- डॉ. शरद सिंह
कबीर ने समाज को आईना दिखाने वाले और मानव-प्रेम के दोहे रचे। वह भी उस काल में जब बोधन जैसे कवि को मात्र इसलिए मृत्युदण्ड दे दिया गया था कि उसका कहना था कि हिन्दू और मुस्लिम धर्म में कोई अंतर नहीं है। ऐसे दुरूह समय में पाखण्डियों को स्पष्ट शब्दों में ललकारने वाले कबीर क्या स्त्री-विरोधी दोहे लिख सकते हैं? यह एक चौंकाने वाला तथ्य है। यह एक शोध का विषय भी हो सकता है लेकिन इसके लिए पूर्वाग्रह से उठ कर बारीकी से तथ्यों को परखना होगा। इस संभावना पर भी गौर करना होगा कि कबीर को लांछित करने के लिए उनके नाम से स्त्री-विरोधी दोहे रच दिए गए हों।
कुछ समय पहले लखनऊ की एक शोध छात्रा ने मुझसे प्रश्न किया था कि ‘‘क्या कबीर स्त्री विरोधी थे?’’ यह प्रश्न चेतना को आंदोलित करने वाला था। मैंने उससे पूछा कि आप किस आधार पर कबीर के बारे में यह प्रश्न कर रही हैं? इस पर उस छात्रा ने मुझे कबीर के दो दोहे सुनाए। निश्चितरूप से वे दोनों दोहे स्त्री-विरोधी थे। मैंने उस छात्रा से यही कहा कि मैं तत्काल इस प्रश्न का उत्तर नहीं दूंगी दो दिन बाद उत्तर दूंगी। दो दिन में मैंने कबीर का लगभग तमाम साहित्य खंगाल डाला और साथ ही उस परिदृश्य पर भी ध्यान दिया जो कबीर के समय मौजूद था। दो दिन बाद उस शोध छात्रा ने फिर अपना प्रश्न दोहराया कि ‘‘क्या कबीर स़्त्री-विरोधी थे?’’ मैंने पूर्ण आश्वस्ति के साथ उसे उत्तर दिया कि मेरे विचार से कबीर स़्त्री-विरोधी नहीं थे। उसने प्रतिप्रश्न किया कि लेकिन वे दोहे जिनमें कबीर ने स्त्री को सर्प से अधिक विषधारी बताया है? उसने जो दो दोहे मुझे उदाहरण स्वरूप सुनाए वे इस प्रकार थे -
(1) नारी की झांई पड़त, अंधा होत भुजंग।
‘कबिरा’ तिन की कौन गति, जो नित नारी को संग।।
तथा,
(2) नारी तो हमहूं करी, तब न किया विचार।
जब जानी तब परिहरि, नारी महा विकार।।
इस पर मैंने उससे पूछा कि इसका क्या प्रमाण है कि वे स्त्री-विरोधी दोहे कबीर ने ही रचे हैं। कबीर वाचिक परम्परा के कवि थे। उन्होंने स्वयं कहा है कि -“मसि कागद छूवो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।“ अतः जब विरोधीजन प्रकाशित, प्रमाणित रचनाओं में भी हेरफेर कर देते हैं तो क्या यह संभव नहीं है कि कबीर की स्पष्टवादिता से खीझे हुए विरोधियों ने उन्हें अपने खेमे का दिखाने के लिए कुछ स्त्री-विरोधी दोहे उनके नाम से प्रचारित कर दिए हों। इस पर गंभीरता से शोध होना चाहिए। मेरे विचार से तो शोध के उपरांत ऐसे भ्रामक दोहे कबीर-साहित्य से खारिज़ किए जाने चाहिए।
07 दिसम्बर 2016 को बीना कॉलेज की प्राचार्या डॉ संध्या टिकेकर द्वारा ग्राम हिरनछिपा में जनजागरूकता अभियान के तहत एक अत्यंत सार्थक संगोष्ठी कराई गई। जिसमें विशिष्ट अतिथि के रूप में अपने विचार रखते हुए मैंने इसी विषय की चर्चा करते हुए शोधार्थियों और विद्वानों से आग्रह किया कि संत कबीर के स्त्री-विषयक दोहों की पड़ताल करना आवश्यक है क्योंकि मुझे संदेह है कि स्त्री-विरोधी दोहे संत कबीर ने लिखे हैं। वे वाचिक परम्परा के कवि थे अतः यह संभव है कि उनके विरोधियों ने दुष्प्रचार के रूप में ऐसे दोहे उनके नाम के साथ प्रचारित कर दिए हों। इस पर उपस्थित विद्वानों मेरे मेरे विचार का समर्थन किया किन्तु एकाध विद्वान ने उस संदर्भ का घालमेल कर दिया जो तुलसीदास के स्त्री-विरोधी दोहे के रूप में जाना जाता है-‘ढोर, गंवार शूद्र पशु नारी। ये सब ताड़न के अधिकारी।।’’ मैंने उनसे आग्रह किया कि कबीर और तुलसी के दोहों के संदर्भ परस्पर एकदम भिन्न हैं। तुलसी ने जो दोहा लिखा है वह रामकथा के अंतर्गत् विशिष्ट चरित्रों के संदर्भ मे लिखा है और इस पर अलग से स्वतंत्र विचार किया जाना चाहिए। जबकि कबीर के नाम वाले ये दोहे लिखित नहीं मौखिक परम्परा से आए हैं जिनमें नाम के दुरुपयोग की पूरी संभावना है। ये दोहे किसी कथा-संदर्भ के अंतर्गत भी नहीं हैं। अतः इन पर विचार करते हुए तुलसी के दोहे को परे रखना होगा।
कबीर ने जिस काल में दोहों की रचना की उस समय सिकन्दर लोदी का शासन था। सिकन्दर लोदी एक असहिष्णु शासक था। उसकी धार्मिक भेद-भाव की नीतियों के कारण समाज हिन्दू और मुस्लिम दो भागों में बंटा हुआ था। दोनों धार्मिक समाजों में एकता की बात करना अपराध की श्रेणी में गिना जाता था। इसका उदाहरण कवि बोधन के हश्र के रूप् में देखा जा सकता है। कवि बोधन ने यही कहा कि हिन्दू और मुस्लिम धर्म एक समान है और परिणामस्वरूप उसे मुत्युदण्ड दे दिया गया। ऐसे दुरूह समय में कबीर दोनों धर्मों के पाखण्डियों को खुले शब्दों में ललकार रहे थे। पथभ्रष्ट समाज को उचित मार्ग पर लाना ही उनका प्रधान लक्ष्य है। कथनी के स्थान पर करनी को,प्रदर्शन के स्थान पर आचरण को तथा बाह्यभेदों के स्थान पर सब में अन्तर्निहित एक मूल सत्य की पहचान को महत्व प्रदान करना कबीर का उद्देश्य है। हिन्दू समाज की वर्णवादी व्यवस्था को तोडकर उन्होंने एक जाति, एक समाज का स्वरूप दिया। मूर्तिपूजा पर कबीर ने गहरा व्यंग्य किया। वे कहते है -
पहान पूजै हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार।
या तो यह चाकी भली, पीस खाये संसार।।
इसी प्रकार खुदा को पुकारने के लिए जोर से आवाज लगाने पर वे कटाक्ष करते हैं कि -
कांकर पाथर जोरि कै, मस्जिद लई बनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बांग दै, बहरा हुआ खुदाय”
कबीर का नाम हिंदी भक्त कवियों में निर्गुण भक्ति धारा की ज्ञानमार्गी शाखा में प्रमुखता से गिना जाता है। कबीर की रचनाओं को मुख्यतः निम्नलिखित तीन श्रेणियों में विभक्त किया जाता हैः रमैनी, सबद, साखी। ’रमैनी’ और ’सबद’ गाए जाने वाले ’गीत या भजन’ के रूप में प्रचलित हैं। ’साखी’ शब्द साक्षी शब्द का अपभ्रंश है। इसका अर्थ है - “आंखों देखी अथवा भली प्रकार समझी हुई बात।“ कबीर की साखियां दोहों में लिखी गई हैं जिनमें भक्ति व ज्ञान उपदेशों को संग्रहित किया गया है। कबीर ने उलटबांसियां भी कही हैं। कबीर न तो मात्र सामाजिक सुधारवादी थे और न ही धर्म के नाम पर विभेदवादी। वह आध्यात्मिकता की सार्वभौम आधारभूमि पर सामाजिक क्रांति के नायक थे। कबीर मानववादी विचारधारा के प्रति गहन आस्थावान थे। वह युग अमानवीयता का था, इसलिए कबीर ने मानवता से परिपूर्ण भावनाओं, सम्वेदनाओं तथा चेतना को जागृत करने का प्रयास किया। कबीर वर्गसंघर्ष के विरोधी थे। वे समाज में व्याप्त शोषक-शोषित का भेद मिटाना चाहते थे। जातिप्रथा का विरोध करके वे मानवजाति को एक दूसरे के समीप लाना चाहते थे। समाज में छुआछूत का प्रचार जोरों पर देखकर कबीर ने उसका खंडन किया। उन्होंने पाखंडियों को संबोधित करके कहा कि -
