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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, October 7, 2020

चर्चा प्लस | राजनीतिक बिसात पर बेटियां और बलात्कार | डाॅ शरद सिंह

चर्चा प्लस 
राजनीतिक बिसात पर बेटियां और बलात्कार
  - डाॅ शरद सिंह
एक ग़रीब, दलित परिवार की बेटी....पहले बलात्कारियों की बर्बरता की भेंट चढ़ी और अब राजनीतिक बिसात की मोहरा बना दी गई है। क्या कहा जाए इसे - प्रशासनिक दुराव, सियासी हठधर्मिता या बेटियों की परवाह का ढोंग? ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ लेकिन बलात्कारियों से कैसे बचाओ इसका कोई ठोस जवाब है किसी के पास? कानून का मज़ाक उड़ाते अपराधी और नृशंसता की शिकार होती बेटियां....बेटियों को यह कैसा भविष्य दे रहे हैं हम?     
जब किसी लड़की के साथ बलात्कार किया जाता है तो बलात्कारियों की मानसिकता अपने कथित पुरुषार्थ के धाक जमाने की होती है। हमारे देश में बलात्कारियों के लिए कड़े कानून बनाए गए हैं लेकिन कहीं तो झोल है, जिसके चलते बलात्कारियों के हौसले दिन प्रति दिन बढ़ते जा रहे हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि पिछले कुछ दशकों से सामूहिक बलात्कार और बलात्कार के बाद नृशंसतापूर्वक हत्या किए जाने के मामलों में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है। यूं तो निर्भया कांड के बाद से बलात्कार पीड़िता का नाम मीडिया में उजागर नहीं किया जाता है किन्तु पीड़िता के माता-पिता, पीड़िता से संबंधित समाज-कुटुम्ब के प्रतिष्ठित व्यक्तियों एवं अधिकांश मीडिया द्वारा बालिग पीड़िता का नाम दुनिया के सामने रखा गया है ताकि उसकी परिस्थितियां और उसकी पीड़ा को सभी समझ सकें। अतः मैं भी अपने इस लेख में उस बेटी की चर्चा उसके नाम से ही कर रही हूं। जी हां, उत्तर प्रदेश के हाथरस की मनीषा बाल्मीकि बलात्कार कांड ने तो मानवता की सभी सीमाएं लांघ दीं। मृत्यु के बाद भी नृशंसता और अमानवीयता ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। दरअसल, स्थितियां उस दोराहे पर आ खड़ी हुई हैं जहां यदि घटना पर राजनीति न हो तो घटना आसानी से दबा दी जाती है और यदि राजनीति होती है तो उसे वर्ग भेद, जाति भेद, अर्थ भेद आदि-आदि का रंग दिया जाने लगता है। उस समय यह भुला दिया जाता है कि वह लड़की जिसके साथ सामूहिक दुष्कर्म किया गया, वह भी एक इंसान थी। उसे मर्मांतक पीड़ाएं हुई होंगी। जब उसे अंग-भंग कर के मारा गया होगा तब उसने जो सहा होगा वह कल्पना से परे है। मनीषा गंाव की एक बेटी थी, निर्भया गांव से आ कर महानगर में रह रही एक बेटी थी और वह भी एक बेटी थी जोे पढ़-लिख कर वेटनरी डाॅक्टर का काम कर रही थी। तीनों लगभग एक जैसी नृशंसता की शिकार हुईं। इनमें से दो को मरा समझ कर छोड़ दिया गया और एक को जला दिया गया। यह हमारे देश की घटनाएं हैं जहां कहा जाता है कि जहां स्त्रियों की पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं। इसका अर्थ तो यही है कि पूजाघरों की बहुलता वाले हमारे देश में स्त्रियों की इस दुदर्शा को देखते हुए देवता अब यहां रहना ही नहीं चाहते होंगे।

