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My Editorials - Dr Sharad Singh

Friday, November 15, 2019

चर्चा प्लस ... संस्कृति से लोक नहीं अपितु लोक से बनती है संस्कृति - डाॅ. शरद सिंह


Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ...
संस्कृति से लोक नहीं अपितु लोक से बनती है संस्कृति
- डाॅ. शरद सिंह 


      समय में परिवर्तन के साथ सांस्कृतिक मूल्यों में भले ही संशोधन एवं परिवर्द्धन होता रहे किन्तु वह संस्कृति जो लोक से उत्पन्न होती है, सदा अक्षुण्ण रहती है। लोक संस्कृति को जन्म देता है, गढ़ता है, संवारता और सहेजता है। यही कारण है कि लोक जीवन में जल और पर्यावरण जैसे मूल तत्वों के प्रति सकारात्मक चेतना आज भी पाई जाती है। लिहाजा किसी भी संस्कृति को समझने के लिए उसके लोक को समझना जरूरी है।

 
Charcha Plus - Sanskriti Se Lok Nahin Apitu Lok Se Banti Hai Sanskriti -  Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh

भारतीय संस्कृति की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि वह चैरासी लाख योनियों में मनुष्य योनि को सबसे श्रेष्ठ मानती है किन्तु साथ ही अन्य योनियों की महत्ता को भी स्वीकार करती है। जिसका आशय है कि प्रकृति के प्रत्येक तत्व से कुछ न कुछ सीखा जा सकता है। और यह तभी संभव है जब प्रकृति के प्रति मनुष्य की आत्मीयता ठीक उसी प्रकार हो जैसे अपने माता-पिता, भाई, बहन, गुरु और सखा आदि प्रियजन से होती है। यह आत्मीयता भारतीय संस्कृति में जिस तरह रची-बसी है कि उसकी झलक गुरुगंभीर श्लोकों के साथ ही लोकव्यवहार में देखा जा सकता है। यहां कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं।
लोक जीवन में आज भी जल और पर्यावरण के प्रति सकारात्मक चेतना पाई जाती है। एक किसान धूल या आटे को हवा में उड़ा कर हवा की दिशा का पता लगा लेता है। वह यह भी जान लेता है कि यदि चिड़िया धूल में नहा रही है तो इसका मतलब है कि जल्दी ही पानी बरसेगा। लोकगीत, लोक कथाएं एवं लोक संस्कार प्रकृतिक के सभी तत्वों के महत्व की सुन्दर व्याख्या करते हैं। लोक जीवन की धारणा में पहाड़ मित्र है तो नदी सहेली है, धरती मंा है तो अन्न देवता है। प्रकृति के वे सारे तत्व जिनसे मिल कर यह पृथ्वी और पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी जड़-चेतन मनुष्य के घनिष्ठ हैं, पूज्य हैं ताकि मनुष्य का उनसे तादात्म्य बना रहे और मनुष्य इन सभी तत्वों की रक्षा के लिए सजग रहे।
एक नदी लोकजीवन में किस तरह आत्मीय हो सकती है यह तथ्य बुन्देलखण्ड में गाए जाने वाले बाम्बुलिया लोकगीत में देखा जा सकता है। बुंदेलखण्ड में नर्मदा को मां का स्थान दिया गया है। नर्मदा स्नान करने नर्मदातट पर पहुंची मनुष्यों की टोली नर्मदा को देखते ही गा उठती है-
नरबदा मैया ऐसे तौ मिलीं रे
अरे, ऐसे तौ मिलीं के जैसे मिले मताई औ बाप रे
नरबदा मैया... हो....
जब नर्मदा माता है तो गंगा, यमुना और सरस्वती की त्रिवेणी? क्या उनसे कोई नाता नहीं रह जाता है? लोकमानस त्रिवेणी से भी अपने रिश्तों को व्याख्यायित करता है। बाम्बुलिया गीत का ही एक और अंश उदाहरणार्थ-
