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My Editorials - Dr Sharad Singh

Monday, February 3, 2020

समझने की जरूरत है बुंदेलखंड की ज़रूरतें - डाॅ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
समझने की जरूरत है बुंदेलखंड की ज़रूरतें
 - डाॅ. शरद सिंह
(नवभारत में 03.02.2020 को प्रकाशित)
    हर वर्ष गणतंत्र दिवस मनता है और हर वर्ष वसंत भी आता है। बुंदेलखंड में भी हर्षोल्लास का वातावरण दिखता है, यहां के खेतों में सरसों फूलती है, देवी सरस्वती की पूजा-अर्चना की जाती है, साहित्यकार समाज महाकवि ‘निराला’ की जयंती मनाते हुए उन्हें कृतित्व का स्मरण करता है। ठीक वैसे ही जैसे पूस के बाद माघ, और माघ के बाद फागुन मास प्रतिवर्ष आता और चला जाता है। प्रत्येक सामयिक खुशी के बाद सामने खड़ा रह जाता है क्षेत्र का सदियों पुराना पिछड़ापन। देश को स्वतंत्र हुए भले ही दशकों व्यतीत हो गए किन्तु बुंदेलखंड में विकास की दर कछुआ चाल से ही चलती रही है। कुछ बदलाव तो ऐसे हैं जो मानों समय के साथ स्वतः होते चले गए। यहां शिक्षा की दर आज भी शत-प्रतिशत नहीं हो सकी है। आवागमन के साधनों की आज भी पर्याप्त उपलब्धता नहीं हैं। रोजगार के अवसरों की तो यह दशा है कि युवाओं को अपना घर-द्वार छोड़ कर दूसरे प्रदेशों में रोजी-रोजगार ढूंढना पड़ता है। जल प्रबंधन की कमियां उस समय उजागर होने लगती है जब किसान अच्छी फसल न होने के कारण कर्जे में डूब कर आत्महत्या की ओर कदम बढ़ाने लगते हैं। हर बार केन्द्रीय बजट बनता है और समूचा बुंदेलखंड अपने आप को ठगा-सा महसूस कर के रह जाता है। ऐसा नहीं है कि बुंदेलखंड के विकास के लिए कभी कोई पैकेज नहीं दिया जाता है लेकिन जो पैकेज दिया जाता है उसकी धनराशि कहां, कैसे और कब खर्च होती है, पता नहीं चलता है क्योंकि विकास का प्रत्यक्ष प्रमाण सामने दिखता ही नहीं है। इसका अर्थ तो यही है कि या तो धनराशि को सही ढंग से उपयोग में नहीं लाया जाता है अथवा उसके खर्च की माॅनीटरिंग में कमी रह जाती है।   

बुंदेलखंड के माता-पिता अपना पेट काट कर अपने बच्चों का भविष्य संवारने में जुटे रहते हैं। वे चाहते हैं कि उनका बच्चे अच्छी से अच्छी शिक्षा पाएं और कोई अच्छी नौकरी पा सकें। बेटियों को पढ़ाने की रूचि भी बढ़ी है। लेकिन शिक्षा और रोजगार के मामले में दो समस्याएं हैं। पहली तो यह कि उच्चशिक्षा के भरोसेमंद और प्रतिष्ठित केन्द्र इस अंचल में कम ही हैं। इसी का लाभ उठाते हुए कुछ ऐसी संस्थाएं भी अपनी दूकानदारी खोल कर बैठी हुई हैं जो कम पैसों में कथित डिग्री दे कर युवाओं के भविष्य और उनके माता-पिता के सपनों के साथ खुल कर खिलवाड़ कर रही हैं। दूसरी समस्या है आवागमन के साधनों की कमी की। बुंदेलखंड के अनेक अंचल ऐसे हैं जो आज भी रेल सुविधा की बाट जोह रहे हैं। जिन्हें रेल मार्ग मिल गया है उन्हें गिनती की रेलें मिली हैं। इससे होता यह है कि लम्बी दूरी की कई गाड़ियां इस पूरे अंचल से लगभग रात्रि को ही गुजरती हैं जिससे उनके द्वारा यात्रा कर पाना छात्राओं एवं महिलाओं के लिए जोखिम भरा होता है यदि वे अकेली यात्रा करने की स्थिति में हों। रोजगार के संदर्भ में युवाओं द्वारा कई बार मांग उठाई जा चुकी है कि बुंदेलखंड में आईटी सेक्टर की स्थापना की जाए ताकि युवाओं को अच्छे रोजगार के लिए दूसरे राज्यों में न भटकना पड़े। किन्तु बात वहीं आवागमन के साधनों की कमी पर आ कर अटकती है। कोई भी मल्टीनेशनल कंपनी आईटी सेक्टर मं तभी निवेश करने का मन बनाएगी जब विदेशों से आने वाले उनके प्रतिनिधियों को आवागमन की बेहतर सुविधाएं सुलभ होंगी। समूचे बुंदेलखंड में एकमात्र खजुराहो ही ऐसा हवाई अड्डा है जहां से यात्री उड़ाने भरी जाती हैं किन्तु वह भी गिनती की हैं और वहां से सभी महत्वपूर्ण शहरों के लिए उड़ानों की कमी है। इस मामले पर विशेषज्ञों का कहना है कि यदि खजुराहो हवाई अड़डे का और अधिक विस्तार करते हुए उड़ानों की संख्या बढ़ाई जाएगी तो इससे वहां के ऐतिहासिक एवं अत्यंत कलात्मक विश्वविख्यात मंदिरों को क्षति पहुंच सकती है। इस स्थिति में जरूरी हो जाता है कि बुंदेलखंड के विस्तृत भौगोलिक क्षेत्र के लिए घरेलू उड़ानों के कम से कम दो और ऐसे हवाई अड्डे स्थापित किए जाएं जहां सस्ती उड़ान सेवाएं सुलभ हो सकें और बुंदेलखंड के निवासी देश के अन्य क्षेत्रों से हवाई मार्ग द्वारा जुड़ सकें। 

