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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, September 22, 2021

चर्चा प्लस | बढ़ती कीमतें यानी जबरा मारे और रोेने न दे! | डाॅ शरद सिंह

चर्चा प्लस  
बढ़ती कीमतें यानी जबरा मारे और रोेने न दे!
   - डाॅ. शरद सिंह                                                                                
    डीजल-पेट्रोल के निरंतर बढ़ते दाम और
इसके कारण बढ़ती महंगाई को देख कर तो अब लगता है ‘डायन’ भी शरमा कर कहीं जा छुपी है। डीजल-पेट्रोल के दाम 100 रुपए का आंकड़ा पार कर चुके हैं और रसोई गैस 1000 रुपए को छूने की तैयारी में है। अब तो महंगाई को ‘जबरा’ कहा जाना चाहिए। क्योंकि महंगाई की जबरा मार से जनता का घरेलू बजट तेजी से बिगड़ता चला जा रहा है मगर जनता बेचारी ठीक से रो भी नहीं पा रही है।  
अब वह जमाना आ गया है कि मांएं अपने बच्चों को डरा कर चुप कराने के लिए कहेंगी-‘‘रो मत नहीं तो रातो-रात महंगाई बढ़ जाएगी।’’ या फिर यह कहा जाए कि अब जनता रोना ही भूल गई है। उसके आंसू सूख गए हैं। उसे पता है कि महंगाई सर्वशक्तिमान है, कठोर हृदय है, उसके आगे रोने से कुछ नहीं होने वाला है। जब कोई जबस्र्दस्त ताकतवर व्यक्ति किसी कमजोर को मारता-पीटता है तो यही कह कर धमकाता है-‘‘चुप-चुप! रोना नहीं। रोया तो और धुनाई कर दूंगा।’’ यही हाल अब महंगाई और आमजनता के रिश्ते का हो गया है। महंगाई की बढ़त कोई आज का ताज़ा मुद्दा नहीं है। अब तो यह बारहमासी मुद्दा बन चुका है। ज़रा याद करिए 20 फरवरी 2021 को महंगाई के मुद्दे पर बिहार के पर्यटन मंत्री नारायण प्रसाद ने विधानसभा परिसर में पत्रकारों से बात करते हुए क्या कहा था? उन्होंने महंगाई पर एक बहुत ही दिलचस्प और हैरतअंगेज़ टिप्पणी की थी कि- ‘‘महंगाई की आदत लोगों को हो जाती है, इससे आम जनता परेशान नहीं है। वैसे भी आम जनता गाड़ी से नहीं बस से चलती है, इसलिए आम लोगों को बढ़े हुए दामों से कोई परेशानी नहीं हो रही है। मंत्री नारायण प्रसाद ने कहा कि बजट आता है तो थोड़ी महंगाई होती ही है, इससे खास असर नहीं होता है और लोगों को धीरे-धीरे आदत हो जाती है। आम जनता पर इसका आंशिक असर होता है।’’
महंगाई ने हमारी स्मरण शक्ति अतनी कमजोर कर दी है कि हम बहुत जल्दी भूल जाते हैं कि महंगाई के पिछले हंगामें के दौरान क्या टीका-टिप्पणी की गई थी और दामों में कितना ईजाफ़ा हुआ था। अब महंगाई के रोज़ बढ़ते आंकड़ों को हम भला कैसे याद रख सकते हैं? यह सब याद रखने और आकलन करने के लिए शेयर मार्केट वाले, आर्थिक नीति निर्धारक और आर्थिक सलाहकार हैं न। यदि आमजनता महंगाई पर चिंतन करने लगेगी तो इन सब की ड्यूटी का क्या होगा? महंगाई से जुड़े दांव-पेंच वाले भरी-भरकम शब्दावली का क्या होगा? गर्व-सा महसूस होता है जब जीडीपी की बात होती है। जीडीपी यानी ग्रास डोमेस्टिक प्रोडक्ट अर्थात् सकल घरेलू उत्पाद अर्थव्यवस्था के आर्थिक प्रदर्शन का एक बुनियादी माप है, यह एक वर्ष में एक राष्ट्र की सीमा के भीतर सभी अंतिम