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My Editorials - Dr Sharad Singh
Wednesday, September 30, 2020
चर्चा प्लस | घातक है राजनीति और अभद्र भाषा का गठबंधन | डाॅ शरद सिंह
Friday, September 25, 2020
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Wednesday, September 23, 2020
चर्चा प्लस | प्रवासी मजदूरों की काम पर वापसी | कौन समझेगा दर्द इनका ? | डाॅ शरद सिंह
Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस
प्रवासी मजदूरों की काम पर वापसी :
कौन समझेगा दर्द इनका ?
- डाॅ शरद सिंह
कोरोना लाॅकडाउन के दौरान मई की चिलचिलाती गर्मी में जो प्रवासी मजदूर नंगे सिर, पैदल महानगरों से अपने घरों के लिए चल पड़े थे, उनमें से जो सकुशल घर पहुंचे वे आज फिर महानगरों की ओर लौट रहे हैं। इस बार सब पैदल नहीं हैं। ट्रेन, ट्रक, बस, बैलगाड़ी, गुड्स कैरियर जो भी साधन मिल रहा है, भेड़-बकरियों की तरह उसमें भर कर लौट रहे हैं अपने अनिश्चित भविष्य की ओर। इस वापसी में उनका दर्द पूछने वाला कोई नहीं है, सिवाय चंद मीडिया कर्मियों के। वे अपने परिवार भरण-पोषण के लिए जूझ रहे हैं अपनी नियति से, जो उन पर थोपी गई है।
एनएच-26-ए रोड जिसे झांसी रोड भी कहा जाता है, अब यातायात के लिए पूरी तरह से खोली जा चुकी है। इसी एनएच-26-ए रोड पर पिछले कुछ दिनों से ऐसी कई मालवाहक मिनी ट्रकें दिखाई दे जाती हैं जिसमें लोग ठसाठस भरे हुए दिखाई देते हैं। मोटी रस्सियों से बांध कर इन मिनी ट्रकों का पीछे का हिस्सा सुरक्षित बना दिया जाता है जिससे कोई मजदूर ट्रक के पीछे के हिस्से से गिर न जाए। उन ओव्हर लोडेड मिनी ट्रकों के पीछे के हिस्से में ठूंस-ठूंस कर भरे हुए मजदूरों में से किनारे की ओर खड़े मजदूर अपने हाथ, अपनी टांगे उन रस्सों से बाहर लटकाए हुए होते हैं। यह दृश्य देख कर ऐसा लगता है जैसे पशुओं को निर्दयतापूर्वक मिनी ट्रकों में भर कर ले जाया जा रहा हो। ये वही मजदूर हैं जो मई की चिलचिलाती गर्मी में महानगरों से अपने घरों की ओर लौटने को विवश कर दिए गए थे। जब वे घर जा रहे थे तब भी वे मुसीबतें झेल रहे थे। उन दिनों के दृश्य आज भी भुलाए नहीं जा सके हैं। सरकार के पास प्रवासी मजदूरों की मौत के आंकड़े नहीं हैं लेकिन उन दिनों समाचारपत्रों में सुर्खियां बने वे समाचार गवाह हैं प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा के।
Kaun Samjhega Dard Inka - Dr (Miss) Sharad Singh Column Charch Plus in Dainik Sagar Dinkar, 23. 09. 2020 . |
मई 2020 की घटना- दिल्ली की एक मिल में काम करने वाले चित्रकूट के निवासी पन्नालाल को जो भूख और अपमान दिल्ली में मिला उसने उसे दिल्ली छोड़ने को विवश कर दिया। पन्नालाल के मन में तड़प इस बात की है कि जहां वह दस साल से काम कर रहा था, अपने मालिक को लाभ पहुंचा रहा था, उसी मालिक ने हाथ खड़े कर दिए कि जब मिल ही बंद हो गई तो अब मैं तुम्हें पैसे कहां से दूं? मालिक का कहना भी दुरुस्त था लेकिन पन्नालाल को जब उसके उस 10 गुना 10 के कमरे से भी धक्केमार कर बाहर निकाल दिया गया जहां वह अन्य आठ मजदूरों के साथ रहता था, तब उसे अहसास हुआ कि अब तो वह बेरोजगार, बेघर और दाना-पानी से मोहताज हो गया है। वह मात्र चार सौ रुपए की अपनी कुल जमापूंजी के सहारे पैदल ही निकल पड़ा दिल्ली से चित्रकूट के लिए। यह स्थिति मात्र पन्नालाल की नहीं थी, अपितु उन हजारों मजदूरों की थी जो सड़कों, खेतों, जंगलों और रेल की पटरियों के रास्ते अपने घरों की ओर निकल पड़े थे।
एक और मजदूर, जिसका नाम रामबलि था। वह मुंबई के पालघर जिले में एक ठेकेदार के टोल नाके पर मजदूरी करता था। मुंबई से निकले अन्य मजदूरों की भांति रामबलि भी अपने घर सिद्धार्थनगर, उ.प्र. के लिए पैदल ही निकल पड़ा था। मुंबई से मध्यप्रदेश के बंडा तहसील तक की यात्रा उसने अपार कष्ट सहते हुए भी सफलतापूर्वक तय कर ली थी। लेकिन बंडा से गुजरते समय वह तेज धूप की मार नहीं सह सका और अचानक गिर पड़ा। उसके प्राण पखेरू उड़ गए। रिपोर्ट के अनुसार रामबलि की मौत डीहाइड्रेशन के चलते हुई थी। उसकी खाली जेब से बस एक आधार कार्ड बरामद हुआ जो तेलगू़ भाषा में था। जो बयान कर रहा था कि पेट की खातिर रामबलि कभी आंध्र प्रदेश भी गया था।
