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My Editorials - Dr Sharad Singh

Saturday, December 21, 2019

बुंदेलखंड की संस्कृति को सहेजती माटी कला - डॉ. शरद सिंह - नवभारत, 21.12.2019 में प्रकाशित

Dr ( Miss) Sharad Singh
बुंदेलखंड की संस्कृति को सहेजती माटी कला
   - डॉ. शरद सिंह     
   ( नवभारत, 21.12.2019 में प्रकाशित)
       जब मनुष्य ने आकृतियां बनाना आरंभ किया होगा तब सबसे पहले उसने मिट्टी का ही सहारा लिया होगा । खाने के उपयोग में लाए जाने वाले बर्तन, बच्चों के खिलौने,  महिलाओं के पहनने वाले आभूषण सभी वस्तुएं मिट्टी से ही बनाना शुरू किया होगा। मनुष्यों ने बुंदेलखंड में प्रागैतिहासिक काल से मनुष्यों का निवास स्थान रहा है। अनेक स्थानों से प्रागैतिहासिक कालीन खिलौने और आभूषण के अवशेष प्राप्त हुए हैं जो यह साबित करते हैं बुंदेलखंड में मिट्टी से बनाई जाने वाली कलाकृतियों की परंपरा बहुत पुरानी है। ग्रामीण क्षेत्रों में आज की  मिट्टी से अनेक कलाकृतियां बनाई जाती हैं। जिनमें कुछ सजावटी होती हैं तो कुछ बच्चों के खेलने के लिए खिलौनों के रूप में, कुछ दैनिक जीवन में उपयोग में लाए जाने वाले बर्तनों के रूप में तथा कुछ आभूषण के रूप में।
बुंदेलखंड की संस्कृति को सहेजती माटी कला     - डॉ. शरद सिंह - नवभारत, 21.12.2019 में प्रकाशित
           बुंदेलखंड में बच्चों के खेलने के लिए हाथी, पक्षी,  गुड्डे-गुड़िया आदि खिलौने बनाए जाते हैं। कुछ खिलौने आमतौर पर कुछ विशेष त्योहारों के समय बनाए और बेंचे जाते हैं। जैसे संक्रांति के समय मिट्टी के घोड़े और हाथी बनाए जाते हैं, जिनमें  पाहिए लगे होते हैं। इनकी सुंदरता देखते ही बनती है। इनमें लगाम और महावत सहित सुंदर चित्रकारी भी होती है। ये हाथी, घोड़े इस प्रकार के होते हैं कि जिनमें सुतली बांधकर बच्चे आसानी से दौड़ा सकते हैं। खिलौने  के रूप में बैलगाड़ी की बनाई जाती है। इसी प्रकार बालिकाओं को घरेलू कामकाज की शिक्षा देने वाले खिलौनों में गेहूं पीसने की चक्की बनाई जाती है। इसमें बाक़ायदे दो पाट होते हैं। गेहूं अथवा अनाज डालने के लिए छेद भी बना होता है। साथ ही चक्की में  मूठ फंसाने के लिए भी छेद होता है। बच्चों के खेलने के लिए गुड्डा और गुड़िया बनाई जाती हैं जिन्हें पुतरा- पुतरियां कहते हैं। यह पुतरा- पुतरिया खेलने के काम आती हैं और अक्षय तृतीया के समय इनका विवाह भी रचाया जाता है, जो सामाजिक संस्कारों की शिक्षा देने का एक बेहतरीन माध्यम बनता है।  मिट्टी की इन पुतरा- पुतरियों को सुंदर कपड़े पहनाए जाते हैं तथा हाथ से बने सुंदर ज़ेवरों से सजाया जाता है। बच्चों के खेलने के लिए है पानी भरने के लिए छोटे-छोटे घड़े, रसोई घर के बर्तन, चूल्हा आदि बनाया जाता है। आजकल आधुनिक युग में छोटे-छोटे गैस के सिलेंडर की बनाए जाते हैं, जिन्हें बड़ी खूबसूरती से लाल रंग से रंगा जाता है जिससे वे देखने में असली कुकिंग गैस के सिलेंडर जैसे दिखाई देते हैं।
