आंकड़े, अविश्वास और अव्यवस्था से जूझता कोरोना काल
- डाॅ शरद सिंह
कोरोना का दूसरी लहर इतनी भयावह होगी, यह किसी ने सोचा भी नहीं था। हर पांचवें परिवार ने अपने परिजनों को खोया है। दुर्भाग्यवश यह सिलसिला जारी है। मृत्यु के आंकड़े विश्वरिकाॅर्ड तोड़ रहे हैं और जीवनरक्षक दवाओं, इंजेक्शनों की कालाबाज़ारी, नकली दवाएं, दूषित आॅक्सिजन व्यवस्था इंसानीयत को निरंतर शर्मसार कर रही है। क्या ऐसा वातावरण हमें इस आपदा से जल्दी मुक्ति की उम्मींद दिला सकता है? जबकि ब्लैक फंगल जैसी ख़तरनाक बीमारी भी अपना जाल फैलाने लगी है। सच तो ये है कि दवा के साथ ही ज़रूरत है व्यवस्था सुधारने, इंसानीयत बचाने और आपसी विश्वास पैदा करने की।
पहले कोरोना काल में समय पर सख़्ती से लाॅक डाउन लगाया गया था जिसके अच्छे परिणाम भी सामने आए कि कोरोना संकट सिमटने लगा था। मार्च 2021 तक संक्रमितों के आकड़ों में ज़बर्दस्त गिरावट आ गई थी। लग रहा था कि अब सब कुछ ठीक होने वाल है। लेकिन कुछ लापरवाहियों ने सब कुछ घ्वस्त कर दिया। अप्रैल 2021 में कोरोना ने अपना विकराल रूप दिखाया जो अभी तक ज़ारी है। समाचार ऐजेंसीज के आंकड़ों के अनुसार देश में अब तक कुल 2,79,181 मौतें कोरोना से हुई हैं। इस दौरान मैं भी अपनी दीदी डाॅ वर्षा सिंह को कोरोना संक्रमण के चलते खो दिया। हृदयविदारक अनुभव रहा मेरे लिए। जिससे कुछ प्रश्न मेरे मन में उपजे कि कोरोना में ईलाज के साथ ही विश्वास बढ़ाए जानंे और व्यवस्थाओं को सुधारे जाने की सख़्त ज़रूरत है।
स्थिति एक - कोरोना संक्रमित होने वाले मरीज़ को जब अस्पताल में भर्ती किया जाता है तो संक्रमण रोकने के लिए कोविड वार्ड में मरीज के परिजन को जाने नहीं दिया जाता है। बेशक यह संक्रमण का फैलाव रोकने के लिए ज़रूरी है। लेकिन यही से शुरू होती है मानसिक समस्याएं। मरीज के परिजन अपने मरीज को भर्ती करने के बाद उसे देख तक नहीं पाते हैं। यद्यपि मोबाईल फोन पर बातचीत की अनुमति रहती है लेकिन यह तभी तक संभव हो पाता है जब तक मरीज बात करने की स्थिति में रहता है। फेफड़ों के संक्रमण से ग्रस्त मरीज अधिक देर तक बात नहीं कर पाता है तथा स्थिति बिगड़ने पर तो बातचीत बंद ही हो जाती है। यह स्थिति परिजन और मरीज दोनों के लिए मनोबल गिराने वाली होती है। एकाकी रह गए मरीज का मनोबल टूटने लगता है और उसकी वायरस से लड़ने की क्षमता कम होती जाती है। दुर्भाग्यवश मैंने इस स्थिति को स्वयं महसूस किया है मरीज के परिजन की हैसीयत से। जब संवाद की एकमात्र कड़ी भी टूटने लगती है तो जो असहाय स्थिति महसूस होती है, उसे बयान कर पाना संभव नहीं है।
स्थिति दो - आए दिन नकली इंजेक्शन बेचे जाने की घटनाएं सामने आ रही हैं। हैवानीयत की हद तो यह है कि इंजेक्शन के नाम पर नमक-शक्कर का घोल बेच कर कोरोना संक्रमितों के जीवन से खिलवाड़ किया जा रहा है। वैसे इसे खिलवाड़ के बजाए इरादतन हत्या कहा जाना चाहिए। नकली दवा बेचने वालों पर सीधे इरादन हत्या का केस ही दर्ज़ किया जाना चाहिए और मुकद्दमा भी फास्टट्रैक कोर्ट में चलाया जाना चाहिए। इस आपदा के समय में जो लोग दवाओं की कालाबाज़ारी कर रहे हैं और ऊंचे से ऊंचे दाम में दवाएं बेंच रहे हैं वे भी देशद्रोह और इरादतन हत्या के दोषी ठहराए जाने चाहिए। विचारणीय है कि पिछले एक साल से अधिक समय से देश आर्थिक मंदी के दौर से गुज़र रहा है। बड़े पैमाने पर नौकरिया छूट चुकी हैं। छेाटी दूकानें बंद पड़ी हैं। हम्माल और मज़दूर जैसे रोज कमाने वाले एक-एक रोटी के लिए जूझ रहे हैं। ऐसी विकट स्थिति में इंसानीयत को धोखा देने वालों के विरुद्ध कठोर कदम उठाए जाने की ज़रूरत है।