जो तुम बाभन बाभनि जाया, आन घाट काहे नहि आया।
जो तुम तुरक तुरकानी जाया, तो भीतर खतना क्यूं न कराया।।
कबीर का समाज-दर्शन अथवा आदर्श समाज विषयक उनकी मान्यताएँ ठोस यथार्थ का आधार लेकर खडी हैं। अपने समय के सामन्ती समाज में जिस प्रकार का शोषण दमन और उत्पीडन उन्होंने देखा-सुना था, उनके मूल में उन्हें सामन्ती स्वार्थ एवम धार्मिक पाखण्डवाद दिखाई दिया जिसकी पुष्टि दार्शनिक सिद्धान्तों की भ्रामक व्यवस्था से की जाती थी और जिसका व्यक्त रूप बाह्याचार एवम कर्मकाण्ड थे। कबीर ने समाज व्यवस्था सत्यता, सहजता, समता और सदाचार पर आश्रित करना चाहा जिसके परिणाम स्वरूप कथनी और करनी के अन्तर को उन्होंने सामाजिक विकृतियों का मूलाधार माना और सत्याग्रह पर अवस्थित आदर्श मानव समाज की नीवं रखी। यहां विचारणीय है कि जो कवि, जो विचारक मानवप्रेम और मानव एकता की बात करता हो वह स्त्री-विरोधी दोहे कैसे रच सकता है? उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि -
जांत-पांत पूछे नहिं कोय।
हरि को भजे सो हरि का होय।।
इसके बाद कबीर के उस पक्ष को भी ध्यान में रखना होगा जिसमें वे सूफी भावना को स्वीार करते हुए स्वयं को अर्थात् आतमा को स्त्री और परब्रह्म को पुरूष मानते हैं-
सुर तैंतीस कौतिक आए, मुनियर सहस अठासी।
कहैं ‘कबीर’ हम ब्याह चले हैं, पुरुष एक अविनासी।।
अतः कबीर ने तो स्वयं को भी स्त्री माना और अपने गुरु रामानंद का स्मरण करते हुए यही कहा कि -
कहैं ‘कबीर’ मैं कछु न कीन्हा।
सखि सुहाग राम मोहि दीन्हा।।
एक बिन्दु यह भी है कि कबीर का जीवन के प्रति सकारात्मक एवं तटस्थ दृष्टिकोण था। उन्होंने कहा कि -
पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात। देखत ही छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात।।
इस भंगुर जीवन का अंत जब मृत्यु ही है तो उससे भयभीत क्यां होना? इसी सत्य के महत्व को समझते हुए वे स्पष्टवादी बने रहे। उन्हें शासक, शासन अथवा पाखण्डियों से कभी भय नहीं लगा। उन्होंने कहा कि -
आए हैं तो जाएंगे, राजा, रंक, फकीर।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बंधे जंजीर।।
कबीर ऐसे कवि थे जिन्होंने प्रेम की महत्ता को ज्ञान से भी ऊंचा बताया। उन्होंने कहा कि ज्ञान व्यक्ति को ज्ञानी बनाता है किन्तु प्रेम मनुष्य को मनुष्य बनाता है और जो सच्चे अर्थों में मनुष्य बन गया शेष ज्ञान तो उसे स्वयं हो जाएगा-
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।
अतः प्रेम को सर्वोपरि मानने वाले, पाखण्ड को ललकारते हुए स्पष्ट बोलने वाले, आत्मा को स्त्री और ब्रह्म को पुरुष मानने वाले कबीर स्त्री-विरोधी दोहे भला कैसे रच सकते थे? मुझे तो संदेह है इन दोहों पर। मेरा हमेशा यही आग्रह रहेगा कि कबीर के विचारों के प्रति भ्रम उत्पन्न करने वाले दोहों को जांचने और संदेहास्पद निकलने पर खारिज करने की जरूरत है।
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(छतरपुर, म.प्र. से प्रकाशित "दैनिक बुंदेली मंच", 09.02.2020)
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