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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, July 24, 2019

चर्चा प्लस ... कठोर कानून जरूरी है मॉब लिंचिंग रोकने केलिए - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ... 
 कठोर कानून जरूरी है मॉब लिंचिंग रोकने केलिए 
    - डॉ. शरद सिंह
       गौ-हत्या के मसले को लेकर शुरू हुई मॉब लिंचिंग अब तो भीड़ में मौजूद सरफिरों को अपना सोशलमीडिया पर अपना उन्माद दिखाने का आसान रास्ता बन गई। एक उन्मादी भीड़ एक निहत्थे इंसान को लातों, घूसों, डंडों आदि से पीट-पीट कर मार डालती है और उन्हीं उन्मादियों में से कुछ इस सारे घटनाक्रम की वीडियो अपने मोबाईल पर बनाने और अपलोड करने में व्यस्त रहते हैं। यह पागलपन भरी नृशंसता नहीं, तो और क्या है? जो भीड़ अपने जीवन की जरूरतों के बुनियादी मुद्दों को हल कराने के लिए मुंह खोलने का भी साहस नहीं रखती है, उसमें अचानक इतना जुनून कहां से आ जाता है? यह कोई प्रशिक्षित भीड़ नहीं होती है, तो फिर क्या समाज में अनेक लोग मनोरोगी (साइको) होते जा रहे हैं? ये सारे प्रश्न बड़े अजीब प्रतीत होते हैं किन्तु अफसोस कि यह हमारे आज के सामाज जीवन का दुःस्वप्न बनते जा रहे हैं। 
चर्चा प्लस ... कठोर कानून जरूरी है मॉब लिंचिंग रोकने केलिए  - डॉ. शरद सिंह
        'मॉब लिंचिंग’ अर्थात् अफवाह के आधार पर भीड़ द्वारा किसी व्यक्ति को नृशंसतापूर्वक जान से मार डालना। बच्चा चोरी की अफवाहों के चलते पीट-पीट कर मार डालने की घटनाओं में एक घटना और जुड़ गई जब कर्नाटक के बीदर जिले में बच्चा चोरी के शक में चार युवकों पर भीड़ ने हमला बोल दिया जिनमें एक की मौत हो गई।  बच्चा चोर के शक में भीड़ द्वारा पीट-पीटकर हत्या करने का एक और मामला सामने आया है। एक वृद्ध आदमी को राष्ट्रीय पक्षी मोर का हत्यारा मान कर उसकी पीट-पीट कर हत्या कर दी गई। यदि वह मोर का हत्यारा था भी तो उसे दण्डित करने का अधिकार सिर्फ कानून को था, चंद लोगों की भीड़ को नहीं। इसकी क्या गारंटी की जिन लोगों ने उस वृद्ध को मारा, वे स्वयं कसूरवार नहीं थे? घटना के संदेह के आधार पर किसी को नृशंसतापूर्वक पीट-पीट कर मार डालना अमानवीयता की हद को पार करने जैसा है। 

आए दिन बढ़ती मॉब लिंचिंग की घटनाएं चिंता का विषय बनती जा रही हैं लेकिन इस पर नियंत्रण लाने के लिए कोई अलग से कानून नहीं है। उस पर दुर्भाग्य यह कि एक धर्म विशेष के लाग तो बहुतायत शिकार बन ही रहे हैं, साथ ही मात्र संदेह और अफवाह का आधार ले कर कोई भी व्यक्ति कभी भी, कहीं भी इसका शिकार होने लगा है। गौ-हत्या के मसले को लेकर शुरू हुई मॉब लिंचिंग अब तो भीड़ में मौजूद सरफिरों को अपना सोशलमीडिया पर अपना उन्माद दिखाने का आसान रास्ता बन गई। एक उन्मादी भीड़ एक निहत्थे इंसान को लातों, घूसों, डंडों आदि से पीट-पीट कर मार डालती है और उन्हीं उन्मादियों में से कुछ इससारे घटनाक्रम की वीडियो अपने मोबाईल पर बनाने और अपलोड करने में व्यस्त रहते हैं। यह पागलपन भरी नृशंसता नहीं, तो और क्या है? 
मॉब लिंचिंग की नृशंसता की बढ़ती दर देख कर अब राजनेताओं के माथे पर भी शिकन पड़ने लगी है। इसीलिए विगत 01 जुलाई 2019 को महाराष्ट्र विधानसभा में कांग्रेस विधायक आरिफ नसीम खान ने मॉब लिंचिंग का मामला उठाया। उन्होंने मॉब लिंचिंग के खिलाफ कठोर कानून बनाने की मांग की। कांग्रेस विधायक ने कहा कि ‘‘राज्य में मॉब लिंचिंग की घटनाएं रोकने के लिए सख्त से सख्त कानून बनना चाहिए। आरिफ नसीम खान ने विधानसभा में कहा कि हरियाणा और उत्तर प्रदेश में मॉब लिंचिंग की घटनाएं सामने आने के बाद हम (कांग्रेस) मांग करते हैं कि ऐसी घटनाओं पर काबू पाने के लिए राज्य सरकार को कानून बनाना चाहिए। मॉब लिंचिंग के आरोपियों को कठोर दंड दिया जाना चाहिए तथा ऐसे मामलों में संलिप्त लोगों को कम से कम 10 साल की सजा मिलनी चाहिए।’’ 