नरबदा मोरी माता लगें रे
अरे, माता तौ लगें रे, तिरबेनी लगें मोरी बैन रे
नरबदा मैया... हो...
भारतीय संस्कृति में मानवमूल्य की महत्ता इतनी सघन है कि प्रकृति को भी रक्तसंबंधियों से अधिक घनिष्ठ माना जाता है। इसके उदाहरण लोकसंस्कारों में देखे जा सकते हैं जो आज भी ग्रामीण अंचलों में निभाए जाते हैं-
कुआ पूजन - विवाह के अवसर पर विभिन्न पूजा-संस्कारों के लिए जल की आवश्यकता पड़ती है। यह जल नदी, तालाब अथवा कुए से लाया जाता है। इस अवसर पर रोचक गीत गाए जाते हैं। ऐसा ही एक गीत है जिसमें कहा गया है कि विवाह संस्कार के लिए पानी लाने जाते समय एक सांप रास्ता रोक कर बैठ जाता है। स्त्रियां उससे रास्ता छोड़ने का निवेदन करती हैं किन्तु वह नहीं हटता है। ठीक किसी हठी रिश्तेदार की तरह। जब स्त्रियां उसे विवाह में आने का निमंत्रण देती हैं तो वह तत्काल रास्ता छोड़ देता है।
सप्तपदी में जल विधान - विवाह में सप्तपदी के समय पर जो पूजन-विधान किया जाता है, उसमें भी जल से भरे मिट्टी के सात कलशों का पूजन किया जाता है। ये सातो कलश सात समुद्रों के प्रतीक होते हैं। इन कलशों के जल को एक-दूसरे में मिला कर दो परिवारों के मिलन को प्रकट किया जाता है।
पूजा-पाठ में जल का प्रयोग - पूजा-पाठ के समय दूर्वा से जल छिड़क कर अग्नि तथा अन्य देवताओं को प्रतीक रूप में जल अर्पित किया जाता है जिससे जल की उपलब्धता सदा बनी रहे।
मातृत्व साझा कराना - सद्यःप्रसूता जब पहली बार प्रसूति कक्ष से बाहर निकलती है तो सबसे पहले वह कुएं पर जल भरने जाती है। यह कार्य एक पारिवारिक उत्सव के रूप में होता है। उस स्त्री के साथ चलने वाली स्त्रियां कुएं का पूजन करती हैं फिर प्रसूता स्त्री अपने स्तन से दूध की बूंदें कुएं के जल में निचोड़ती हैं। इस रस्म के बाद ही वह कुएं से जल भरती है। इस तरह पह पेयजल को अपने मातृत्व से साझा कराती है क्योंकि जिस प्रकार नवजात शिशु के लिए मां का दूध जीवनदायी होता है उसी प्रकार समस्त प्राणियों के लिए जल जीवनदायी होता है।
जिस संस्कृति में पृथ्वी की रक्षा से ले कर पारिवारिक संबंधों की गरिमा तक समुचित ध्यान दिया जाता हो उस संस्कृति में मानवमूल्यों का पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवाहमान रहना स्वाभाविक है। वस्तुतः संस्कृति व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व के सतत् विकास का महत्त्व पूर्ण आधार है। मानव मूल्य संस्कृति से ही उत्पन्न होते हैं और संस्कृति की रक्षा करते हैं। सत्य, शिव और सुन्दर के शाश्वत मूल्यों से परिपूर्ण भारतीय संस्कृति में पाषाण जैसी जड़ वस्तु भी देवत्व प्राप्त कर सर्वशक्तिमान हो सकती है और नदियां एवं पर्वत माता, पिता, बहन, आदि पारिवारिक संबंधी बन जाते हैं। ऐसी भारतीय संस्कृति की नाभि में मानवमूल्य ठीक उसी तरह अवस्थित है जैसे भगवान विष्णु की नाभि में कमल पुष्प और उस कमल पुष्प पर जिस तरह ब्रह्मा विद्यमान हैं, उसी तरह मानवमूल्य पर ‘सर्वे भवन्ति सुखिनः’ की लोक कल्याणकारी भावना विराजमान है।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 13.07.2019)
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