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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, August 17, 2021

पुस्तक समीक्षा | अंतर्मन को अभिव्यक्त करती कविताएं | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

प्रस्तुत है आज 17.08. 2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि जे. पी. लववंशी के काव्य संग्रह "धूप को तरसते गमले" की  समीक्षा...
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
अंतर्मन को अभिव्यक्त करती कविताएं
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - धूप को तरसते गमले
कवि       - जे. पी. लववंशी
प्रकाशक    - कलमकार मंच, 3,विष्णु विहार, दुर्गापुर, जयपुर
मूल्य       - 150/-
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‘‘धूप को तरसते गमले’’ कवि जे.पी. लववंशी का दूसरा काव्य संग्रह है। इससे पूर्व ‘‘मन की मधुर चेतना’’ नामक एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है। उनका ताज़ा काव्य संग्रह ‘‘धूप को तरसते गमले’’ तुकांत-अतुकांत कविताओं का रोचक संग्रह है। इन कविताओं से हो कर गुज़रने पर यह अनुभव होता है कि कवि की दृष्टि जीवन के विविध पक्षों पर है और वे उन पक्षों का आकलन करते हुए तथ्यों को अपने मन में तौलते हैं, जांचते हैं, परखते हैं और फिर काव्य रूप में ढाल देते हैं। यूं भी, कविता मनुष्य के सुख-दुःख की सहज अभिव्यक्ति है। काव्य हमें चेतना प्रदान करता है और कुछ करने की ही नहीं, कुछ कर गुजरने की भी प्रेरणा देता है। कविता  देश-दुनिया और समाज से मनुष्य को बारीकी से जोड़ती है। यही कारण है कि कविता केवल साहित्य ही नहीं है, बल्कि वह समस्त विषयों को साथ ले कर चलती है। कविता हमें संवेदना के उस स्तर तक ले जाती है, जहां केवल विश्वास की दुनिया फल-फूल रही होती है, अविश्वास का कोई काम नहीं होता है। शोक, पीड़ा से ऊपर उठ कर वर्तमान की विसंगतियों तथा भविष्य की संभावनाओं पर गौर करना भी कवि का ही दायित्व होता है।
जे.पी. लववंशी की कविताओं में आशावादिता का प्रबल आह्वान है। वे जीवन के प्रत्येक त्रासद प्रसंग के बीच सब कुछ बेहतर हो जाने की बात करते दिखाई देते हैं। जैसे उनकी एक कविता है ‘‘फिर से होगा सवेरा’’। इस कविता में कटे हुए पेड़ से नई कोंपलें फूटने जैसा विश्वास प्रकट किया गया है-
फिर से होगा सवेरा
खुशियों की होगी धूम
हटा दो मन की निराशा
ले विश्वास खूब झूम।
दुख के काले-काले बादल
छंट जाएंगे ओ मेरे यार
हर घर राशन पानी होगा
खिलखिलाएगा परिवार।

कवि ने अपनी कविताओं में जल, जंगल और गांवों की भी बात की है। वे जल की कमी को ध्यान में रखते हुए जल संरक्षण के लिए आवाज़ उठाते हैं और जल की महत्ता को ध्यानाकर्षण में रखते हैं। ‘‘फिर नहीं होगा कल’’ कविता की कुछ पंक्तियां देखिए-
जल है अमृत तुल्य
पहचानो इसका मूल्य
जुड़ा है इससे जीवन
बचा लो अपने वन
जल बिन है सब सूना
खोज रहे हम हर कोना
धरा का सोना है
नहीं इसको खोना है।

कवि जे.पी. लववंशी जब गांवों की बात करते हैं तो उनकी कविता पहले ही उद्घोष करती है कि ‘‘दिल में मेरे गांव बसता’’। इसके बाद अपने दिल में बसे हुए गंाव की खूबियां उनकी कविता में शब्दबद्ध होती चली जाती हैं। इसी कविता से उदाहरण -
दिल में मेरे गांव बसता
जुबां पर यही नाम रहता
बड़े-बूड़ों का सम्मान पाते
सबसे सदा राम-राम करता
सूरज को भगवान मानते
चंदा यहां मामा कहलाते
पेड़-पौधे संगी-साथी हमारे
सबको मिल कर खूूब हंसाते।

