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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, October 28, 2020

चर्चा प्लस | 28 अक्टूबर-पुण्यतिथि | कठिन है समझना राजेन्द्र यादव होने का अर्थ | डाॅ शरद सिंह

चर्चा प्लस
28 अक्टूबर-पुण्यतिथि 
कठिन है समझना राजेन्द्र यादव होने का अर्थ
   - डाॅ शरद सिंह
         हिंदी साहित्य की मशहूर पत्रिका ‘‘हंस’’ के संपादक, हिंदी में नई कहानी आंदोलन के प्रवर्तकों में एक, कहानीकार, उपन्यासकार राजेंद्र यादव ने हिन्दी साहित्य में दलित विमर्श, स्त्री विमर्श को मजबूती से खड़ा करने में अपना जो योगदान दिया वह अद्वितीय है। बेशक वे हमेशा विवादों से घिरे रहे लेकिन विवादों से घबराने के बजाए उन्होंने विवादों से प्रेम किया। राजेन्द्र यादव के जाने के बाद हिन्दी साहित्य जगत में जो शून्य उत्पन्न हुआ है उसे अभी तक कोई भर नहीं सका है। गोया ज्वलंत विचारों की एक चिंनगारी थी जो बुझ गई लेकिन उसकी तपिश भविष्य के गर्त में कहीं दबी हुई है। 
हिन्दी साहित्य के ‘मील का पत्थर’ कहे जाने वाले राजेन्द्र यादव जी से मेरी पहली मुलाक़ात सन् 1998 में सागर में ही हुई थी जब वे एक साहित्यिक समारोह में सागर आए थे। स्थानीय रवीन्द्र भवन में समारोह के उद्घाटन के दिन उनसे मेरी प्रथम भेंट हुई। इससे पूर्व मात्र पत्राचार था। उन्होंने मेरा परिचय पाते ही कहा-‘‘ ऐसी भी क्या नाराज़गी, हंस के लिए और कहानी भेजो!’’ उस समय भी उन्हें सागर नगर और विश्वविद्यालय के साहित्य प्रेमियों ने घेर रखा था। मगर वे किसी घेराव के परवाह करने वाले व्यक्ति थे ही नहीं। मैंने उनसे कहा कि आप जानते हैं मेरी नाराज़गी का कारण। राजेन्द्र जी बोले -‘‘ ठीक है आइन्दा ध्यान रखा जाएगा।’’ इतना कह कर वे हंसने लगे। हमारे बीच हुई वार्ता का सिर-पैर वहां उपस्थित लोगों के समझ से परे था। दरअसल हुआ यूं था कि मेरी एक कहानी ‘‘हंस’’ में प्रकाशित हुई और उस कहानी के साथ कुछ ज़्यादा ही बोल्ड रेखाचित्र प्रकाशित कर दिए गए। जो देखने में तो अटपटे थे ही और जिनसे कहानी की गंभीरता को भी चोट पहुंच रही थी। मैंने फोन कर के अपनी आपत्ति से उन्हें अवगत कराया था और साथ ही जोश में आ कर यह भी कह दिया था कि आइन्दा मैं ‘‘हंस’’ के लिए अपनी कोई कहानी नहीं भेजूंगी। बस, इसी बात पर वे मुझे टोंक रहे थे। सिर्फ़ मुझे ही नहीं, मेरी दीदी डाॅ. वर्षा सिंह से भी कहा था,‘‘आप तो अपनी ग़ज़लें भेज दिया करिए और इसे भी समझाइए।

दोबारा लखनऊ में ‘‘कथाक्रम’’ के आयोजन में राजेन्द्र यादव जी से भेंट हुई। उस समय तक वे मेरी कुछ और कहानियां ‘‘हंस’’ में प्रकाशित कर चुके थे और मेरा प्रथम उपन्यास ‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’ प्रकाशित हो चुका था। मुझे भी वहां बोलना था। मैंने अपनी बात रखते हुए कहा कि "साहित्य जगत में उठाने-गिराने का खेल चल रहा है, उससे साहित्य को ही क्षति पहुंच रही है।’’ और भी बहुत कुछ बोला था मैंने, लेकिन इस बात को राजेन्द्र यादव जी ने पकड़ लिया। दोपहर के भोजन के दौरान उन्होंने मुझसे कहा-‘‘बहुत ज़्यादा खरा-खरा बोल दिया तुमने। अब कई लोग तुमसे नाराज़ हो जाएंगे।’’ फिर हंस कर बोले-’’यह खरापन ही तुम्हें सबसे अलग बनाता है, इसे ऐसे ही ज़िन्दा रखना।’’ उनका यह कथन मेरे लिए चौंकाने वाला था। ‘‘उठाने-गिराने’’ का आरोप राजेन्द्र जी पर भी लगता रहा था इसलिए मुझे लगा था कि उन्हें भी मेरी बात बुरी लगी होगी लेकिन इसके विपरीत उन्होंने मेरा उत्साहवर्द्धन किया। उस समय मुझे लगा था कि जो दावा करते हैं कि वे राजेन्द्र यादव को समझते हैं, दरअसल उन्हें कोई नहीं समझ सकता है। वस्तुतः यह अबूझपन ही राजेन्द्र यादव को एक ऐसा संपादक बनाता था जो हिन्दी साहित्य को अपनी मनचाही दिशा देता जा रहा था। राजेन्द्र यादव जी ने स्वीकार किया था कि उन्हें मेरा पहला उपन्यास बहुत पसंद आया। ‘‘लीक से हट कर है’’ यही कहा था उन्होंने। 
समय-समय पर अन्य समारोहों में राजेन्द्र यादव जी से संक्षिप्त भेंट होती रही। किन्तु सन् 2013 में जब मैं एक आयोजन के सिलसिले में दिल्ली गई तो पता चला कि राजेन्द्र यादव जी अस्वस्थ चल रहे हैं। दिल्ली के ही एक मित्र के साथ मैं उनके निवास पर पहुंची। मैं पहली बार उनके घर गई थी। तब मुझे पता नहीं था कि यह मेरी उनसे अंतिम भेंट है। वे बीमार थे लेकिन उनका उत्साह देख कर कोई नहीं कह सकता था कि वे बीमार हैं। मुझे देख कर वे बहुत खुश हुए। काफी साहित्यिक चर्चाएं हुईं। उनसे विदा लेते हुए मैंने कहा था कि-‘‘आप जल्दी स्वस्थ हों। अगली बार दिल्ली आऊंगी तो फिर भेंट होगी।’’

मगर 28 अक्टूबर 2013 को रात्रि में टीवी समाचारों से ज्ञात हुआ कि राजेन्द्र यादव अब नहीं रहे। विश्वास करना कठिन था, मगर विश्वास करना पड़ा। मानो एक युग समाप्त हो गया था। 

28 अगस्त 1929 को आगरा में जन्मे राजेंद्र यादव ने आगरा विश्वविद्यालय से 1951 में हिन्दी विषय से एमए की डिग्री हासिल की थी। वे काफी दिनों तक कोलकाता में रहे। बाद में दिल्ली आ गए और और राजधानी के बौद्धिक जगत का एक अहम हिस्सा बन गए। उनका विवाह सुपरिचित हिन्दी लेखिका मन्नू भण्डारी के साथ हुआ था। संयुक्त मोर्चा सरकार में वह प्रसार भारती के सदस्य भी बनाए गए थे। वे हिन्दी के सुपरिचित लेखक, कहानीकार, उपन्यासकार व आलोचक थे। ‘‘नयी कहानी’’ के नाम से हिन्दी साहित्य में उन्होंने एक नयी विधा का सूत्रपात किया। उपन्यासकार मुंशी प्रेमचन्द द्वारा सन् 1930 में स्थापित साहित्यिक पत्रिका ‘‘हंस’’ का पुनर्प्रकाशन प्रेमचन्द की जयन्ती के दिन 31 जुलाई 1986 को उन्होंने प्रारम्भ किया। इसके प्रकाशन का दायित्व पूरे 27 वर्ष यानी जीवनपर्यन्त निभाया। हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा राजेन्द्र यादव को उनके समग्र लेखन के लिये वर्ष 2003-04 का सर्वोच्च सम्मान (शलाका सम्मान) प्रदान किया गया था।