एनडी टीवी चैनल के संवाद दाता अरुण सिंह ने हाथरस पर अपनी आंखों देखी रिपोर्ट दुनिया के सामने रखी है। उस लम्बी रिपोर्ट का एक छोटा-सा अंश ही अनेक सच्चाइयों को सामने लाने में सक्षम है। अरुण सिंह ने लिखा है-‘‘आह! वे लोग रात के अंधेरे में मृतक का अंतिम संस्कार नहीं करेंगे। यह संभव नहीं है। हाथरस जाने के दौरान उस रात ये बात मैंने अपने कैमरामैन पवन कुमार के साथ कार में कही थी। कुछ ही घंटों बाद, मुझे यकीन नहीं हो रहा था, जो मैं वहां देख रहा था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक गांव के खेत में रात के अंधेरे में 2ः30 बजे एक चिता जलाई गई, जहां केवल मुट्ठी भर पुलिसवाले मौजूद थे लेकिन परिवार का कोई सदस्य शामिल नहीं था। सामूहिक बलात्कार की शिकार 20 वर्षीय युवती का अधिकारियों द्वारा जबरन अंतिम संस्कार किया जा रहा था, जबकि परिवार के सदस्यों को उसके घर में बंद कर दिया गया था। .....उस रात मेरी अंतरात्मा को भावनाएं चुनौती दे रही थी। मैंने इस तरह के दाह संस्कार की उम्मीद नहीं की थी लेकिन मन-मस्तिष्क में चिता को आग देने वाले दृश्यों के उमड़ने-घुमड़ने के साथ ही सोया था। क्या इस देश में एक गरीब को गरिमा के साथ मरने का भी सौभाग्य नसीब नहीं है?’’

प्रशासन को इतनी जल्दी थी मनीषा बाल्मीकि के निर्जीव शरीर से मुक्ति पाने की कि परिवारजन को भी नहीं बुलाया गया उसका दहन करते समय। इसी दौरान एक रिपोर्ट सामने आई कि मनीषा के साथ बलात्कार हुआ ही नहीं था। ज़ाहिर है कि इस रिपोर्ट के क्रास एक्जामिन के लिए मृत शरीर भी उपलब्ध नहीं है। 

घटना 14 सितंबर, 2020, उत्तर प्रदेश के हाथरस जिले के चंदपा थाने के बूलगढ़ी गांव की है। करीब बीस साल की मनीषा अपनी मां के साथ जानवरों के लिए चारा लाने के लिए खेतों में गई थी। वहां चार सवर्ण युवकों ने उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया, और पूरी नृशंसता से उसकी रीढ़ की हड्डी तोड़ी और जीभ काटकर उसे मरा समझकर छोड़कर भाग गए। उसी दिन खून से लथपथ मनीषा को गंभीर हालत में जिला अस्पताल ले जाया गया। किन्तु वहां से उसे नाजुक अवस्था में ही मेडिकल कालेज अलीगढ़ भेज दिया गया। वहां वह 14 दिन रही, पर कोई सही उपचार नहीं मिला। हालत बिगड़ने पर उसे 28 सितम्बर को दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल भेज दिया गया, जहां ऑक्सीजन की कमी से, 29 सितम्बर की सुबह उसने दम तोड़ दिया। इस पूरे मामले में पुलिस और प्रशासन की भूमिका बेहद शर्मनाक रही। पहले तो पुलिस ने रिपोर्ट ही दर्ज नहीं की, और परिवार वालों को धमकाती रही। वह बलात्कार की घटना से इनकार करती रही। जब रिपोर्ट लिखी गई, तो जानलेवा हमले की रिपोर्ट लिखी गई, जब मनीषा ने दुष्कर्म का बयान दिया, तो उसमें छेड़छाड़ की धारा 354 जोड़ी गई। पहला आरोपी भी पांच दिन के बाद 19 सितंबर को गिरफ्तार किया गया। उसके भी कई दिन बाद अन्य तीन आरोपी गिरफ्तार किए गए। ये गिरफ्तारियां सामाजिक दबाव की वजह से हुईं। पुलिस के अधिकारियों ने मनीषा की लाश को उसके परिवार वालों को न सौंपकर उसे अपने कब्जे में ले लिया और रात के अंधेरे में ही परिवार के लोगों की मर्जी के बिना ही रात 2ः30 बजे उसको जला दिया। जबकि भारतीय हिन्दू संस्कृति में रात्रि में दाहसंस्कार किया ही नहीं जाता है। फिर मनीषा की मृतदेह को तो विधि-विधान क्या दिन का उजाला भी नसीब नहीं हुआ।

