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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, September 14, 2021

उच्चशिक्षा जगत के स्याह पक्षों को उजागर करता उपन्यास | समीक्षा | डॉ शरद सिंह

प्रस्तुत है आज 14.09. 2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई वरिष्ठ साहित्यकार डॉ श्याम सुंदर दुबे जी के उपन्यास "पहाड़ का पाताल" की  समीक्षा... 
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
उच्चशिक्षा जगत के स्याह पक्षों को उजागर करता उपन्यास  
समीक्षक - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
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उपन्यास     - पहाड़ का पाताल
लेखक      - श्यामसुंदर दुबे
प्रकाशक    - ग्रंथलोक, 1/7342, नेहरू मार्ग, ईस्ट गोरख पार्क, शहदरा, दिल्ली-32
मूल्य       - 550/-
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‘‘पहाड़ का पाताल’’ उपन्यास का जिज्ञासा जगाने वाला नाम है। पहाड़ को सभी देखते हैं लेकिन पहाड़ की जड़ों की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता है। उपन्यास का यह नाम एक व्यंजनात्मक नाम है जो पहाड़ की भांति ऊंचाई लिए हुए उच्चशिक्षा जगत की खोखली होती जड़ों के अंतरंग पक्षों की बात करता है। आज उच्चशिक्षा जगत से हर शिक्षित वर्ग संबंध रखता है। स्वयं नहीं तो अपने बच्चों की शिक्षा के जरिए। अतः उस उच्चशिक्षा जगत के सच को जानना भी ज़रूरी है। उच्चशिक्षा जगत के स्याह पक्षों की अपने उपन्यास के माध्यम से पड़ताल की है कथाकार, ललित निबंधकार, कवि समीक्षक एवं लोकविद् डॉ. श्याम सुंदर दुबे ने। इससे पूर्व उनके दो और उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं-‘‘दाखि़ल-ख़ारिज़’’ और ‘‘सोनाफूल’’।  
जब उपन्यास की किसी चर्चा होती है तो मन-मस्तिष्क में एक विस्तृत कथानक की रूपरेखा उभरने लगती है। एक ऐसा कथानक जिसमें अनेक घटनाएं होंगी और अनेक पात्र। ये सभी जीवन से जुड़े हुए होंगे और कल्पना एवं यथार्थ के एक रोचक ताने-बाने से बुने हुए होंगे। निःसंदेह उपन्यासकार मानवजीवन से संबंधित सुखद, दुखद मर्मस्पर्शी घटनाओं को क्रमबद्धता के साथ प्रस्तुत करता है। वस्तुतः उपन्यास में एक ऐसी विस्तृत कथा होती है जो अपने भीतर अन्य गौण कथाएं समेटे रहती है। इस कथा के भीतर समाज और व्यक्ति की विविध अनुभूतियां और संवेदनाएं, अनेक प्रकार के दृश्य और घटनाएं और बहुत प्रकार के चरित्र हो सकते हैं, और यह कथा विभिन्न शैलियों में कही जा सकती है। शर्त ये है कि उपन्यासकार के पास जीवन दृष्टि होनी चाहिए। जीवन के यथार्थ का गहरा अनुभव होना चाहिए, सृजनात्मक कल्पना की अपार शक्ति होनी चाहिए, विचारों की गहनता होनी चाहिए और जीवन की विवेचना होनी चाहिए। उपन्यास को जो लोग मनोरंजन का साधन मानते हैं वे मानों उपन्यास की मूल शक्ति और अनिवार्यता से परिचित नहीं है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उपन्यास विधा को आधुनिक युग की देन माना है। उनके अनुसार,‘‘नए गद्य के प्रचार के साथ-साथ उपन्यास प्रचार हुआ है। आधुनिक उपन्यास केवल कथा मात्र नहीं है और पुरानी कथाओं और आख्यायिकाओं की भांति कथा-सूत्र का बहाना लेकर उपमाओं, रूपकों, दीपकों और श्लेषों की छटा और सरस पदों में गुम्फित पदावली की छटा दिखाने का कौशल भी नहीं है। यह आधुनिक वैक्तिकतावादी दृष्टिकोण का परिणाम है।” आज हिन्दी में भी उपन्यास विधा पुरानी कथाओं और आख्यायिकाओं के समानांतर वर्तमान संदर्भों पर भी समुचित ध्यान देती है।