Article of Dr (Miss) Sharad Singh in Navbharat, समझने की जरूरत है बुंदेलखंड की ज़रूरतें - डाॅ. शरद सिंह
             बुंदेलखंड में चिकित्सा साधनों की भी कमी यथावत बनी हुई है। ग्रामीण क्षेत्र एवं गरीब तबका आज भी नीम हकीमों के हाथों अपनी जान का खतरा उठाता रहता है। अशिक्षित तबका पढ़े-लिखे और प्रशिक्षित डाॅक्टरों में तथा नीम हकीमों के बीच अंतर वह समझ नहीं पाता है। यदि समझ भी जाए तो वह मंहगी चिकित्सा सेवा का बोझ न उठा पाने की स्थिति में नीम हकीमों से दवाएं ले कर संतोष कर लेता है। भले ही दशा बिगड़ने पर उसे जिला चिकित्सालयों की ओर भागना पड़े किन्तु छोटी-छोटी सी प्रतीत होने वाली बीमारियों के लिए वह मंहगी दवाएं या डाॅक्टर की बड़ी-बड़ी फीस नहीं चुका सकता है क्यों कि उसकी कमजोर आर्थि स्थिति उसे इसकी इजाजत नहीं देती है। रहा सवाल सरकारी अस्पतालों की दशा का तो वह आए दिन समाचारपत्रों की सुखियां बनती रहती है। यहां तक कि सरकारी मेडिकल काॅलेजों की दशा भी कोई अच्छी नहीं है। कभी ‘‘मुन्ना भाइयों’’ का स्कैम सामने आता है तो कभी मरीजों के साथ बदसलूकी की दशा दुखी कर देती है। सेवाकार्य के रूप में पहचानी जाने वाली चिकित्सा सेवा आज बुंदेलखंड में भी अपने व्यावसायिक रूप को स्थापित कर चुकी है। गंव के लोग अच्छी चिकित्सा की आशा में शहर की ओर आते हैं और शहर के लोग उसी अच्छी चिकित्सा की आशा में महानगरों का मुंह ताकते हैं।

बुंदेलखंड में विकास की गति धीमी क्यों है? इस तथ्य की तह में पहुंचना जरूरी है और उससे अधिक जरूरी है बुंदेलखंड की जरूरतों को जानने की। लेकिन सवाल उठता है कि जब आजादी के सात दशकों बाद भी ये जरूरतें क्यों बनी हुई हैं जबकि इनकी पूर्ति तो देश स्वतंत्र होने के बाद पहली, दूसरी या तीसरी पंचवर्षीय योजना में ही हो जानी चाहिए थी। कहीं तो कोई चूक, कोई कमी है जो बुंदेलखंड का समुचित विकास नहीं होने देती है।            
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