दुर्दिन भोग रहे इन मजदूरों में से अनेक ऐसे थे कि रोटियां भी जिनकी जान नहीं बचा पाईं। औरंगाबाद की रोंगटे खड़े कर देने वाली घटना क्या कोई कभी भुला सकता है? हजारों किलोमीटर का सफर तय करते हुए थक कर चूर मजदूर रेल की पटरी पर ही सो गए। तब उन्हें क्या पता था कि रेल आएगी और उन्हें कभी जागने नहीं देगी। वे रोटियां भी उनकी जान नहीं बचा पाएंगी जो उन्होंने अपने सीने पर बांध रखी थीं। क्षत-विक्षत शवों पर कपड़ों में बंधी हुई रोटियां। जिसने भी घटनास्थल पर पहुंच कर उन रोटियों को देखा, वह लौट कर अपने हलक से रोटी का निवाला नहीं उतार सका। उसके आंसू भी उसके गले को इतना तर नहीं कर सके कि निवाला हलक से उतर सके। इससे पहले 12 साल की एक लड़की की मौत की खबर सबने पढ़ी थी। जो तेलंगाना से पैदल छत्तीसगढ़ अपने गांव आ रही थी। करीब 150 किलोमीटर लंबे रास्ते पर वह तीन दिनों से चल रही थी और घर पहुंचने से महज 14 किलोमीटर पहले उसने दम तोड़ दिया था। जिन्हें भाग्यवश ट्रक जैसे साधन मिल गए उनके भी भाग्य ने उनका अधिक साथ नहीं दिया। जैसे मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर जिले की सीमा पर एक बड़े सड़क हादसे में पांच मजदूरों की मौत हो गई थी और 11 मजदूर घायल हो गए थे। पुलिस के अनुसार आम के ट्रक में सवार 20 मजदूरों में से 11 मजदूर झांसी के रहने वाले थे जबकि 9 एटा के थे। सभी मजदूर हैदराबाद से अपने घर जाने के लिए निकले थे।
मेहनत कर के पेट भरने वाले मजदूरों की दशा उस समय भिखारियों और शराणार्थियों जैसी हो गई थी। वे समाजसेवी संगठनों एवं स्थानीय प्रशासनों की उदारता पर निर्भर थे। लेकिन टोटल लाॅकडाउन के उन दिनों में चैकिंग और क्वारंटाईन किए जाने को ले कर उनके मन में जो अविश्वास था, उसके चलते वे रेल की पटरियों और जंगलों के रास्ते चुन रहे थे। जिससे उन्हें हर तरह की सहायता से वंचित होना पड़ रहा था। खाली पेट, खाली जेब सैंकडों किलोमीटर पैदल सफर की असंभव सी दूरियां तय किया उन्होंने तो सिर्फ अपने हौसले के दम पर।
अपार कष्टों को उठा कर वे अपने गंाव, अपने घर पहुंचे। वे जानते थे कि वहां भी मुश्किलें हैं। यदि उनके गांवों में उनके लिए पर्याप्त काम होता तो वे पहले ही महानगरों कीे ओर क्यों पलायन करते? घर लौटने पर शुरू हुआ उनका एक अलग तरह का आर्थिक और मनोवैज्ञानिक संघर्ष। जिनके लिए वे कमाने महानगरों में गए थे, उन्होंने ही बोझ समझा। ऐसे प्रकरण भी हुए जिनमें कोरोना संक्रमण की शंका से प्रवासी मजदूर को गांव में प्रवेश नहीं करने दिया गया। जबकि उसे कोरोना नहीं था, किन्तु भूख और अन्य बीमारी से अपने गांव के बाहर तड़प-तड़प कर मर गया। उत्तर प्रदेश के गांवों में ऐसी घटनाएं भी सामने आईं जिनमें संपत्ति को लेकर विवाद खड़े हो गए। यानी गांव में रह रहा जो भाई यह सोच कर प्रसन्न था कि उसका एक भाई कमाने महानगर चला गया है और अब कभी नहीं लौटेगा। जिससे सारी संपत्ति पर उसका अकेले का अधिकार हो जाएगा। लेकिन जब उसका भाई गिरता-पड़ता वापस आ गया तो उसके सही-सलामत आने की खुशी के बजाए उसे यह चिंता हुई कि संपत्ति का हिस्सेदार फिर लौट आया। इस प्रकार के विवाद पंचायतों तक पहुंचे। प्रवासियों के गांव लौटने के साथ पैतृक संपत्ति और खेती की जमीन को लेकर परिवार में झगड़े हो रहे हैं। उत्तर प्रदेश में 20 मई तक संपत्ति विवाद को लेकर 80,000 से अधिक शिकायतें दर्ज की गईं। अब उस प्रवासी मजदूर की मानसिक दशा के बारे में सोचिए जिसने महानगर में रोजी-रोटी के लिए संघर्ष किया, अपना पेट काट कर अपने गांव अपने परिजन के पास पैसे भेजे, टोटल लाॅकडाउन के कारण नौकरी छूटने पर बेइंतहां कष्ट सहते हुए अपने गांव लौटा और वहां उसे सांत्वना के बजाए घोर परायापन मिला। नतीजा यह हुआ कि जिन मजदूरों ने वापसी के समय कसमें खाईं थीं कि वे अब कभी महानगरों की ओर रुख नहीं करेंगे, वे तीन माह बाद ही उन्हीं महानगरों की ओर लौट पड़े हैं। यह लौटना उनकी मजबूरी है। उनके गांव में उनकी आमदनी के लिए कोई स्थाई जरिया नहीं है, घर-परिवार में पूछ-परख नहीं है। भूख और उपेक्षा उन्हें फिर उसी दिशा में ले जा रही है जहां से वे संकट में निकाल बाहर कर दिए गए थे।