राजेन्द्र यादव जी की यह विशेषता थी कि उनसे वैचारिक मतभेद होते हुए भी उनके कार्यों को अनदेखा नहीं किया जा सकता था। राजेन्द्र यादव के निधन के बाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे मैनेजर पांडेय ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था-‘‘राजेंद्र यादव पिछली आधी सदी से हिंदी साहित्य में सक्रिय रहे। उन्होंने तीन-चार क्षेत्रों में बहुत महत्वपूर्ण काम किया है। नई कहानी के लेखकों में महत्वपूर्ण थे राजेंद्र यादव। उन्होंने कुछ अच्छे उपन्यास भी लिखे जिस पर ‘‘सारा आकाश’’ जैसी फिल्म भी बनी। जीवन के उत्तरार्ध में उन्होंने ‘‘हंस’’ पत्रिका निकाली, जो हिंदी की लोकप्रिय और विचारोत्तेजक पत्रिका मानी जाती है। इसके जरिए उन्होंने दो काम किए, पहला यह कि उन्होंने स्त्री दृष्टि और लेखन को बढ़ावा दिया। स्त्री दृष्टि पर उनकी राय विवादास्पद लेकिन विचारणीय रही। उन्होंने दूसरा काम यह किया कि हंस के जरिए उन्होंने दलित चिंतन और दलित साहित्य को बढ़ावा दिया। दलित साहित्य को हिंदी साहित्य में स्थापित करने में राजेंद्र यादव ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हिंदी में दलित साहित्य को आगे बढ़ाने में राजेंद्र यादव का बहुत बड़ा योगदान है। मेरी जानकारी में हिंदी में दलित साहित्य पर पहली गोष्ठी उन्होंने 1990 के दशक में कराई थी। उसके माध्यम से लोग यह जान सके कि हिंदी में दलित साहित्य की धारा विकसित हो रही है। उन्होंने दलित लेखकों की रचनाओं को हंस में प्रमुखता से छापा। दलित साहित्य पर हंस के कई विशेषांक निकाले। इसके जरिए दलित साहित्य को समझने और आगे बढ़ाने का काम राजेंद्र यादव ने किया। इसकी बदौलत दलित साहित्य हिंदी में स्थापित धारा बन पाया। युवा लेखकों को आगे बढ़ाने में भी राजेंद्र यादव का बड़ा योगदान है।  

सन् 2014 में स्त्रीविमर्श पर मेरी पुस्तक प्रकाशित हुई थी-‘‘औरत तीन तस्वीरें’’। उसमें मेरा एक लेख है-‘‘स्त्रीविमर्श के माईलस्टोन पुरुष’’। इस लेख में मैंने स्त्रीविमर्श के प्रति राजेन्द्र यादव के योगदान की चर्चा की है। लेख का अंश इस प्रकार है-‘‘स्त्री-विमर्श के संदर्भ में एक सुखद तथ्य यह भी है कि हिन्दी साहित्य में स्त्री-विमर्श को एक वैचारिक आन्दोलन के रूप में एक पुरुष ने स्थापित किया और उसमें स्त्रियों की सहभागिता को हरसंभव तरीके से बढ़ाया। यह नाम है राजेन्द्र यादव का। यह सच है कि स्त्रीविमर्श के अपने वैचारिक आन्दोलन के कारण उन्हें समय-समय पर अनेक कटाक्ष सहने पड़े हैं तथा लेखिकाओं के लेखन को ‘बिगाड़ने’ का आरोप भी उन पर लगाया जाता रहा है किन्तु सभी तरह के कटाक्षों और आरोपों से परे राजेन्द्र यादव ने साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ के पटल पर लेखिकाओं को अपने विचारों को खुल कर सामने रखने का भरपूर अवसर दिया। राजेन्द्र यादव अपने सामाजिक सरोकार रखने वाले साहित्यक विचारों और उद्देश्य को ले कर सदा स्पष्ट रहे। उन्होंने कभी गोलमोल या बनावटी बातों का सहारा नहीं लिया। यूं भी अपनी स्पष्टवादिता के लिए वे विख्यात रहे हैं।  
राजेन्द्र यादव ने स्त्री स्वातंत्र्य की पैरवी की तो उसे अपने जीवन में भी जिया। एक बार जयंती रंगनाथन को साक्षात्कार देते हुए उन्होंने स्त्री विमर्श पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि ‘मैंने हमेशा स्पष्ट कहा है कि स्त्री विमर्श पर बात करनी है तो मां, बेटी और बहन इन तीन संबंधों पर बात नहीं करूंगा। घर के अंदर भी स्त्री को जितनी आजादी चाहिए, बहन-बेटी को जो फ्रीडम चाहिए, एजुकेशन चाहिए,  मैंने दी है। बेटी को ज़िन्दगी में एक बार थप्पड़ मारा, आज तक उसका अफसोस है। बाद में ज़िन्दगी के सारे निर्णय उसने खुद ही लिए, यह फ्रीडम तो देनी ही पड़ेगी।’ वे स्त्री-लेखन और पुरुष लेखन के बुनियादी अन्तर को हमेशा रेखांकित करते रहे हैं। उनके अनुसार ‘जो पुरुष मानसिकता से लिखा गया है और जो स्त्री की मानसिकता से लिखा गया है, बेसिक अंतर है। दो अलग एप्रोच हैं। उस चीज को तो हमें मानना होगा।’ 

निःसंदेह, यह एक ऐसा तथ्य है जिसको नकारा नहीं जा सकता है कि हिन्दी साहित्य में लेखिकाओं को यदि किसी ने सही अर्थ में मुखरता प्रदान की तो वह हैं राजेन्द्र यादव। यह हिन्दी साहित्य जगत में सतत् परिवर्तन की प्रक्रिया थी जो  कभी न कभी, कहीं से तो शुरू होनी ही थी। इस यात्रा का प्रस्थान बिन्दु बना राजेन्द्र यादव का वह साहस जो उन्हें यश-अपयश के बीच अडिग बनाए रखा।
दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अपूर्वानंद भी मानते हैं कि तमाम विवादों के बावजूद राजेन्द्र यादव के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है। उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में कहा था-‘‘हंस साहित्यिक पत्रिका का पुनर्प्रकाशन उनका सबसे बड़ा योगदान माना जाएगा। इसे उन्होंने एक ऐसे मंच का रूप दिया, जिस पर कई नए कहानीकार आए, जिन्हें कोई जानता तक नहीं था। राजेंद्र यादव ने उन्हें जगह दी। विवादों को जानबूझकर जन्म देते हुए और विवाद झेलते हुए भी उन्होंने नए लोगों को मौका दिया। इसके लिए उन्होंने इस बात की चिंता नहीं की कि इसका परिणाम क्या होगा। हंस में उन्होंने साहित्य के इर्द-गिर्द सामाजिक विषयों पर बहस शुरू की। दलितों के सवाल पर, स्त्रियों के सवाल पर और यौन वृत्तियों के सवाल पर। यह भी उनका बड़ा योगदान है। राजेंद्र यादव उस त्रयी के सदस्य थे, जिनमें कमलेश्वर और मोहन राकेश का नाम आता है। इस त्रयी ने हिंदी कहानी को एक नई दिशा दी और उसके तेवर को बदलकर रख दिया।’’ 

दरअसल राजेन्द्र यादव ने उन सभी को मुखर होने का भरपूर अवसर दिया जो शायद कभी मुखर नहीं हो पाते यदि राजेन्द्र यादव न होते। लेकिन स्वयं राजेन्द्र यादव स्वयं विवाद और विमर्श के रूप में ही मुखर होते रहे। आज के साहित्यिक परिवेश में जिसे राजेन्द्र यादव के युग के बाद का समय कहा जा सकता है, राजेन्द्र यादव होने का अर्थ समझ पाना बहुत कठिन है। 
                   
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(दैनिक सागर दिनकर में 28.10.2020 को प्रकाशित)
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Wednesday, October 21, 2020

चर्चा प्लस | राजनीति की अभद्र भाषा के निशाने पर महिलाएं | डाॅ शरद सिंह

चर्चा प्लस
राजनीति की अभद्र भाषा के निशाने पर महिलाएं
   - डाॅ शरद सिंह
      जब दो उजड्ड लोग आपस में लड़ते हैं तो वे जल्दी ही गाली-गलौज पर उतर आते हैं। ऐसे समय मां-बहन की गाली आम बात है। वे गाली के अर्थ को नहीं जानते क्योंकि वे उजड्ड हैं। लेकिन इन दिनों मध्यप्रदेश के उपचुनावी माहौल में जनप्रतिनिधियों द्वारा जिस प्रकार की भाषा का प्रयोग किया जा रहा है वह सोचने पर मज़बूर करता है कि इन जनप्रतिनिधियों को किस खांचे में रखा जाए- सभ्रांत या उजड्ड? किसी महिला के सम्मान को निशाना बनाने के बाद कोई तर्क मायने नहीं रखता है कि वह किस निहितार्थ कहा गया। समाज में हर महिला को सम्मान पाने का अधिकार है, चाहे वह किसी भी कार्य से जुड़ी हो। 
मां ने सुबह अख़बार उठाया और पहले पेज की एकाध ख़बर पढ़ कर अख़बार बंद कर के टेबल पर एक ओर सरका दिया। वे मानो अख़बार की ओर देखना भी नहीं चाह रही थीं। मैं और मेरी दीदी डाॅ. वर्षा सिंह भी वहीं दूसरी मेज पर दूसरा अख़बार ले कर बैठे थे। दीदी का ही ध्यान पहले गया मां की ओर। अख़बार लगभग बिना पढ़े ही एक ओर सरका देना हमें अज़ीब लगा। मेरी मां डाॅ विद्यावती ‘मालविका’ जो स्वयं एक वरिष्ठ साहित्यकार हैं, बड़े चाव से अख़बार पढ़ती हैं। वे टीवी बहुत कम देखती हैं लेकिन सुबह अख़बार ज़रूर पढ़ती हैं। कोरोनाकाल की शुरुआत में यानी लाॅकडाउन 1.0 के दौरान उन्हीें के कहने पर हमें अख़बार लेना बंद करना पड़ा था लेकिन फिर उन्हीं ने कहा कि अख़बार पढ़े बिना पता ही नहीं चलता है कि दुनिया में क्या हो रहा है। यह बात मैं इसलिए बता रही हूं कि मेरी मां अख़बारों या यूं कहिए कि समाचारों में कितनी अधिक रुचि रखती हैं। उनकी आयु 90 से ऊपर हो चली है लेकिन अपनी क्षमता के अनुरुप पठन-पाठन करती रहती हैं। उन्हें देख कर मैंने हमेशा महसूस किया है कि जीवन का इतना लम्बा अनुभव व्यक्ति में धीरे-धीरे वैचारिक तटस्थता ला देता है। मेरी मां न तो कांग्रेस के पक्ष में रहती हैं और न भाजपा के पक्ष में। जो अच्छे काम करता है उसकी तारीफ़ करती हैं और महिलाओं को हर क्षेत्र में आगे बढ़ा देख कर खुश होती हैं।