        धार्मिक आयोजनों के  लिए मिट्टी की बनी कलाकृतियां बनाई जाती हैं।  दीपावली के दिए तो सर्वविदित है और यह लगभग सभी जगह बनाए जाते हैं किंतु कुछ कलाकृतियां ऐसी हैं जो देवी-देवताओं की हैं और जिनका संबंध बुंदेलखंड से ही है। जैसे  महालक्ष्मी की पूजा के लिए महालक्ष्मी की प्रतिमा बनाई जाती है। यह प्रतिमा गज पर सवार महालक्ष्मी की होती है। इसकी विशेषता यह होती है कि इसे पूर्ण पकाया नहीं जाता है अर्थात  इसमें कच्चा रहता है किंतु इसकी साज-सज्जा बहुत ही सुंदर ढंग से की जाती है। चटक रंग का प्रयोग करते हुए साड़ी, कपड़े और सोने के रंग के आभूषण उकेरे जाते हैं। हाथी को भी सजाया जाता है। ग्वालन की मूर्तियां बनाई जाती है जो पूजा के दौरान दीप स्तंभ यानी कैंडल स्टैंड का काम भी करती हैं। इनमें पांच या पांच से अधिक दिए बनाए जाते हैं जिनमें तेल भरकर बाती लगाकर प्रज्वलित किया जाता है। देश के अन्य प्रांतों की भांति बुंदेलखंड  मे भी मिट्टी की गणेश प्रतिमाएं बनाई जाती हैं। पूजा के उपयोग के लिए अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमाएं भी बनाने में बुंदेलखंड के कलाकारों को महारत हासिल है।
        दैनिक जीवन में काम में आने वाली वस्तुओं में मिट्टी से बनाई जाने वाली अनेक वस्तुएं हैं जैसे घड़े, नांद और तसले आदि।  ये दो प्रकार के होते हैं- लाल रंग के और काले रंग के। लाल रंग के बर्तनों में अधिक छिद्र होते हैं और इन पर हल्की रंगों से अथवा सफेद रंग से चित्रकारी की जाती है।   वही काले रंग के बर्तन ग्लेज़्ड होते हैं। इस प्रकार के बर्तनों का उपयोग आमतौर पर दही जमाने, भोजन पकाने, दूध-दही रखने और अचार आदि अधिक दिनों तक रखी जाने वाली खाद्य वस्तुओं  को रखने के लिए होता है।
          सुदूर ग्रामीण अंचलों में आंखें मिट्टी की गुरियां बनाई जाती हैं। इन गुरियों से तरह-तरह की मालाएं बनाई जाती हैं।  आजकल इस तरह की माला तथा आभूषणों का चलन बढ़ गया है। इनकी मांग शहरों की दुकानों से लेकर एंपोरियम तक होती है। यद्यपि इन्हीं बनाने वाले कारीगरों को इस बात का ज्ञान नहीं रहता है कि उनसे ओने पौने दामों में खरीदी गई उनकी ये कलाकृतियां बड़ी दुकानों में ऊंचे ऊंचे दामों पर बेची जाती हैं।  यही हाल उन सजावटी वस्तुओं काफी है जो बुंदेलखंड के माटी शिल्पकार अपनी शिल्पी हाथों से गढ़ते हैं। ड्राइंग रूम को सजाने के लिए छोटे-छोटे घरों की आकृतियां, फेंगशुई में प्रचलित कछुए, लाफिंग बुद्धा, विंड चाइम्स, लैंपशेड आदि अनेक वस्तुएं यहां के कलाकार बनाते हैं। यह आमतौर पर बाजार हाट में अपनी छोटी-छोटी दुकानें लगाकर बेचते हैं।   मेलों में भी इस प्रकार की वस्तुएं बेची जाती हैं। ऐसे स्थानों पर इन कलाकारों को उनकी कला का उचित मूल्य कम ही मिल पाता है किंतु उन्हें इसकी बिक्री का आनंद अवश्य मिलता है। वहीं कुछ एजेंसियां कलाकारों से सीधे संपर्क करके उनकी कलाकृतियां बहुत कम दामों में खरीद लेते हैं। यदि दूसरे शब्दों में कहा जाए तो यह माटी की कलाकृतियां माटी के मोल ही खरीद ली जाती हैं और इन्हें पर्यटन स्थल शहरों की इंटीरियर डेकोरेशन की दुकानों में ऊंचे दाम पर बेचा जाता है। 
          दरअसल,  बुंदेलखंड की माटी कला को पर्याप्त संरक्षण दिए जाने की आवश्यकता है किससे आधुनिकता की दौड़ में यह कला कहीं पीछे न छूट जाए साथ ही माटी कला की कुशल कलाकारों को भी संरक्षण दिए जाने की जरूरत है ताकि ये कलाकार  आर्थिक तंगी को सहते सहते अपनी कला से मुंह मोड़ लें। बुंदेलखंड की माटी कला में बुंदेली संस्कृति बस्ती है अतः यदि माटी कला को बचाया जाएगा, तो बुंदेली संस्कृति को बचाने काफी महत्वपूर्ण कार्य स्वतः होता रहेगा।
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