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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, April 14, 2021

चर्चा प्लस | बुंदेलखंड की संकटग्रस्त परंपराएं : व्यंजन-परंपरा | डाॅ. शरद सिंह


चर्चा प्लस        
 बुंदेलखंड की संकटग्रस्त परंपराएं : व्यंजन-परंपरा
         - डाॅ. शरद सिंह                                                                 
      हमारी परंपराएं हमें संस्कार देती हैं। खान-पान की परंपरा हमें खाद्य-अखाद्य और कब क्या खाना चाहिए, इस बात का बोध कराती हैं। बुंदेलखंड की व्यंजन-परंपरा बहुत समृद्ध है किन्तु बर्गर, पिज्जा, चाउमिन ने इस पर भी अपना दुष्प्रभाव डाला है। बुंदेलखंड में परंपराओं पर छाए संकट के क्रम में इस बार ‘‘चर्चा प्लस’’ में चर्चा कर रही हूं बदलती व्यंजन-परंपरा की ।
कोरोना आपदा के पहले भोपाल एक माॅल के ‘फूडजोन’ में यह देख कर सुखद आश्चर्य हुआ था कि वहां पारंपरिक बुंदेली व्यंजनों का भी एक ‘काॅर्नर’ है। उसके बाद झांसी के में भी बुंदेली फूड जोन काॅर्नर देखने को मिला। संयोगवश उन्हीं दिनों ‘इपिक चैनल’ के प्रसिद्ध टीवी शो ‘नाॅदर्न फ्लेवर’ में बुंदेली शादियों में बनाए जाने वाले पारंपरिक व्यजनों पर एक कार्यक्रम देखा जिसमें ‘सिंदोरा-सिंदोरी’ जैसे व्यंजन बनाने की विधि बताई गई थी। इन सबको देख कर मुझे वो दिन याद आ गए जब बचपन में मैं बिरचुन यानी सूखे बेर का चूरा खाती हुई इंद्रजाल काॅमिक्स पढ़ा करती थी। स्वादानुसार नमक या शक्कर डाल कर बेरचुन का गाढ़ा घोल भी बनाया जाता था। मेरी मां खाना बनाने वाली महराजिन ‘बऊ’ के साथ मिलकर छुट्टी के दिन खुरमा-पपड़ियां बनाया करती थीं। महीनों तक रखे जा सकने वाले खुरमा-पपड़िया को हम बच्चों से बचा कर रखने के लिए ढेर सारे जतन करने पड़ते थे मां को। उन दिनों लपटा और लप्सी भी हमारी जबान पर चढ़ा हुआ था। चीले की फरमाईश तो आए दिन होती थी। गुड़ डले हुए गुलगुलों का स्वाद कभी भुलाया नहीं जा सकता है। मेरे बचपन के समय इतनी मंहगाई नहीं थी। चार की चिरौंजी सस्ती मिलती थी। मुझे अच्छी तरह से याद है कि गुलगुलों में चिंरौंजियां भी डाली जाती थीं। पारंपरिक व्यंजनों का यह शौक मुझे अपनी मां से विरासत में मिला। लेकिन अब इस व्यस्त ज़िन्दगी में ऐसे बहुत कम अवसर आते हैं जब घर में कोई विशेष पारंपरिक व्यंजन बन पाता हो। रिश्तेदारों एवं परिचितों के बच्चे तो पिज्जा, बर्गर, नूडल्स और चाउमिन पर फ़िदा रहते हैं। रहा शादी-विवाह के समारोहों का सवाल तो वहां भी बुंदेली छोड़ कर विभिन्न प्रांतों के व्यंजनों के स्टाॅल लगे होते हैं, गोया बुंदेली व्यंजन रोज घरों पर बन रहे हों। यही कारण है कि बुंदेलखण्ड के पारंपरिक व्यंजन घर से बेघर होते जा रहे हैं।


ऐसा नहीं है कि बुंदेलखंड के पारंपरिक व्यंजनों का कोई मौसमी नियम ही न हो। किस मौसम में क्या खाया जाना चाहिए, इसका निर्देश साहित्य तक में मिलता है। जैसे -
चैते गुड, वैसाखे तेल, जेठे पंथ, अषाढ़े बेल
साउन साग, भादौं दही, क्वांर करेला, कातिक मही;
अगहन जीरा, पूसै धना, माघै मिसरी, फागुन चना
जो यह बारह देई बचाय, ता घर वैद कभऊं नइं जाए।।