एनएच-26-ए रोड से गुजरते एक मिनीट्रक में भर कर जा रहे मजदूरों से मैं स्वयं तो बात नहीं कर सकी लेकिन मेरे एक परिचित पत्रकार ने बातचीत की। जिसकी जानकारी उसने मुझे फोन पर बताई। पानी पीने के लिए एक हैंडपंप के पास रुके मजदूरों से संयोगवश उस पत्रकार को बात करने का अवसर मिल गया। बातचीत में पता चला कि वे मजदूर ललितपुर, राठ और उरई के आसपास के हैं। वे सभी एक ठेकेदार के काम दिलाने के आश्वासन पर महाराष्ट्र जा रहे हैं। जगह का ठीक-ठीक नाम वे नहीं बता सके। वे यह भी नहीं बता सके कि उन्हें कौन-सा काम करने के लिए ले जाया जा रहा है और उन्हें काम के बदले कितना पैसा मिलेगा। उनमें से एक मजदूर ने बताया कि ‘‘यह तो वहीं पहुंच कर पता चलेगा।’’ तब पत्रकार ने पूछा कि जिस ट्रक में बीस से तीस लोग आ सकते हैं उसमें तुम साठ-पैंसठ लोग भरे हो तो दिक्कत नहीं जा रही है? इतना लम्बा सफर क्या खड़े-खड़े तय करोगे?’’ मजदूरों ने कहा कि उनके पास इसके अलावा और कोई चारा नहीं है। या तो वे इसी तरह ठस कर जाएं या फिर पैदल जाएं। इसलिए ठस कर जाना ही बेहतर है।
काश! इन्हें भी अभिनेता सोनू सूद की तरह कोई मददगार मिल जाता जो इनकी यात्रा, इनके काम, इनके रहने का बंदोबस्त करता। लेकिन इन लगभग अपढ़ मजदूरों के पास मदद के नाम पर हैं सरकारी एप्प, मदद की कुछ सरकारी योजनाएं और ठेकेदार का आश्वासन। कोविड-19 के कारण लॉक डाउन के दौरान महानगरों से अपने गांव वापस आए प्रवासी मजदूरों का महानगरों के लिए लौटने से पहले प्रधानमंत्री जन आरोग्य कार्ड बनाए जाने का प्रावधान है, ताकि वे कहीं भी रहें, पूरे परिवार को भविष्य में गंभीर तथा महंगे इलाज के लिए परेशान न होना पड़े। अनलॉक के बाद रोजगार की आस में प्रवासी मजदूर दिल्ली, मुंबई, चेन्नई और कोलकाता जैसे शहरों में वापस पहुंच रहे हैं। ग्रामीण इलाकों से राजधानी दिल्ली में काम की तलाश में दोबारा लौटने वाले लोग बसों में भरकर पहुंच रहे हैं और बस अड्डे पर प्रवासियों के पहुंचने के बाद उन्हें लाइन में लगने को कहा जाता है जिसके बाद उनका रैपिड कोविड-19 टेस्ट होता है। जो लोग कोरोना पॉजिटिव पाए जाते हैं उन्हें क्वारंटीन सेंटर भेज दिया जाता है। दिल्ली के अंतर-राज्यीय बस टर्मिनस में बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूरों का पहुंचना जारी है। वे दोबारा रोजगार की तलाश में दिल्ली पहुंच रहे हैं। वे सस्ते मास्क या गमछे से अपना चेहरा ढंके रहते हैं। जबकि देश में संक्रमण दिन प्रति दिन बढ़ता जा रहा है।
मई माह में हुए प्रवासी मजदूरों के उस सामूहिक पलायन को कई विशेषज्ञ नेे विभाजन के बाद का सबसे बड़ा पलायन कहा। लेकिन आज एक बार फिर जो पलायन हो रहा है, गांव से महानगरों की ओर उस पर बहुत कम लोगों का ध्यान जा रहा है। गोया अब प्रवासी मजदूरों के दर्द से कोई नाता ही न बचा हो।
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(दैनिक सागर दिनकर में 23.09.2020 को प्रकाशित)
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Thursday, September 17, 2020
विशेष लेख : सुरखी विधान सभा उपचुनाव उर्फ़ दूबरे और दो अषाढ़ - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
Dr (Miss) Sharad Singh |
विशेष लेख :
सुरखी विधान सभा उपचुनाव उर्फ़ दूबरे और दो अषाढ़
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
जैसे-जैसे सुरखी विधान सभा उपचुनाव की तारीख की घोषणा होने के दिन करीब आते जा रहे हैं वैसे-वैसे रोचकता बढ़ती जा रही है। मध्यप्रदेश में शिवराज सरकार के परिवहन मंत्री गोविंद सिंह राजपूत की जुबान फिसल गई और वह बीजेपी को ही कोस गए। राजपूत पिछले दिनों कांग्रेस छोड़कर पूर्व कांग्रेस नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ बीजेपी में शामिल हुए थे। सागर जिले के सुरखी विधानसभा से विधायक रहे राजपूत ने कांग्रेस छोड़कर बीजेपी का दामन थामा था। उन्हें आगामी समय में होने वाले उपचुनाव में सुरखी से बतौर बीजेपी उम्मीदवार चुनाव लड़ना है। इससे पहले उन्होंने यहां रामशिला पूजन यात्रा निकाली। इस यात्रा का सोमवार को समापन हुआ। सुरखी विधानसभा क्षेत्र के 300 गांवों में तेरह दिनों तक भ्रमण के बाद सोमवार को पहलवान बब्बा मंदिर, सागर में रामशिलाओं का पूजन हुआ। इसी के साथ रामशिला पूजन यात्रा का समापन हो गया। समापन अवसर पर मीडिया के सवालों का जवाब देते हुए राजपूत बीजेपी के पक्ष में बोल रहे थे कि अचानक उनकी जुबान फिसल गई और बीजेपी के विरोध में बोल उठे। सोशल मीडिया पर जो वीडियो वायरल हुआ उसमें राजपूत कहते दिखाई दिए कि ‘‘इस समय पूरा मध्यप्रदेश राममय है, सुरखी राममय है, बीजेपी को नकली राम नाम का, भगवा झंडे को धारण करना पड़ रहा है...।’’ कांग्रेसियों ने राजपूत की इस चूक को आड़े हाथों लिया और उन्हें खूब ट्रोल किया।
Article of Dr (Miss) Sharad Singh in Dainik Jagaran, 17.09.2020 |