हमने मां से पूछा कि वे अख़बार क्यों नहीं पढ़ रही हैं? तबीयत तो ठीक है न? इस पर उन्होंने यह उत्तर दिया-‘‘कितनी अभद्र हो गई है हमारे यहां की राजनीति। महिलाओं का सम्मान करना ही भूल गए हैं।’’ तब हमें मामला समझ में आया। उस समय तक हम लोग भी पूर्वमुख्यमंत्री कमलनाथ की टिप्पणी पढ़ चुके थे। एक ऐसी महिला जिसने गांधीयुग देखा हो उनका ऐसी टिप्पणी पढ़ कर आहत होना स्वाभाविक था। अख़बार कमलनाथ की टिप्पणी से गरमाए हुए माहौल से भरा हुआ था।

माहौल तो गर्म होना ही था। पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कमल नाथ ने वह कह दिया जो उन्हें नहीं कहना चाहिए था। भाजपा से उम्मीदवार इमरती देवी के लिए ‘आईटम’ शब्द का प्रयोग कर के कमलनाथ ने सुर्खियां भले ही बटोर ली हों लेकिन चुनाव के संवेदनशील वातावरण में अपनी ही पार्टी पर अप्रत्यक्ष चोट कर बैठे। इसके विरोध में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने दो घंटे का मौन रखा और कांग्रेस की महिलाओं के प्रति असम्मान की भावना पर विरोध जताया। बात यहीं तक थमी नहीं रही। कमलनाथ ने ‘आईटम’ शब्द को सही ठहराने के लिए जो तर्क दिए वह गैर राजनीतिक व्यक्तियों के गले भी नहीं उतरे। किसी महिला को ‘आईटम’ कहा जाना अभद्रता की श्रेणी में ही आएगा। भले ही वह महिला राजनीति से जुड़ी हो।

मंा इमरती देवी को सिर्फ़ समाचारों से ही जानती हैं। व्यक्तिगततौर उन्हें इमरती देवी से कोेई लेना-देना नहीं है लेकिन वे पहले भी इसी प्रकार व्यथित हो चुकी हैं जब जनप्रतिनिधयों ने राजनीति में मौजूद महिलाओं के लिए अभद्र भाषा का प्रयोग किया। वे तब भी दुखी हुई थीं जब एक महिला राजनेता को ‘‘दारूवाली बाई’’ कहा गया था। वे हेमा मालिनी और जयाप्रदा के लिए भी दुखी हुई थीं जब उन्हें ‘‘नचनिया’’ कहा गया था और वे तब भी दुखी होती हैं जब सोनिया गांधी को अपशब्द कहे जाते हैं। कमलनाथ की टिप्पणी के बाद वे फिर क्षुब्ध हो उठीं जब उन्होंने बिसाहूलाल सिंह की टिप्पणी पढ ली। शिवराज सिंह चौहान सरकार के मंत्री बिसाहूलाल सिंह ने अपने प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस उम्मीदवार की पत्नी को ‘रखैल’ कह दिया। मंा की यही प्रतिक्रिया थी कि ‘‘अब और कितना गिरेंगे ये लोग?’’

उनके इस प्रश्न का उत्तर हम दोनों बहनों के पास नहीं था। हम अनुत्तरित रह गए। वर्तमान राजनीतिक माहौल पर उनकी क्षुब्धता देख कर हमें एकबारगी लगा कि हम एक बार फिर अख़बार मंगाना बंद कर दें। फिर दूसरे ही पल विचार आया कि यह कटुसत्य उनसे छिपाने से क्या होगा? अख़बार में बहुत-सी, सकारात्मक बातें होती हैं, उनसे मां को वंचित करना ठीक नहीं है।   

वैसे मां का दुखी होना स्वाभाविक है। हर महिला ऐसी बातें पढ़-सुन कर दुखी होती है। राजनीति में भाषा की ऐसी गिरावट शायद पहले कभी नहीं देखी गयी। ऊपर से नीचे तक सड़कछाप भाषा ने अपनी बड़ी जगह बना ली है। चाहे मंच हो या टेलीविज़न पर डिबेट का कार्यक्रम हो, चुभती हुई निर्लज्ज भाषा का प्रयोग आम हो गया है। भारतीय राजनीति में आज किसी भी पार्टी के लिए यह नहीं कहा जा सकता है इस पार्टी ने भाषा की गरिमा को बनाए रखा है। समय-समय पर और चुनाव के समय देश की सभी पार्टियों ने भाषा की गिरावट के नए-नए कीर्तिमान रचे हैं। राजनीति में मौजूद महिलाएं सबसे पहले इसका शिकार बनती हैं। उन पर अभद्र बोल बोलने वाले प्रतिद्वंद्वी उस समय यह भूल जाते हैं कि वह महिला उस समाज का अभिन्न हिस्सा है जिसमें वह स्वयं रहता है। सवाल यह भी है कि क्या भारतीय राजनीति इतनी दूषित हो गई है कि वोट की खातिर नैतिक मूल्यों को भी ताक पर रख दिया जाए? देश की राजनीति अगर इतनी गंदी हो गई तो लोकतंत्र की बात करने वाले सफेदपोश नेताओं को व्यक्तिगत छींटाकशी करने की स्वतंत्रता किस ने दे दी? इसके लिए उत्तरदायी कौन है, आम जनता या फिर वे शीर्ष नेता जिन पर दायित्व है अपने दल के नेताओं को दल के सिद्धांतों पर चलाने का।

मध्य प्रदेश में विधानसभा उपचुनाव के लिए चल रहे प्रचार अभियान के दौरान बयानों का स्तर गिरता ही जा रहा है। पहले पूर्वमुख्यमंत्री कमलनाथ ने एक महिलानेत्री को ‘‘आईटम’’ कहा और अपने इस शब्द को शालीन ठहराने के लिए तर्क दे डाले। फिर मंत्री बिसाहूलाल सिंह ने अपने प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस उम्मीदवार की पत्नी को ‘रखैल’ कहा जिसका वीडियो सोशल मीडिया में जारी हो गया। वीडियो में बिसाहूलाल सिंह अपने प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस उम्मीदवार विश्वनाथ सिंह के नामांकन में दिए गए ब्यौरे पर टिप्पणी करते हुए कह रहे थे कि ‘‘विश्वनाथ ने अपनी पहली पत्नी का नहीं, बल्कि रखैल का ब्यौरा दिया है।’’ 

कमलनाथ द्वारा फैलाए गए रायते को समेटने में जुटी कांग्रेस को एक धमाकेदार मुद्दा हाथ लग गया। कांग्रेस प्रवक्ता सैयद जाफर ने ट्वीट कर इस पर आपत्ति जताई है। उन्होंने कहा कि ‘‘इसे कहते हैं महिला का अपमान। भाजपा के मंत्री बिसाहूलाल सिंह ने कांग्रेस प्रत्याशी की पत्नी को कहा रखैल, क्या महिलाओं के लिए ऐसे ही शब्दों का इस्तेमाल करती है भाजपा? मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान तत्काल इस पर संज्ञान लेते हुए मंत्री को पद से हटाएं और प्रदेश की महिलाओं से माफी मांगें।’’ उल्लेखनीय है कि बिसाहूलाल सिंह उन नेताओं में शामिल हैं, जिन्होंने कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थामा था और कमलनाथ की सरकार गिराई थी। बिसाहूलाल अनूपपुर से विधानसभा उपचुनाव लड़ रहे हैं। 

