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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, January 15, 2020

चर्चा प्लस ... दो पीढ़ियों की दूरी मिटाती है मकर संक्रांति - डाॅ. शरद सिंह

Dr ( Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ... 

दो पीढ़ियों की दूरी मिटाती है मकर संक्रांति
- डाॅ. शरद सिंह 


मकर संक्रांति तिल-गुड़, स्नान और पतंग का त्यौहार है। यूं तो सूर्य के धनु से मकर राशि में प्रवेश को उत्तरायण माना जाता है और सूर्य के उत्तरायण में प्रवेश के संक्रांतिकाल को मकर संक्रांति के पर्व के रूप में मनाया जाता है। यह मात्र धार्मिक पर्व नहीं वरन् एक सामाजिक पर्व है और इसमें निहित है संदेश दो पीढ़ियों के बीच निकटता लाने का। यह संदेश आज के परिवेश में बेहद महत्वपूर्ण है जब आज परिवार बिखर रहे हैं, वृद्धाश्रम खुलते जा रहे हैं और बड़ों ओर बच्चों के बीच दूरियां बढ़ती जा रही हैं जेनेरेशन गेप के नाम पर। मकर संक्रांति में पिता-पुत्र के पारस्परिक मेल की रोचक कथा भी मौजूद है जिसे जानना और समझना जरूरी है।

