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My Editorials - Dr Sharad Singh

Thursday, July 16, 2020

बुंदेलखण्ड में अभी भी उपेक्षित हैं महिला मुद्दे - . (सुश्री) शरद सिंह, दैनिक जागरण में प्रकाशित

Dr (Miss) Sharad Singh
बुंदेलखण्ड में अभी भी उपेक्षित हैं महिला मुद्दे - डॉ.(सुश्री) #शरद_सिंह
आज #दैनिक_जागरण में प्रकाशित मेरा यह लेख ...
❗हार्दिक आभार "दैनिक #जागरण"🙏
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विशेष लेख : बुंदेलखण्ड में अभी भी उपेक्षित हैं महिला मुद्दे 
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
      दशकों से लम्बित पड़े हैं बुंदेलखंड के अनेक महिला-मुद्दे। जब भी कोई चुनाव करीब आता है तो आशा बंधती है कि इस बार महिलाओं की समस्याओं पर समुचित ध्यान दिया जाएगा। इस बार के उपचुनाव में भी यह कयास लगाया जा रहा है कि क्षेत्र की महिलाओं के लिए स्वास्थ्य, रोजगार एवं अन्य बुनियादी मुद्दों पर ध्यान दिया जाएगा। यह बात अलग है कि इन दिनों स्वयु राजनीति में महिलाएं लड़-झगड़ कर अपने अधिकार हासिल कर पा रही हैं। बुंदेलखंड की राजनीति में महिलाओं का प्रतिशत यूं भी पुरुषों की तुलना में कम ही रहा है लेकिन विभिन्न स्तरों पर पैदा होने वाले राजनीतिक समीकरण उन गिनती की राजनीतिक महिलाओं को भी दूसरी पंक्ति में धकेलने लगते हैं। आज भी ग्रामीण क्षेत्र में तथा निचली बस्तियों की महिलाएं खुले में शौच के लिए जाती हैं, आज भी बालविवाह की शिकार हैं, आज भी महिलाएं-बच्चिएं मानवतस्करी की गिरफ़्त में और महिलाओं के साथ घटित होने वाले अपराध भी कम नहीं हुए हैं खहे मामला दहेज का हो, बलात्कार का हो अथवा घरेलू हिंसा का हो।
  • Dr (Miss) Sharad Singh
इसमें कोई संदेह नहीं है कि बुंदेलखण्ड ने अपनी स्वतंत्रता एवं अस्मिता के लिए लम्बा संघर्ष किया है और इस संघर्ष के बदले बहुत कुछ खोया है। जब कोई क्षेत्र विकास की दृष्टि से पिछड़ा रह जाता है तो उसका सबसे बुरा असर पड़ता है वहां की स्त्रियों के जीवन पर। अतातायी आक्रमणकारी आए तो स्त्रियों को पर्दे और सती होने का रास्ता पकड़ा दिया गया। उसे घर की दीवारों के भीतर सुरक्षा के नाम पर कैद रखते हुए शिक्षा से वंचित कर दिया गया। यह बुंदेलखण्ड की स्त्रियों के जीवन का सच है। मानो अशिक्षा का अभिशाप पर्याप्त नहीं था जो उसके साथ दहेज की विपदा भी जोड़ दी गई। नतीजा यह हुआ कि बेटी के जन्म को ही पारिवारिक कष्ट का कारण माना जाने लगा। जब बेटियां ही नहीं होंगी तो बेटों के लिए बहुएं कहां से आएंगी? अन्य प्रदेशों की भांति बुंदेलखण्ड में भी ओडीसा तथा आदिवासी अंचलों से अनेक लड़कियां  को विवाह करके लाया जाता हैं। यह विवाह सामान्य विवाह नहीं है। ये अत्यंत गरीब घर की लड़कियां होती हैं जिनके घर में दो-दो, तीन-तीन दिन चूल्हा नहीं जलता है, ये उन घरों की लड़कियां हैं जिनके मां-बाप के पास इतनी सामर्थ नहीं है कि वे अपनी बेटी का विवाह कर सकें, ये उन परिवारों की लड़कियां हैं जहां उनके परिवारजन उनसे न केवल छुटकारा पाना चाहते हैं वरन् छुटकारा पाने के साथ ही आर्थिक लाभ कमाना चाहते हैं। ये गरीब लड़कियां कहीं संतान प्राप्ति के उद्देश्य से लाई जा रही हैं तो कहीं मुफ्त की नौकरानी पाने की लालच में खरीदी जा रही हैं। इनके खरीददारों पर उंगली उठाना कठिन है क्योंकि वे इन लड़कियों को ब्याह कर ला रहे हैं। इस मसले पर चर्चा करने पर अकसर यही सुनने को मिलता है कि क्षेत्र में पुरुष और स्त्रियों का अनुपात बिगड़ गया है। लड़कों के विवाह के लिए लड़कियों की कमी हो गई है।  
बुंदेलखण्ड में  पिछले दशकों में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों का अनुपात तेजी से घटा और इसके लिए कम से कम सरकारें तो कदापि जिम्मेदार नहीं हैं। यदि कोई जिम्मेदार है तो वह परम्परागत सोच कि बेटे से वंश चलता है या फिर बेटी पैदा होगी तो उसके लिए दहेज जुटाना पड़ेगा। बुंदेलखण्ड में औरतों को आज भी पूरी तरह से काम करने की स्वतंत्रता नहीं है। गांव और शहरी क्षेत्र, दोनों स्थानों में आर्थिक रूप से निम्न तथा निम्न मध्यम वर्ग के अनेक परिवार ऐसे हैं जिनके घर की स्त्रियां आज भी तीज-त्यौहारों पर ही घर से बाहर निकलती हैं और वह भी घूंघट अथवा सिर पर साड़ी का पल्ला ओढ़ कर। जिन तबकों में शिक्षा का प्रसार न्यूनतम है, ऐसे लगभग प्रत्येक परिवार की एक ही कथा है कि आमदनी कम और खाने वाले अधिक। आर्थिक तंगी के कारण अपने बच्चों को शिक्षा के बदले काम में लगा देना इस प्रकार के अधिकांश व्यक्ति अकुशल श्रमिक के रूप में अपना पूरा जीवन व्यतीत कर देते हैं। ठीक यही स्थिति इस प्रकार के समुदाय की औरतों की रहती है। ऐसे परिवारों की बालिकाएं अपने छोटे भाई-बहनों को सम्हालने और अर्थोपार्जन के छोटे-मोटे तरीकों में गुजार देती हैं। इन्हें शिक्षित किए जाने के संबंध में इनके माता-पिता में रुझान रहता ही नहीं है। ‘लड़की को पढ़ा कर क्या करना है?’ जैसा विचार इस निम्न आर्थिक वर्ग पर भी प्रभावी रहता है। हाल ही में अनेक ऐसे मामले पकड़े गए जिनमें नाबालिग लड़कियों का विवाह किया जा रहा था। समय रहते पुलिस और अधिकारियों द्वारा हस्तक्षेप कर इन विवाहों को रोका गया। इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के अंत में भी बालविवाह की घटनाएं सबूत है इस बात का कि बुंदेलखंड में महिलाओं की दशा अभी भी सुधरी नहीं है।