इसके बाद 13 जुलाई 2019 को बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की अध्यक्ष मायावती ने मॉब लिचिंग को रोकने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कानून बनाए जाने की जरूरत बताई। इसके साथ ही इस दिशा में उत्तर प्रदेश राज्य विधि आयोग की पहल का उन्होंने स्वागत भी किया। एक बयान जारी करके बसपा अध्यक्ष मायावती ने कहा है, ‘‘मॉब लिचिंग देश में एक भयानक बीमारी का रूप ले चुकी है. इसकी वजह से जिंदगियों का होने वाला नुकसान गंभीर मुद्दा है। इससे बचाव के लिए राष्ट्रव्यापी स्तर पर कठोर कानून की जरूरत है। लेकिन दुख की बात है कि केंद्र सरकार का रुख इसके प्रति गंभीर नहीं है। मॉब लिचिंग की बीमारी से बचाव के लिए केंद्र और राज्य सरकारों की नीति और नीयत सही नहीं है। इसी का नतीजा है कि सिर्फ दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक समुदायों के लोग ही नहीं बल्कि सर्वसमाज के साथ पुलिस भी अब इसका शिकार बन रही है। ऐसे हालात में उत्तर प्रदेश राज्य विधि आयोग ने मॉब लिंचिंग के अपराध के लिए उम्र कैद की सजा की सिफारिश की है जो स्वागतयोग्य है।’’ पिछले कुछ महीनों में झारखंड, बंगाल और उत्तर प्रदेश से मॉब लिंचिंग के मामले सामने आए। वहीं मॉब लिंचिंग को रोकने के लिए मध्य प्रदेश सरकार कड़ा कानून बनाने जा रही है। इस कानून के तहत खुद को गोरक्षक बताकर हिंसा करने वाले लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी। 

वह घटना भुलाई नहीं जा सकती है जब सन् 2018 में कर्नाटक में बीदर जिले के एक गांव में भीड़ ने हैदराबाद निवासी और गूगल में कार्यरत सॉफ्टवेयर इंजीनियर मोहम्मद आजम उस्मानसाब की हत्या कर दी, जबकि उसके तीन दोस्त घायल हो गए। मारे गए युवक की उम्र मात्र 28-30 वर्ष थी। वे तीन दोस्त थे जिनमें एक कतर निवासी मोहम्मद सलहम था जो उसका कजिन था। वह छुट्टियां मनाने भारत आया था। हैदराबाद लौटते समय वे तस्वीरें खींचने के लिए एक छोटे से गांव के पास रुक गए। वहां कुछ स्कूली बच्चों को देखकर उन्होंने उन्हें चॉकलेट खाने के लिए दीं। यह चॉकलेट सलहम कतर से लाया था। एक विदेशी समेत कुछ अजनबियों द्वारा बच्चों को चॉकलेट देने पर स्थानीय लोगों ने उन्हें बच्चा चोर समझ लिया। इस बीच उनकी तस्वीरें वाट्सएप ग्रुप में फैल गईं। मारे गए युवक का कसूर यही था कि वह दुर्भावनाग्रस्त किसी ऐसे व्यक्ति के व्हाट्सएप्प मैसेज का शिकार हो गया जो निर्दोषों को मार कर अराजकता का माहौल खड़ा करना चाहता था। व्हाट्सएप्प मैसेज को वायरल करने और उसे सच मान लेने वाले जुनूनी इंसानों का भी विवेक मानो मर गया था जो उन्होंने एक पल को भी नहीं सोचा कि यह ख़बर सच है या नहीं? यदि उस ख़बर के सच होने का अंदेशा था भी, तो मात्र संदेह के आधार पर किसी को पीट-पीट कर मार डालने का अधिकार किसी को भी नहीं है।
कहते हैं कि भीड़ की कोई शक्ल नहीं होती। उनका कोई दीन-धर्म नहीं होता और इसी बात का फायदा हमेशा मॉब लिंचिंग करने वाली भीड़ उठाती है। पर सवाल ये है कि इस भीड़ को इकट्ठा कौन करता है? उन्हें उकसाता-भड़काता कौन है? जो भीड़ अपने जीवन की जरूरतों के बुनियादी मुद्दों को हल कराने के लिए मुंह खोलने का भी साहस नहीं रखती है, उसमें अचानक इतना जुनून कहां से आ जाता है? यह कोई प्रशिक्षित भीड़ नहीं होती है, तो फिर क्या समाज में अनेक लोग मनोरोगी (साइको) होते जा रहे हैं? ये सारे प्रश्न बड़े अजीब प्रतीत होते हैं किन्तु अफसोस कि यह हमारे आज के सामाज जीवन का दुःस्वप्न बनते जा रहे हैं।
मॉब लिंचिंग के आंकड़े उसकी गंभीरता की ओर स्पष्ट संकेत करते हैं। विगत 4 सालों में मॉब लिंचिंग के 134 मामले घटित हुए। विडम्बना यह कि तमिलनाडु और अगरतला में मॉब लिंचिंग की घटनाओं पर टिप्पणी करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिगत वर्ष जब कहा था कि गाय के नाम पर हत्या “स्वीकार्य नहीं“ है। उनकी इस टिप्पणी के कुछ ही घंटे बाद कथित तौर पर भीड़ ने एक मुस्लिम व्यक्ति को मार डाला। भीड़ में शामिल लोगों का इल्जाम था कि वो व्यक्ति अपनी कार में बीफ़ ले जा रहा था। अपराधी मनोवृत्ति की भीड़ की यह ढिठाई उसी समय मॉब लिंचिंग के विरुद्ध कठोर से कठोरतम कानून लाने के लिए पर्याप्त थी। यदि उसी समय संसद द्वारा विशेष बैठक बुला कर मॉब लिंचिंग के विरुद्ध कठोर कानून पारित कर दिया जाता तो इस तरह की नृशंस घटनाओं के आंकड़ें यूं बढ़ते नहीं रहते।

