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My Editorials - Dr Sharad Singh

Saturday, January 25, 2020

शून्यकाल ... बच्चों को स्कॉलर बना रहे हैं या हम्माल ? - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
शून्यकाल  
बच्चों को स्कॉलर बना रहे हैं या हम्माल ?
  - डॉ. शरद सिंह
      स्कूलों में बच्चों की भर्ती का समय सिर पर आते ही उसका दबाव हर माता-पिता के चेहरे पर देखा जा सकता हैं। भर्ती के बाद बच्चों के पीठ पर लदने वाले बस्ते के वज़न को देख कर घबराहट होती हैं। नन्हें बच्चों के नाज़ुक कंधों पर बस्ते का भारी बोझ देख कर समझ में नहीं आता है कि हम बच्चों को स्कॉलर बनाने के लिए स्कूल भेज रहे हैं या हम्माल (बोझा ढोने वाला) बनाने के लिए तैयार कर रहे हैं। आखिर हमारे शिक्षानीति निर्माता कब उतारेंगे इस बोझ को बच्चों के कोमल कंधों से?                                                     
एक चौंकाने वाली किन्तु ऐतिहासिक घटना, अगस्त 2016, महाराष्ट्र के चंद्रपुर कस्बे के कक्षा 7 वीं में पढ़नेवाले दो बच्चे, उम्र लगभग 12 साल, प्रेस क्लब पहुंचे और उन्होंने कहा कि वे अख़बारवालों से बात करना चाहते है। उनका आशय बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस करने से था। उनकी यह मांग सुन कर प्रेसक्लब में बैठे पत्रकार चकित रह गए। उन्होंने दोनों बच्चों के लिए आनन-फानन में प्रेस कॉन्फ्रेंस की व्यवस्था करा दी। दोनों बच्चों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में भारी बस्तों की समस्या पर चर्चा की। बच्चों ने कहा कि हर रोज उन्हें अपने बैग में रख कर 18-20 किताबें स्कूल ले जानी पड़ती हैं। जिससे बस्ते का वजन लगभग 7-8 किलो हो जाता है। वे थक जाते हैं और ढंग से पढ़ाई नहीं कर पाते हैं। उनके कंधे और कमर में दर्द रहने लगा है।  अपनी पीड़ा बयान करते हुए उन बच्चों ने चेतावनी भी दी कि यदि बस्ते हल्के नहीं किए जाते तो बच्चे अनशन करेंगे। दो बच्चों की इस बच्चों की प्रेस कॉन्फ्रेंस ने हंगामा मचा दिया। बॉम्बे हाईकोर्ट ने मामले की गंभीरता को अपने संज्ञान में लेते हुए महाराष्ट्र सरकार को आदेश दिया कि बच्चों के बैग के वजन को हल्का किया जाए। महाराष्ट्र सरकार ने हाईकोर्ट के आदेश को स्वीकार तो किया किन्तु इसका समुचित पालन नहीं करा पाई। गैरजरूरी मामले की भांति बच्चों के बस्ते के वजन का मामला प्रत्येक राज्य सरकारों द्वारा बहुत जल्दी ठंडे बस्ते में सरका दिया जाता है। 

एक ऑटोवाला या मज़दूर भी यह सपना देखने का अधिकार रखता है कि उसके बच्चे किसी अच्छे अंग्रेजी माध्यम स्कूल में पढ़ें और बड़े हो कर किसी अच्छे पद पर काम करें। वह अपनी पूरी जान लड़ा देता है बच्चों की फीस भरने और उनकी कापी-किताब, यूनीफॉर्म सहित उन तमाम खर्चों को पूरा करने के लिए जो अच्छे प्राईवेट स्कूल में पढ़ने के लिए जरूरी होते हैं। बस, नहीं संवार पाता है तो अपने बच्चे की सेहत। वह उसे उतना पौष्टिक भोजन नहीं दे पाता है जितना कि उसके दो से ले कर आठ-दस किलो तक के बस्ते को ढोन के लिए जरूरी है। इकहरे बदन का सींकिया-सा बच्चा और उसके कंधों पर दस किलो का वज़न जिसमें पानी की बोतल भी शामिल है। उस बच्चे को देख कर समझ में नहीं आता है कि हम बच्चों को स्कॉलर बनाने के लिए स्कूल भेज रहे हैं या हम्माल (बोझा ढोने वाला) बनाने के लिए तैयार कर रहे हैं। हिन्दी माध्यम या सरकारी स्कूलों की दशा तो और भी बदतर रहती है। वहां बच्चों के कोमल कंधों पर लदे हुए बस्ते के इस बोझ को देखने वाला और भी कोई नहीं होता है। उस पर ऐसे स्कूलों में प्रायः कमज़ोर तबके के बच्चे पढ़ने जाते हैं जिन्हें पर्याप्त पौष्टिक भोजन नहीं मिलता है। शारीरिक दृष्टि से कमजोर बच्चों को भी तन्दुरुस्त बच्चों जितना बस्ते करा वज़न ढोना पड़ता है। जो उनकी सेहत को और अधिक नुकसान पहुंचाता है। पौष्टिक भोजन के नाम पर कई स्कूलों में मिड-डे मील की दुहाई दी जाती है। तो क्या बच्चों को इसीलिए मिड-डे मील दिया जाता है ताकि वे बसते का बोझा ढो सकें।
Shoonyakaal Column of  Dr Sharad Singh in Dainik Bundeli Manch, 24.01.2020

