Pages

My Editorials - Dr Sharad Singh

Saturday, January 11, 2020

शून्यकाल ...बुंदेली को जरूरत है एक सशक्त राजनीतिक आवाज़ की - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
मेरा कॉलम "शून्यकाल"... "दैनिक बुंदेली मंच" में... Please आप भी पढ़िए इसे🌿  (11.01.2020)


शून्यकाल ...

बुंदेली को जरूरत है एक सशक्त राजनीतिक आवाज़ की
 - डॉ. शरद सिंह
       भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची भारत की भाषाओं से संबंधित है। इस अनुसूची में 22 भारतीय भाषाओं को शामिल किया गया है. इनमें से 14 भाषाओं को संविधान में शामिल किया गया था। सन 1967 ई. में, सिन्धी भाषा को अनुसूची में जोड़ा गया। इसके बाद, कोंकणी भाषा, मणिपुरी भाषा, और नेपाली भाषा को 1992 ई. में जोड़ा गया। हाल में 2003 में बोड़ो भाषा, डोगरी भाषा, मैथिली भाषा, और संथाली भाषा शामिल किए गए। भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में 38 अन्य भाषाओं को शामिल करने की मांग है जिनमें बुंदेली भी एक है। भाषा का दर्जा दिए जाने के का एक आधार यह भी निर्धारित किया गया है कि जिस बोली का अपना स्वतंत्र व्याकरण हो उसके भाषाई दर्जे के अधिकार पर गौर किया जा सकता है। इस दृष्टि से बुंदेली का अपना विशेष व्याकरण है और अपनी अलग शब्दावली है जो इसे स्वतंत्र पहचान देती है।  
बुंदेली को भाषा के रूप में आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने के लिए समय-समय पर मांग उठती रही है। यद्यपि कोई बड़ा प्रभावी आंदोलन नहीं छेड़ा गया। भोपाल के ही आंचलिक क्षेत्रों में, विदिशा, रायसेन, होशंगाबाद, सीहोर, राजगढ़ आदि जिलों में अथवा जबलपुर, ग्वालियर संभाग के जिलों में बोलीगत परिवर्तन के साथ बुंदेली ही बोलते हैं। बुन्देली समृद्ध भाषा है और इसमें साहित्य और लोकसाहित्य का अपार भण्डार है। बुन्देली बुन्देलखण्ड क्षेत्र में बहुतायत में प्रयोग की जाती है। बुन्देलखण्ड के आधार पर ही इसका नाम ’बुन्देली’ पड़ा। इसे ’बुन्देलखण्डी’ भी कहा जाता है। बुन्देली बुन्देलखण्ड की संस्कृति और अस्मिता की पहचान है। एक अनुमानित गणना के अनुसार सागर, जबलपुर, ग्वलियर, भोपाल और झांसी संभाग के जिलों के बुन्देली बोलने वालों की कुल संख्या लगभग पांच करोड़ के आसपास है। बुंदेली भाषा अति प्राचीन है लेकिन उसे हिंदी साहित्य के इतिहास में वह स्थान नहीं मिल पाया जिसकी वह हकदार है। बुंदेलखंड के अनेक विद्वानों द्वारा इस दिशा में प्रयास किया गया। अनेक संस्थाओं ने प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को पत्र लिखे किन्तु यह मांग जन आंदोलन का रूप नहीं ले सकी। संभवतः इसीलिए बुंदेली को भाषा का दर्जा दिलाने का प्रयास पिछड़ता रहा। यद्यपि बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झांसी और डॉ हरीसिंह केन्द्रीय विश्वविद्यालय, सागर में बुंदेली भाषा का स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर पर अध्ययन-अध्यापन हो रहा है और इसमें शोध भी किए जा रहे हैं।
Shoonyakaal Column of  Dr Sharad Singh in Dainik Bundeli Manch, 11.01.2020
            बुंदेली को भाषा का सम्मान दिलाने की दिशा में पृथक बुंदेलखण्ड की मांग को भी जोड़ कर देखा जाता रहा है। पृथक बुंदेलखण्ड राज्य की मांग करने वालों का यह मानना है कि यदि बुंदेलखण्ड स्वतंत्र राज्य का दर्जा पा जाए तो विकास की गति तेज हो सकती है। यह आंदोलन राख में दबी चिंनगारी के समान यदाकदा सुलगने लगता है। बुंदेलखंड राज्य की लड़ाई तेज करने के इरादे से 17 सितंबर 1989 को शंकर लाल मेहरोत्रा के नेतृत्व में बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किया