अर्थात चैत्र मास में गुड़ का सेवन करना अहितकर है, क्योंकि नया गुड़ कफकारी होता है। वैशाख में गर्मी की प्रखरता रहती है, तेल की प्रकृति गर्म होती है इसलिए हानिकारक है। ज्येष्ठ मास में गर्मी की भीषणता रहती है अतः हल्का, सुपाच्य भोजन लेना चाहिए। आषाढ मास में बेल का सेवन नहीं करना चाहिए। और भाद्रपद में दही पित्त को कुपित करता है। आश्विन में करेला पककर पित्तकारक हो जाता है, अतएव हानिकर सिद्ध होता है। कार्तिक मास, जो कि वर्षा और शीत ऋतु का संधिस्थल है,  उसमें पित्त का कोप और कफ का संचय होता है और मही यानी मट्ठे से शरीर में कफ बढता है, इसलिए त्याज्य है. अगहन में सर्दी अधिक होती है, जीरा की तासीर भी शीतकारक है, इसलिए इससे बचना चाहिए। पौष मास में धनिया, माघ में मिसरी और फाल्गुन में चना खाना उचित नहीं होता है। इनको ध्यान में रखकर जो मनुष्य खान-पान में सावधानी रखते हैं, वे सदैव निरोग रहते हैं, उनको कभी डाक्टर-वैद्य की आवश्यकता नहीं पडती।


सावन हर्रै भादों चीत। क्वार मास गुड़ खायउ मीत।।

कातिक मूली अगहन तेल। पूस में करै दूध से मेल।।

माघ मास घिउ खींचरी खाय। फागुन उठि के प्रात नहाय।।

चैत मास में नीम बेसहनी। बैसाके में खाय जड़हनी।।

          अर्थात् सावन मास में हर्रै, भादों मास में चिरायता, क्वार मास में गुड़ कार्तिक में मूली, अगहन में तेल, पौष मास में दूध, माघ मास में घी और खिचड़ी, फागुन मास में प्रातः स्नान, चैत मास में नीम का सेवन, वैशाख मास में जड़हन का भात खाना चाहिए। अब इस तरह का खान-पान चलन से बाहर होता जा रहा है और इन कहावतों के बारे में भी कम ही लोगों को ज्ञान है।

  

रहा पारंपरिक व्यंजनों का प्रश्न तो, पूड़ी के लड्डुओं का स्वाद वह कभी नहीं भूल सकता है जिसने उन्हें अपने जीवन में एक भी बार खाया हो। ये त्यौहारों बनाए जाते हैं। (चूंकि ‘थे’ लिखने में अंतस कचोटता है अतः मैं ‘है’ ही लिखूंगी) बेसन की बड़ी एवं मोटी पूड़ियां तेल में सेंककर हाथों से बारीक मीड़ी जाती है। फिर उन्हें चलनी से छानकर थोड़े से घी में भूना जाता है। उसके बाद शक्कर या गुड़ डाल कर हाथों से बांधा जाता है। स्वाद बढ़ाने के लिए कालीमिर्च अथवा इलायची भी डाल दी जाती है। इसी तरह है हिंगोरा। बिना मठे की बेसन की कढ़ी जिसमें हींग का तड़का लगाया जाता है। आंवरिया भी इसी श्रेणी का एक व्यंजन है। आंवरिया अर्थात् आंवले की कढ़ी। इसमें सूखे आंवलों की कलियों को तेल में भूनकर सिल पर पीस लिया जाता है। फिर बेसन को पानी में घोलकर किसी बर्तन में चूल्हे पर चढ़ा देते हैं और कढ़ी पक जाने पर, चूल्हे से उतारने के पहले इसमें आंवलों का चूर्ण और नमक डाल देते हैं। इच्छानुसार इसमें लाल मिर्च, जीरा, प्याज एवं लहसुन आदि भी पीस कर डाला जाता है। फरा भी एक पारंपरिक बुंदेली व्यंजन है। इसमें गेहूं के आटे को मांड़ कर छोटी-छोटी पूड़िया बेल ली जाती हैं फिर इन्हें खौलते हुए पानी में सेंका जाता है। बफौरी, मीड़ा, निघौना, रस खीर, बेसन के आलू, फरा, अद्रेनी, थोपा, पूड़ी के लडडू, महेरी या महेई, करार, मांडे, एरसे या आंसे, लपटा, हिंगोरा, आंवरिया, ठोमर, ठड़ूला, डुबरी, कचूमर, कुम्हड़े की खीर, गुना, खाकड़ा, लप्सी, रसाजें, खींच, बिरचून, लुचई, गकरिआ, पपड़िया, टिक्कड़, बरी, बिजौरा, कचरिया, खुरमा-खुरमी, बतियां आदि अनेक ऐसे व्यंजन हैं जो बुंदेली रसोई के अभिन्न अंग हुआ करते थे किंतु अब ये इतालवी या चाइनीज़ फूड तले दबते जा रहे हैं। जबकि इनमें से अनेक ऐसे व्यंजन हैं जो ‘फास्ट फूड’ की श्रेणी में रखे जा सकते हैं।