सच तो यह है कि न तो ‘‘आईटम’’ शब्द उचित है और न ‘‘रखैल’’। ये दोनों ही शब्द महिला के सम्मान को चोट पहुंचाने वाले हैं। क्या महिला कोई वस्तु है जिसे आईटम कहा जाए? याद आता है कि इसी तरह कांग्रेस के एक और वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने अपनी ही पार्टी की शालीन और प्रबुद्ध महिला सांसद को  ‘‘टंचमाल’’ कह दिया था। दिग्विजय सिंह ने मंदसौर में एक जनसभा को संबोधित करते वक्त अपनी ही पार्टी की एक महिला सांसद को ‘‘100 टंच माल’’ कह दिया था। बयान पर बवाल हुआ तो, दिग्विजय ने मानहानि का केस करने की चेतावनी देते हुए कहा कि उनकी बात का गलत मतलब निकाला गया। दिग्विजय सिंह ने यह बयान जुलाई 2013 में मंदसौर में दिया था। मंदसौर में एक जनसभा को संबोधित करते वक्त वह इलाके की सांसद मीनाक्षी नटराजन पर ‘‘100 प्रतिशत टंच माल’’ की टिप्पणी कर डाली थी। सभा में दिग्विजय सिंह ने कहा था कि ‘‘मैं अंत में आपसे इतना ही कहूंगा मीनाक्षी नटराजन आपकी लोकसभा की सदस्य हैं। गांधीवादी हैं, सरल हैं, ईमानदार हैं। सबके पास जाती हैं, गांव-गांव जाती हैं। मैं अभी कल से इनके इलाके में देख रहा हूं। मुझे भी 40-42 साल का अनुभव है। मैं भी पुराना जौहरी हूं। राजनीतिज्ञों को थोड़ी सी बात में पता चल जाता है कि कौन फर्जी है और कौन सही है। यह 100 प्रतिशत टंच माल हैं और गरीबों की लड़ाई लड़ती हैं। मंदसौर जैसे जिले की गुटबाजी में नहीं पड़तीं, सबको साथ लेकर चलती हैं। दिल्ली में भी इन्होंने अपनी छाप छोड़ी है। लोकसभा के अंदर भी और पार्टी में भी। सोनिया और राहुल इनको बहुत मानते हैं। साथियो ये आपकी संसद सदस्य हैं, इनको पूरा सपोर्ट करिए, समर्थन करिए।’’

क्या महिलाएं ‘‘माल’’ हैं? क्या महिलाएं ‘‘आईटम’’ हैं? क्या विवाहित महिलाएं ‘‘रखैल’’ हैं? जिम्मेदार और प्रतिष्ठित राजनेताओं द्वारा जब इस तरह की महिला विरोधी टिप्पणी की जाती है तो आश्चर्य होता है राजनीतिक चरित्र की गिरावट पर। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस नेता शशि थरूर की पत्नी सुनंदा पुष्कर के लिए ‘‘50 करोड़ की गर्लफ्रेंड’’ शब्द का इस्तेमाल किया था। बीजेपी के नेताओं ने सोनिया गांधी के लिए ‘‘जर्सी गाय’’ जैसे घोर आपत्तिजनक बयान तक दिए हैं। कांग्रेस, बीजेपी के अलावा भी तमाम पार्टियों के नेताओं ने समय-समय पर महिलाओं के खिलाफ विवादित बयान दिए हैं। गोया राजनीति को विकास के मूलमुद्दों से भटकाए रखने के लिए महिलाओं के सम्मान पर भी चोट पहुंचानी पड़े तो वह भी सही माना जाए। यही तो चाहते हैं हमारे आज के जनप्रतिनिधि। लिहाज़ा अब समय है इस पर विचार करने का कि हम मतदाता एवं आमनागरिक क्या चाहते हैं? शायद मतदाताओं के सामने दुविधा का पहाड़ खड़ा है। जब सभी पक्ष अभद्रता पर उतारू हों तो आमनागरिक नहीं बल्कि चुनाव आयोग और सुप्रीमकोर्ट की तत्काल लगाम कस सकती है। वरना राजनीति में भाषाई गिरावट का यह सिलसिला यूं ही चलता रहेगा। 

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(दैनिक सागर दिनकर में 21.10.2020 को प्रकाशित)
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Wednesday, October 14, 2020

चर्चा प्लस - जब ‘बाॅबी’ पर भारी पड़े ‘बाबूजी’ - डाॅ शरद सिंह


चर्चा प्लस
जब ‘बाॅबी’ पर भारी पड़े  ‘बाबूजी’
- डाॅ शरद सिंह

           इन दिनों सागर का सुरखी विधान सभा क्षेत्र सुर्खियों में है। उपचुनाव की तारीख घोषित हो चुकी है इसलिए सरगर्मियां भी बढ़ गई हैं। सुरखी चुनाव सीट अपने आरम्भ से ही ऐतिहासिक राजनीतिक क्षेत्र रहा है। इसका नाम लेते ही अनेक रोचक किस्से इतिहास के पन्नों से निकल कर बाहर आने लगते हैं। दिलचस्प तथ्य यह भी है कि इस क्षेत्र का का संबंध राजकपूर की मशहूर फिल्म ‘बाॅबी’ और सुप्रसिद्ध राजनेता बाबू जगजीवन राम से भी रहा है। 


निर्माता-निर्देशक राजकपूर की सुपरहिट फिल्म ‘‘बाॅबी’’ आज भी देखने वालों को रोमांचित कर देती है। सन् 1973 में रिलीज़ हुई इस फिल्म में अभिनेता ऋषि कपूर और अभिनेत्री डिंपल कपाड़िया ने युवा प्रेमी जोड़े का रोल निभाया था। इस फिल्म का सबसे सुपरहिट गाने ‘‘झूठ बोले कौव्वा काटे, काले कव्वे से डरियो’’ के गीतकार थे  विट्ठल भाई पटेल। वे गीतकार थे, समाजसेवी थे और एक राजनीतिज्ञ भी थे। विट्ठल भाई पटेल सुरखी विधान सभा से दो बार विधायक बने। पहली बार सन् 1980 में और दूसरी बार सन् 1985 में। वैसे सुरखी विधान सभा सीट अपने आरम्भ काल से ही महत्वपूर्ण रही है। सन् 1951 में प्रतिष्ठित स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पंडित ज्वालाप्रसाद ज्योतिषी कांग्रेस से चुनाव जीते थे। इसी सीट से मध्यप्रदेश सरकार के वर्तमान नगरीय प्रशासन मंत्री भूपेन्द्र सिंह 1993 और 1998 में विधायक का चुनाव जीत चुके हैं। इन दिनों जिन दो महारथियों के बीच चुनाव होने जा रहा है उनमें से एक गोविंद सिंह राजपूत माधवराव सिंधिया के निकटतम हैं तथा कांग्रेस छोड़ कर भाजपा की सदस्यता ग्रहण कर चुके हैं। साथ ही वे फिलहाल परिवहन राज्य मंत्री भी हैं। उनकी प्रतिद्वंदी पारुल साहू पहले भाजपा में थीं किन्तु वहां वैचारिक मतभेद होने के कारण कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर चुकी हैं और कांग्रेस उम्म्ीदवार के रूप में चुनाव लड़ रही हैं। ये दोनों उम्मीदवार पहले भी एक-दूसरे को चुनौती दे चुके हैं जिसमें पारुल साहू ने गोविंद सिंह राजपूत को पराजित कर के विधायक पद हासिल किया था। बहरहाल, आज मैं ‘चर्चा प्लस’ में वर्तमान चुनावी परिदृश्य की नहीं बल्कि बाबू जगजीवन राम के समय के चुनावी परिदृश्य की चर्चा कर रही हूं। बड़ी ही रोचक घटना है। 

उस समय विट्ठल भाई पटेल सुरखी से विधायक तो नहीं बने थे किन्तु राजनीति में सक्रिय थे और स्व. राजकपूर से भी उनके अच्छे संबंध थे। इसलिए जब राजकपूर ने ‘‘बाॅबी’’ फिलम का निर्माण शुरू किया तो विट्ठल भाई पटेल से उन्होंने गीतों की मांग की। विट्ठल भाई पटेल  ने उन्हें गीत लिख कर दिए ओर जैसाकि सभी जानते हैं कि इस फिल्म का विट्ठल भाई पटेल द्वारा लिखा गया गीत ‘‘झूठ बोले कौव्वा काटे’’ सुपरहिट तो हुआ ही, साथ ही किसी मुहावरे की तरह लोगों की ज़बान पर चढ़ गया। यहां मैं जिस घटना की चर्चा करने जा रही हूं वह फिल्म ’’बाॅबी’’ के रिलीज़ के समय की है। उन दिनों हर शहर में या हर टाॅकीज़ में एक साथ फिल्म रिलीजऋ नहीं होती थी, जैसे कि आजकल सैटेलाईट के कारण हो पाती है। ‘‘बाॅबी’’ जहां-जहां रिलीज़ हुई, वहां-वहां उसने रिकार्ड तोड़ दर्शकों की भीड़ हासिल की। कहां जाता है कि उन दिनों ‘‘बाॅबी’’ को देखने वाले ऐसे दर्शक भी थे जिन्होंने लगातार दस-दस दिन तक उस फिल्म को टाॅकीज़ में देखा। विट्ठल भाई पटेल का लिखा गाना ‘‘झूठ बोले कौव्वा काटे’’ बच्चे-बच्चे की जुबान पर था। पांच साल गुज़रने पर भी ‘‘बाॅबी’’ की लोकप्रियता सिरचढ़ कर बोल रही थी। बात जनवरी 1977 की है।  18 जनवरी 1977 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लोकसभा चुनाव करवाने की घोषणा कर दी। राजनीति के जानकारों के अनुसार आपातकाल समाप्त करने की यह घोषणा आपातकाल लागू होने की घोषणा की तरह चैंकाने वाली थी। जनवरी 1977 में चुनावों की घोषणा करते हुए इंदिरा गांधी का कहना था, ‘‘करीब 18 महीने पहले हमारा प्यारा देश बर्बादी के कगार पर पहुंच गया था। राष्ट्र में स्थितियां सामान्य नहीं थी। चूंकि अब हालात स्वस्थ हो चुके हैं, इसलिए अब चुनाव करवाए जा सकते हैं।’’