माल और सेवाओं का बाजार मूल्य है। यही संक्षिप्त परिभाषा है जीडीपी। वस्तुतः इसे समझ पाना सबके बस की बात नहीं है कि इसका महंगाई से क्या ताल्लुक है? इसी तरह एक शब्द समूह है सीपीआई। सीपीआई यानी कंज्यूमर प्राईज़ इंडेक्स यानी उपभोक्ता मूल्य सूचकांक मुद्रास्फीति को निर्धारित करने के लिए एक मीट्रिक है। यह समय की अवधि में घरों द्वारा खपत आवश्यक उत्पादों और सेवाओं की कीमतों में परिवर्तन पर नजर रखने के द्वारा गणना की जाती है। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक खुदरा स्तर पर परिवहन, भोजन, चिकित्सा देखभाल, शिक्षा, आदि जैसी वस्तुओं के एक निश्चित सेट में मुद्रास्फीति को दर्शाता है। अब सीपीआई की गणना कैसे की जाती है? तो थोक मूल्य सूचकांक की तरह, सीपीआई की भी आधार वर्ष के संदर्भ में गणना की जाती है। सीपीआई को आधार वर्ष में मूल्य के साथ चालू वर्ष में वस्तुओं की टोकरी की लागत को विभाजित करके और परिणाम को 100 के साथ गुणा करके आसानी से गणना की जा सकती है। सीपीआई में वार्षिक प्रतिशत परिवर्तन का उपयोग मुद्रास्फीति का आकलन करने के लिए किया जाता है। वैसे यह अर्थशास्त्रियों के लिए अथवा आर्थिक अंकक्षकों के लिए आसान हो सकता है, आमजन के लिए नहीं। मैंने भी बीए तक अर्थशास्त्र की पढ़ाई की थी लेकिन मेरे लिए भी इसे समझ पाना कठिन होता है। समाचारपत्रों के बाज़ार वाले पन्ने पर अथवा टीवी समाचारों में जीडीपी और सीपीआई में बढ़त और गिरावट की ख़बरें पढ़ने-सुनने को प्रायः मिलती रहती हैं। आमजन यह समझने की कोशिश करते-करते थक चुका है कि आखिर महंगाई बढ़ती ही क्यों जा रही है? उसने घटने का रास्ता गोया एकदम सील-पैक कर दिया है।
यह सच है कि कोरोनाकाल में देश को भारी आर्थिक क्षति उठानी पड़ी। लेकिन इसके बाद आर्थिक नीति निर्धारकों ने स्थिति सुधरने का दावा किया। वही जीडीपी और सीपीआई जैसे शब्दों का प्रयोग करते हुए लेकिन महंगाई में लगातार उछाल जारी है। खाने-पीने की चीजें, आवास, कपड़े, परिवहन, इलाज, शिक्षा आदि पर आधारित सीपीआई पर नज़र डालें तो महंगाई जून 2019 में 3.8 प्रतिशत से लगभग दोगुनी बढ़कर जून 2021 में 6.26 फीसद हो चुकी थी। यह लगातार दूसरा महीना था जब महंगाई भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की 6 प्रतिशत की सीमा से ऊपर थी। फिर यह जुलाई में कुछ कम होकर तीन माह के निचले स्तर 5.59 फीसद पर आ गई। खाने-पीने की चीजों विशेष रूप से दलहन और तेल से लेकर ईंधन और बिजली तक सभी चीजों के दाम बढ़े। केंद्रीय उद्योग और वाणिज्य मंत्रालय के बयान में कहा गया कि जुलाई 2021 में महंगाई की ऊंची दर मुख्यतः निचले आधार प्रभाव और कच्चे तेल तथा प्राकृतिक गैस के साथ खनिज तेल, बुनियादी धातुओं, खाद्य उत्पादों, कपड़ों, रसायनों और रासायनिक उत्पादों सहित दूसरी चीजों के दाम में बढ़ोतरी के कारण थी।