बुंदेलखंड की महिलाओं पर प्रकाशित अपने एक लेख को जब मैंने अपनी फेसबुक वाॅल पर शेयर किया तो उस पर पारुल साहू ने जो टिप्पणी की थी, उसमें भी उनके रोष के संकेत स्पष्ट थे। उन्होंने लिखा था कि ‘‘रानी लक्ष्मीबाई की कर्मभूमि में महिलाओं की राजनीति में भागीदारी जीरो है एक भी महिला विधानसभा या लोकसभा में बुंदेलखंड से नहीं है।’’ पारुल साहू सागर की सुरखी सीट से विधायक रह चुकी हैं। साल 2013 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने कांग्रेस के गोविंद सिंह राजपूत को चुनाव में हराया था। साल 2018 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने पारुल साहू को टिकिट नहीं दिया था और गोविंद सिंह राजपूत कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर सुरखी से चुनाव जीते थे। कहा जा रहा है कि पारुल साहू पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ से भेंट कर चुकी हैं जिसके बाद उनके कांग्रेस में शामिल होने की चर्चा जोर पकड़ती जा रही है।
पारुल साहू के अलावा दूसरा नाम पूर्व मंडी अध्यक्ष राजेंद्र सिंह मोकलपुर का भी सामने आ रहा है। यह भी एक दमदार नाम है। यदि राजेंद्र सिंह मोकलपुर कांग्रेस में जाते हैं तो भाजपा को सुरखी में जीत के लिए जम कर पापड़ बेलने पड़ेंगे क्योंकि उनके पास भी व्यापक जनाधार है। यह तो कुछ दिन बाद ही स्पष्ट होगा कि ऊंट किस करवट बैठने जा रहा है लेकिन यह तो तय है कि गोविंद सिंह राजपूत के लिए चुनावी डगर आसान नहीं है। प्रतिद्वंद्वी के रूप में उभरने वाली चुनौतियों को साधने के साथ ही उन्हें अपने उद्गार पर भी ध्यान देना होगा वरना उनका दांव उन्हीं पर उल्टा पड़ सकता है। बहरहाल, सुरखी विधान सभा क्षेत्र में इन दिनों चुनावी रोचकता बढ़ती जा रही है।
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(दैनिक जागरण में 17.09.2020 को प्रकाशित)
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Wednesday, September 16, 2020
चर्चा प्लस : विश्व ओजोन दिवस (16 सितम्बर) पर विशेष: धरती की छत में कोई छेद न रहे - डाॅ शरद सिंह
Dr (Miss) Sharad Singh |
चर्चा प्लस : विश्व ओजोन दिवस (16 सितम्बर) पर विशेष:
धरती की छत में कोई छेद न रहे
- डाॅ शरद सिंह
ऐसा माना जा रहा है कि कोरोना काल में दुनिया के विभिन्न देशों में हुए लाॅकडाउन से हानिकारक उत्सर्जन घट गया जिसने ओजोन परत में बढ़ते छेदों को छोटा करने में मदद की है। लेकिन यह तो स्थाई हल नहीं है। दुनिया हमेशा लाॅकडाउन नहीं रह सकती है। जंगल कटेंगे, जलेंगे और विषाक्त उत्सर्जन फिर बढ़ेगा तो ओजोन परत के लिए फिर खतरा पैदा हो जाएगा। आम इंसान को ये बातें गै़रज़रूरी लग सकती हैं लेकिन ओजोन परत का सरोकार इंसान सहित हर प्राणी की संासों से है। इसलिए इसके बारे में सभी को सोचना होगा।
हर इंसान को, हर प्राणी को जीवित रहने के लिए सांसें चाहिए। हवा और पर्यावरण की शुद्धता ही स्वस्थ सांसें दे पाती है। लेकिन हम इंसानों ने अपने ही हाथों अपने घर को जलाने और प्रदूषण फैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। दिल्ली को ही लें तो हर वर्ष शीतऋतु में स्माॅग के चलते वहां इंसानों का दम घुटने लगता है। संास की बीमारियां बढ़ जाती हैं और अब कोरोना संक्रमण जो संासों के जरिए तेजी से फैलता है, ने ख़तरा और बढ़ा दिया है। माॅस्क के पीछे क़ैद संासें और उस पर शुद्ध हवा की कमी सेहत के लिए घातक परिणाम पैदा कर सकती है। किन्तु शुद्ध हवा, शुद्ध पर्यावरण आए कहां से, जब हमने वायुमण्डल को विषैली गैसों का ‘डम्पिंग स्टेशन’ बना रखा है। यह सोच कर सुखद लगता है कि इस कोरोना काल में दुनिया भर के देशों में किए गए लाॅकडाउन ने धरती की छत यानी ओजोन परत में मरम्मत की है। कोरोना वायरस के प्रकोप के कारण दुनिया के अधिकांश देशों में लाॅकडाउन किया गया। उद्योगों के संचालन को बंद किया गया। सड़कों पर परिवहन सीमित हो गए। इससे वायु प्रदूषण अपने न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया। नदियों का जल साफ होने लगा, आसमान साफ और नीला दिखाई देने लगा। लाॅकडाउन के दौरान बड़े पैमाने पर उद्योगों के बंद रहने से विषैली गैसों के उत्सर्जन में बड़ी गिरावट आई जिससे ओजोन परत के बड़े होते छेद सिकुड़ने लगे, छोटे होने लगे। लेकिन यह स्थाई हल नहीं है। कोरोना-संक्रमण के बावजूद दुनिया अपनी पुरानी पटरी पर लौट रही है। यह जरूरी भी है। उद्योग नहीं रहेंगे तो अर्थव्यवस्था और विकास ध्वस्त हो जाएगा और तब बेरोजगारी और भुखमरी को सम्हाल पाना कठिन से कठिनतर हो जाएगा। कहने का आशय यह है कि जो हमें अपनी नंगी आंखों से दिखाई नहीं देता है वह भी हमारे जीवन के लिए महत्वपूर्ण है- ओजोन परत।
