Pages

My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, August 31, 2021

पुस्तक समीक्षा | शुभाकांक्षाओं से संवाद करती काव्य रचनाएं | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

प्रस्तुत है आज 31.08. 2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवयित्री जयन्ती खरे 'जया' के काव्यसंग्रह "सस्मिता" की  समीक्षा...
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
--------------------------------------


पुस्तक समीक्षा
शुभाकांक्षाओं से संवाद करती काव्य रचनाएं 
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
---------------------------
पुस्तक      - सस्मिता
कवयित्री    - जयन्ती खरे ‘‘जया’’
प्रकाशक    - साहित्य सदन, जया भवन,तिली अस्पताल रोड, तिली वार्ड, सागर (म.प्र.)
मूल्य       - 80/-
---------------------------
एक  लोरी  जगी  थी सुलाने मुझे 
किन्तु लोरी स्वयं जागरण बन गई।

इन पंक्तियों की कवयित्री जयन्ती खरे ‘‘जया’’ का सद्यः प्रकाशित काव्य संग्रह ‘‘सस्मिता’’ सुंदर भावनाओं की एक हृदयग्राही प्रस्तुति है। ‘‘सस्मिता’’ का अर्थ होता है मुस्कुराहट सहित और संग्रह की कविताएं एक मुस्कुराहट की तरह हृदय को प्रफुल्लित करने में समर्थ हैं। कवयित्री जयन्ती खरे ‘‘जया’’ का जन्म 18 जुलाई 1944 को हुआ था और 27 अगस्त 2008 को उन्होंने इस संसार से विदा ले ली। किन्तु अपनी कोमलकांत रचनाओं के रूप में सदा के लिए अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा गई हैं। इस संग्रह की काव्य रचनाओं की चर्चा के पूर्व इसके एक संवेदनशील पक्ष पर ध्यान देना आवश्यक है कि इसे जयन्ती खरे के जीवनसाथी जगदीशचंद्र श्रीवास्तव ने प्रकाशित कराया है ताकि वे अपनी अद्र्धांगिनी के काव्यात्मक पक्ष को सहेज सकें। पाठकों और साहित्यप्रेमियों तक पहुंचा सकें। निश्चितरूप से यह कार्य प्रशंसनीय है क्योंकि वर्तमान समय असंवेदनशील हो चला है, पारिवारिक विखंडन बढ़ रहा है, छोटी-छोटी बातों में ‘‘ब्रेकअप’’ हो जाते हैं, पारस्परिक संबंधों को दीर्घ समय तक प्रेमपूर्ण बनाए रखना कठिन हो चला है। भावनात्मक दृष्टि से ऐसे विपरीत समय में ‘‘सस्मिता’’ काव्य संग्रह पारस्परिक संबंधों में उष्मा संचरण का कार्य कर सकता है। इस संग्रह की रचनाएं एक अलग ही धरातल पर शब्द-संसार रचती हैं।
‘‘सस्मिता’’ का तानाबाना जयन्ती खरे ‘‘जया’’ ने अपने जीवनकाल में ही बुनना आरम्भ कर दिया था। जोकि उनके द्वारा लिखी गई प्रस्तावना से स्पष्ट होता है। उन्होंने संग्रह की प्रस्तावना में लिखा है कि-‘‘यह काव्यकृति प्रस्तुत करते हुए प्रफुल्लित हूं। विद्या देवी के पावन मंदिर में इसे आरती स्वरूप मानिए। जीवन का स्वर्णकाल छात्राओं के बीच बीता। उनकी बाल्यावस्था की प्रच्छाया का मैंने पूर्ण आनन्द लिया। विद्याधन के अतिरिक्त घरेलू जीवन के सुसंस्कार भी उन्हें सौंपे। शैक्षणिक जगत में माता सरस्वती का सानिध्य निरंतर मिलता रहा। भावनाओं केउद्वेलन ने लिखने का सामथ्र्य दिया, काव्यधारा प्रस्फुटित हुई। यह एक सहज प्रभाव रहा। वैसे काव्य लेखन मुझे विरासत में मिला। मेरे पूज्य पिता श्री अम्बिका प्रसाद ‘दिव्य’ प्रदेश के प्रख्यात साहित्यकार रहे। यही गुण ग्राह्यता मुझमें रही। अपने परिवेश में जो देखा, सुना, अनुभूत किया, उसी की प्रच्छाया ही मेरा काव्य लेखन है।’’