देश में आपातकाल लागू हुए 19 महीने बीत चुके थे। उस समय तक इंदिरा गांधी और बाबूजगजीवन राम के बीच वैचारिक मतभेद आरम्भ हो चुका था। आपातकाल के समर्थन में लोकसभा में प्रस्ताव लाने वाले बाबू जगजीवन राम ने बाद में कांग्रेस से इस्तीफा देकर जनता पार्टी के साथ 1977 का चुनाव लड़ने का मन बना लिया था। क्यों कि आपातकाल के दौरान संविधान में इस हद तक संशोधन कर दिए गए कि उसे ‘कंस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया’ की जगह ‘कंस्टीट्यूशन ऑफ इंदिरा’ कहा जाने लगा था। उसमें ऐसे भी प्रावधान जोड़ दिए गए थे कि सरकार अपने पांच साल के कार्यकाल को कितना भी बढ़ा सकती थी। विपक्ष के सभी बड़े नेता जेलों में कैद थे और कोई नहीं जानता था कि देश इस आपातकाल से कब मुक्त होगा। किन्तु 18 जनवरी 1977 को आपातकाल के समापन की घोषणा कर दी गई। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। कांग्रेस के कद्दावर जमीनी नेता बाबू जगजीवन राम ने कांग्रेस से इस्तीफा देकर जगजीवन राम ने अपनी नई पार्टी ‘कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी’ बनाई। उन्होंने यह भी घोषणा की कि उनकी पार्टी जनता पार्टी के साथ मिलकर ही चुनाव लड़ेगी ताकि बंटे हुए विपक्ष का लाभ कांग्रेस को न मिल सके। माना जाता है कि 1977 में उनके कांग्रेस से अलग होने के कारण जनता पार्टी को दोगुनी मजबूती मिल गई थी।

5 अप्रैल, 1908 को बिहार के भोजपुर में जन्मे जगजीवन राम स्वतंत्रता संग्राम में भी सक्रिय रहे थे। 1946 में जब जवाहरलाल नेहरु की अध्यक्षता में अंतरिम सरकार का गठन हुआ था, तो जगजीवन राम उसमें सबसे कम उम्र के कैबिनेट मंत्री बने थे। उनके नाम सबसे ज्यादा समय तक कैबिनेट मंत्री रहने का रिकॉर्ड भी दर्ज है। वे 30 साल से ज्यादा समय केंद्रीय कैबिनेट में मंत्री रहे। उनके कांग्रेस से अलग होने पर कांग्रेस को नुकसान तो पहुंचना ही था। वे बहुत अच्छे वक्ता थे। उन्हें सुनने के लिए भीड़ उमड़ पड़ती थी। उन दिनों लोकनायक जयप्रकाश नारायण कांग्रेस के खिलाफ रैलियों पर रैलियां कर रहे थे। पटना, कलकत्ता, बॉम्बे, मद्रास, चंडीगढ़, हैदराबाद, इंदौर, पूना और रतलाम में जनसभाएं करते हुए मार्च की शुरुआत में वे दिल्ली पहुंच गए। मार्च 1977 के ही तीसरे हफ्ते में चुनाव होने थे। बाबू जगजीवन राम ने घोषणा की कि छह मार्च को दिल्ली में एक विशाल जनसभा का आयोजन किया जाएगा। कांग्रेस इस घोषणा से सतर्क हो गई। उसे पता था कि बाबू जगजीवन राम में वह क्षमता है कि वे अपने भाषण से हजारों लोगों की भीड़ जोड़ कसते हें और उन्हें प्रभावित कर सकते हैं।

कांग्रेस ने बाबू जगजीवन राम के इस प्रभाव को तोड़ने के लिए एक दिलचस्प चाल चली। जिस समय दिल्ली में बाबू जगजीवन राम की सभा होनी थी ठीक उसी समय दूरदर्शन पर फिल्म ‘बॉबी’ का  प्रदर्शन करा दिया। उन दिनों छोटे शहरों में तो दूरदर्शन का नामोनिशान नहीं था लेकिन बड़े शहरों और महानगरों में दूरदर्शन तेजी से आमजनता के जीवन से जुड़ता जा रहा था। वह दौर था जब दूरदर्शन पर हर तरह के कार्यक्रम लोग बड़े चाव से देखते थे। ऐसे समय ‘‘बाॅबी’’ जैसी सुपरहिट फिल्म घर बैठे देखने को मिल रही हो तो उसे भला कौन छोड़ना चाहता। ‘‘बाॅबी’’ के इसी आकर्षण को सियासी हथियार के रूप में प्रयोग में लाया गया। इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी पुस्तक ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में इस घटना का उल्लेख किया है। कांग्रेस तय मान कर बैठी थी कि ‘‘बाॅबी’’ का आकर्षण बाबूजी अर्थात् बाबू जगजीवनराम की सभा पर भारी पड़ेगा और उन्हें श्रोता नहीं मिलेंगे। लेकिन कांग्रेस का अनुमान गलत साबित हुआ। लगभग दस लाख लोगों की भीड़ सभा में जुड़ गई और सभी ने रुचिपूर्वक बाबू जगजीवन राम और जयप्रकाश नारायण का भाषण सुना। दूसरे दिन सुबह दिल्ली के अंग्रेजी अखबारों में हैडलाइन  थी-‘‘बाबूजी बीट्स बाॅबी’’ अर्थात् बाबूजी ने बाॅबी को हरा दिया।

आज भी राजनीतिक गलियारों में जब ‘‘बाॅबी’’ और ‘‘बाबूजी’’ की चर्चा होती है तो इस घटना का जिक्र जरूर होता है। फिल्म गीतकार और राजनीतिज्ञ स्व. विट्ठल भाई पटेल की फिल्मी पहचान बन गई ‘‘बाॅबी’’ उनके दो बार सुरखी क्षेत्र से विधायक बनने के बाद भी अमिट बनी रही। राजनीति और फिल्मी दुनिया के बीच ‘‘बाॅबी’’, ‘‘बाबूजी’’ और विट्ठल भाई पटेल का त्रिकोण कभी भुलाया नहीं जा सकता है, यह इतिहास के पन्ने पर एक दिलचस्प राजनीतिक दांव-पेंच के रूप में दर्ज़ हो चुका है। अब देखना है कि सुरखी में क्या कुछ दिलचस्प होगा।

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(दैनिक सागर दिनकर में 14.10.2020 को प्रकाशित)
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साहित्य का महासागर बनता जा रहा सागर - डॉ शरद सिंह, दैनिक भास्कर में प्रकाशित

दैनिक भास्कर की 14वीं वर्षगांठ पर 60 पृष्ठीय विशेषांक मास्ट हेड 'बुंदेलखंड भास्कर' के अंतर्गत मेरा लेख " साहित्य का महासागर बनता जा रहा सागर" आज दि. 14.10.2020 को प्रकाशित हुआ है।
हार्दिक आभार दैनिक भास्कर 🙏
लेख : 
साहित्य का महासागर बनता जा रहा है सागर
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

      किसी भी क्षेत्र की सांस्कृतिक एवं जातीय पहचान उस क्षेत्र के साहित्य एवं साहित्यिक गतिविधियों से होती है। साहित्य में क्षेत्रविशेष के संस्कार, परम्परा एवं नवाचार का प्रतिबिम्ब दृष्टिगोचर होता है। अतीत, वर्तमान और भविष्य को एक साथ जोड़ कर चलना साहित्य में ही संभव है। सागर साहित्य एवं संस्कृति जगत् में अपनी साहित्यिक उपलब्धियों के लिए देश में ही नहीं वरन् विदेशों में भी विख्यात है। यहां के साहित्यकारों की रचनाएं विश्व के विभिन्न विश्वविद्यालयों में शोधसंदर्भ के रूप में पढ़ी जाती हैं तथा उन पर शोध कार्य भी किया जाता है। वस्तुतः सागर की भूमि साहित्य सृजन के लिए सदा से उर्वरा रही है। यदि अतीत के पन्ने पलटे जाएं तो एक से बढ़ कर एक कालजयी कवि और उनकी रचनाएं दिखाई देती हैं। जिनमें सर्वप्रथम कवि पद्माकर (सन् 1753-1833) का नाम लिया जाना उचित होगा। सागर झील के तट पर स्थित चकराघाट पर स्थापित कवि पद्माकर की प्रतिमा आज भी सागर के साहित्यकारों के लिए प्रेरणास्त्रोत का कार्य कर रही है। पद्माकर रचित ग्रंथों में पद्माभरण, जगद्विनोद, गंगालहरी, प्रबोध पचासा, ईश्वर पचीसी, यमुनालहरी आदि प्रमुख हैं। प्रतिवर्ष होली पर सागर का साहित्यवृंद सुबह-सवेरे सबसे पहले चकराघाट पहुंच कर कवि पद्माकर की प्रतिमा को नमन करता है, उन्हें गुलाल लगाता है और इसके बाद ही होली खेलने तथा होली पर केन्द्रित रचनापाठ का क्रम शुरू होता है। कवि पद्माकर के अनुप्रास अलंकार की बहुलता वाले कवित्त छंद हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि हैं। उनका यह लोकप्रिय कवित्त देखें -
फागु के भीर अभीरन तें गहि, गोविंदै लै गई  भीतर गोरी 
भाय करी मन की पदमाकर,  ऊपर  नाय अबीर की झोरी 
छीन पितंबर कंमर तें,  सु बिदा  दई  मोड़ि कपोलन रोरी 
नैन नचाई, कह्यौ मुसकाई, लला! फिर खेलन आइयो होरी