Dr (Miss) Sharad Singh Column Charch Plus in Dainik Sagar Dinkar, 16. 09. 2020 World Ozone Day |
वर्ष 1980 में पहली बार ओजोन परत में छेद का पता चला था। प्रदूषण बढ़ने के साथ साथ ओजोन छिद्र भी बढ़ता गया। जिस कारण सूर्य की पैराबैंगनी किरणें पृथ्वी पर पहुंचने लगी, इससे त्वचा कैंसर, मोतियाबिंद, प्रतिरक्षा प्रणाली को नुकसान पहुंचने के साथ ही पौधों को भी नुकसान पहुंचने लगा। इससे बचने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वर्ष 1987 में एक माॅन्ट्रियल प्रोटोकाॅल संधि की गई।
ओजोन परत पृथ्वी के वायुमंडल की एक परत है। ओजोन परत हमें सूरज से आने वाली अल्ट्रावायलेट किरणों से बचाती है। वायुमंडल में 91 प्रतिशत से अधिक ओजोन गैसें यहां मौजूद हंै, वहीं दूसरी ओर जमीनी स्तर पर ओजोन परत सूर्य की पैराबैंगनी किरणों से बचाने के लिए सन स्क्रीन की तरह काम करती है। ओजोन की परत की खोज 1913 में फ्रांस के भौतिकविदों फैबरी चार्ल्स और हेनरी बुसोन ने की थी। धरती से 30-40 किमी की ऊंचाई पर ओजोन गैस का 91 प्रतिशत हिस्सा एकसाथ मिलकर ओजोन की परत का निर्माण करता है। ओजोन सूर्य के उच्च आवृत्ति के प्रकाश की 93 से 99 प्रतिशत मात्रा अवशोषित कर लेती है। ओजोन परत में छेद के लिए क्लोरोफ्लोरो कार्बन यानी सीएफसी गैसों को भी जिम्मेदार माना जाता है। सन् 1985 में सबसे पहले ब्रिटिश अंटार्कटिक सर्वे के वैज्ञानिकों ने अंटार्कटिक के ऊपर ओजोन परत में एक बड़े छेद की खोज की थी। वैज्ञानिकों को पता चला कि इसकी जिम्मेदार क्लोरोफ्लोरो कार्बन गैस है। जिसके बाद इस गैस के उपयोग को रोकने के लिए दुनियाभर के देशों में सहमति बनी और 16 सितंबर 1987 में मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर किया गया था। जिसके बाद से ओजोन परत के संरक्षण के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा साल 1994 में 16 सितंबर की तारीख को ‘‘विश्व ओजोन दिवस’’ मनाने की घोषणा की गई। पहली बार ‘‘विश्व ओजोन दिवस’’ साल 1995 में मनाया गया था, जिसके बाद हर साल 16 सितंबर को विश्व ओजोन दिवस मनाया जाता है।
ओजोन परत को इंसानों द्वारा बनाए गए कैमिकल्स से काफी नुकसान होता है। इन कैमिकल्स से ओजोन की परत पतली हो रही है। फैक्ट्री और अन्य उद्योगों से निकलने वाले कैमिकल्स हवा में फैलकर प्रदूषण फैला रहे हैं। ओजोन परत के बिगड़ने से जलवायु परिवर्तन हो रहा है। ऐसे में अब गंभीर संकट को देखते हुए दुनियाभर में इसके संरक्षण को लेकर जागरुकता अभियान चलाया जा रहा है। लेकिन कोरोना संक्रमण के दौरान लाॅकडाउन ने जहां उद्योगों में रुकावट डाल कर तात्कालिक रूप से ओजोन परत को संवारा वहीं दूसरी ओर स्थाई हल की ओर कदम बढ़ाने का आह्वान करते लोगों और उनके धरना-प्रदर्शनों पर बाधा पहुंचा दी। अकसर सरकारें अकेले अपने दम पर बड़े उद्योंगों के उत्पादन के घातक तरीकों पर अंकुश नहीं लगा पाती हैं लेकिन जब उन्हें जनता के दबाव के रूप में समर्थन मिलता है तो वे ठोस कदम उठा पाती हैं। पर्यावरण के हित में किए जा रहे सक्रिय सामूहिक प्रयासों की गति में कमी पर्यावरण और विषैली गैसों के उत्सर्जन के समीकरण को एक बार फिर चिंताजनक स्तर तक ले जा सकती है।
और अंत में एक रोचक कथा। बहुत पहले एक राजकुमारी हुआ करती थी जिसका नाम था विद्योत्तमा। वह असाधारण विदुषी थी। उसने प्रतिज्ञा की थी कि वह उसी से विवाह करेगी जो उससे अधिक विद्वान हो। उससे विवाह के लिए अनेक विद्वान आये पर शास्त्रार्थ में उससे पराजित होकर लौट गए। विवाह में असफल विद्वानों ने अपने अपमान का बदला लेने के लिए षडयंत्र रचा और किसी महामूर्ख से उसका विवाह करवा देने का निश्चय किया। वे सभी किसी महामूर्ख को खोजने के लिए चल पड़े। मार्ग में उन्हें एक व्यक्ति मिला जो वृक्ष की जिस डाल पर बैठा हुआ था, उसी को ही काट रहा था। ऐसा महामूर्ख उन्होंने कभी नहीं देखा था। उसे वृक्ष से उतारा गया और समझाया गया कि वह एकदम मौन रहेगा तो उसका विवाह राजकुमारी से करवा दिया जाएगा। उस व्यक्ति का परिचय विद्योत्तमा को यह कह कर दिया गया कि यह अद्वितीय विद्वान है लेकिन इस समय मौन व्रत धारण किए हुए है, अतः जो पूछना हो, वह इशारों से पूछा जाए। विद्योत्तमा ने उसकी ओर एक अंगुली उठाई जिसका तात्पर्य था कि ब्रह्म एक है। उस व्यक्ति ने समझा कि वह मेरी एक आंख फोडना चाहती है। उसने दो अंगुलियां उठा