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My Editorials - Dr Sharad Singh

Friday, November 15, 2019

चर्चा प्लस ... पराली के धुंए बीच साहित्य का जगमगाता महाकुंभ - डाॅ. शरद सिंह

चर्चा प्लस ... 

पराली के धुंए बीच साहित्य का जगमगाता महाकुंभ
- डाॅ. शरद सिंह


1 से 3 नवंबर जब राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली पराली के धुंए और प्रदूषण के घने ग़िरफ़्त में थी और दृश्यता घट जाने के कारण 32 उड़ानों का मार्ग बदला गया, बच्चों के स्कूल बंद कर दिए गए, ठीक उसी दौरान दिल्ली में देश-विदेश से साहित्यकार, कलाकार एवं विशेषज्ञ साहित्य आजतक में जुड़े। चिंता थी साहित्य के प्रत्येक पक्ष की। महत्वपूर्ण मुद्दे, महत्वपूर्ण चर्चाएं और उस पर बही बुंदेलखंड की बयार। आंखों में जलन अैर आंसू के बीच साहित्य के भविष्य की किरण जगमगाती रही।

Charcha plus a column of Dr (Miss)Sharad Singh in Sagar Dinkar Daily, चर्चा प्लस ... पराली के धुंए बीच साहित्य का जगमगाता महाकुंभ - डाॅ. शरद सिंह