          चिकित्सकों के अनुसार कक्षा 1 से 2 के बच्चों को महज 1 किलो, कक्षा 3 से 4 में पढ़नेवाले बच्चों को 2 किलो, कक्षा 5 से 7 में पढ़नेवाले बच्चों को 4 किलो और कक्षा 8 से ऊपर कक्षा में पढ़नेवाले बच्चों को 5 किलो तक का ही बैग का वज़न होना चाहिए। भारी बैग के चलते बच्चों की रीढ़ की हड्डी को नुकसान, फेफड़ों की समस्या होने की संभावनाएं होती है। और सांस लेने में  दिक्कत जैसे कई समस्याओँ उठानी पड़ सकती है। मगर सवाल वहीं है कि यह वज़न भी शारीरिक रूप से मजबूत बच्चे के लिए सही हो सकता है, कमजोर बच्चे के लिए नहीं। एक सर्वे के अनुसार, दिमाग़ से तेज लेकिन शरीर से कमजोर बच्चे सिर्फ़ बस्ते के बोझ के दबाव से पढ़ाई में पिछड़ने लगते हैं। 
आज से लगभग 27 साल पहले वर्ष 1992 में प्रो. यशपाल की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गई थी। कमेटी ने बच्चों के बस्ते के बढ़ते बोझ और उनके कमजोर कंधों का गंभीरता से अध्ययन किया। इसके बाद यशपाल कमेटी ने जुलाई 1993 में सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी। रिपोर्ट में होमवर्क से लेकर स्कूल बैग तक के लिए कई सुधार सुझाए गए थे। जिनका भरपूर स्वागत भी हुआ लेकिन अफ़सोस कि सुधार ईमानदारी से अमल में नहीं लाया गया। उस समय यह राय भी दी गई थी कि नर्सरी कक्षाओं में दाखिले के लिए होने वाले टेस्ट व इंटरव्यू बंद होने चाहिए। आज छोटे-छोटे बच्चे होमवर्क के आतंक में दबे पड़े हैं, जबकि यशपाल समिति की सलाह थी कि प्राइमरी क्लासों में बच्चों को गृहकार्य इतना दिया जाना चाहिए कि वे अपने घर के माहौल में नई बात खोजें और उन्हीं बातों को विस्तार से समझें। मिडिल व उससे ऊपर की कक्षाओं में होमवर्क जहां जरूरी हो, वहां भी पाठय़ पुस्तक से नहीं हो। पर आज तो होमवर्क का मतलब ही पाठय़ पुस्तक के सवाल-जवाबों को कापी पर उतारना या उसे रटना रह गया है। कक्षा में 40 बच्चों पर एक टीचर, विशेष रूप से प्राइमरी में 30 बच्चों पर एक टीचर होने की सिफारिश खुद सरकारी स्कूलों में भी लागू नहीं हो पाई है।
यशपाल कमेटी के लगभग 14 साल बाद वर्ष 2006 में केंद्र सरकार ने क़ानून बनाकर बच्चों के स्कूल का वज़न तय किया, लेकिन यह क़ानून भी लागू नहीं हो सका।  भारी बैग उठाकर चलने से बच्चे आगे की ओर झुक जाते हैं जिससे बॉडी पोश्चर पर असर पड़ता है। क्षमता से अधिक वज़न उठाने से बच्चों में कमज़ोरी और थकान रहने लगती है।’’