कवयित्री जयन्ती खरे के पिता अम्बिका प्रसाद ‘‘दिव्य’’ एक उच्चकोटि के साहित्यकार थे। उन्होंने कविताए,ं कहानियां, उपन्यास लिखे साथ ही चित्रकारी में भी उनका रुझान था। ‘‘खजुराहो की अतिरूपा’’ उनकी एक प्रसिद्ध कृति है। ऐसे विद्वत साहित्यकार की पुत्री होते हुए कोमल संवेदनाओं का जयंती खरे में पाया जाना स्वाभाविक था। लेकिन जयन्ती खरे ने अपने पिता की लेखकीय छाया को अपने ऊपर नहीं पड़ने दिया, बल्कि अपने अनुभवों को सहेजते हुए अपना स्वतंत्र कल्पनालोक रचा। लेकिन अपने जीवनकाल में वे अपने इस संग्रह को प्रकाशित नहीं करा सकीं। उनके निधन ने उनके परिवार पर वज्राघात किया और सबकुछ मानो बिखर गया। पुस्तक प्रकाशित कराने के विचार के संबंध में उनके पति जगदीशचंद्र श्रीवास्तव ने लिखा है कि -‘‘एक लम्बी शोकावधि व्यतीत करने के उपरान्त बड़े यत्न से जयन्ती जी की डायरी में लिखी हुई तथा यत्र-तत्र बिखरी हुई रचनाओं को समेट, सहेजकर एक संग्रह के रूप में प्रकाशित कराने का मेरे मन में विचार आया।’’ वे पुस्तक के नामकरण के संबंध में जानकारी देते हैं कि ‘‘मैं अकसर जयंती जी के मुख से सुनता रहता था कि बेटी सस्मिता मैं तेरे ही नाम का काव्य संग्रह छपवाऊंगी, जिसका ‘सस्मिता’ काव्य संग्रह नाम रखूंगी। लेकिन इसके पहले ही असमय काल के ग्रास में समा गई, मैंने उनके इस कथन को पूर्ण करने का प्रयास किया।’’ इस तरह देखा जाए तो यह पुस्तक पारिवारिक अंतर्संबंधों की प्रगाढ़ता की काव्यात्मक प्रतीक है।
‘‘सस्मिता’’ काव्य संग्रह की भूमिका लिखी है वरिष्ठ कवयित्री, समीक्षक एवं स्तम्भकार डाॅ. वर्षा सिंह ने। उन्होंने लिखा है-‘‘ कवयित्री जयन्ती खरे जया के काव्य में वह समग्रता दिखाई देती है जो उनकी रचनाओं की काव्यात्मकता को विश्वसनीय बनाती है। यूं तो जयन्ती जी से मेरा घनिष्ठ पारिवारिक परिचय रहा है किन्तु उनके भीतर की कवयित्री को मैंने तब जाना और समझा जब सन् 1997 में दैनिक भास्कर के सागर संस्करण के लिए मेरी माता जी डाॅ. विद्यावती मालविका ने ‘सागर संभाग की कवयित्रियां’ शीर्षक धारावाहिक लेखमाला में जयन्ती जी के काव्यपक्ष को बड़ी बारीकी से रेखांकित किया।’’ डाॅ. वर्षा सिंह जयन्ती खरे के रचनाकर्म के बारे में आगे लिखती हैं कि ‘‘सस्मिता काव्य संग्रह जयन्ती जी की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति का पिटारा है। इस संग्रह की काव्य रचनाएं छायावाद से प्रयोगवाद तक की यात्रा को स्पर्श करती हैं। उन्होंने अपने काव्य के केन्द्र में स्त्री को रखते हुए सौंदर्यबोध, प्रकृति चित्रण, पारिवारिक परिवेश, सामाजिक मूल्यवत्ता तथा सांस्कृतिक समन्वय को महत्व दिया है।’’

जयन्ती खरे की कविताओं को पढ़ते हुए जयशंकर प्रसाद युगीन छायावाद का सहसा स्मरण हो जाता है। कोमल भावनाओं को कोमल शब्दों को पिरोना जयन्ती खरे की उन कविताओं को छायावादी सांचे में उतार देता है जिनमें वे मनोउद्गार व्यक्त करने के लिए प्रकृति के तत्वों को आधार बनाती हैं। यह पंक्तियां देखिए-
कि जब कविता करती अभिसार
किरण दल छिपने लगता है
कि रवि शरमाने लगता है।
उषा आती है घूंघट डाल
नील अम्बर का बना दुकूल
डुलाता अंचल मंद समीर
ऋतु सुऋतु बन जाती अनुकूल
सघन छाया वन से गिरिराज
चंदेवा कसने लगता है
पथिक सुख पाने लगता है।