सूर्य पर आधारित मकर संक्रांति का भारतीय संस्कृति में बहुत महत्व माना गया है। वेद और पुराणों में भी इस दिन का विशेष उल्लेख मिलता है। मकर संक्रांति खगोलीय घटना है, जिससे जड़ और चेतन की दशा और दिशा तय होती है। सूर्य के धनु से मकर राशि में प्रवेश को उत्तरायण माना जाता है। वर्ष को दो भागों में बांटा गया है। पहला उत्तरायण और दूसरा दक्षिणायन। उक्त दो अयन को मिलाकर एक वर्ष होता है। मकर संक्रांति के दिन सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा करने की दिशा बदलते हुए थोड़ा उत्तर की ओर बढ़ता जाता है, इसलिए इस काल को उत्तरायण कहते हैं। सूर्य है तो जीवन है। इसीलिए, सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में जाना वैदिक ज्योतिष के अनुसार काफी महत्वपूर्ण घटना है। सूर्यदेव जिस दिन धनु से मकर राशि में पहुंचते हैं उसे मकर संक्रांति का दिन कहते हैं। सूर्य के मकर राशि में आते ही मलमास समाप्त हो जाता है। इसी दिन से ही देवताओं का दिन शुरू होता है, जो आषाढ़ मास तक रहता है। दक्षियायन देवताओं के लिए रात्रि का समय होता है। ठीक इसी समय से सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायन हो जाता है। मकर संक्रांति को उत्तरायण भी कहते हैं, क्योंकि इस दिन से सूर्यदेव उत्तर दिशा की ओर बढ़ना शुरू कर देते हैं। इस दिशा परिवर्तन के समय को ही मकर संक्रांति कहते हैं।
Charcha Plus - दो पीढ़ियों की दूरी मिटाती है मकर संक्रांति  -  Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh, 15.01.2020
       मकर संक्रांति समूचे भारत में मनाया जाता है, चाहे इसका नाम प्रत्येक प्रांत में अलग-अलग हो और इसे मनाने के तरीके भी भिन्न हों, किंतु यह बहुत ही महत्व का पर्व है। मकर संक्रांति को गुजरात में उत्तरायण, पंजाब में लोहड़ी पर्व, गढ़वाल में खिचड़ी संक्रांति और केरल में पोंगल के नाम से मनाया जाता है। वहीं सिंधी लोग इस त्योहार को तिरमौरी कहते हैं। इस अवसर पर गुजरात समेत कई राज्यों में पतंगें भी उड़ाई जाती है। इस समय से दिन बड़े और रात छोटी होने के साथ ही मौसम ठंडी से गर्मी की तरफ बढ़ने लगता है। मकर संक्रांति की विभिन्न परंपराओं में स्नान, दान का विशेष महत्व है, किन्तु इसके अलावा इसदिन पारंपरिक खिचड़ी और तिल के उपयोग से पकवान बनाने की भी मान्यता है। देश के हर कोने में अलग अलग तरीके से खिचड़ी और तिल के व्यंजन पकाए जाते हैं। इन्हें मकर संक्रांति के दिन बनाया जाता है और भगवान को भोग लगाने के बाद अगले दिन सूर्य उदय के पश्चात ही ग्रहण किया जाता है।
किन्तु मकर संक्रांति के दिन खिचड़ी क्यों बनाई जाती है? इसदिन तिल के प्रयोग से तरह तरह के पकवान क्यों तैयार किए जाते हैं? इसके पीछे का कारण क्या है? आइए इनके पीछे छिपी पौराणिक कहानियों के बारे में जानते हैं। श्रीमद्भागवत एवं देवी पुराण में दर्ज एक कथा के अनुसार शनि देव का हमेशा से ही अपने पिता सूर्य देव से वैर था। एक दिन सूर्य देव ने शनि और उसकी माता छाया को अपनी पहली पत्नी संज्ञा के पुत्र यमराज से भेद भाव करते हुए देख लिया। इससे नाराज होकर उन्होंने अपने जीवन से छाया और शनि को निकालने का कठोर फैसला लिया। इससे नाराज होकर शनि और छाया ने सूर्य को कुष्ठ रोग हो जाने का शाप दिया और वहां से चले गए। पिता को कुष्ठ रोग से परेशान होते देख यमराज ने तपस्या की। आखिरकार सूर्य देव कुष्ठ रोग से मुक्त हुए। किन्तु उनके मन में अभी भी शनी देव को लेकर क्रोध था। क्रोधित अवस्था में ही वे शनि देव के घर (कुंभ राशि में) गए और उसे जलाकर काला कर दिया। इसके बाद शनि और उनकी माता छाया को कष्ट भोगना पड़ा।
अपनी सौतेली मां और शनी देव को दुख में देखकर यमराज ने उनकी मदद की। सूर्य देव को दोबारा उनसे मिलने भेजा। इस बार जब सूर्य देव वहां पहुंचे तो शनि देव ने काले तिल से उनकी पूजा की। चूंकि घर में सब कुछ जल चुका था, इसलिए शनि देव के पास केवल तिल ही थे। शनि की पूजा से प्रसन्न होकर सूर्य देव ने शनि देव को वरदान दिया और कहा कि तुम्हारे दूसरे घर ‘मकर’ में आने पर तुम्हारा घर धन-धान्य से भर जाएगा। इसी कारण से मकर संक्रांति के दिन सूर्य देव की तिल से पूजा की जाती है और अगले दिन तिल का सेवन किया जाता है।
एक अन्य कथा के अनुसार शनिदेव का जन्म महर्षि कश्यप के अभिभावकत्व में कश्यप यज्ञ से हुआ। छाया शिव की भक्तिन थी। जब शनिदेव छाया के गर्भ में थे तो छाया ने भगवान शिव की इतनी कठोर तपस्या कि वे खाने-पीने की सुध तक उन्हें न रही। भूख-प्यास, धूप-गर्मी सहने के कारण उसका प्रभाव छाया के गर्भ में पल रहे शनि पर भी पड़ा और उनका रंग काला हो गया। जब शनिदेव का जन्म हुआ तो रंग को देखकर सूर्यदेव ने छाया पर संदेह किया और उन्हें अपमानित करते हुए कह दिया कि यह मेरा पुत्र नहीं हो सकता। मां के तप की शक्ति शनिदेव में भी आ गई थी उन्होंने क्रोधित होकर अपने पिता सूर्यदेव को देखा तो सूर्यदेव बिल्कुल काले हो गये, उनके घोड़ों की चाल रुक गई। परेशान होकर सूर्यदेव को भगवान शिव की शरण लेनी पड़ी और शिव ने उनको उनकी गलती का अहसास कराया। सूर्यदेव ने अपनी गलती के लिये क्षमा याचना की जिसके बाद उन्हें फिर से अपना असली रूप वापस मिला।
ये दोनों कथाएं इस बात का संदेश देती हैं कि पिता और पुत्र में भूल चाहे जिससे भी हुई हो, उन्हें परस्पर मिल कर, एक दूसरे से बातचीत कर के मसले को सुलझा लेना चाहिए। यह संदेश आज के परिवेश में बेहद महत्वपूर्ण है जब आज परिवार बिखर रहे हैं, वृद्धाश्रम खुलते जा रहे हैं और बड़ों ओर बच्चों के बीच दूरियां बढ़ती जा रही हैं जेनेरेशन गेप के नाम पर। मिल-बैठ कर परस्पर दुख-सुख जानने का चलन परिवारों से खत्म होता जा रहा है, जिसके लिए मकर संक्रांति में पिता-पुत्र के पारस्परिक मेल की रोचक कथाओं को जानना और समझना जरूरी है। बुंदेलखंड में तो यह मान्यता भी है कि मकर संक्रांति पर जब कोई पिता अपने पुत्र से मिलने जाते है, तो उनके बीच के मतभेद दूर हो जाते हैं। -------------------------
(सागर दिनकर, 15.01.2020)


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