मनीषा बलात्कार कांड पर हो रही राजनीति को बेशक हम कोस सकते हैं लेकिन यदि विपक्षी नेता मनीषा के गांव पहुंचने की ज़िद नहीं करते तो क्या वहां की नाकेबंदी की सच्चाई दुनिया के सामने आ पाती? यदि मीडिया गांव में प्रवेश करने की ज़िद नहीं करता तो क्या प्रशासनिक हठ का दृश्य सामने आ पाता? लेकिन इन सवालों के बीच सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि सारी सच्चाई सामने होते हुए भी मनीषा को क्या जल्दी न्याय मिल सकेगा? जबकि सात साल का लम्बा समय लग गया निर्भया को न्याय पाने में। बलात्कार के मामले में न्याय की चर्चा करते समय अभी अधिक समय नहीं गुज़रा है उस घटना को हुए जब वेटनरी डाॅक्टर के बलात्कार एवं हत्या के दोषी कुछ समय बाद ही पुलिस एन्काउंटर में मारे गए थे और देश की जनता ने इस एन्काउंटर पर हर्ष व्यक्त किया था। लेकिन सभी जानते हैं कि यह कोई ऐसा कानूनी तरीका नहीं था जिससे बलात्कार की घटनाओं पर रोक लगाया जा सके। यह परिस्थितिजन्य घटना थी जिसने उस डाॅक्टर को शीघ्र न्याय दिला दिया। हमेशा ऐसा होना संभव नहीं है और उचित भी नहीं है। इससे निर्दोष भी शिकार सकते हैं। बहरहाल, आंकड़े देश में बलात्कार की भयावहता का जो इतिहास लिखते जा रहे हैं वह हमारी संस्कृति पर, हमारी भारतीयता पर करारा तमाचा है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार 2018 महिलाओं ने करीब 33,356 बलात्कार के मामलों की रिपोर्ट की। एक साल पहले 2017 में बलात्कार के 32,559 मामले दर्ज किए गए थे, जबकि 2016 में यह संख्या 38,947 थी।  दूसरी ओर एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक देश में दुष्कर्म के दोषियों को सजा देने की दर सिर्फ 27 प्रतिशत है। एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि हत्या, अपहरण और महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों में पिछले साल के मुकाबले बढ़ोतरी हुई है। 2018 के आंकड़ों के मुताबिक देश में हर दिन औसतन करीब 80 लोगों की हत्या कर दी जाती है। इसके साथ ही 289 अपहरण और 91 मामले दुष्कर्म के सामने आते हैं।

लड़कियों के साथ बलात्कार की घटनाएं रुकने का नाम नहीं ले रही हैं? आखिर क्या कारण है कि कानून का डर समाप्त हो गया है? या राजनीति न्याय के राह में बाधा बन रही है? जबकि बलात्कार जैसे जघन्य अपराध पर सभी राजनीतिक दलों को एकजुट हो कर न्याय का रास्ता आसान बनाना चाहिए। बेटी किसी भी धर्म, जाति, समुदाय की हो, बेटी तो आखिर बेटी होती है, एक हाड़-मांस की इंसान जिसे एक जैसी पीड़ा से गुज़रना पड़ता है। ऐसे मामले में ‘‘अगाड़ी’’ या ‘‘पिछाड़ी’’ का भेद भूल कर एक माता-पिता की तरह सोचना चाहिए कि यदि इसी तरह बलात्कार की नृशंस प्रवृत्ति बढ़ती रही तो कभी भी, किसी भी बेटी का जीवन ख़तरे में पड़ सकता है। बलात्कार के पिछले सभी अपराध बताते हैं कि समाज के हर वर्ग की एक न एक बेटी बलात्कारियों की शिकार हुई है। इसलिए बलात्कार के विरुद्ध राजनीतिक और सामाजिक दोनो एकजुटता बेहद जरूरी है।            
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(दैनिक सागर दिनकर में 02.09.2020 को प्रकाशित)
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