‘‘पहाड़ का पाताल’’ अपने आप में अनेक घटनाक्रम और अनेक पात्र समेटे हुए है। मूल कथानक मूलपात्र अपर्णा और आशुतोष के इर्दगिर्द ही घूमता है लेकिन इस परिक्रमा में ऐसे प्रसंग और ऐसे गोपन सामने आते हैं जो उपन्यास के उद्देश्य को बार-बार रेखांकित करते हैं तथा अन्य पात्रों को भी केन्द्र की ओर ले आते हैं। मूल कथा से कई अंतर्कथाएं जुड़ती जाती हैं लेकिन डॉ. श्यामसुंदर दुबे का लेखकीय कौशल कहीं भी क्रम-भंग नहीं होने देता है। उपन्यास लेखन की गंभीरता के संदर्भ में डॉ. रामदरश मिश्र का मानना रहा कि ‘‘उपन्यास एक हल्की-फुल्की विधा नहीं है जो संभव-असंभव घटनाओं और चटकीले-भड़कीले प्रसंगों की अवतारणा करती चलने वाली कथा के माध्यम से पाठकों का मनोरंजन करे, उपन्यास की वास्तविक शक्ति महान है। उसका उद्देश्य बड़ा है।’’
उपन्यास का आरंभ दो पुराने सहपाठी आशुतोष और अपर्णा की परस्पर पुनर्भेंट से होता है। दोनों के बीच अतीत के पन्ने खुलने लगते हैं और उनमें से ऐसे चरित्र झांकने लगते हैं जो उच्चशिक्षा के श्वेत-स्याह पहलुओं को तार-तार कर के सामने रख देते हैं। शोधकार्य करने वाले विद्यार्थियों का कतिपय मार्गनिदेशकों द्वारा शोषण किए जाने की घटनाएं यदाकदा सामने आती रही हैं। विशेषरूप से महिला शोधकर्ताओं को उस समय विकट समस्या का सामना करना पड़ता है जब उनका पाला किसी देहलोलुप मार्गनिदेशक से पड़ जाता है। यदि वे अपना शोधकार्य छोड़ती हैं तो उनका भविष्य दांव पर लग जाता है और यदि वे शोधकार्य जारी रखती हैं तो उनके सामने दो विकल्प रहते हैं कि या तो वे अपना मार्गनिदेशक बदल लें या फिर परिस्थितियों से समझौता कर लें। मार्गनिदेशक बदलना सुगमकार्य नहीं होता है। इसका कारण बताना जरूरी होता है जोकि किसी भी महिला शोधार्थी को दुविधा की स्थिति में डाल देता है। निःसंदेह, यह उच्चशिक्षा जगत का एक घिनौना पक्ष है। इस दुराव्यवस्था के चलते कई बार योग्य शोधार्थी पीछे रह जाते हैं और अयोग्य शोधार्थी आगे बढ़ते चले जाते हैं। जो स्वयं योग्य नहीं है वह विद्यार्थियों को कैसे योग्य बनाएगा, यह एक विचारणीय प्रश्न है। किन्तु यही एक प्रश्न नहीं है जिस पर सोचने की आवश्यकता है। और भी प्रश्न यह उपन्यास सामने रखता है। जैसे प्रोफेसर साहब के ‘‘प्रताप’’ से आसानी से पीएच. डी. की उपाधि उनके हर ‘‘सेवक’’ को मिल जाना। इस संदर्भ में बड़ा रोचक वर्णन किया है उपन्यासकार ने -‘‘पंडित बनवारी लाल का प्रताप चतुर्दिक व्याप्त था। इस प्रताप के ताप से हिन्दी का मुख जसवंत नगर की झील में शुभ्र सरसिज-सा खिल रहा था। यहां एक बार जो आ गया फिर वह डॉक्टर ऑफ फिलासफी हो कर ही जाता था। इस उपलब्धि की व्याधि में फंसे दो-दो पंचवर्षीय योजनाओं वाले बजरबट्टू निखट्टू को सीनियर्स की चप्पलें घिसते, ज़र्दा लसियाते और किसी न किसी लड़की को गसियाते यहां के सहेट स्थलों पर बिलानागा पाया जा सकता था।