छायावादी काव्य में व्यक्तिगत भावनाओं की प्रधानता है। वहां कवि अपने सुख-दुख एवं हर्ष-शोक को ही वाणी प्रदान करते हुए खुद को अभिव्यक्त करता है। यहां सौन्दर्य का अभिप्राय काव्य सौन्दर्य से नही, सूक्ष्म आतंरिक सौन्दर्य से है। बाह्य सौन्दर्य की अपेक्षा आंतरिक सौन्दर्य के उद्घाटन मे उसकी दृष्टि अधिक रमती है। प्रकृति पर मानव व्यक्तितत्व का आरोप छायावाद की एक प्रमुख विशेषता है। छायावादी कवियों ने प्रकृति को अनेक रूपों मे देखा है। छायावाद नामकरण का श्रेय मुकुटधर पाण्डेय को जाता है. हिन्दी साहित्य के आधुनिक चरण मे द्विवेदी युग के पश्चात हिन्दी काव्य की जो धारा विषय वस्तु की दृष्टि से स्वच्छंद प्रेमभावना, प्रकृति मे मानवीय क्रियाकलापों तथा भाव-व्यापारों के आरोपण और कला की दृष्टि से लाक्षणिकता प्रधान नवीन अभिव्यंजना-पद्धति को लेकर चली, उसे छायावाद कहा गया। जयशंकर प्रसाद ने छायावाद की व्याख्या इस प्रकार की हैं-‘‘छायावाद कविता वाणी का वह लावण्य है जो स्वयं मे मोती के पानी जैसी छाया, तरलता और युवती के लज्जा भूषण जैसी श्री से संयुक्त होता है। यह तरल छाया और लज्जा श्री ही छायावाद कवि की वाणी का सौंदर्य है।’’ इस तारतम्य में जयन्ती खरे ‘‘जया’’ के इस गीत का अंश देखिए कि कितनी सुंदरता से उन्होंने छायावादी प्रवृतियों को अपनाया-
मैं प्रतिबिम्ब बनी दुनिया की
दुनिया भरी समेट हृदय में।
जब आया आनंद कहीं से
मानस में सागर लहराया
ज्वार उठे उत्तुंग गगन को
मन में मन भी नहीं समाया
मैं प्रतिबिम्ब बनी सागर की
सागर भरा समेट प्रणय में।

छायावादी काव्य मे वेदना और करुणा की अधिकता पाई जाती है। छायावादी कवियों ने जीवन के प्रति भावात्मक दृष्टिकोण को अपनाया है। इसका मूल दर्शन सर्वात्मवाद है। सम्पूर्ण जगत मानव चेतना से स्पंदित दिखाई देता है। यही विशेषता जयंती खरे की काव्य रचनाओं में भी देखी जा सकती है-
मैं गीत बनाती उन भावों के
जिनको कहीं न भवन मिले।
भटक रहे जो अंतरिक्ष में
जिनकी कोई रूप न रेखा
जिनने देखा नहीं विश्व को
नहीं विश्व ने जिनको देखा
मैं मूर्ति बनाती उन सपनों की
जिनको कहीं न नयन मिले।

जयन्ती खरे ने देशभक्ति की कविताएं भी लिखीं। उनकी कविताओं में मातृभूमि भारत का स्नेहिल गुणगान है। देश की प्रतिष्ठा को सम्पूर्ण विश्व के ऊपर देखने की इच्छा उनकी कविता में परिलक्षित होती है। उनकी ये पंक्तियां देखिए-
भारत के अनुरूप बनेगें हम उसके श्रृंगार
उच्च बनेंगे हिमगिरि जैसे, चूमेंगे आकाश
खड़े दिखेंगे पृथक सभी से, करके पूर्ण विकास
देवों से हम बात करेंगे, देखेगा संसार

जयन्ती खरे ‘‘जया’’ की काव्य रचनाएं देश के प्रति, जगत के प्रति, प्रत्येक मानव के प्रति, प्रकृति के प्रति तथा स्वयं के प्रति शुभाकांक्षाओं से संवाद करती रचनाएं हैं। ‘‘सस्मिता’’ काव्य संग्रह की सभी रचनाएं मन को बहुत स्नेह से स्पर्श करती हैं और फिर पढ़ने वाले को अपना बना लेती हैं। जयन्ती खरे के भावसंसार को समझना और उसमें सकारात्मक भाव बनाए रखना ही उनकी कविताओं के मर्म को समझने का मनस्वी मार्ग है। माधुर्य और बिंब-प्रतिबिंब छायावादी प्रभावयुक्त होते हुए भी समसामयिकता से सुगमता से जुड़ जाते हैं। ऐसा मधुर काव्यसृजन आजकल बिरले ही देखने को मिलता है। संग्रह की कविताएं अपनी प्रवाहमयी, लयात्मक भाषा-शैली के माध्यम से गुनगुनाते हुए हृदय-मार्ग से भीतर तक उतर जाती हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि मानवीय चेतना के पक्षधर पाठकों को यह पसंद आने योग्य काव्यसंग्रह है।
            ------------------------   

#पुस्तकसमीक्षा #डॉशरदसिंह #डॉसुश्रीशरदसिंह #BookReview #DrSharadSingh #miss_sharad #आचरण

No comments:

Post a Comment