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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, September 11, 2019

बुंदेलखंड की मूर्तिकला में गजानन गणेश - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह ... नवभारत में प्रकाशित

Dr (Miss) Sharad Singh

बुंदेलखंड की मूर्तिकला में गजानन गणेश
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह 

 

(नवभारत, 05.09.2019 अंक में प्रकाशित) 

ऊं वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभः।
निर्विघ्नम् कुरु में देव सर्वकार्येषु सर्वदा ।।
कार्य बिना किसी विघ्न-बाधा के पूर्ण हो जाए इसी प्रार्थना के साथ गजानन गणेश की अन्य देवी-देवताओं से भी पहले आराधना की जाती है। ऐसे श्रीगणेश को बुंदेलखंड की मूर्तिकला में विशेष स्थान दिया गया है। बुंदेलखंड क्षेत्र जहां तुलसीदास की जन्म भूमि राजापुर और साधना स्थली चित्रकूट, श्रीकृष्ण द्वैपायन वेद व्यास की जन्मभूमि कालपी है, वही आल्हा-ऊदल जैसे महान वीरों की कर्मभूमि महोबा और वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई की रंगभूमि रही झांसी है। इस भूमि में कला और संस्कृति का निरंतर विकास हुआ जिसका सबसे बड़ा उदाहरण खजुराहो की मूर्तिकला है। बुंदेलखंड के विभिन्न पुरातात्विक स्थलों में गणेश की मूर्तियां गुप्तकाल प्रतिहार और चंदेल ओं के समय छठवीं से बारहवीं शताब्दी से लेकर बुंदेली और मराठों के समय 17 वीं शताब्दी तक निर्मित की गईं। श्रीगणेशपूजा का चलन प्राचीनकाल से चला आ रहा है। वैदिक देव गणेश की मूर्ति कला के रूप में ईशा के पश्चात पांचवी शताब्दी से गणेश पूजा के प्रचलन के प्रमाण मिलते हैं। 
बुंदेलखंड की मूर्तिकला में गजानन गणेश - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह ... नवभारत में प्रकाशित
       बुंदेलखंड में गजानन गणेश की मूर्तियां विविध शैलियों में प्राप्त हुई हैं। प्रतिहार कालीन और चंदेल कालीन इन दोनों कालों की मूर्तियां 10वीं से 12वीं शताब्दी के बीच निर्मित की गई। कुछ गणपति मूर्तियां गुप्त काल और पूर्व प्रतिहार काल की भी मिली हैं, जिनमें झांसी जिले के देवगढ़ के प्रसिद्ध दशावतार मंदिर में स्थापित गणपति मूर्तियां प्रमुख है। साथ ही मध्ययुगीन प्रतिहार काल यानी आठवीं शताब्दी की गणपति प्रतिमाएं ग्वालियर संग्रहालय और भारत कला भवन वाराणसी में संग्रहित है। इनमें गणपति की नृत्य मुद्रा प्रदर्शित की गई है। चंदेल कालीन मूर्तियों की यह विशेषता रही है कि उन्हें सप्तमातृका और वीरभद्र के साथ भी बनाया गया है। प्रतिहार कालीन गणेश प्रतिमाएं ललितपुर जनपद से भी पाई गई है। इसके अलावा 10वीं शताब्दी की प्रतिहार प्रतिमाओं को भूमरा संग्रहालय, भारतीय संग्रहालय कोलकाता एवं राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली में संग्रहित किया गया हैं। वहीं चंदेल कालीन गणपति मूर्तियां खजुराहो में संग्रहित हैं। यहां गणेश की अष्टभुजी प्रतिमाओं कोे साथ ही स्थानक, आसन एवं शक्ति सहित नृत्य मुद्रा तथा सप्तमातृका एवं वीरभद्र के साथ उकेरा गया है। बुंदेलखंड क्षेत्र में मंदिरों के मुख्य द्वार के किनारे यह चैखट तथा चैखट के मध्य भाग पर भी गणेश प्रतिमाओं का अंकन मिलता है। पुराणों में श्रीगणेश के कुछ विशेष नाम मिलते हैं, जिनमें प्रमुख हैं- एकदंत, गजानन, शुभकरण, लम्बोदर, विघ्नेश्वर आदि। इनसे संबंधित कथाएं भी पुराणों में मौजूद हैं, जिनके आधार पर बुंदेलखंड में प्रतिमाएं बनाई गई हैं। बुंदेलखंड में गणपति की स्थानक और