गया था। आंदोलन सर्व प्रथम चर्चा में तब आया जब मोर्चा के आह्वान पर कार्यकर्ताओं ने पूरे बुंदेलखंड में टीवी प्रसारण बंद करने का आंदोलन किया। यह आंदोलन काफी सफल हुआ था। इस आंदोलन में पूरे बुंदेलखंड में मोर्चा कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारियां हुईं। आंदोलन ने गति पकड़ी और मोर्चा कार्यकर्ताओं ने वर्ष 1994 में मध्यप्रदेश विधानसभा में पृथक राज्य मांग के समर्थन में पर्चे फेंके। कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ा और वर्ष 1995 में उन्होंने शंकर लाल मेहरोत्रा के नेतृत्व में संसद भवन में पर्चे फेंक कर नारेबाजी की। तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव के निर्देश पर स्व. मेहरोत्रा व हरिमोहन विश्वकर्मा सहित नौ लोगों को रात भर संसद भवन में कैद करके रखा गया। विपक्ष के नेता अटल विहारी वाजपेई ने मोर्चा कार्यकर्ताओं को मुक्त कराया। वर्ष 1995 में संसद का घेराव करने के बाद हजारों लोगों ने जंतर मंतर पर क्रमिक अनशन शुरू किया, जिसे उमा भारती के आश्वासन के बाद समाप्त किया गया। वर्ष 1998 में वह दौर आया जब बुंदेलखंडी पृथक राज्य आंदोलन के लिए सड़कों पर उतर आए। आंदोलन उग्र हो चुका था। बुंदेलखंड के सभी जिलों में धरना-प्रदर्शन, चक्का जाम, रेल रोको आंदोलन आदि चल रहे थे। इसी बीच कुछ उपद्रवी तत्वों ने बरुआसागर के निकट 30 जून 1998 को बस में आग लगा दी थी, जिसमें जन हानि हुई थी। इस घटना ने बुंदेलखंड राज्य आंदोलन को ग्रहण लगा दिया था। मोर्चा प्रमुख शंकर लाल मेहरोत्रा सहित नौ लोगों को रासुका के तहत गिरफ्तार किया गया। जेल में रहने के कारण उनका स्वास्थ्य काफी गिर गया और बीमारी के कारण वर्ष 2001 में उनका निधन हो गया।  पृथक्करण की मांग ले कर राजा बुंदेला भी सामने आए। आज भी पृथक बुंदेलखण्ड की मांग सुगबुगाती रहती है। यह सच है कि पृथक बुंदेलखण्ड और बुंदेली को भाषाई दर्जे की बात एकरूप हो कर कभी नहीं उठी।
सन् 2017 में ओरछा में बुंदेलखण्ड साहित्य एवं संस्कृति परिषद, भोपाल के तत्वाधान में बुंदेली भाषा का दो दिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया था। जिसमें मधुकर शाह, काशी हिंदू वि.वि. के प्रो. कमलेश कुमार जैन, बुंदेलखण्ड वि.वि. के कुलपति प्रो. सुरेन्द्र दुबे, जर्मनी के होमवर्ग वि.वि. की प्रो. तात्याना, बुंदेलखण्ड साहित्य एवं संस्कृति परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री कैलाश मड़वैया ने बुंदेली को भाषा का स्थान दिलाने के पक्ष में अपने विचार प्रकट किए थे। बुंदेली भाषा को पाठ्यक्रम में जोड़ने की आवश्यकता पर बल दिया गया था जिस पर बुंदेलखण्ड यूनीवर्सिटी द्वारा इस दिशा में सार्थक कदम उठाने का निश्चय प्रकट किया गया था। कैलाश मड़्वैया ने बुंदेली भाषा के शब्दों के संग्रह एवं मानकीकरण पर प्रस्तावना रखी थी। इस विषय पर गहन चर्चा हुई थी कि क्या बुंदेली भाषा शिक्षा का माध्यम बन सकती है? यह बात होम्वर्ग यूनीवर्सिटी, जर्मनी की प्रोफेसर तात्याना रखी थी। ओरछा के राष्ट्रीय सम्मेलन की भांति अलग-अलग मंचों से अनेक बार सम्मेलनों और सेमिनारों के जरिए बुंदेली को भाषाई दर्जा दिलाए जाने की आवाज़ उठाई गई। दुर्भाग्यवश एक सशक्त राजनीतिक आवाज़ की कमी ने बुंदेली के संघर्ष को बार-बार हाशिए पर धकेल दिया। यही गनीमत है कि छोटी-छोटी इकाइयों के रूप में संर्घष जारी है।  
------------------------------
(छतरपुर, म.प्र. से प्रकाशित "दैनिक बुंदेली मंच", 11.01.2020)

#दैनिकबुंदेलीमंच #कॉलम #शून्यकाल #शरदसिंह #ColumnShoonyakaal #Shoonyakaal #Column #SharadSingh #DainikBundeliManch

No comments:

Post a Comment