दीं, जिसका तात्पर्य था कि यदि तुम एक आंख फोड़ोगी तो मैं तुम्हारी दोनों आंख फोड़ दूंगा। लेकिन पंडितों ने संकेत की व्याख्या कर दी कि ब्रह्म के दो रूप हैं। एक पुरुष और एक प्रकृति। अब विद्योत्तमा ने पंचतत्वों को बताने के लिए पांच अंगुली दिर्खाइंं। पर उस व्यक्ति ने समझा कि विद्योत्तमा मुझे थप्पड़ मारना चाहती है। उसने उसे मुक्का दिखाया कि यदि तुम मुझे थप्पड़ मारोगी तो मैं मुक्का मारूंगा। पंडितों ने व्याख्या कर दी कि तत्व तो पांच अवश्य होते हैं पर जब एक साथ मिलते हैं, तभी उनकी सार्थकता है। विद्योत्तमा ने उस व्यक्ति को विद्वान मान लिया और दोनों का विवाह हो गया। लेकिन विवाह की प्रथम रात्रि को ही उस व्यक्ति की मूर्खता का भेद खुल गया और इस छल से क्रोधित विद्योत्तमा ने उसे महामूर्ख कहते हुए धक्का दे दिया। वह व्यक्ति सीढियों से लुढ़कते हुए नीचे आ गिरा। उसी पल उस व्यक्ति ने मन ही मन प्रतिज्ञा की कि जब तक ज्ञानी नहीं हो जाऊंगा तब तक विद्योत्तमा को मुंह नहीं दिखाऊंगा। उस व्यक्ति ने न केवल ज्ञान अर्जित किया बल्कि ‘‘अभिज्ञान शकुन्तलम’’, ‘‘मेघदूत’’ आदि महान काव्यों की रचना की और कालिदास के नाम से विख्यात हुआ। इस कहानी को याद करने का उद्देश्य यही है कि हमने कालिदास के मूर्खरूप को जीते हुए उस धरती और उसके पर्यावरण को पर्याप्त नुकसान पहुंचाया है, जिस धरती पर हम रहते हैं। अब आवश्यकता है कालिदास की तरह प्रण करने और बुद्धिमान बन कर अपनी धरती की छत को बचाने की।
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(दैनिक सागर दिनकर में 16.09.2020 को प्रकाशित)
Saur Tapiya Urja - Dr (Miss) Sharad Singh - Book on Use of Solar Energy |
Monday, September 14, 2020
हिन्दी दिवस पर विशेष : बस, एक सीढ़ी और ऊपर चढ़ जाए हिन्दी - डाॅ शरद सिंह
Thursday, September 10, 2020
कोरोना संक्रमण के विस्फोटक आंकड़ों के लिए कौन है जिम्मेदार? - डॉ. शरद सिंह, दैनिक जागरण में प्रकाशित
Wednesday, September 9, 2020
चर्चा प्लस - 9 सितम्बर जन्मदिन विशेष : टाॅल्सटाॅय वैचारिक गुरु थे महात्मा गांधी के - डाॅ शरद सिंह
चर्चा प्लस - 9 सितम्बर जन्मदिन विशेष :
टाॅल्सटाॅय वैचारिक गुरु थे महात्मा गांधी के
- डाॅ शरद सिंह
जिसने ‘युद्ध और शांति’, ‘अन्ना करेनीना’ और ‘पुनरुत्थान’ नहीं पढ़ा उसने विश्व साहित्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मानो पढ़ा ही नहीं। रूसी लेखक लियो टाॅल्सटाॅय ने अपनी महान कृतियों से विश्व के साहित्य पर तो अपनी छाप छोड़ी ही, वहीं अपने विचारों से महात्मा गांधी का मार्गदर्शन किया। विश्व की दो महान विभूतियों के बीच महत्वपूर्ण पत्राचार होता रहा जिसने वैश्विक वैचारिकता को जन्म दिया। देश की सीमाओं को पीछे छोड़ कर मानवता की दिशा में की गई यह पहलकदमी आज के अशांत विश्व को शांति का रास्ता दिखा सकती है।
9 सितंबर 1828 को जन्मे लियो टॉलस्टॉय उन कालजयी लेखकों में से एक हैं जिन्होंने अपनी लेखनी से समूचे विश्व के साहित्य को प्रभावित किया। उनका जन्म मास्को से लगभग 100 मील दक्षिण में स्थित रियासत यास्नाया पोलिनाया में एक संपन्न परिवार हुआ था। इनके माता-पिता का देहांत बचपन में ही हो गया था। अतः लालन-पालन इनकी चाची कात्याना ने किया। सन 1844 में लियो टॉलस्टॉय कजान विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और सन 1847 तक उन्होंने पूर्वीं भाषाओं और विधि संहिताओं का अध्ययन किया। ज़मींदारी के विवाद के कारणों से उन्हें स्नातक हुए बिना ही विश्वविद्यालय छोड देना पडा। सन 1851 में लियो टॉलस्टॉय कुछ समय के लिए सेना में भी प्रविष्ट हुए थे। उनकी नियुक्ति कॉकेशस पर्वतीय कबीलों से होने वाली दीर्घकालीन लडाई में हुई, जहां अवकाश का समय वे लिखने-पढने में लगाते रहे। यहीं पर उन्हें अपनी प्रथम रचना ‘चाईल्डहुड’ (1852) में लिखी, जो ‘‘एलटी’’ के नाम ‘‘द कंटपोरेरी’’ नामक पत्र में प्रकाशित हुई। उनकी लगभग सभी कृतियों ने प्रसिद्धि पाई लेकिन उनमें उनके उपन्यास ‘‘युद्ध और शांति’’ (1869), ‘‘अन्ना करेनिना’’ (1877), ‘‘पुनरुत्थान’’ (1899) ने वैश्विक कृतियां होने का इतिहास रच दिया।