विगत वर्ष किए गए एक सर्वे के अनुसार प्रति हजार लड़कों के अनुपात में लड़कियों की संख्या पन्ना में 507, टीकमगढ़ में 901, छतरपुर में 584, दमोह में 913 तथा सागर में 896 पाया गया। यह आंकड़े न केवल चिंताजनक हैं अपितु इस बात का भी खुलासा करते हैं कि बुंदेलखंड अंचल में ओडीसा से लड़कियां ब्याह कर क्यों लाई जा रही हैं। दरअसल, जब परिवार की स्त्री पढ़ी-लिखी होगी, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होगी तो वह अपने बच्चों के उचित विकास के द्वारा आने वाली पीढ़ी को एक विकसित दृष्टिकोण दे सकेगी। इसी विचार के साथ ‘बेटी बचाओ’ और ‘बालिका शिक्षा’, ‘जननी सुरक्षा’ जैसे सरकारी अभियान चलाए जा रहे हैं। फिर भी बुंदेलखंड में स्त्रियों के विकास की गति धीमी है। बुंदेलखण्ड का वास्तविक विकास तभी हो सकता है जब बेटियों के अस्तित्व को बचाया जाए और उन्हें एक गरिमापूर्ण सुरक्षित वातावरण प्रदान किया जाए। इसके लिए सभी राजनीतिक दलों को स्त्री-सुरक्षा एवं महिला रोजगार को अपने ऐजेंडा में प्रमुखता से जोड़ना होगा और चुनाव के बाद उन पर ईमानदारी से अमल भी करना होगा। तभी इस क्षेत्र की महिलाओं की समस्याएं दूर हो सकेंगी।
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(दैनिक जागरण में 16.07.2020 को प्रकाशित)
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