नकली दवाओं और नहीं इंजेक्शन के मामलों के कारण भय और अविश्वास का वातवारण पैदा हो गया है। अस्पताल में भर्ती मरीज को असली इंजेक्शन मिल पाया या नहीं यह संदेह उस स्थिति में और अधिक विकराल रूप ले लेता है जब मरीज की मृत्य हो गई हो। परिजन यह सोच-सोच कर हलाकान होता रहता है कि उसके मरीज़ को असली इंजेक्शन मिला था या नहीं? इसके लिए अस्पतालों में परदर्शिता की सख़्त ज़रूरत है।
स्थिति तीन - प्रायवेट अस्पतालों में भारी-भरकम फीस का बोझ होता है जिसे ग़रीब तबका नहीं उठा सकता है। वहीं, सरकारी अस्पतालों, मेडिकल काॅलेजों में बनाए गए कोविड सेंटर्स में प्रबंधन की कमी है। आईसीयू या वेंटिलेटर में रखा गया कोविड मरीज स्वयं गिलास उठा कर पानी नहीं पी सकता है। उसे हर समय एक अटैंडेंट की आवश्यकता होती है। जिसकी व्यवस्था सरकारी अस्पतालों में नहीं है। होता यह है कि प्यास लगने पर मरीज जैसे तैसे अपने परिजन को फोन लगाता है। घर में बैठा परिजन अपने मरीज तक पानी पहुंचवाने के लिए ऐड़ी-चोटी का ज़ोर लगाता है और मरीज को पानी पिलाए जाने में पर्याप्त देर हो चुकी होती है। यह तो एक छोटा-सा उदाहरण है जिसे मैंने स्वयं झेला है। इसी तरह खाने से ले कर वाॅशरूम तक की सारी समस्याएं मुंह बाए खड़ी रहती हैं। काम ज़्यादा और स्टाफ कम। यानी हम अभी भी आपदा का सामना करने के लिए तैयार नहीं हो सके हैं।
प्रश्न यह है कि इस अव्यवस्था और अविश्वास को कैसे दूर किया जाए? इसका सबसे पहला उपाय तो यह है कि सीसीटीवी के ज़रिए बड़े स्क्रीन पर मरीज और उसके परिजन को परस्पर देखने का अवसर उपलब्ध कराया जाए। जब चुनावी आयोजनों में और मनोरंजन के आयोजनों में आसानी से बड़े स्क्रीन और लाईव प्रदर्शन की व्यवस्था हो सकती है तो जीवन-मरण के प्रश्न वाली जगह में यानी अस्पतालों में यह व्यवस्था क्यों नहीं कराई जा सकती है। इससे मरीज और उसके परिजनों के मनोबल में वृद्धि होगी और वह इलाज और आंतरिक व्यवस्थाओं को ले कर आश्वस्त रह सकेगा।
दूसरा उपाय है कि चाहे आपात भर्ती की जाए अथवा वालेंटियर सेवाएं बढ़ाई जाएं लेकिन सिर्फ एक घंटी की दूरी पर मरीज के लिए अटैंडेंट की व्यवस्था उपलब्ध रहे। जिससे खाना, पानी, वाॅशरूम या आॅक्सिजन सप्लाई में कोई भी असुविधा होने पर वह बेड में लगी घंटी दबा कर तुरंत सहायता पा सके। यह भी जीवनरक्षा की दिशा में एक महत्वपूर्ण जरूरत है। मरीज को यह महसूस न होने पाए कि वह अलग-थलग असहाय अवस्था में है और उसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। इससे मरीज मानसिक तौर पर टूटने लगता है और उसकी प्रतिरोध क्षमता शिथिल पड़ने लगती है। इस स्थिति में स्वयंसेवक बड़ी मदद कर सकते हैं। वे अपनी इच्छाशक्ति से मरीज की उचित देख-भाल कर सकते हैं।
तीसरा उपाय है कि स्वच्छता का हर संभव ध्यान रखा जाए। ऐसे समय में यह और भी ज़रूरी है जबकि ब्लैक फंगल जैसी बीमारी पांव पसारने लगी है। ऑक्सीजन यंत्रों की पूर्ण स्वच्छता जरूरी है। हाईजीन या स्वच्छता इस समय सबसे अधिक जरूरी है।
मैंने तो अपनी दीदी को खो दिया है लेकिन मैं नहीं चाहती हूं कि इस पीड़ा से और लोग भी गुज़रें। आम नागरिकों, नेताओं, पत्रकारों और जनसेवकों को इसके लिए सामूहिक कदम उठाना होगा जिससे विश्वास और व्यवस्था कायम हो सके तथा कोरोना से मरने वालों के आंकड़ों में वास्तविक गिरावट आ सके। गलतियां क्या हुईं इस पर बहस करने के बजाए सुधारा क्या जा सकता है इस पर ध्यान दिया जाना जरूरी है यदि हम चाहते हैं कि देश को कोरोना महामारी से छुटकारा मिल जाए और जो बचे हुए हैं वे सुरक्षित बचे रहें।
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(दैनिक सागर दिनकर 20 .05 .2021 को प्रकाशित)
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