इसके बाद स्कूली बच्चों के पीठ से बस्ते का बोझ कम करने के लिए केंद्र सरकार ने निर्देश जारी किया। इसमें साफ तौर पर कहा गया कि किस कक्षा के बच्चों के बैग का वजन कितना होना चाहिए। वैसे स्कूलों में बच्चों के पीठ पर बस्ते का बोझ हमेशा एक बड़ा मुद्दा रहा है। अभिभावकों ने जहां इसे लेकर चिंता जताई, वहीं डॉक्टरों ने भी बच्चों की सेहत की दृष्टि से इसे सही नहीं बताया। बस्ते के बोझ को कम करने को लेकर समय-समय पर संबंधित विभागों की ओर से निर्देश भी जारी होते रहे हैं। कुछ महीने पहले मद्रास हाई कोर्ट ने बच्चों के पीठ से बस्ते का बोझ कम करने और पहली तथा दूसरी कक्षा तक के बच्चों को होमवर्क नहीं देने के निर्देश दिए थे, जो देशभर में चर्चा का विषय बन गई थी। अब केंद्र सरकार ने इस संबंध में दिशा-निर्देश जारी किए। इसी आधार पर केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय ने इस संबंध में सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश जारी किए। इसमें राज्य सरकारों व केंद्र शासित प्रदेशों से कहा गया कि वे स्कूलों में विभिन्न विषयों की पढ़ाई और स्कूल बैग के वजन को लेकर भारत सरकार के निर्देशों के अनुसार नियम बनाएं। इसमें कहा गया कि पहली से दूसरी कक्षा के छात्रों के बैग का वजन डेढ़ किग्रा से अधिक नहीं होना चाहिए। इसी तरह तीसरी से 5वीं कक्षा तक के विद्यार्थियों के बैग का वजन 2-3 किग्रा, छठी से 7वीं के बच्चों के बैग का वजन 4 किग्रा, 8वीं तथा 9वीं के छात्रों के बस्ते का वजन साढ़े चार किग्रा और 10वीं के छात्र के बस्ते का वजन 5 किलोग्राम होना चाहिए।

 उल्लेखनीय है कि चिल्ड्रन्स स्कूल बैग एक्ट, 2006 के तहत बच्चों के स्कूल बैग का वजन उनके शरीर के कुल वजन के 10 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। ध्यान देने की बात है कि बच्चे के वजन के दस प्रतिशत का निर्धारण हर बच्चे के लिए अलग-अलग नहीं किया जा सकता है। वहीं दूसरी ओर एक औसत मानक हर बच्चे के लिए उपयुक्त भी नहीं हो सकता है। इस समस्या का एक पक्ष और भी है। मंहगें प्राईवेट स्कूलों में बच्चों को डिज़िटल पुस्तकें और स्कूल में लॉकर्स भी उपलब्ध कराए जाते हैं जिससे वे बोझमुक्त रह सकें। लेकिन सामान्य स्कूलों में यह सुविधा बच्चों को नहीं मिल पाती है। ग्रामीण बच्चे जो बिजली की लुकाछिपी से जूझते रहते हैं वे डिज़िटल किताबों की सुविधा का लाभ ठीक से उठा भी नहीं सकते हैं। जिन बच्चों को स्कूलबस नसीब हो जाती है वे तो फिर भी खुशनसीब हैं लेकिन जिन बच्चों को पीठ पर बस्ते का भारी बोझ लाद कर चार-पांच कि.मी. या उससे भी अधिक की दूरी तय करनी पड़ती है या फिर रस्सी बांध कर बनाए गए पुलों से हो कर गुज़रना पड़ता है, उन पर उनके वज़न के दस प्रतिशत बोझ को लागू करना भला कैसे न्यायसंगत हो सकता है?

कुलमिला कर यही तस्वीर बनती है कि हमारे देश में शिक्षा व्यवस्था में एकरूपता का अभाव है और अभाव है बच्चों की सेहत की सुरक्षा का। इलेक्ट्रॉनिक क्रांति के बावजूद आज भी करोड़ों बच्चे बस्ते का भारी बोझ उठाने को विवश है। शिक्षा नीति और शिक्षा योजनाओं के व्यवहारिक निर्माण और उसके अनुपालन की अभी भी कमी है। देश के हर बच्चे तक डिज़िटल पढ़ाई की सुविधा पहुंचाने से ही इस समस्या का हल निकल सकता है जिसके लिए सरकार द्वारा ईमानदार पहल और कड़ाई से पालन कराने की दृढ़इच्छाशक्ति की दरकार है।        
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(छतरपुर, म.प्र. से प्रकाशित "दैनिक बुंदेली मंच", 24.01.2020)
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