विश्वविद्यालय परिसर में प्रेमलीलाओं के प्रसंग न हों, यह संभव नहीं है। युवावस्था में प्रेम स्वाभाविक मनोभाव है और महाविद्यालय या विश्वविद्यालय इसके लिए सबसे ‘‘हॉट प्लेस’’ कहे जा सकते हैं। प्रस्तुत उपन्यास में कुछ दशकों पहले के विश्वविद्यालयीन प्रेमप्रसंगों का वर्णन है और यथानुसार उन स्थलों का भी दिलचस्प विवरण दिया गया है जहां छात्र-छात्राएं परस्पर प्रेमालाप कर पाते थे। डॉ दुबे लिखते हैं कि  ‘‘लायब्रेरी का अंतरंग, पहाड़ी की ढलानों के झुरमुट और कैंटीन का डार्क कॉर्नर ऐसे ही रस प्लावी अभिसार केन्द्र थे। सरेराह लड़कियां गठियाने के अवसर वर्जित थे। जमाना ज़रा दूसरे किस्म का जो था।’’
यहां मुंशी प्रेमचंद का यह कथन स्मरण हो आता है कि ‘‘मैं उपन्यास को मानव-जीवन का चित्र समझता हूं। मानव-चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मुख्य स्वर है।” इस स्वर को उपन्यासकार श्यामसुंदर दुबे ने बखूबी साधा है। उपन्यास में वर्णित कुछ नाम वास्तविक न हो कर भी बहुत जाने-पहचाने से लगते हैं। एक उद्धरण देखिए -‘‘विषय विशेषज्ञ के रूप में हिन्दी के जाने-माने विद्वान डॉ. हेमेन्द्र और डॉ. सियावर सिंह आए थे। इन दोनों का आतंक उन दिनों हिन्दी क्षेत्र में छाया हुआ था। इनका दबदबा ऐसा था कि किसी अदना से अदना साहित्यकार की पहली कितबिया को ये मुक्तिबोध की डायरी के समक्षक स्थापित कर देते थे। इस तरह की स्थापना सुन कर हिन्दी जगत सकते में आ जाता था। अकसर ऐसे सकते आते-जाते रहते थे और इन दोनों के कारण हिन्दी जगत अपने इतिहास विषयक अनेक अनिर्णयों में लटका रहता था। इन लटकाऊ लोगों की पैंठ कहां नहीं थी? ये पुस्तक चयन समिति, विदेश-यात्रा समिति, राजभाषा समिति, पुरस्कार समिति जैसी सैंकड़ों समितियों के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष पद सुशोभित किए हुए थे।’’
इन व्यंजनात्मक पंक्तियों में वर्णित दोनों व्यक्तियों के यथार्थ को वे पाठक सहज ही भांप सकते हैं जो हिन्दी साहित्य की आलोचनात्मक गतिविधियों से किसी न किसी रूप में जुड़े हुए हैं। जो सीधेतौर पर नहीं जुड़े हैं अथवा वास्तविक जीवन में उनसे अनभिज्ञ हैं, वे भी आसानी से समझ सकते हैं कि ऐसे ख्यातिलब्ध व्यक्ति विश्वविद्यालयों में प्राध्यापक चयन प्रक्रिया को किस तरह प्रभावित करते हैं। कुलमिला कर एक सौदा-सा होता है चयनकर्ताओं के बीच कि तुम मेरे उम्मीदवार का चयन करो और मैं तुम्हारे उम्मींदवार का चयन कर दूंगा। यहां उम्मीदवारों के पक्षधरों की योग्यता उम्मीदवारों की योग्यता पर भारी पड़ जाती है। यह भी एक स्याह पक्ष है विश्वविद्यालयीन जगत का।
उपन्यास में छात्रों की वह दुनिया भी है जो सीनियर्स का वरदहस्त मिल जाने पर हर तरह के कार्यकलाप करने को स्वतंत्र हो जाते हैं, साथ ही अपने सीनियर्स के हर काम करने को मुस्तैद रहते हैं। छात्रसंघ और छात्रसंघ के चुनाव दोनों में ‘‘शागिर्द’’ छात्रों की अहम भूमिका रहती है। इन्हीं ‘‘शागिर्द’’ छात्रों में सबसे योग्य छात्र आगे चल कर छात्रसंघ का नेतृत्व करता है। यह गांव से आने वाले छात्रों के लिए एक मायावी दुनिया होती है जहां उन्हें नए सिरे से जीना सीखना पड़ता है। कथानक में ऐसा ही एक छात्र अनिल है जिसे विश्वविद्यालय परिसिर में प्रवेश करते ही अपने सीनिसर रामसुजान सिंह की ‘‘कृपा’’ प्राप्त हो गई और उसे उन तमाम परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ा जो एक नए छात्र को सीनियर्स के कारण होती है। इसी पात्र अनिल जब प्रो. अनिल बन जाता है तो वह विवाहित होते हुए भी छात्रा शुभ्रा के मोह में पड़ जाता है जो कि वस्तुतः प्रेम नहीं दैहिक आकर्षण मात्र था।