*साहित्य की बेड़ियां कौन-सी हैं, उन्हें किस तरह काटा जा सकता है, उनसे किस तरह आजाद हुआ जा सकता है? यह विषय था चर्चा का जिसमें मुझे चर्चाकार के रूप में राष्ट्रीय टी.वी. चैनल ‘आजतक’ द्वारा आमंत्रित किया गया था। पेड़ की सघन शाखाएं जिनमें साहित्य के प्रतिनिधि अक्षर बड़ी खूबसूरती से हवा में डोल रहे थे, ठीक उसी के नीचे था मंच और मंच के सामने अर्द्धगोलाकार एरीना जिस पर युवाओं की उपस्थिति इस बात की गवाही दे रही थी कि साहित्य के प्रति युवाओं का रुझान आज भी आशाजनक है। बहरहाल, ‘‘हल्ला बोल’’ स्टेज नं-3, एम्फी थिएटर के मंच पर आयोजित इस चर्चा में आजतक की ओर से चर्चा के प्रखर सूत्रधार थे नवीन कुमार। पहला प्रश्न उन्होंने मुझसे ही किया कि मेरे उपन्यास ‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’ के संदर्भ में कि वे कौन-सी बेड़ियां है जिनसे महिलाएं बंधी हुई हैं? मैंने उनके प्रश्न का उत्तर देते हुए बेड़िया समाज की स्त्रियों के स्वाभिमान और संघर्ष के बारे में बताया। एक प्रश्न और किया उन्होंने मुझे से समाज, राजनीति और साहित्य के परस्पर संबंध के विषय में। मैंने अपने विचार खोल कर रख दिए कि साहित्य और राजनीति के बीच संतुलित संबंध होना चाहिए। यदि साहित्यकार सरकार के सामने एक भिखारी की तरह खड़ा रहेगा लाभ की आशा में तो वह कभी निष्पक्ष साहित्य नहीं रच सकेगा। मैंने एक अन्य प्रश्न के उत्तर में कहा कि बेड़िया हमीं ने बनाई हैं किसी एलियन (परग्रही) ने नहीं और हमें ही उन्हें तोड़ना होगा। फ्रांसीसी दार्शनिक रूसो का वह वाक्य भी मैंने याद दिलाया कि ‘हम स्वतंत्र जन्म लेते है फिर सर्वत्र बेड़ियों में जकड़े रहते हैं।’ इस अवसर पर विभिन्न बिन्दुओं पर खुल कर चर्चाएं हुईं साथ ही चर्चा में सहभागी लेखक भगवानदास मोरवाल की नवीन पुस्तक के लोकार्पण करने का सुखद अवसर भी मिला। समाज से जुड़ी चिंताओं पर जब कोई नई पुस्तक आती है तो लगता है कि साहित्यिक जागरूकता की दिशा में हम एक क़दम और आगे बढ़े हैं।*
इसी मंच पर अनेक चर्चाएं हुईं जिनमें से एक महत्वपूर्ण चर्चा थी ‘‘विचारधारा का साहित्य’’। इसमें चर्चाकार थे सुधीश पचैरी, सच्चिदानंद जोशी और अनंत विजय। विचारधारा के अनुसार साहित्य रचा जाए अथवा साहित्य विचारधारा को दिशा दे, इस पर खुल कर चर्चा हुई। चर्चा के दौरान सम्मान और पुरस्कारों के समीकरणों के रहस्य में उजागर किए गए। समूची चर्चा चैंका देने वाली रही। कम से कम उनके लिए जो दिल्ली के साहित्याकाश की छाया से दूर बैठ कर ‘‘बड़े नामों’’ माला जपा करते हैं। इसी मंच पर पहले दिन पहले दिन ‘‘साहित्य का राष्ट्रधर्म’’ मुद्दे पर चर्चा हुई। जिसमें नंदकिशोर पांडेय, ममता कालिया और अखिलेश जैसे वरिष्ठ लेखक शामिल हुए। इस सेशन का संचालन रोहित सरदाना ने किया। सेशन में देश के माहौल, आंदोलन और उसके प्रति लेखकों के विचार पर मंथन हुआ।
कैलाश खेर के ‘‘कैलाशा’ से उद्घाटित यह साहित्य कुंभ अनेक मायने में महत्वपूर्ण रहा। सबसे बड़ी बात कि यहां दबदबा हिन्दी का था। अन्य भारतीय भाषाओं को भी आगे रखा गया था, अंग्रेजी की अपेक्षा। सुरेन्द्र मोहन पाठक, सुधीश पचौरी, राहुल देव, अशोक वाजपेयी, ममता कालिया, चित्रा मुद्गल, पुष्पेशपंत, सदानंद शाही जैसे हिन्दी साहित्य जगत् के दिग्गज एक परिसर में जब एकत्र हों तो वातावरण स्वतः साहित्यमय हो जाता है। हिन्दी के अतिरिक्त उर्दू, अंग्रेजी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों के साथ ही अनूप जलोटा, पंकज उद्धास, इम्तियाज अली, स्वानंद किरकिरे, मनोज मुंतशिर, वसीम बरेलवी, राहत इन्दौरी, अनुपम खेर, आशुतोष राणा, मनोज तिवारी, शैलेष लोढ़ा जैसे सेलीब्रटीज़ ने सतरंगी छटा बिखेरते हुए चिंता और चिंतन को एक अलग ही ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया।
1 नवंबर 2019 जब राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में पराली के धुंए और प्रदूषण की वजह से दृश्यता घट जाने के कारण 32 उड़ानों का मार्ग बदल दिया गया। स्कूलों को पांच दिन के लिए बंद कर दिया गया। उस दिन *साहित्य आजतक के स्टेज नंबर-1 पर लोकप्रिय अभिनेता आशुतोष राणा ने अपनी किताब ‘ मौन मुस्कान की मार’ के अंश पढ़े। इन बुंदेली वाक्यों को सुन कर मन गदगद हो गया। भले ही वे वाक्य कटाक्ष के तीर थे जैसे-‘‘हप्तों गोली चलहें, महीनों घर के आदमी बीनहें।’’ ‘‘छोटे हम मार हें ऐंठ के, औ तुम रोहो बैठ के’’, ‘‘को का कै रौ, कै रौ सो रै नई रओ।’’ ‘‘हम निंबुआ सों मीड़ देहें, सो बीजा घाईं सबरे दांत बाहर आ जेहें।’’ राष्ट्रीय राजधानी की अंग्रेजीयत भरी जमीन पर बुंदेली के ऐसे चुटीले वाक्यों ने आत्मीयता के बोध से भर दिया और समूचा बुंदेलखंड वहीं उपस्थित प्रतीत होने लगा।*
इस साहित्य कुंभ में कला जगत से जुड़े ज्वलंत प्रश्न में उठाए गए। साहित्य आज तक के मंच पर मॉडरेटर अंजना ओम कश्यप ने इम्तियाज से सवाल किया- ‘‘देखा गया है कि बॉलीवुड में तीनों खान का दबदबा है. हाल ही में पीएम मोदी के साथ तीनों की बातचीत को बताया गया कि ये भी मौजूदा सरकार के सामने नतमस्तक हो गए? क्या फिल्म इंडस्ट्री में राष्ट्रवाद मोदीवाद में परिवर्तित हो गया है?’’ जवाब में इम्तियाज अली ने कहा- ‘‘एक पीएम अगर आपको न्योता देते हैं कि आइए अपने विचार व्यक्त करिए, मैं गांधी के ऊपर फिल्मों को बनाना चाहता हूं. तो कोई किस कारण से नहीं जाएगा? ऐसी कोई बात नहीं थी कि कोई ना जाए. इसलिए सारे लोग गए. मैं मानता हूं कि सारी दुनिया में लोग उत्तेजित हैं. मुझे लगता है कि लहर की तरह ये भी गुजर जाएगा. हमें अपनी जगह नहीं छोड़नी है.’’.
वैसे देखा जाए तो इस समय साहित्य को यदि सबसे बड़ा खतरा किसी बात से है तो वैचारिक कट्टरता से। साहित्य को समाज और मानवता के पक्ष में खड़े रहना चाहिए, वाद या विवाद के पक्ष में नहीं। जब साहित्य समाज के अंतिम पंक्ति में खड़े इंसान की बात करता रहेगा तब तक साहित्य निष्पक्ष और प्रभावी रहेगा। जिस दिन साहित्य कट्टरता के आगे घुटने टेक देगा उस दिन साहित्य निरर्थक और निष्प्रभावी हो जाएगा।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 06.11.2019)
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