सागर के साहित्य कोे समय के साथ चलना बखूबी आता है। यहां के साहित्यकारों ने उत्सव के समय उत्सवधर्मिता को अंगीकार किया तो वे स्वतंत्रता संग्राम के समय स्वतंत्रता के पक्ष में स्वर बुलंद करने में आगे रहे। 14 मार्च 1908 को नरसिंहपुर जिले के करेली में जन्मे पं. ज्वालाप्रसाद ज्योतिषी अपनी बाल्यावस्था से ही सागर आ गए थे और जीवनपर्यन्त सागर में रहते हुए उन्होंने साहित्य सृजन किया। उनकी प्रसिद्ध पंक्तियां हैं- 
जनम जनम के हैं हम बागी, 
लिखी बगावत भाग्य हमारे
जेलों मे है कटी जवानी, 
ऐसे ही कुछ पड़े सितारे

पं. ज्वालाप्रसाद ज्योतिषी के समय रामसिंह चैहान बेधड़क, शंकरलाल तिवारी ‘बेढब सागरी’, पं. लक्ष्मी प्रसाद मिश्र ‘कवि हृदय’ साहित्य सृजन कर रहे थे। हिन्दी, उर्दू और बुंदेली में साहित्य सृजन करते हुए इस यात्रा को आगे बढ़ाया इकराम सागरी, लक्ष्मण सिंह निर्मम, जहूर बख़्श, दीनदयाल बालार्क, जयनारायण दुबे, पं. लोकनाथ सिलाकारी, नेमिचन्द ‘विनम्र’, विठ्ठल भाई पटेल, रमेशदत्त दुबे, माधव शुक्ल मनोज, शिवकुमार श्रीवास्तव, अखलाक सागरी आदि ने। साथ ही पन्नालाल साहित्याचार्य ने दार्शनिकतापूर्ण साहित्य का सृजन किया।
 
अपने मौलिक सृजन से साहित्यजगत को उल्लेखनीय रचनाएं एवं कृतियां देने वाले सागर के साहित्यकारों में से कुछ प्रमुख नाम हैं- महेन्द्र फुसकेले, डाॅ. विद्यावती ‘मालविका’, डाॅ. राधावल्लभ त्रिपाठी, डाॅ. गोविंद द्विवेदी, प्रो कांति कुमार जैन, लक्ष्मी नारायण चैरसिया, डाॅ. सुरेश आचार्य, कपूरचंद बैसाखिया, दिनकर राव दिनकर, यार मोहम्मद यार, निर्मलचंद ‘निर्मल’, हरगोविंद विश्व, डाॅ. गजाधर सागर, मणिकांत चैबे ‘बेलिहाज़’, डाॅ. वर्षा सिंह, डाॅ. श्याम मनोहर सीरोठिया, डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह, वृंदावन राय ‘सरल’, अशोक मिजाज़ बद्र, टीकाराम त्रिपाठी ‘रुद्र’, डाॅ. महेश तिवारी, डाॅ. लक्ष्मी पाण्डेय, डाॅ. सरोज गुप्ता, डाॅ. आनन्द प्रकाश त्रिपाठी, वीरेन्द्र प्रधान, डाॅ. वंदना गुप्ता, सतीश पांडे आदि। इनमें से प्रो कांति कुमार जैन, डाॅ. राधावल्लभ त्रिपाठी, डाॅ. सुरेश आचार्य, डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह, अशोक मिजाज़ बद्र का सागर का नाम देश ही नहीं बल्कि विदेशों तक पहुंचाने में उल्लेखनीय योगदान है। 

प्रादेशिक स्तर की साहित्यिक संस्थाओं की सागर इकाईयां भी वर्तमान में डिज़िटल माध्यमों को अपनाते हुए आॅनलाईन आयोजनों में संलग्न हैं। अध्यक्ष आशीष ज्योतिषी एवं सचिव पुष्पेन्द्र दुबे मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन की सागर इकाई के तत्वावधान में साप्ताहिक गोष्ठियों का आयोजन करते रहते हैं। इसी प्रकार अध्यक्षद्वय टीकाराम त्रिपाठी रुद्र एवं सतीश पांडे द्वारा मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ की सागर एवं मकरोनिया इकाईयों के अंतर्गत् आॅनलाईन काव्यपाठ एवं परिचर्चा का आयोजन कराया जाता है। मध्यप्रदेश हिन्दी लेखिका संघ की सागर इकाई की अध्यक्ष सुनीला सराफ द्वारा काव्य गोष्ठी, परिचर्चा आदि का आयोजन किया जाता है। इस वर्ष कोरोना आपदा के कारण सागर इकाई की स्मारिका ‘अन्वेषिका’ का वितरण संभव नहीं हो से ई-पत्रिका  प्रकाशित की। 

 नवाचार को अपनाकर अडिग रहना साहित्यकारों एवं साहित्यसेवियों की विशेषता होती है। इस विशेषता को चरितार्थ करते हुए सागर का साहित्यकार समाज, साहित्य की मशाल को अपनी लेखनी के जरिए उठाए हुए निरंतर आगे बढ़ रहा है और अपने साहित्य के प्रकाश से समाज का पथ-प्रदर्शक बना हुआ है। इसमें दो मत नहीं कि सागर सही अर्थों में साहित्य का महासागर बनता जा रहा है। 
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Wednesday, October 7, 2020

चर्चा प्लस | राजनीतिक बिसात पर बेटियां और बलात्कार | डाॅ शरद सिंह

चर्चा प्लस 
राजनीतिक बिसात पर बेटियां और बलात्कार
  - डाॅ शरद सिंह
एक ग़रीब, दलित परिवार की बेटी....पहले बलात्कारियों की बर्बरता की भेंट चढ़ी और अब राजनीतिक बिसात की मोहरा बना दी गई है। क्या कहा जाए इसे - प्रशासनिक दुराव, सियासी हठधर्मिता या बेटियों की परवाह का ढोंग? ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ लेकिन बलात्कारियों से कैसे बचाओ इसका कोई ठोस जवाब है किसी के पास? कानून का मज़ाक उड़ाते अपराधी और नृशंसता की शिकार होती बेटियां....बेटियों को यह कैसा भविष्य दे रहे हैं हम?     
जब किसी लड़की के साथ बलात्कार किया जाता है तो बलात्कारियों की मानसिकता अपने कथित पुरुषार्थ के धाक जमाने की होती है। हमारे देश में बलात्कारियों के लिए कड़े कानून बनाए गए हैं लेकिन कहीं तो झोल है, जिसके चलते बलात्कारियों के हौसले दिन प्रति दिन बढ़ते जा रहे हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि पिछले कुछ दशकों से सामूहिक बलात्कार और बलात्कार के बाद नृशंसतापूर्वक हत्या किए जाने के मामलों में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है। यूं तो निर्भया कांड के बाद से बलात्कार पीड़िता का नाम मीडिया में उजागर नहीं किया जाता है किन्तु पीड़िता के माता-पिता, पीड़िता से संबंधित समाज-कुटुम्ब के प्रतिष्ठित व्यक्तियों एवं अधिकांश मीडिया द्वारा बालिग पीड़िता का नाम दुनिया के सामने रखा गया है ताकि उसकी परिस्थितियां और उसकी पीड़ा को सभी समझ सकें। अतः मैं भी अपने इस लेख में उस बेटी की चर्चा उसके नाम से ही कर रही हूं। जी हां, उत्तर प्रदेश के हाथरस की मनीषा बाल्मीकि बलात्कार कांड ने तो मानवता की सभी सीमाएं लांघ दीं। मृत्यु के बाद भी नृशंसता और अमानवीयता ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। दरअसल, स्थितियां उस दोराहे पर आ खड़ी हुई हैं जहां यदि घटना पर राजनीति न हो तो घटना आसानी से दबा दी जाती है और यदि राजनीति होती है तो उसे वर्ग भेद, जाति भेद, अर्थ भेद आदि-आदि का रंग दिया जाने लगता है। उस समय यह भुला दिया जाता है कि वह लड़की जिसके साथ सामूहिक दुष्कर्म किया गया, वह भी एक इंसान थी। उसे मर्मांतक पीड़ाएं हुई होंगी। जब उसे अंग-भंग कर के मारा गया होगा तब उसने जो सहा होगा वह कल्पना से परे है। मनीषा गंाव की एक बेटी थी, निर्भया गांव से आ कर महानगर में रह रही एक बेटी थी और वह भी एक बेटी थी जोे पढ़-लिख कर वेटनरी डाॅक्टर का काम कर रही थी। तीनों लगभग एक जैसी नृशंसता की शिकार हुईं। इनमें से दो को मरा समझ कर छोड़ दिया गया और एक को जला दिया गया। यह हमारे देश की घटनाएं हैं जहां कहा जाता है कि जहां स्त्रियों की पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं। इसका अर्थ तो यही है कि पूजाघरों की बहुलता वाले हमारे देश में स्त्रियों की इस दुदर्शा को देखते हुए देवता अब यहां रहना ही नहीं चाहते होंगे।

