहां एक ओर कर्ज में डूबे किसान की मनोदशा को परखा वहीं समाज के दोहरेपन की शिकार स्त्रियों की दशा का विश्लेषण किया। प्रेमचंद ने किसान को साहित्य का विषय बनाया। उनके कथा-साहित्य में किसान के जीवन के विभिन्न पक्षों का विवरण मिलता है। किसान हमेशा देश का एक बड़ा और महत्वपूर्ण वर्ग रहा है क्योंकि हमारा देश कृषिप्रधान देश है। समाज के समस्त आर्थिक व्यवहार का मूल कृषि और किसान रहे। लेकिन यही किसान प्रेमचंद के पूर्व हिन्दी साहित्य में इतना महत्वपूर्ण स्थान नहीं पा सका था।
‘प्रेमाश्रम’ को किसान-जीवन का आख्यान कहा जा सकता है। इस उपन्यास में किसानों के जीवन को समग्रता से वर्णित किया गया है। ‘कर्मभूमि’ और ‘गोदान’ ने किसानों के जीवन का मानो रेशा-रेशा खोल कर सामने ररख दिया। प्रेमचंद ने किसानों के शोषण-उत्पीड़न की जड़ तक पहुंचे और उन व्यवस्थागत कारणों की तलाश की जो किसानों की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार थे। उन्होंने किसानों के शोषकों के रूप में सामंतों, पुरोहितों एवं महाजनों को चिन्हित किया। प्रेमचंद ने इस तथ्य को समझा कर लिखा कि वे हैं। जिसके पास कम ज़मीन है, सीमांत किसान है। ऐसा किसान परिवार की मदद से खेती करता है। ऐसे कई किसान पांच बीघे के आसपास की खेती का वह मालिक भी होते हैं और श्रम करने वाला किसान भी होते हैं। वे कर्ज ले कर खेती करने को विवश रहते हैं। गांव की महाजनी पद्धति से उन्हें कर्ज़ मिलता है और वे साहूकार के मकड़जाल में फंस कर पीढ़-दर-पीढ़ी ब्याज ही चुकाते रह जाते हैं। ‘सवा सेर गेहूं’ में प्रेमचंद ने कर्ज़ की इस परम्परा के भयावह पक्ष को मार्मिक ढंग से सामने रखा है। ‘‘दो बैलों की जोड़ी’’ में वह माद्दा है कि वह पाठकों की आंखों में आंसू ला देती है और किसानों की पीड़ा पर कराहने को मजबूर कर देती है। लेकिन यहां इस तथ्य का उल्लेख करना भी जरूरी है कि प्रेमचंद का किसान पीड़ित है, शोषित है लेकिन आत्महत्या के पलायनवादी कृत्य से बहुत दूर है। उसमें आक्रोश और विद्रोह भी है जो ‘‘धनिया’’ और ‘‘हल्कू’’ जैसे पात्रों के माध्यम से समय-समय पर मुखर होता है। यह तथ्य प्रेमचंद के भीतर मौजूद साम्यवादी विचारधारा को उभारता है। वे साम्यवाद का ढिंढोरा नहीं पीटते थे लेकिन समाज में समता की बात करते हुए साम्यवाद के पैरोकार हो उठते थे।

प्रेमचंद ने अपने कथानकों में किसान के सम्मान के साथ कोई समझौता नहीं किया। उनका किसान स्वाभिमानी रहा। उसने हाड़तोड़ परिश्रम किया फिर भी ‘मरजाद’ के प्रति सजग रहा। उनका स्वाभिमानी किसान परिश्रम करके फसल उगाना चाहता है और मेहनत कर के ही धन कमाना चाहता है। उसे कोई ‘शॉर्टकट’ पसंद नहीं है। वह घबरा कर अन्यायी के सामने झुकने के बारे में सोचता भी नहीं है। लेकिन उसका स्वाभिमान कठोर नहीं है। वह ‘मरजादा’ के नाम पर अपने परिवार के सदस्य को मारने के बारे में नहीं सोचता है। तमाम अपमान, तिरस्कार एवं विपत्तियों के बाद भी उसके भीतर की मानवता मरी नहीं है। जैसे, होरी अपने पुत्र गोबर के प्रेम का सम्मान करते हुए गर्भवती झुनिया को अपने घर ले आता है। जो कि विधवा भी है। होरी झुनिया का तिरस्कार नहीं करता। उसे अपने परिवार का सदस्य घोषित करने का साहस करता है। होरी का यह कदम दमित किसान के भीतर जीवित मानवता का सुंदर उदाहरण है।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 31.07.2019)
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