व्याख्यानों की परिपाटी की अंतर्कथा सामने रखते हुए उपन्यासकार ने करारा कटाक्ष किया है। प्रो. अक्षर मार्तंड ऐसे ही एक पात्र हैं जो दूसरे शहरों में जा कर व्याख्यान देने को ही अपना प्राध्यापकीय कर्म मनते हैं। उनका विवरण देखिए-‘‘वे हमें साकेत पढ़ाते थे लेकिन कक्षाओं में कम ही दिखते थे। दिख जाते तो अपनी फाईल में रखे ओल्ड स्टूडेंट्स के नोट्स से ही वे हमें पढ़ाते थे। वे अक्सर व्याख्यान देने के लिए बाहर जाते रहते थे। जब कोई प्रोफेसर व्याख्यान देने बाहर जाता था तब उसे कर्त्तव्य अवकाश दिया जाता था। कर्त्तव्य अवकाश की इस सुविधा ने प्रो. अक्षर मार्तंड को व्याख्यान दिग्विजयी बना दिया था। कार्यालय का लिपिक जानता था कि अब की बार प्रो. अक्षर मार्तंड कौन-सी संस्था में व्याख्यान देने का प्रमाणपत्र लाएंगे। उनके अब तक के गौशाला, मूकबधिर पाठशाला उज्जैन में गर्दभ मेले में व्याख्यान देने के प्रमाणपत्र काफी चर्चित हो चुके थे।’’
उपन्यास में दो और महत्वपूर्ण पात्र हैं जो विश्वविद्यालय परिसर से हट का भी परिसर से जुड़े हुए हैं। ये पात्र हैं- काजू सपेरा और बेड़नी फुलमतिया। काजू सपेरा का कंट्रास्ट जीवन और फुलमतिया के जीवन की त्रासद घटनाएं उपन्यास में एक अलग ही रंग भरती हैं तथा मूल कथानक के परिवेश को और सम्पन्नता प्रदान करती हैं। फुलमतिया के साथ डकैतों का भी प्रसंग है जो तत्कालीन अपराधकथा के परिदृश्य को सामने रखता है। प्रो. प्रमोद शंकर, मेडम कस्तवार आदि कई पात्र हैं जो अपनी छोटी-बड़ी उपस्थिति से मूलकथानक को सफलतापूर्वक गतिप्रदान करते हैं।
उपन्यासकार ने शुभ्रा और काजू सपेरा के बहाने आगामी समय का भी आकलन करने से गुरेज़ नहीं किया है-‘‘इतना निश्चित है कि आगामी जो समय है, वह पुरुषार्थहीन महत्वाकांक्षाओं का समय है। यह अकर्मण्यता एक ऐसी अपसंस्कृति को जनम दे सकती है जिसमें और तो और बच्चियों की देह के भूखे भेड़िए अनेक तरह की चालें चल कर अपना मतलब सिद्ध करते रहेंगे। भगवान बचाए ऐसे समय से।’’  
‘‘पहाड़ का पाताल’’ के लेखक डॉ. श्यामसुंदर दुबे स्वयं लगभग चालीस वर्ष तक उच्चशिक्षा विभाग में प्रोफेसर एवं प्राचार्य के पद पर रहे हैं अतः उच्चशिक्षा जगत के कोनों-कतरों से भी वे बखूबी वाक़िफ़ हैं। वे सागर विश्वविद्यालय में मुक्तिबोध सृजनपीठ के डायरेक्टर भी रह चुके हैं। उनसे विश्वविद्यालयीन जगत की कमियां एवं ख़ामियां छुपी नहीं हैं। उन्होंने जिस रोचक ढंग से उच्चशिक्षा जगत की दुरावस्थाओं की बखिया उधेड़ी है वह अपने-आप में अनूठी है। उपन्यास की भाषा कथानक और पात्रों के अनुरुप हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी के साथ-साथ देशज शब्दों से परिपूर्ण है। उपन्यास में सुरुचिपूर्ण विस्तार है, रोचकता है, और विचार-विमर्श के लिए अनेक ज्वलंत बिन्दु हैं। उच्चशिक्षा जगत के अंधेरे कोनों में झांकता यह उपन्यास प्रत्येक दृष्टि से दिलचस्प एवं पठनीय है।      
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