एनडी टीवी चैनल के संवाद दाता अरुण सिंह ने हाथरस पर अपनी आंखों देखी रिपोर्ट दुनिया के सामने रखी है। उस लम्बी रिपोर्ट का एक छोटा-सा अंश ही अनेक सच्चाइयों को सामने लाने में सक्षम है। अरुण सिंह ने लिखा है-‘‘आह! वे लोग रात के अंधेरे में मृतक का अंतिम संस्कार नहीं करेंगे। यह संभव नहीं है। हाथरस जाने के दौरान उस रात ये बात मैंने अपने कैमरामैन पवन कुमार के साथ कार में कही थी। कुछ ही घंटों बाद, मुझे यकीन नहीं हो रहा था, जो मैं वहां देख रहा था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक गांव के खेत में रात के अंधेरे में 2ः30 बजे एक चिता जलाई गई, जहां केवल मुट्ठी भर पुलिसवाले मौजूद थे लेकिन परिवार का कोई सदस्य शामिल नहीं था। सामूहिक बलात्कार की शिकार 20 वर्षीय युवती का अधिकारियों द्वारा जबरन अंतिम संस्कार किया जा रहा था, जबकि परिवार के सदस्यों को उसके घर में बंद कर दिया गया था। .....उस रात मेरी अंतरात्मा को भावनाएं चुनौती दे रही थी। मैंने इस तरह के दाह संस्कार की उम्मीद नहीं की थी लेकिन मन-मस्तिष्क में चिता को आग देने वाले दृश्यों के उमड़ने-घुमड़ने के साथ ही सोया था। क्या इस देश में एक गरीब को गरिमा के साथ मरने का भी सौभाग्य नसीब नहीं है?’’

प्रशासन को इतनी जल्दी थी मनीषा बाल्मीकि के निर्जीव शरीर से मुक्ति पाने की कि परिवारजन को भी नहीं बुलाया गया उसका दहन करते समय। इसी दौरान एक रिपोर्ट सामने आई कि मनीषा के साथ बलात्कार हुआ ही नहीं था। ज़ाहिर है कि इस रिपोर्ट के क्रास एक्जामिन के लिए मृत शरीर भी उपलब्ध नहीं है। 

घटना 14 सितंबर, 2020, उत्तर प्रदेश के हाथरस जिले के चंदपा थाने के बूलगढ़ी गांव की है। करीब बीस साल की मनीषा अपनी मां के साथ जानवरों के लिए चारा लाने के लिए खेतों में गई थी। वहां चार सवर्ण युवकों ने उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया, और पूरी नृशंसता से उसकी रीढ़ की हड्डी तोड़ी और जीभ काटकर उसे मरा समझकर छोड़कर भाग गए। उसी दिन खून से लथपथ मनीषा को गंभीर हालत में जिला अस्पताल ले जाया गया। किन्तु वहां से उसे नाजुक अवस्था में ही मेडिकल कालेज अलीगढ़ भेज दिया गया। वहां वह 14 दिन रही, पर कोई सही उपचार नहीं मिला। हालत बिगड़ने पर उसे 28 सितम्बर को दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल भेज दिया गया, जहां ऑक्सीजन की कमी से, 29 सितम्बर की सुबह उसने दम तोड़ दिया। इस पूरे मामले में पुलिस और प्रशासन की भूमिका बेहद शर्मनाक रही। पहले तो पुलिस ने रिपोर्ट ही दर्ज नहीं की, और परिवार वालों को धमकाती रही। वह बलात्कार की घटना से इनकार करती रही। जब रिपोर्ट लिखी गई, तो जानलेवा हमले की रिपोर्ट लिखी गई, जब मनीषा ने दुष्कर्म का बयान दिया, तो उसमें छेड़छाड़ की धारा 354 जोड़ी गई। पहला आरोपी भी पांच दिन के बाद 19 सितंबर को गिरफ्तार किया गया। उसके भी कई दिन बाद अन्य तीन आरोपी गिरफ्तार किए गए। ये गिरफ्तारियां सामाजिक दबाव की वजह से हुईं। पुलिस के अधिकारियों ने मनीषा की लाश को उसके परिवार वालों को न सौंपकर उसे अपने कब्जे में ले लिया और रात के अंधेरे में ही परिवार के लोगों की मर्जी के बिना ही रात 2ः30 बजे उसको जला दिया। जबकि भारतीय हिन्दू संस्कृति में रात्रि में दाहसंस्कार किया ही नहीं जाता है। फिर मनीषा की मृतदेह को तो विधि-विधान क्या दिन का उजाला भी नसीब नहीं हुआ।

मनीषा बलात्कार कांड पर हो रही राजनीति को बेशक हम कोस सकते हैं लेकिन यदि विपक्षी नेता मनीषा के गांव पहुंचने की ज़िद नहीं करते तो क्या वहां की नाकेबंदी की सच्चाई दुनिया के सामने आ पाती? यदि मीडिया गांव में प्रवेश करने की ज़िद नहीं करता तो क्या प्रशासनिक हठ का दृश्य सामने आ पाता? लेकिन इन सवालों के बीच सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि सारी सच्चाई सामने होते हुए भी मनीषा को क्या जल्दी न्याय मिल सकेगा? जबकि सात साल का लम्बा समय लग गया निर्भया को न्याय पाने में। बलात्कार के मामले में न्याय की चर्चा करते समय अभी अधिक समय नहीं गुज़रा है उस घटना को हुए जब वेटनरी डाॅक्टर के बलात्कार एवं हत्या के दोषी कुछ समय बाद ही पुलिस एन्काउंटर में मारे गए थे और देश की जनता ने इस एन्काउंटर पर हर्ष व्यक्त किया था। लेकिन सभी जानते हैं कि यह कोई ऐसा कानूनी तरीका नहीं था जिससे बलात्कार की घटनाओं पर रोक लगाया जा सके। यह परिस्थितिजन्य घटना थी जिसने उस डाॅक्टर को शीघ्र न्याय दिला दिया। हमेशा ऐसा होना संभव नहीं है और उचित भी नहीं है। इससे निर्दोष भी शिकार सकते हैं। बहरहाल, आंकड़े देश में बलात्कार की भयावहता का जो इतिहास लिखते जा रहे हैं वह हमारी संस्कृति पर, हमारी भारतीयता पर करारा तमाचा है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार 2018 महिलाओं ने करीब 33,356 बलात्कार के मामलों की रिपोर्ट की। एक साल पहले 2017 में बलात्कार के 32,559 मामले दर्ज किए गए थे, जबकि 2016 में यह संख्या 38,947 थी।  दूसरी ओर एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक देश में दुष्कर्म के दोषियों को सजा देने की दर सिर्फ 27 प्रतिशत है। एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि हत्या, अपहरण और महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों में पिछले साल के मुकाबले बढ़ोतरी हुई है। 2018 के आंकड़ों के मुताबिक देश में हर दिन औसतन करीब 80 लोगों की हत्या कर दी जाती है। इसके साथ ही 289 अपहरण और 91 मामले दुष्कर्म के सामने आते हैं।

लड़कियों के साथ बलात्कार की घटनाएं रुकने का नाम नहीं ले रही हैं? आखिर क्या कारण है कि कानून का डर समाप्त हो गया है? या राजनीति न्याय के राह में बाधा बन रही है? जबकि बलात्कार जैसे जघन्य अपराध पर सभी राजनीतिक दलों को एकजुट हो कर न्याय का रास्ता आसान बनाना चाहिए। बेटी किसी भी धर्म, जाति, समुदाय की हो, बेटी तो आखिर बेटी होती है, एक हाड़-मांस की इंसान जिसे एक जैसी पीड़ा से गुज़रना पड़ता है। ऐसे मामले में ‘‘अगाड़ी’’ या ‘‘पिछाड़ी’’ का भेद भूल कर एक माता-पिता की तरह सोचना चाहिए कि यदि इसी तरह बलात्कार की नृशंस प्रवृत्ति बढ़ती रही तो कभी भी, किसी भी बेटी का जीवन ख़तरे में पड़ सकता है। बलात्कार के पिछले सभी अपराध बताते हैं कि समाज के हर वर्ग की एक न एक बेटी बलात्कारियों की शिकार हुई है। इसलिए बलात्कार के विरुद्ध राजनीतिक और सामाजिक दोनो एकजुटता बेहद जरूरी है।            
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(दैनिक सागर दिनकर में 02.09.2020 को प्रकाशित)
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Friday, October 2, 2020