इस तरह की घटनाओं के बढ़ने का एक मनोवैज्ञानिक कारण अपराध का एक्सपोजर भी है। सोशल मीडिया तो इसे एक तगड़ा प्लेटफॉर्म मुहैया कराता ही है, उस पर अनेक न्यूज चैनल ऐसी घटनाओं को दिखाते समय सिर्फ़ शिकार हुए व्यक्ति को सेंसर कर के दिखाते हैं, वहीं भीड़ में मौजूद लोगों के चेहरे दिखाई देते रहते हैं। इससे अधकचरी और अपराधी मानसिकता वाले व्यक्तियों को बढ़ावा मिलता है। जबकि होना यह चाहिए कि बिना सेंसर का फुटेज पुलिस, जांच ऐजेंसी और न्यायालय को उपलब्ध कराया जाए और बेहद जरूरत पड़ने पर ही टीवी के पर्दे पर दिखाया जाए, अन्यथा भीड़ के चेहरों को भी सेंसर कर दिया जाना चाहिए ताकि ‘फेमस’ होने का लालच अपराधियों के मन में पैदा न होने पाए।  
ऐसे बर्बर अपराध हमारे देश में होते हैं तो दुनिया के सामने शर्मिंदा भी हमें ही होना पड़ता है। पिछले साल जर्मन न्यूज एजेंसी डॉचवैले ने मॉब लिचिंग के विरोध में किए गए एक प्रदर्शन की तख़्ती की फोटो के साथ बेंगलुरु की घटना को जारी किया था। तख़्ती पर लिखा था-‘‘वी वुंट लेट हिन्दुस्तान बिकम लिंचिस्तान। वी शेल डिफेण्ड द ह्यूमेनिटी टिल द वेरी एण्ड’’। अर्थात् ‘‘हम हिन्दुस्तान को लिंचिस्तान नहीं बनने देंगे। हम अंतिम दम तक मानवता की रक्षा करेंगे।’’ जब कोई विदेशी न्यूज ऐजेंसी इस तरह के समाचार सप्रमाण प्रकाशित या प्रमाणित करे तो देश का सिर शर्म से झुकना स्वाभाविक है। ऐसे समाचारों का प्रतिकार करने अथवा लज्जित होने से समस्या सुलझने वाली नहीं है। वस्तुतः ढूंढना होगा उन कारणों को जो इस तरह की घटनाओं के पीछे निहित हैं। पता लगाना होगा उन अवसरवादियों का जो अपनी दुर्भावना को पूरा करने के लिए व्हाट्सएप्प जैसे लोगों को लोगों को जोड़ने वाले साधन को लोगों के खिलाफ एक हथियार के रूप में प्रयोग कर रहे हैं। सचेत रहना होगा उन ग्रुप मेंबर्स को जो अपने एडमिन पर भरोसा करके अपराध के सहभागी बन बैठते हैं। कोई भी ऐसी अफवाह यदि व्हाट्एप्प के माध्यम से फोन पर आए वे संदिग्ध मैसेज को तत्काल डिलीट कर दे। लगातार इस तरह की हिंसक घटनाओं के बाद तो होश आ ही जाना चाहिए। जब व्हाट्सएप्प उपयोगकर्त्ता सजग रहेंगे तो ऐसी नृशंस घटनाएं भी नहीं घट सकेंगी।

मॉब लिंचिंग को रोकने के लिए कठोर कानून जरूरी है। यूं भी लोकतंत्र में मॉब लिंचिंग के लिए कोई जगह हो ही नहीं सकती है। लोकतंत्र सभी को जीने का अधिकार देता है, न्याय पाने का और सजा दिलाने का अधिकार देता है। लेकिन वहीं याद कराए जाने की जरूरत है कि लोकतंत्र कानून अपने हाथ में लेने का अधिकार नहीं देता है।                
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 24.07.2019)
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