महात्मा गांधी टॉलस्टॉय के विचारों से अत्यंत प्रभावित थे। यद्यपि वे दोनों कभी एक-दूसरे से मिल नहीं सके किन्तु पत्रों के माध्यम से उनके बीच महत्वपूर्ण विचार विनिमय होता रहा। अपनी आत्मकथा में गांधी ने लिखा है कि टॉलस्टॉय की किताब ‘‘द किंगडम ऑफ गॉड इज विदइन यू’’ ने उनकी जिंदगी बदल दी। सन् 1894 में जर्मनी में प्रकाशित यह किताब स्वयं टाॅल्सटाय के देश रूस में प्रतिबंधित हो कर दी गई थी क्योंकि इसमें ईसाईत को नए दृष्टिकोण से व्याख्यायित किया गया था जो धर्मान्ध सत्ताधारियों को पसंद नहीं आई। टॉलस्टॉय की इस किताब को गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में जोहानिसबर्ग से डरबन की ट्रेन यात्रा के दौरान एक अक्टूबर 1904 को पढ़ी थी। वह इस किताब से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने एक अक्टूबर 1909 को ही टॉलस्टॉय को पत्र लिखा। यहां से आरम्भ हुआ टॉलस्टॉय और गांधी के बीच पत्राचार का सिलसिला।
टॉलस्टॉय ने अपने विचारों से चर्च की व्यस्थाओं पर जबरदस्त प्रहार किया था। टॉल्सटॉय ने लिखा कि ‘‘चर्च का इतिहास क्रूरतापूर्ण और भयावह है और ईसा के सिद्धातों के खिलाफ है। यह बात हर जगह, हर धर्म के लिए क्यों इतनी सटीक मालूम होती है? हर धर्म- नए या पुराने- के तथाकथित रक्षकों ने अपना-अपना दमन चक्र चलाया है। यूरोप और ईसाई धर्म भी इससे अछूता नहीं रहा।’’ टॉलस्टॉय ने उपनिवेशवाद पर भी कड़ाई से लिखा। उन्होंने लिखा कि ‘‘एक इंसान का दूसरे के लिए सबसे बड़ा उपहार है ‘शान्ति’ और फिर भी यूरोप के ईसाई देशों ने अपने मातहत लगभग तीन करोड़ लोगों के भाग्य का फैसला हथियारों से किया है।’
हिंसा का उत्तर अहिंसा से देने का रास्ता भी उन्होंने ईसा के उपदेशों से ही सुझाया कि ‘‘तुम अपने पडोसी से झगड़ो मत, और न ही हिंसा का सहारा लो। किसी और को पीड़ा देने से अच्छा है खुद पीड़ित हो जाओ और बिना किसी प्रतिरोध के हिंसा के सामना करो।’’ उनके इस सुझाव का महात्मा गांधी के विचारों पर गहरा प्रभाव डाला। गांधी जी के अहिंसावादी विचारों को इससे दृढ़ता मिली और आगे चल कर गांधी जी ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध अहिंसक सत्याग्रह आंदोलन चलाया। गोपाल कृष्ण गोखले गांधी के राजनैतिक गुरु थे तो टॉलस्टॉय उनके वैचारिक गुरु थे।
गांधी जी द्वारा दक्षिण अफ्रीका का ट्रांसवाल सविनय अवज्ञा आंदोलन टॉलस्टॉय की विचारधारा से प्रभावित था। जिसकी चर्चा गांधीजी ने अपने टाल्सटाॅय को लिखे अपने पहले पत्र में की थी। इस पत्र के बारे में टॉलस्टॉय ने अपनी डायरी में लिखा था- ‘‘आज मुझे एक हिंदू द्वारा लिखा हुआ दिलचस्प पत्र मिला है।’’ इसके जवाब में उन्होंने गांधी को लिखा, ‘मुझे अभी आपके द्वारा भेजा गया दिलचस्प पत्र मिला है और इसे पढ़कर मुझे अत्यंत खुशी हुई। ईश्वर हमारे उन सब भाइयों की मदद करे जो ट्रांसवाल में संघर्ष कर रहे हैं। ‘सौम्यता’ का ‘कठोरता’ से संघर्ष, ‘प्रेम’ का ‘हिंसा’ से संघर्ष हम सभी यहां पर भी महसूस कर रहे हैं। मैं, आप सभी का अभिवादन करता हूं।’’
गांधीजी ने उन्हें दूसरा खत 4 अप्रैल, 1910 में लिखा और साथ में अपनी किताब ‘हिंद स्वराज’ भी भेजा। गांधीजी ने आग्रह किया कि अगर उनका स्वास्थ्य ठीक हो तो किताब के बारे में अपनेे विचारों से अवगत कराएं। उन दिनों टॉलस्टॉय अस्वस्थ रहने लगे थे। टॉलस्टॉय ने 10 अप्रैल 1910 को अपनी डायरी में लिखा कि ‘‘आज मुझसे दो जापानी मिलने आये जो यूरोपियन सभ्यता की प्रशंसा किए जा रहे थे और वहीं मुझे एक हिंदू का पत्र और उसकी किताब मिली जो यूरोप की सभ्यता में कमियों को साफ-साफ उजागर करते हैं।’’
गांधीजी के पत्र के उत्तर में टॉलस्टॉय ने 24 अप्रैल 1910 को लिखा कि ‘‘मुझे आपका पत्र और किताब मिली। सत्याग्रह सिर्फ हिंदुस्तान के लिए ही नहीं वरन, संपूर्ण विश्व के लिए इस समय सबसे महत्वपूर्ण है।’’
गांधी 15 अगस्त 1910 को लिखे अपने अगले खत में टॉलस्टॉय को लिखा कि उन्होंने अपने साथी कालेनबाख के साथ मिल कर जोहनिसबर्ग में ‘टॉलस्टॉय फार्म’ की स्थापना की है। गांधी जी के इन पत्रों ने और विचारों ने टॉलस्टॉय को गांधी जी की ओर आकर्षित किया। अब टॉलस्टॉय की डायरी में ‘गांधी’ शब्द कई बार आने लग था और वे उनके ट्रांसवाल के संघर्ष में काफी दिलचस्पी भी ले रहे थे। टॉलस्टॉय ने गांधीजी को अपना आखिरी पत्र 20 सितम्बर 1910 को लिखा। यह पत्र लम्बा होने के साथ-साथ मार्मिक भी था। पत्र में उन्होंने लिचाा के -‘‘अब जब मौत को मैं अपने बिलकुल नजदीक देख रहा हूं तो मैं कहना चाहता हूं जो मेरे जेहन में साफ- साफ नजर आता है और जो आज सबसे ज्यादा जरूरी है, और वह है - ‘निष्क्रय प्रतिरोध‘ (इसे आप ‘सत्याग्रह’ भी कह सकते हैं) जोकि कुछ और नहीं बल्कि प्रेम का पाठ है। प्रेम इंसान के जीवन का एकमात्र और सर्वोच्च नियम है और यह बात हर इंसान की आत्मा भी जानती हैय और अगर इंसान किसी गलत अवधारणा को न माने, तो शायद वह इसे समझ सकता है। इसी प्रेम की उद्घोषणा सभी संतों ने की है फिर वह चाहे भारतीय हो, चीनी हो, यहूदी हो, यूनानी हो या रोमन हो। जब प्रेम में बल का प्रवेश हो जाता है तो फिर वह जीवन का नियम नहीं रह पाता और हिंसा का रूप धारण कर लेता है और ताकतवर की शक्ति बन जाता है।’’