कवि पर्यावरण और वन संपदा के प्रति चिंतित है। कवि की यह चिंता स्वाभाविक है। जंगलों की अवैध कटाई और शहरों में वृ़क्षों की कमी ने पर्यावरण को संकट में डाल रखा है। ऐसे विपरीत समय में कवि जे.पी. लववंशी पेड़ों की विशेषताएं गिना कर प्रकृति को बचाने का लक्ष्य तय करते हैं। उनकी ‘‘पेड़’’ शीर्षक रचना तथ्यात्मक निवेदन के रूप में दिखाई देती है-
ठंडी-ठंडी छाया देते
मीठे-मीठे फल लगते
पंछियों का बनते बसेरा
सबको दिखाते नया सवेरा
रोज-रोज कट रहे
बंजन धरा सब कहे
मूक हो कर सब सहे
पेड़ों बिना माटी बहे।           

पर्यावरण संरक्षण की बुनियाद है वृक्षों, पेड़ों का होना। पेड़ों के न होने से भू-क्षरण बढ़ जाता है। इसीलिए कवि खुल कर कहता है कि ‘‘पेड़ न तुम काटो’’। साथ ही पेड़ों से होने वाले लाभों को भी गिनाता है-
पेड़ न तुम काटो
यही संदेश बांटो।
पेड़ हमारे....
धरती के हैं रक्षक
प्रदूषण के भक्षक
धूप में सबको छाया देते
तुम मजे से मीठे फल खाते
पंछी पेड़ों पर बनाते बसेरा
और पंथी का बनते सहारा
बारिश को पास बुलाते
सब के मन को भाते।
जे.पी. लववंशी की कविताएं सामाजिक सरोकार रखती हैं। रोज़गार की तलाश में गांव से शहर की ओर पलायन करने वाले मजदूरों की विवशता और दुरावस्था की ओर ध्यानाकर्षित करते हुए कवि ने ‘‘रोटी’’ शीर्षक कविता में लिखा है कि किस प्रकार कोरोना आपदा में लगाए गए लाॅकडाउन के दौरान शहर में काम करने वाले श्रमिकों को शराणार्थियों के समान भटकते हुए घर वापस लौटना पड़ा क्यों कि उनके मालिकों ने उन्हें बेरोज़गार कर दिया-
रोटी की लगा कर आस
गांव छोड चला था शहर
आई एक विपदा भारी
टूट पड़ी बन कर कहर।
अपना पसीना सींच-सींच कर
मालिक को किया मालामाल
जब हुआ काम सारा बंद
हमें बाहर किया, हुए बेहाल।
रात-दिन चल रहे भूखे-प्यासे
मिलता नहीं कोई ठौर ठिकाना
चल पड़े हम अपने गांव की ओर
हे ईश्वर! ऐसे दिन फिर न दिखाना।

‘‘धूप को तरसते गमले’’ में कुछ दोहे भी हैं। इनमें से सावन पर लिखे गए दोहे मधुर और रोचक हैं किन्तु इनमें अतीत और वर्तमान के सावनी परिदृश्य में आ चुके अंतर को स्पष्ट किया गया है-
ऐसा सावन खो गया, जब खिलते थे फूल।
रिश्तों में थी मधुरता, कभी नहीं थे शूल।।
पेड़ों पर झूले नहीं, नहीं बचा आनंद।
ऐसा सावन खो गया, जब गाते थे छंद।।
रिमझिम-रिमझिम न बरसे, सावन की बौछार।
ऐसा सावन खो गया, कैसे हो त्योहार।।
बाहर सब जन बैठ के करते थे दो बात।
ऐसा सावन खो गया, गुमसुम बैठे तात।।

जे.पी. लववंशी का कविता संग्रह ‘‘धूप को तरसते गमले’’ की कविताएं जहां एक ओर संस्कृति और संस्कार का आह्वान करती हैं तो वहीं दूसरी ओर अव्यवस्था पर चोट भी करती हैं। कविताओं के शिल्प के रूप-रंग में विविधता होने के बावजूद स्वर एक जैसा है। कविताओं में जीवन की वास्तविकताओं से सामना और मानवीय संवेदना के बारीक तंतुओं की बुनावट है। जीवन का उल्लास और विश्वास भी कविताओं में गुंथा है। भाषा मूलतः सरल सामान्य बोलचाल की खड़ीबोली हिन्दी है, जो स्पष्ट भावसम्प्रेषण में समर्थ है। इस संग्रह में संग्रहीत कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता है कि ये सभी 116 कविताएं अंतर्मन से उपजी हुई  हैं इसीलिए इनके भाव मन को छूने में सक्षम हैं।
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