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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, December 11, 2019

चर्चा प्लस ... वर्तमान असंवेदनशीलता और बौद्धिक सरोकार - डाॅ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ... 
वर्तमान असंवेदनशीलता और बौद्धिक सरोकार                                               - डाॅ. शरद सिंह                                      एक युवती सामूहिक दुष्कर्म के बाद जला दी जाती है, दूसरी युवती जो दुष्कर्मियों के विरुद्ध बयान देने जा रही थी, उसे जीवित जला दिया जाता है, इस बीच एक एन्काउंटर जिसमें चार दुष्कर्मी मारे जाते हैं। देश का बौद्धिक वर्ग दो फड़ बंटा हुआ दिखाई देता है। एक एन्काउंटर के पक्ष में दूसरा एन्काउंटर के विरोध में। जो पक्ष में थे वे अतिवादी कहलाए और जो विरोध में थे मानवतावादी कहते रहे स्वयं को। एन्काउंटर के परिस्थिजन्य कारण एक बार फिर बहस में पिछड़ गए और हर दिन अख़बार के पन्नों पर दुष्कर्म करने और पीड़िता को मार देने की ख़बरें छप रही हैं। क्या बौद्धिक सरोकार भोथरे हो चले हैं या सोशल मीडिया तक सिमट कर रह गए है?    
चर्चा प्लस ... वर्तमान असंवेदनशीलता और बौद्धिक सरोकार - डाॅ. शरद सिंह 

राष्ट्रवाद, बौद्धिकवाद, स्त्रीविमर्श जैसे बड़े-बड़े भारी-भरकम से लगने वाले शब्द कभी-कभी बहुत छोटे और हल्के लगने लगते हैं। जब एक युवती सामूहिक दुष्कर्म के बाद जला दी जाती है, दूसरी युवती जो दुष्कर्मियों के विरुद्ध बयान देने जा रही थी, उसे जीवित जला दिया जाता है, इस बीच एक एन्काउंटर जिसमें चार दुष्कर्मी मारे जाते हैं। देश का बौद्धिक वर्ग दो फड़ बंटा हुआ दिखाई देता है। एक एन्काउंटर के पक्ष में दूसरा एन्काउंटर के विरोध में। जो पक्ष में थे वे अतिवादी कहलाए और जो विरोध में थे मानवतावादी कहते रहे स्वयं को। एन्काउंटर के परिस्थिजन्य कारण एक बार फिर बहस में पिछड़ गए और हर दिन अख़बार के पन्नों पर दुष्कर्म करने और पीड़िता को मार देने की ख़बरें छप रही हैं। क्या बौद्धिक सरोकार भोथरे हो चले हैं या सोशल मीडिया तक सिमट कर रह गए है? जब बुद्धिजीवी तय न कर पा रहे हों कि निर्भया के दोषियों को दण्ड में विलम्ब पर स्यापा करें या एन्काउंटर को अमानवीय ठहराएं तो यह परिदृश्य अनेक सवाल खड़े करता है।
आज भारतीय समाज एक ऐसे दौर से गुजर रहा है जिसमें इतिहास और संस्कृति ही नहीं बल्कि वर्तमान से भी उसका रिश्ता अरूप होता चला जा रहा है। यह कम दुर्भाग्य की बात नहीं है कि इतिहास, विचार और साहित्य से लेकर मूल्यों तक की घोषणाएं की जा रही हैं और हम उन घोषणाओं की वास्तविकता को परखने के बदले उनकी व्याख्या और बहस के लम्बे-चैड़े आयोजन करने में लगे हुए हैं। इस दौर में स्त्री, दलित और जनजातीय समाज लगातार बहस होती है लेकिन परिणाम उस गति से सामने नहीं आते हैं जिसक गति से आने चाहिए। यहां भी बौद्धिकवर्ग दो फड़ में बंटा नज़र आता है। समाज के भौतिक सरोकारों से जीवन में मूल्य और आदर्श संकटग्रस्त हो गये हैं। ऐसे दौर में साहित्यिक और सांस्कृतिक उपक्रम समाज को जोड़ने का काम करते हैं। साहित्य और संस्कृति का सीधा सरोकार मूल्य और जीवन की उच्चताओं से होता है। इसीलिए बौद्धिकता के जरिए संस्कृति से जुड़ा जा सकता है और आगामी पीढ़ी को आसन्न संकट से बचाया जा सकता है। लेकिन आज साहित्य जगत में साहित्य की स्थापना नहीं, वरन् व्यक्ति की स्थापना पर ध्यान अधिक रहता है। जहां व्यक्तिवाद होगा वहां समाज सरोकारित साहित्य पर बाज़ार का साहित्य हावी हो जाएगा। दुर्भाग्य से यही हो रहा है। जबकि मनुष्य मूलतः अनुभव से सीखता है और साहित्य में जीवन के अनुभव का निचोड़ होता है। उदाहरण के लिए यदि प्रेमचंद की कहानियों को लें तो प्रेमचंद की कहानियां सामाजिक बोध कराने के साथ ही अंतरचेतना को जगाती हैं। लेकिन आज के दौर को देख कर लगता है कि यदि आज प्रेमचंद होते तो शायद उन्हें भी व्यक्ति-स्थापना की पीड़ा के दौर से गुज़रना पड़ता। कहने का आशय यह है कि जब बुद्धिजीवी आत्मकेन्द्रित हो जाएगा (भले ही जगत्उद्धार या सरोकार का थोथा दावा करता रहे) तो समाज के सरोकारों को कैसे साध पाएगा?