नृत्य मुद्रा दोनों प्रतिमाएं मिलती हैं। जिनमें झांसी जिले के देवगढ़ ललितपुर से उत्तर गुप्तकालीन स्थानक प्रतिमा प्राप्त होती है। वैसे तो उत्तर गुप्त काल यानी पांचवी-छठी शताब्दी की प्रतिमाओं में गणेश के दो के स्थान पर चार भुजाएं बनाई जाने लगी थीं किंतु देवगढ़ की तीन घाटी क्षेत्र में गुप्तकालीन त्रिभुज गणेश की स्थानक प्रतिमाएं ही बनाई गई हैं। यहां की मूर्ति शिल्प में गुप्त काल की विशेषताओं को अपनाया गया है। देवगढ़ की नाहर घाटी और राज घाटी में अंकित यह प्रतिमाएं सप्तमातृका ओं के साथ हैं। इसके अतिरिक्त एक घाटी में गणेश की स्वतंत्र मूर्ति भी उकेरी गई है जो कि लगभग छठी शताब्दी की है। इसी समयावधि की स्थानक प्रतिमाएं उदयगिरि (विदिशा) राजघाट (वाराणसी) अहिछात्र (बरेली) तथा भीतरगांव (कानपुर) से भी मिली हैं। देवगढ़ के दशावतार मंदिर में भी गणेश की मूर्ति स्थापित है। खजुराहो के पुरातत्व संग्रहालय में भी स्थानक गणेश की मूर्ति संग्रहित है। ललितपुर जनपद में सागर-ललितपुर मार्ग पर स्थित पटोराकला गांव में तालाब के निकट हनुमान मंदिर में गणेश की त्रिभुजी प्रतिमा स्थापित है। इसी जनपद के सिरोनकला गांव में सप्तफनों के छत्र वाली देवी प्रतिमा के दाई ओर त्रिभुजी गणेश बनाए गए हैं। झांसी जनपद में जितनी भी गणपति गजानन की प्राचीन मूर्तियां प्राप्त हुई हैं, उनमें से अधिकांश राजकीय संग्रहालय झांसी और रानी महल संग्रहालय में संग्रहित हैं। जोकि अधिकांश चांदपुर, दुधाई और सिरोनखुर्द से प्राप्त हुई थीं।
पन्ना जिले के अजयगढ़ दुर्ग के उत्तरी प्रवेश द्वार पर भी गणेश की आसन प्रतिमाएं विद्यमान है। यहां गणेश के चतुर्भुजी मूर्तियों के अतिरिक्त षष्ठ भुजी और अष्टभुजी मूर्तियां भी हैं। अजयगढ़ दुर्ग की अष्टभुजी नृत्य प्रतिमा में लेख भी अंकित है। यह प्रतिमा कलात्मक दृष्टि से अत्यंत सुंदर है।
खजुराहो और चांदपुर से प्राप्त 10 भुजी गणेश मूर्ति के समान ही 10 भुजी प्रतिमा बिरला संग्रहालय भोपाल में भी मौजूद है, जिसकी शिल्प कला अत्यंत लुभावनी है। श्रीगणेश के चतुर्भुजी नृत्य मूर्ति राजकीय संग्रहालय झांसी में है, जिसमें वे नृत्य मुद्रा में दाहिना पैर उठाए हुए हैं जबकि बायां पैर भूमि पर है। इसमें उनका पहला दाहिना हाथ नृत्य मुद्रा में है जबकि शेष हाथ खंडित अवस्था में हैं। इसमें गणेश को आभूषणों से अलंकृत दिखाया गया है। उनके छोटे नेत्र और बड़ा पेट जिसके कारण में लंबोदर कहलाते हैं, भी अंकित है। उनके दोनों ओर दो-दो वादक प्रदर्शित हैं। जिनमें एक मृदंग बजाता हुआ, दूसरा झांझ, तीसरा मंजीरा और चैथा बांसुरी बजाता हुआ प्रदर्शित है। यह दृश्य श्रीगणेश की नृत्य मुद्रा में संगीत देता हुआ प्रतीत होता है।
बुंदेलखंड के मध्यप्रदेशीय क्षेत्र के टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, दमोह और सागर में गजानन गणेश की अनेक प्रतिमाएं उपलब्ध है। जिनमें कुछ आज भी मंदिरों में मौजूद है तो कुछ संग्रहालय में संरक्षित कर दी गई हैं। जैसे- धुबेला राजकीय संग्रहालय, डॉ हरीसिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय का पुरातत्व संग्रहालय एवं प्रत्येक जिलों के जिला संग्रहालय में संग्रहीत मूर्तियों में गणेश प्रतिमाएं भी मौजूद हैं। इन प्रतिमाओं से पता चलता है कि बुंदेलखंड में प्राचीन काल से ही गजानन गणेश पूजन की परंपरा रही है और यह आज भी अनवरत जारी है।
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(नवभारत, 05.09.2019)
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