20 नवम्बर, 1910 को टॉलस्टॉय ने अंतिम सांस ली। टॉलस्टॉय की मृत्यु के समाचार से गांधी जी को बहुत ठेस पहुंचीं। उन्होंने अपने एक लेख में लिखा कि ‘‘मुझको तो अभी बहुत सीखना था उनसे। काल के क्रूर हाथों ने मुझसे मेरा पथ-प्रदर्शक छीन लिया। इस पीड़ा से उबरने के लिए मैंने कुछ समय एकांत में बिताया।’’
यदि विभिन्न देशों के बीच भौगोलिक विवाद त्याग कर दुनिया के सभी देश परस्पर वैचारिक विचार-विमर्श करें तो युद्ध, हिंसा और अशांति के दरवाजे़ आसानी से बंद हो सकते हैं। यही तो संदेश था टॉलस्टॉय का।
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(दैनिक सागर दिनकर में 02.09.2020 को प्रकाशित)
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Friday, September 4, 2020
बुंदेली व्यंग्य | लाईव ने भए तो कछु न भए | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित
पत्रिका समाचारपत्र ने आज से एक नया कॉलम आरम्भ किया है- #पत्रिका_व्यंग्य । इसकी शुरुआत मेरे #बुंदेली_व्यंग्य से की गई जिसके लिए मैं #पत्रिका की हृदय से आभारी हूं। तो ये है मेरा बुंदेली व्यंग्य...
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बुंदेली व्यंग्य
लाईव ने भए तो कछु न भए
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
आज भुनसारे हमाए मोबाईल पे कक्का ने फोन करो। हमने देखो, जो का! कक्का तो वीडियो कॉलिंग कर रये। हमने ने उठाई। काए से के हम ऊ टेम पे पगलूं घांई दिखा रए हते। ने तो कंघी करी हती, ने कछु मेकअप-सेकअप करो रओ। अब भला पगलूं घाईं वीडियो पे तो आ न सकत ते। हमें फोन उठात ने देख उन्ने दस-बारा बार घंटी दे मारी। मनो मिस्डकॉल को रिकॉर्ड बना रये होएं। हमने जल्दी-फल्दी बाल ऊंछे। क्रीम-श्रीम लगाई। तनक अच्छी-सी सकल बना के हमने कक्का को कॉलबेक करो। बे तो मनो उधारई खाए बैठे हते। कहन लगे,‘‘इत्ती देर काए लगा दई बिन्ना? का कर रई हतीं?’’
‘‘कछु नई कक्का, चाय-शाय बना रई हती। हाथ भिड़ो हतो सो फोन ने उठा सकी।’’ हमने बहानो दओ।
‘‘का कै रये कक्का? हम कौन बढ़ा गए, जे लाईव तो हैं तुमाए आंगरे।’’
‘‘अरे, जे लाईव नई, हम तो सोसल मीडिया की बात कर रये। काए से के ई टेम पे तो हमाए लाने फुरसतई नईं मिल रई, लाईव कविताई करे से। आजई की ले लेओ अबई दस बजे से एक लाईव आए, फेर बारा बजे से दूसरो लाईव, तीसरो चार बजे से, चौथे रात आठ बजे और...’’
‘‘बस-बस कक्का, आप तो जे बताओ के आप अनलाईव कबे रहत हो?’’
‘‘बिन्ना, जोई तो कहात है आपदा में अवसर। तुम सोई अवसर को लाभ उठा लेओ। बो का कहात आए बहती गंगा में हाथ धो लेओ। काए से के ई टेम पे सोसल मीडिया पे जो लाईव ने भओ ऊकी ज़िन्दगी मनो झंड आए। तुमे सोई लाईव होने चइये। कहो तो आज दुपारी वारी गोष्ठी में तुमाओ नाम जुड़वा दओ जाये। तुमाई सोई तनक पूछ परख बढ़ जेहे। औ हओ, लाईव होने को प्रमाणपत्र सोई मिल जेहे। काए से के जा तो हमने तुमें पैलऊं बताई नई के लाईव होने को प्रमाणपत्र सोई मिलत है। हमें तो अब लों सैंकड़ा-खांड प्रमाणपत्र मिल गए हैं।’’ कक्का ने बताई।
‘‘सो, आपको ड्राईंगरूम तो प्रमाणपत्रन से भर गओ हुईए। दीवारन पे जांगा बची के नई?’’
‘‘अरे नईं! दीवारन पे जांगा काए ने बचहे, प्रमाणपत्र कोनऊ कगदा पे नईयां, बे तो ऑनलाईन आंए। हम उन्हें सोसल मीडिया पे भेजत रहत हैं। तुमे सोई मिलहें, तुम लाईव रओ करे।’’ कक्का ने समझाई।
‘‘हओ कक्का, भली कहीं! जिन्दा होबे को सैंकड़ा-खांड प्रमाणपत्र मिल जाएं, सो ऊमें का बुराई? बाकी, मनो एक लाईव सर्टीफिकेट के लाने तो लोगन खों सौ-सौ पापड़ बेलने पड़त हैं। दफ्तरन के चक्कर लगाबे पड़त हैं।’’ हमने हंस के कही।
‘‘तुम तो और! अरे, तुमसे तो कछु कहबो-सुनबो फिजूल आए।’’ कक्का ने फोन काट दओ और हमने लाईव होने को मौका गवां के मनो आपदा में अवसर गवां दओ। बस, हम तभई से मरे-डरे से फील कर रये हैं, मनो लाईव ने भए तो कछु न भए।
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(पत्रिका में 04.09.2020 को प्रकाशित)
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