इतना तो आमजन भी जानता है कि महंगाई डीजल-पेट्रोल की कीमतों की पटरी पर दौड़ती है। डीजल-पेट्रोल मंहगा होता है तो सामानों का परिवहन मंहगा हो जाता है। जिससे सामानों की कीमतों में उछाल आना तय रहता है। तो जब इतना जरूरी है डीजल-पेट्रोल के दामों का नियंत्रित रहना फिर डीजल-पेट्रोल के दाम नियंत्रित क्यों नहीं हो पा रहे हैं? तो इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए ज़रा पीछे मुड़ कर देखना होगा। जून 2010 तक सरकार पेट्रोल की कीमत निर्धारित करती थी और हर 15 दिन में इसे बदला जाता था, लेकिन 26 जून 2010 के बाद सरकार ने पेट्रोल को कीमतों का निर्धारण ऑइल कंपनियों के ऊपर छोड़ दिया। इसी तरह अक्टूबर 2014 तक डीजल की कीमत भी सरकार निर्धारित करती थी, लेकिन 19 अक्टूबर 2014 से सरकार ने ये काम भी ऑइल कंपनियों को सौंप दिया। अर्थात् पेट्रोलियम प्रोडक्ट की कीमत निर्धारित करने में सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। ये काम ऑइल मार्केटिंग कंपनियां करती हैं। ऑइल कंपनियां अंतरराष्ट्रीय मार्केट में कच्चे तेल की कीमत, एक्सचेंज रेट, टैक्स, पेट्रोल-डीजल के ट्रांसपोर्टेशन का खर्च और बाकी कई चीजों को ध्यान में रखते हुए रोजाना पेट्रोल-डीजल की कीमत निर्धारित करती हैं। पेट्रोल-डीजल की कीमत को जीएसटी में लाने पर नियंत्रित किया जा सकता है लेकिन इन्हें जीएसटी में नहीं लाने का सबसे बड़ा कारण है राजस्व में कमी होने का भय। पेट्रोल-डीजल को जीएसटी में लाने से सरकारों को राजस्व का नुकसान होगा और सरकार अपनी कमाई के किसी भी सोर्स में कोई बदलाव नहीं करना चाहती। जबकि ऐसा करने से डीजल-पेट्रोल की कीमतों में 20 से 26 रुपए तक की कमी आ सकती है और यह आमजन की जेबों के लिए भारी राहत होगी।
रहा सवाल रसोई गैस की कीमत का तो उसे भी नियंत्रण में लाना जरूरी है। क्योंकि आज बड़े से ले कर छोटे शहरों तक भोजन पकाने का एकमात्र साधन रसोई गैस (एलपीजी) है। आज देश के अधिकांश घरों में रसोई गैस के माध्यम से ही खाना पकाया जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में भी लोगों ने पारंपरिक चूल्हों पर लकड़ी से खाना पकाना छोड़ दिया है। घरेलू गैस सिलेंडर पर उपभोक्ताओं को मिलने वाली सब्सिडी भी लंबे समय से बंद है।  उस पर पिछले 15 महीनों में ही सरकार ने घरेलू गैस सिलेंडर पर 300 रुपयों से अधिक की बढ़ोतरी कर हो चुकी है। घरेलू बजट को राहत देने के लिए सरकार को घरेलू गैस सिलेंडर की बढ़ती कीमतों पर हर हाल में नियंत्रण करना चाहिए। चाहे यह काम सब्सीडी बहाल कर के ही क्यों न हो।
प्रश्न उठता है कि सरकारें राजस्व किसके लिए कमाती हैं? विकास कार्यों के लिए जो आमजन के हित में हों। तो पेट्रोल-डीजल की कीमत को जीएसटी में ला कर नियंत्रित करना भी तो जनहित का कार्य होगा। महंगाई कम होगी तो विकास की दर अपने-आप बढ़ेगी। लेकिन सरकारें अभी चिंतन-मनन में हैं कि ऐसा किया जाए या नहीं? जबकि महंगाई जबरा बन कर मार रही है और त्रस्त आमजन रो भी नहीं पा रहा है। जबकि यही समय है कि राज्य सरकारें महंगाई से ऊपर जनहित को दर्ज़ा दें।
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(सागर दिनकर, 22.09.2021)
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