यूं तो हमारे देश में व्यंजनों की संख्या का निर्धारण आमतौर पर छप्पन प्रकार के व्यंजनों के रूप में किया जाता है, किंतु बुंदेलखंड में सौ से भी अधिक प्रकार के व्यंजन बनाए जाते रहे हैं। दुख तो तब होता है जब इन व्यंजनों में से कुछ को ‘स्ट्रीट फूड’ की श्रेणी में गिना जाता है। जो बुंदेली रसोईघर के राजा-रानी हुआ करते थे वे आज ‘स्ट्रीट फूड’ के रूप में बिकते हैं। यही है बाज़ारवाद का चमत्कार जिसने पारंपरिक व्यंजनों को घरों से बेघर कर के माॅल के आलीशान फूडजोन में पहुंचा दिया है जहां इनमें से कुछ व्यंजनों का अस्तित्व तो बचा हुआ है लेकिन दस रुपए के सामान को सौ रूपए में खरीद कर यह झूठा गुमान भी पालने का शगल आ गया है कि हम अपने पारंपरिक व्यंजनों को लुप्त होने से बचा रहे हैं। यद्यपि बुंदेलखंड में आयोजित किए जाने वाले बुंदेली उत्सव इन पारंपरिक व्यंजनों को पुनः चलन में लाने में अपनी महती भूमिका निभा रहे हैं तथा साहित्यकार पारंपरिक बुंदेली व्यंजनों को पुस्तकाकार सहेज भी रहे हैं किंतु ये तभी चलन में लौट सकते हैं जब ये एक बार फिर हर घर की रसोई का हिस्सा बन जाएं। (क्रमशः)
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(दैनिक सागर दिनकर 14.04 .2021 को प्रकाशित)
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8 comments:

  1. बहुत नयी जानकारी मिल रही ... बहुत बढ़िया लेख ...

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    1. हार्दिक धन्यवाद संगीता स्वरूप जी 🌹🙏🌹

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  2. प्रिय शरद जी , ईश्वर से प्रार्थना है कि आपको और वर्षा जी को दुख सहने की शक्ति दे और माँ जी की पुण्य आत्मा को शांति🙏🙏

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  3. कृपया शुक्रवार के स्थान पर रविवार पढ़े । धन्यवाद.

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  4. बेहतरीन लेख आदरणीया

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  5. बुन्देलखण्डी व्यंजनों के बरे में जानने को मिला सही कहा आपने अपनी व्यंजन परम्परा वाकई संकट के घेरे में हैं जबकि हमारे देश के व्यंजन विशेष देशकाल व जलवायु मौसम पर आधारित होते थे किस मौसम में शरीर को क्या सुलभता से पचता है वही व्यंजन विशेष उसी मौसम में बनाए खाये जाते थे और सभी निरोग रहा करते थे...पूरे देश में विभिन्न प्रान्तों के अपने अपने व्यंजन विशेष है इसके पीछे बहुत बड़ा कारण था...यहाँ तक कि हर पजगह की फसलें भी समान नहीं हैं और देखा जाय तो अपना भोजन विशेष ही पाचन मेंसुगम भी लगता है फिर भी ये इटैलियन चायनीज फूड्स के चसके हमें ऐसे लगे कि कपना व्यंजन छोड़ हम वही खाने लगे हैं और बीमारियों को खुद ही दावत दे रहे हैं।
    बहुत ही विचारणीय एवं लाजवाब लेख।

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  6. वाह शरद जी, पारंपर‍िक व्यंजनों की ओर झुकाव और इनका कॉमर्श‍िएलाइजेशन बहुत अच्छा है नई पीढ़ी को अपनी ज़मीन से जोड़े रखने के ल‍िए..खासकर कोरोना टाइम में तो ये आत्मन‍िर्भरता की ओर कदम है और दादी नानी की रसोई से पर‍िचय भी...बहुत खूब

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  7. बेहतरीन लेख

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