Pages

My Editorials - Dr Sharad Singh

Thursday, January 30, 2020

शून्यकाल ... संकट में हैं बुंदेलखंड के पारंपरिक आभूषण - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
शून्यकाल  
संकट में हैं बुंदेलखंड के पारंपरिक आभूषण
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

बुंदेलखंड के आभूषणों की एक लंबी परम्परा रही है, जो प्रागौतिहासिक युग से लेकर वर्तमान काल तक जीवित रहकर सौंदर्य-बोध का इतिहास लिखती आ रही है। यहां का पुरातत्त्व, मूर्तिशिल्प, चित्रकला और साहित्य इसके साक्ष्य देते हैं। बुंदेलखंड के प्रसिद्ध कवि बोधा के इस छंद में बुंदेलखंड में पहने जाने वाले आभूषणों का विवरण मिलता है-

बेनी सीसफूल बिजबेनिया में सिरमौर,
बेसर तरौना केसपास अँधियारी-सी।
कंठी कंठमाला भुजबंद बरा बाजूबंद,
ककना पटेला चूरी रत्नचौक जारी-सी।
चोटीबंद डोरी क्षुद्रघंटिका नयी निहार,
बिछिया अनौटा बांक सुखमा की बारी-सी।
राजा कामसैन के अखाड़े कंदला कों पाय,
माधो चकचैंध रहो चाहिकै दिवारी-सी।

इस छंद में बिजबेनिया, बरा, पटेला, पछेला और बेनीपान जैसे आभूषणों का जिक्र किया है। बार बाजू में, पटेला चूड़ियों के बीच कौंचा में और पछेला कौंचा में ही सबसे पीछे पहने जाते थे। वेणीपान वेणी को बांधने वाला पान केर आकार का आभूषण तथा कण्ठिका एक लड़ी का हार होता था। कवि पद्माकर ने भी अपने दंदों में कलंगी, गोपेंच और सिरपेंच का उल्लेख किया है। उन्नीसवीं शती के अंतिम चरण से लेकर बीसवीं शती के प्रथम चरण तक के आभूषणों का विवरण कवि ईसुरी की फागों में मिलता है। जैसे -

चलतन परत पैजना छनके, पांवन गोरी धन के
सुनतन रोम-रोम उठ आउत, धीरज रहत न तन के ।
Dainik Bundeli Manch - शून्यकाल ... संकट में हैं बुंदेलखंड के पारंपरिक आभूषण - Dr Sharad Singh, 30.01.2020
        ईसुरी का फागों में पैर में पैजना, पैजनियांय कटि में करघौनी, हाथ में ककना, गजरा, चुरीयाँ, बाजूबंद, बजुल्ला, छापें, छला, गुलूबंद, कंठा, कठलाय कान में कर्णफूल, लोलकय नाक में पुंगरिया, दुरय माथे में बेंदा, बेंदी, बूंदा, दावनी टिकुली आदि का अनेक बार उल्लेख है। वैसे समूचे बुंदेलखंड में जो आभूषण प्रचलन में रहे, वे थे- सिर में सीसफूल, बीजय वेणी में झाबिया, माथे में बेंदी, दावनी, टीकाय कानों में कर्णफूल, सांकर, लोलक, ढारें, बारी, खुटियाय नाक में बेसर, पुंगरियाय गले में सरमाला, चंद्रहार, सुतिया, पँचलड़ीं, बिचैली, चैकी, लल्लरीय हाथ की अंगुलियों में मुंदरी, छल्ला, छापेंय बाजू में बरा, बजुल्ला, बगवांय कौंचा में ककना, दौरी, चूरा हरैयां बंगलियां चूड़ी, नौघरई, चुल्ला, बाकें, घुमरी, पायजेब, पैजनियां, पैजनाय पैर की अंगुलियों में बिछिया, गेंदें, चुटकी, गुटिया और अनवट आदि।

आभूषण लोकसंस्कृति के लोकमान्य अंग हैं। देह को भांति-भांति के आभूषणों से सजाना मानवीय प्रकृति का एक अभिन्न अंग है। आभूषण उपलब्ध न हों तो उनकी पूर्ति के लिए गोदना (टैटू) बनवाने का चलन आज भी है। बुंदेलखण्ड की लोकसंस्कृति में भी आभूषणों का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रहा है। चूंकि लगभग मध्यकाल से ही राजनीतिक अस्थिरिता के कारण बुंदेलखंड में आर्थिक विपन्नता का प्रतिशत अधिक रहा लेकिन सोने-चांदी के मंहगें आभूषणों की जगह गिलट के आभूषणों ने ले ली। यद्यपि यह बात भी महत्वपूर्ण है कि बुंदेलखंड के सागर सराफा में निर्मित होने वाले चांदी के गहनों की मांग आज भी दूर-दूर तक है। किंतु ग्रामीण अंचलों में चांदी के आभूषण खरीदने की क्षमता न रखने वाले लोगों में चांदी जैसे सुंदर गिलट के जेवर बहुत लोकप्रिय रहे हैं।