सदा प्रासंगिक हैं महात्मा गांधी के विचार | डॉ. शरद सिंह | 2 अक्टूबर | जन्मतिथि पर विशेष

2 अक्टूबर - जन्मतिथि पर विशेष :
  सदा प्रासंगिक हैं महात्मा गांधी के विचार
                - डॉ. शरद सिंह
       अपने जीवन को कष्टों के सांचे में ढालकर दूसरों के लिए सुखों की खोज करने वाले महात्मा गांधी बीसवीं सदी के महानायकों में से एक थे। उनके विचारों, उनके कार्यों एवं उनके जीवन-दर्शन ने समूची मानवता को नये आदर्श प्रदान किए। उनका कहना था, ‘‘स्त्रियों को अबला पुकारना उनकी आंतरिक शक्ति को दुत्कारना है।’’ स्वतंत्रता आंदोलन के समय भी उन्होंने स्वच्छता के आग्रह को विस्मृत नहीं किया था। महात्मा गांधी का कहना था, ‘‘स्वच्छता अच्छे विचारों को जन्म देती है और अच्छे विचार मनुष्य को अच्छी जीवन-दशाएं प्रदान करते हैं।’’
    वैश्विक स्तर पर महात्मा गांधी के विचारों को सर्वसम्मति से स्वीकार किया जाता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है कि 15 जून, 2007 को संयुक्त राष्ट्र की महासभा में 2 अक्टूबर को ‘अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस’ घोषित करने के लिए मतदान हुआ, तदुपरान्त संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2 अक्टूबर के दिन को ‘अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस’ घोषित किया। महात्मा गांधी के विचारों को ‘गांधीवाद’ के नाम से पुकारा जाता है। गांधीवाद को अपनाने के लिए उनके राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक आदि विचारों को अपनाना आवश्यक है।
     महात्मा गांधी राजनीति का परिष्कृत रूप स्थापित करना चाहते थे। उनका मानना था कि राजनीति के परिष्कार के लिए राजनीति में सत्य, अहिंसा, नैतिकता, परोपकार, सादगी एवं सदाचार का अधिक से अधिक प्रतिशत होना चाहिए तभी राजनीति दूषित होने से बची रहती है। 21वीं सदी के दूसरे दशक में राजनीति में जो हिंसा, बाहुबल, बेईमानी, भाई-भतीजावाद एवं आर्थिक घोटालों का बोलबाला दिखाई देता है, उसमें महात्मा गांधी के ‘राजनीति के परिष्कार’ का मूलमंत्र प्रासंगिक एवं व्यावहारिक ठहरता है। यदि राजनेताओं में संयम रहे अथवा संयमित व्यक्ति राजनीति में प्रवेश करें तो राजनीति का परिष्कार सम्भव है। एक स्वस्थ राजनीतिक परिवेश देश के प्रत्येक तबके को उसके अधिकारों से जोड़ सकता है और राजनीतिक संस्थाओं के प्रति नागरिकों के मन में विश्वास पैदा कर सकता है।
         महिलाओं को सशक्त बनाने का स्वप्न ही महात्मा गांधी के स्त्री-आंदोलन की बुनियाद था। महात्मा गांधी मानते थे कि स्त्रियों को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों के समकक्ष सशक्त होना चाहिए। वे राजनीति में महिलाओं की सहभागिता के पक्षधर थे। वस्तुतः महात्मा गांधी का अहिंसावादी आंदोलन स्त्रियों की उपस्थिति के कारण अधिक सार्थक परिणाम दे सका। इस तथ्य को महात्मा गांधी ने स्वीकार करते हुए एक बार कहा था कि स्त्रियां प्रकृति से ही अहिंसावादी होती हैं। स्त्रियां पुरुषों की तुलना में अधिक संवेदनशील और सहृदय होती हैं, अतः स्त्रियों की उपस्थिति से अहिंसावादी आंदोलन एवं सत्याग्रह अधिक कारगर हो सकते हैं।
     महात्मा गांधी स्त्रियों को अबला कहने के विरोधी थे। वे मानते थे कि स्त्री पुरुषों की भांति सबल और शक्ति सम्पन्न है। जिस प्रकार एक सशस्त्र पुरुष के सामने निःशस्त्र पुरुष कमजोर प्रतीत होता है, ठीक उसी तरह सर्वअधिकार प्राप्त पुरुषों के सामने स्त्री अबला प्रतीत होती है जो कि वस्तुतः अबला नहीं है। उनका कहना था, ‘‘स्त्रियों को अबला पुकारना उनकी आंतरिक शक्ति को दुत्कारना है। यदि हम इतिहास पर नजर डालें तो हमें उनकी वीरता की कई मिसालें मिलेंगी। यदि महिलाएं देश की गरिमा बढ़ाने का संकल्प कर लें तो कुछ ही महीनों में वे अपनी आध्यात्मिक अनुभूति के बल पर देश का रूप बदल सकती हैं।’’
          गांधी जी मानते थे कि स्त्रियों की उपस्थिति पुरुषों को भी आचरण की सीमाओं में बांधे रखती है। यही कारण है कि उन्होंने कांग्रेस में महिलाओं को नेतृत्व का पूरा अवसर दिया। विभिन्न आंदोलनों में स्त्रियों को शामिल होने दिया। उन्होंने कांग्रेस के अंतर्गत स्त्रियों के सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक और राजनीतिक उत्थान के कार्यक्रम भी चलाए। वे स्त्रियों को एक स्त्री के रूप में न देखकर एक पूर्ण व्यक्ति के रूप में देखते थे। वे पारिवारिक सम्पत्ति पर पुरुषों के बराबर स्त्रियों को स्वामित्व दिए जाने के भी पक्षधर थे।
          महात्मा गांधी का कहना था, ‘‘कोई भी राष्ट्र अपनी आधी आबादी (अर्थात् स्त्रियों) की अनदेखी करके विकास नहीं कर सकता है।’’ वे कहते थे कि पुरुषों की तुलना में स्त्रियों को कमजोर नहीं समझना चाहिए। वे स्त्रियों के आर्थिक स्वावलम्बन एवं शिक्षा के पक्षधर थे। शुचिता एवं सतीत्व के नाम पर स्त्रियों को बन्धन में रखना वे पसन्द नहीं करते थे। महात्मा गांधी का यह विचार हर युग में खरा उतरता है।
      महात्मा गांधी ने स्वच्छता पर विशेष बल दिया। जब वे दक्षिण अफ्रीका में थे तो वहां उन्हें अनुभव हुआ कि वहां बसे भारतीय स्वच्छता पर ध्यान नहीं देते हैं जिसके कारण अंग्रेज उन्हें घृणा की दृष्टि से देखते हैं। इस पर महात्मा गांधी ने वहां स्वच्छता आंदोलन चलाया। इस आंदोलन का परिणाम यह हुआ कि अफ्रीका में बसे भारतीय समाज में घर-बार साफ रखने के महत्त्व को स्वीकार कर लिया गया।
      महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन के समय भी उन्होंने स्वच्छता के आग्रह को विस्मृत नहीं किया था। महात्मा गांधी का कहना था, ‘‘स्वच्छता अच्छे विचारों को जन्म देती है और अच्छे विचार मनुष्य को अच्छी जीवन-दशाएं प्रदान करते हैं।’’ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में महात्मा गांधी का सामना असीम गन्दगी से हुआ। कई बार उन्होंने स्वयं झाड़ू लेकर दूसरों का भी पाखाना साफ किया। अपनी भारत-यात्रा के दौरान भी रेल के तृतीय श्रेणी के डिब्बे में व्याप्त गन्दगी का साम्राज्य तथा काशी की गलियों में फैली हुई गन्दगी ने उनके मन को आहत किया। स्वतंत्रता आंदोलन के समय भी उन्होंने स्वच्छता के आग्रह को विस्मृत नहीं किया था। महात्मा गांधी का कहना था, ‘‘स्वच्छता अच्छे विचारों को जन्म देती है और अच्छे विचार मनुष्य को अच्छी जीवन-दशाएं प्रदान करते हैं।’’
  यदि महात्मा गांधी के विचारों को अपनाकर स्वच्छता को जीवन का अंग बना लिया जाए तो नागरिकों को स्वस्थ तन-मन की सम्पदा मिल सकती है। वस्तुतः महात्मा गांधी का प्रत्येक विचार हर युग में हर परिस्थिति में प्रासंगिक है और रहेगा। यदि उनके मर्म को भली-भांति समझकर उसे आत्मसात किया जाए।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’)
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