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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, May 19, 2020

लॉकडाउन और मेरा साहित्य सृजन - डॉ शरद सिंह, दैनिक भास्कर में प्रकाशित


Dr (Miss) Sharad Singh
दैनिक भास्कर में "लॉकडाउन और मेरा साहित्य सृजन" के रूप में मेरी रचनात्मकता के बारे में मुझसे की गई चर्चा प्रकाशित हुई है, जो मेरे उस लेखन पर केंद्रित है जिसे मैं विगत चार-पांच वर्षों से पूरा करना चाह रही थी लेकिन समयाभाव में कर नहीं पा रही थी अब लॉकडाउन की इस अवधि में मिले पर्याप्त समय में मैंने जिनमें सबसे महत्वपूर्ण जिसे कहा जा सकता है वह है.. संस्मरण लेखन कार्य। इसे मैंने पूरा कर लिया है। ... मैं धन्यवाद देती हूं दैनिक भास्कर को, जिसने लॉकडाउन के दौरान की मेरी इस उपलब्धि को अपने पाठकों के साथ साझा करने का मुझे अवसर प्रदान किया।
हार्दिक धन्यवाद #दैनिकभास्कर 🙏
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"जी हां, कोरोना लॉकडाउन की स्थिति को मैंने विराम नहीं बल्कि जीवन के एक नये आयाम की भांति स्वीकार किया है। लॉकडाउन के इस लम्बी अवधि में मैंने वो बहुत सारे काम पूरे कर लिए हैं, जिन्हें मैं साहित्यिक, सामाजिक आदि व्यस्तताओं के कारण पूरा नहीं कर पा रही थी। जिनमें सबसे महत्वपूर्ण जिसे कहा जा सकता है वह है.. संस्मरण लेखन कार्य। जो पिछले 5-6 वर्षों से अत्यंत धीमी गति से आगे बढ़ने के कारण पूरा नहीं हो पा रहा था, उसे मैंने पूरा कर लिया है। इसमें मैंने बचपन से कॉलेज लाईफ तक की उन यादों को सहेजा है जिनके बारे में मुझे लगता है कि इसे पढ़ कर मेरी और आने वाली पीढ़ी के लोग समझ सकेंगे कि हमने पर्यावरण शुद्धता, सोशल बाऊंडिंग में बहुत कुछ खो दिया है फिर भी अगर कोशिश करें तो उनमें से बहुत कुछ वापस पाया जा सकता है। जीवन से जुड़े जो मुहावरे आज सिर्फ़ शाब्दिक और बेजान है वे पहले जीवित थे और मैंने उनके साथ अपने आरम्भिक जीवन का एक हिस्सा बिताया है। ...और इसीलिए मैंने अपने संस्मरणों के संकलन को नाम दिया है - "ज़िन्दा मुहावरों का समय"। 
              दैनिक भास्कर के सुधी पाठकों के लिए प्रस्तुत है, मेरी ताज़ा संस्मरणात्मक पुस्तक 'ज़िंदा मुहावरों का समय' की पांडुलिपि से एक अंश....
       *यह पीढ़ी तो 'कोल्हू के बैल' जैसे मुहावरों को भी नहीं जानती है। 'रंगरेज़' के मौलिक संस्करण से कोसों दूर है। इस तमाम चिन्तन-मनन ने अचानक मुझे मेरे बचपन की ओर धकेल दिया। उस बचपन की ओर जो मध्यप्रदेश के एक बहुत ही छोटे से क़स्बेनुमा ज़िला मुख्यालय में व्यतीत हुआ था। उस क़स्बेनुमा शहर का नाम था पन्ना। मैं जानती हूं कि ऐसा शहर जो अभी भी मौज़ूद हो उसके नाम के साथ ‘‘था’’ का प्रयोग करना सरासर ग़लत है, लेकिन क्या करूं ... पन्ना शहर आज मेरा वाला पन्ना तो रहा नहीं, वह तो अतीत के पन्नों में सिमट कर रह गया है। मेरे वाले पन्ना शहर में बहुत सी ऐसी चीजें थीं जो आज नहीं है। मेरा जन्म पन्ना में हुआ। मैंने दुनिया को जाना तो सरकारी आवास के उस छोटे से घर से जो मेरी शिक्षिका मां डॉ. विद्यावती के नाम अलॉट था। लेकिन मेरा वह घर जिस परिसर में था वह हिरणबाग कहलाता था। राजाओं के जमाने का था वह। कभी वहां हिरण पाले जाते थे। फिर जब शासकीय मनहर कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय स्थापित हुआ तो स्थानांतरण पर बाहर से पन्ना आने वाली शिक्षिकाओं के लिए सुरक्षित आवास की समस्या को दूर करने के लिए हिरणबाग की चारदीवारी के भीतर छः क्वार्टर बनाए गए। एक-दूसरे से सटे हुए। परस्पर इतने नज़दीक कि कोई एक आवाज़ दे तो बाकी पांचों घरों से मदद दौड़ पड़े। वैसे सुरक्षा के लिए मुख्य प्रवेश द्वार पर एक बड़ा-सा फाटक तो था ही। हिरणबाग के उस परिसर में खेलने की जगह ही जगह थी। वह परिसर अपने-आप में किसी शहर से कम नहीं लगता था। वह हम बच्चों की अपनी ही एक दुनिया थी। हम दो बहनें मैं और मेरी दीदी वर्षा सिंह और हमारे घर से चार घर छोड़ कर रहने वाली शेवड़े आंटी के दो बेटे राजू और अज्जू  हम चारों कांच के कंचों से ले कर ‘‘अंधेर नगरी चौपट राजा’’ नाटक तक खेलते। शेवड़े आंटी भी मेरी मां के साथ शिक्षिका थीं। इसी निश्चिंत बचपन में मैंने देखा था कोल्हू का बैल। "
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दिनांक 19.05.2020

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