वर्तमान इलेक्ट्राॅनिक प्रगति ने जहां स्त्रियों को अनेक सहूलियतें दी हैं वहीं उनकी अस्मिता के लिए नए तरह के संकट बढ़ा दिए हैं। उन्हें सबसे अधिक भय कैमरे का रहता है। वह कैमरा कोई भी हो सकता है। चेंजिंग रूम में चुपके से लगाया गया हिडेन कैमरा या फिर मोबाईल फोन का चलता-फिरता कैमरा। लगभग हर माह एक न एक घटना समाचार के रूप में पढ़ने-सुनने को मिल जाती है। मोबाईल फोन के कैमरे ने स्त्री अस्मिता पर हमलावरों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि कर दी है। प्रेमालाप के नाम पर नवयुवक अपनी साथी युवतियों के एम.एम.एस. बना लेते हैं और उसे इन्टरनेट पर सार्वजनिक करने की धमकी दे कर उन्हें ब्लैकमेल करने लगते हैं। गल्र्स हाॅस्टल के बाथरूम, सार्वजनिक आउटलेट, होटल के कमरे आदि में छिपे कैमरे कई बार पकड़े जा चुके हैं। सितम्बर 2014 में नोएडा के प्रतिष्ठित जे.एस.एस. कॉलेज में उस वक्त सनसनी फैल गई जब लड़कियों के हॉस्टल में लगे हिडेन कैमरे पर एक छात्रा की नजर पड़ी। कैमरे की जानकारी होते ही पूरे कॉलेज में हड़कंप मच गया। कॉलेज में यह घिनौना खेल विगत दो साल से चल रहा था। गल्र्स हॉस्टल के एक ही बाथरूम में अलग-अलग एंगल से तीन कैमरे लगाए गए थे। दिसम्बर 2014 में मध्यप्रदेश के रायसेन में एक पेट्रोल पंप के लेडीज टॉयलेट में हिडेन कैमरा पकड़ा गया है। इस बात का खुलासा उस वक्त हुआ जब एक छात्रा पेट्रोल पंप के टॉयलेट में गई तो वहां उसके मोबाइल नेटवर्क ने काम करना बंद कर दिया। इस बात से उसे शक हुआ। लड़की ने चारों तरफ देखा तो उसे वहां पर एक कैमरा लगा दिखाई दिया। इसकी सूचना फौरन पुलिस को दी गई। जिसके बाद दीवार को पत्थर से तोड़ा गया और जो नजारा सामने था उससे सब हैरान थे। दीवार तोड़े जाने के कम्प्यूटर पर बैठा हुआ व्यक्ति टॉयलेट के भीतरी दृश्य का वीडियो बना रहा था। यह सब इसलिए कि ऐसी अश्लील फिल्में इंटरनेट पर आसानी से उपलब्ध हैं और उकसाती हैं अधकचरे मस्तिष्कों को।
उंगलियों पर गिने जा सकते हैं वे बौद्धिक लोग जिन्होंने स्त्रीजाति के सम्मान और सुरक्षा के प्रश्न पर अपने सम्मान लौटाए या धरना प्रदर्शन किया। बेशक उनमें भी कई राजनीति प्रेरित थे किन्तु सोशल मीडिया से बाहर निकल कर आवाज़ उठाना और प्रत्यक्ष, खुली प्रतिक्रिया देना भी बौद्धिक स्तर पर प्रतिवाद का ही एक तरीका है। क्या बौद्धिकवर्ग को इस बात पर एकजुट हो कर अपनी सच्ची बौद्धिकता का परिचय नहीं देना चाहिए कि भारतीय क्षेत्र में इंटरनेट पर पोर्न साईट्स बैन कर दी जाएं, महिलाओं-बच्चों के प्रति जघन्य अपराध करने वाले अपराधियों को फास्ट-ट्रैक कोर्ट में जल्दी से जल्दी सज़ा सुनाई जा कर सज़ा दे भी दी जानी चाहिए। क्योंकि सज़ा सुनाए जाने और सज़ा देने में वर्षों का फ़ासला कानून व्यवस्था से भरोसा उठाने लगता है और तब एन्काउंटर को समर्थन मिलना स्वाभाविक प्रतिक्रिया के रूप में सामने आता है। 
आज जब आपराधिक असंवेदनशीलता अपने चरम पर जा पहुची है तब ऐसे कठोर समय में बौद्धिक सरोकार दो फड़ में बंटने का नहीं, विवाद का नहीं वरन् एकजुट हो कर परिणाम तक पहुंचने की मांग कर रहा है। इस मांग को बुद्धिजीवियों द्वारा सुनना, समझना और अमल में लाया जाना होगा।    
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 11.12. 2019)
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