आर्थिक रूप से कमजोर तबकों में भी आभूषण पहनने का चलन रहा है जिनमें टोड़र, पैजना, करधौनी, बहुंटा, चंदौली, कंटीला गजरा, मुंदरी, छला, कन्नफूल, पुंगारिया, खंगौंरिया और टकार प्रमुख आभूषण थे। आज ये आभूषण धीरे-धीरे चलन से बाहर होते जा रहे हैं। इसके प्रत्यक्षतः तीन कारण दिखाई देते हैं- एक तो बुंदेलखंड प्राकृतिक आपदाओं के चलते कृषि को हानि होने से गिरती आर्थिक स्थिति, दूसरा कारण बुंदेलखंड में महिलाओं के साथ बढ़ते अपराध जिसके कारण सोने या चांदी जैसे दिखने वाले नकली आभूषणों को भी पहन कर निकलने में महिलाएं डरती हैं और तीसरा कारण हैं वे चाईनीज़ आभूषण जो भारतीय आभूषणों की अपेक्षा अधिक सस्ते और अधिक आकर्षक दिखते हैं। भेल ही इन चाईनीज आभूषणों को ‘मेड इन चाइना’ के रूप में नहीं बेंचा जाता है किन्तु आम बोलचाल में यह चाईनीज़ आभूषण ही कहलाते हैं। इन तीनों कारणों ने बुंदेलखंड के पारंपरिक आभूषणों को बहुत क्षति पहुंचाई है। बुंदेलखंड के पारंपरिक आभूषणों की कला को बचाने के लिए कोई न कोई रास्ता निकालना जरूरी है।
पिछले दिनों पन्ना जिले के ग्राम नचना जाने का अवसर मिला। वहां साप्ताहिक हाट में में आई वे महिलाएं दिखीं जो बुंदेलखंड के और अधिकर भीतरी अंचल से आई थीं। उनके पैरों में डेढ़-डेढ़ किलो वज़नी चांदी के गेंदाफूल वाले तोड़े देख कर ऐसा लगा मानों बचपन का वह समय लौट आया हो जब नानी और दादी इस प्रकार के तोड़े अपने पैरों में पहना करती थीं। मैंने उन महिलाओं से उनके तोड़ों के बारे में पूछा कि क्या ये उन्हें भारी नहीं लगते है? तो उनमें से एक ने हंस कर बताया कि ये चांदी के नहीं हैं, गिलट के हैं जो उसकी सास उसे शादी में दिए थे। साथ ही उसने दुखी होते हुए यह भी कहा कि अब गिलट के तोड़े नहीं मिलते हैं। मुझे लगा कि यह ठीक कह रही है, मैंने भी बरसों से गिलट के जेवर नहीं देखे हैं। मिश्रधातु वाला गिलट चांदी के सामान दिखता है और इसके गहने कभी काले नहीं पड़ते हैं। वज़न में हल्का और टिकाऊ। बहरहाल, फिर मेरा ध्यान गया नचना और उसके आस-पास की ग्रामीण महिलाओं के गहनों की ओर। उन पर शहरी छाप स्पष्ट देखी जा सकती थी। वैसे यह स्वाभाविक है। टेलीविजन के युग में फैशन तेजी से गांव-गांव तक पहुंच रहे हैं और परम्पराओं पर कब्जा करते जा रहे हैं। फिर परिवर्तन भी एक स्वतःस्फूर्त प्रक्रिया है। लेकिन जब कलात्मक परंपराओं का क्षरण होने लगता है तो दुख अवश्य होता है।
----------------------
(छतरपुर, म.प्र. से प्रकाशित "दैनिक बुंदेली मंच", 30.01.2020)
#दैनिकबुंदेलीमंच #कॉलम #शून्यकाल #शरदसिंह #वसंतपंचमी #निरालाजयंती #ColumnShoonyakaal #Shoonyakaal #Column #SharadSingh #miss_sharad

No comments:

Post a Comment