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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, September 7, 2021

पुस्तक समीक्षा | जीवन-अनुभवों का काव्यात्मक प्रतिबिम्ब है ‘‘निर्मल नाद’’ | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह


प्रस्तुत है आज 07.09. 2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि निर्मल इटोरिया के काव्यसंग्रह "निर्मल नाद" की  समीक्षा...

आभार दैनिक "आचरण" 🙏


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पुस्तक समीक्षा
जीवन-अनुभवों का काव्यात्मक प्रतिबिम्ब है ‘‘निर्मल नाद’’ 
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक      - निर्मल नाद
कवि        - निर्मल इटोरिया
प्रकाशक    - सुविधा प्रकाशन, घंटाघर, दमोह (म.प्र.)
मूल्य       - 150/-
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‘‘निर्मल नाद’’ एक ऐसा काव्य संग्रह है जो कवि के अपने जीवन के अनुभवों से गुज़रता हुआ इतिहास और वर्तमान के महत्वपूर्ण तथ्यों का लेखाजोखा प्रस्तुत करता है। हिन्दी साहित्य के प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह का कहना है कि -‘‘जब कविता समय को पढ़कर उसे लेखबद्ध करने लगती है तो वह अपने समय की प्रतिनिधि कविता होती है।’’ कवि निर्मल इटोरिया के काव्य संग्रह ‘‘निर्मल नाद’’ में संग्रहीत उनकी काव्य रचनाएं भी उनके समय की प्रतिनिधि रचनाएं कहीं जा सकती हैं।
25 जनवरी 1938 को दमोह में एक व्यवसायी परिवार में जन्मे निर्मल इटोरिया ने 23 अगस्त 2013 को देह त्याग कर इस संसार से विदा ले लिया था। मृत्यु के पश्चात साहित्यकार नन्दलाल सिंह ने बड़े यत्न से उनकी ग़ज़लें, मुक्तक और कुण्डलिया छंद के छक्के एकत्र किए, सहेजे और उसे काव्य संग्रह का स्वरूप प्रदान किया। इस काव्य संग्रह को प्रकाशित कराने में निर्मल इटोरिया के पुत्रद्वय गिरीश एवं तरुण का योगदान महत्वपूर्ण है। क्योंकि आज के संवेदनहीन हो चले और पारिवारिक टूटन के दंश झेलते समय में पिता के जीवनकाल में ही पुत्र उनसे विमुख होने लगते हैं। अपने माता-पिता को ‘‘ओल्ड ऐज़ होम’’ भेजने के स्वप्न देखने लगते है, ऐसे समय में पुत्रों द्वारा अपने दिवंगत पिता की काव्य रचनाओं को संग्रह के रूप प्रकाशित कराना उल्लेखनीय बात है। ‘‘निर्मल नाद’’ निर्मल इटोरिया की तीसरी कृति है। इससे पूर्व उनके जीवनकाल में उनका मुक्तक संग्रह ‘‘चिड़ियों के सुरों में बांचता हूं मैं’’ तथा ग़ज़ल संग्रह ‘‘नज़दीक सबेरे हैं’’ प्रकाशित हुआ था।
‘‘निर्मल नाद’’ काव्य संग्रह दो कारणों से महत्वपूर्ण कृति है। पहला कारण कि इसमें सहेजी गई ग़ज़लें, मुक्तक एवं छंद कथ्य और काव्यात्मकता की दृष्टि से गंभीर संवाद करने में सक्षम हैं। दूसरा कारण यह है कि इस संग्रह के आरम्भ में कवि निर्मल इटोरिया के ‘‘मेरा जीवन: मेरा लेखन’’ शीर्षक उस लेख को शामिल किया गया है जो उन्होंने सन् 1998 को अपने साठ वर्ष की आयु पूरी होने पर लिखा था। इस लेख में उन्होंने अपने जन्म से साठ वर्ष की आयु तक के अपने अनुभवों को संक्षेप में लिखा है किन्तु संक्षिप्त होते हुए भी यह लेख अपने आप में एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ बन गया है। इस लेख में उनकी बाल्यावस्था के अनुभव हैं जिनमें वे लिखते हैं कि उनके पिता भागचंद जी गांधीवादी आंदोलन से जुड़ गए थे और प्रतिदिन चरखा चलाते थे। लेकिन फिर वे सुभाष चंद्र बोस द्वारा गठित इंडियन नेशनल आर्मी के एक समर्पित सैनिक बने। उस समय बालक निर्मल इटोरिया आई.एन.ए. की बाल शाखा में जाने लगे। वे लिखते हैं कि -‘‘15 अगस्त 1947 के स्वाधीनता समारोह में आई.एन.ए. के स्थानीय उच्च सैन्य अधिकारी श्री हरपाल सिंह जी ने मुझे टंडन बगीचा से लाल घोड़े पर बिठा कर सारा शहर घुमाया था।’’
इसी तरह अपने अनेक अनुभवों को साझा करते हुए कवि इटोरिया ने 1 अप्रैल 1970 की उस घटना की भी चर्चा की है जब डाकू मूरत सिंह ने उनके भाई का अपहरण कर लिया था और 54 दिन बाद बामुश्क़िल रिहा किया। जिससे नई पीढ़ी को तत्कालीन बुंदेलखंड में व्याप्त दस्यु-समस्या की गंभीरता का पता चल सकता है। कवि इटोरिया ने ओशो साहित्य पढ़ा। उन्होंने सागर विश्वविद्यालय के अपने अध्ययनकाल के दौरान आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, डाॅ नामवर सिंह, डाॅ भटनागर और डाॅ बाबूराम सक्सेना से संपर्क का भी उल्लेख किया है। कवि इटोरिया के सारे अनुभव तत्कालीन समाज, राजनीति एवं साहित्यिक परिदृश्य से बखूबी परिचित कराते हैं। यही वह तत्व है जो इस काव्य संग्रह की महत्ता को द्विगुणित कर देता है।
कवि निर्मल इटोरिया की हिन्दी में लिखी गई ग़ज़लों में उर्दू शब्दों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग है। जो कि शुद्ध और यथोचित है। उन्होंने बड़े बहर और छोटे बहर दोनों तरह की ग़ज़लें लिखी हैं। आमतौर पर माना जाता है कि छोटे बहर की ग़ज़ल कहना कठिन काम होता है। लेकिन कवि इटोरिया ने छोटे बहर में भी दिलचस्प ग़ज़लें कही हैं। जैसे एक ग़ज़ल है जो उन्होंने अपने साठ वर्ष की आयु पूर्ण होने पर गोया खुद को चुटकी लेते हुए लिखी थी। स्वयं पर व्यंग्य करना सरल नहीं होता। इस ग़ज़ल के कुछ शेर देखिए-
‘‘निर्मल’’ भाई साठ के।
फिर भी उल्लू काठ के।
गली-गली  में  गूंजते
चर्चे  उनके  ठाठ  के।
घोबी  के  गदहे  बने
घर के रहे न घाट के।

स्वयं को अपने चुहल का निशाना बनाने से बेशक़ वे नहीं हिचके, लेकिन ऐसा करते हुए जिस मासूमियत से उन्होंने ग़ज़ल लिखी, उसे पढ़ कर मुस्कुराए बिना नहीं रहा जा सकता है-
दिल दिया आशिक का, बनियों के यहां पैदा किया।
या इलाही !  तूने  मेरे  साथ  ऐसा  क्यों  किया।
आदतें  दीं   बादशाहों  की,   फ़क़ीरी  साथ  दी
हमने  तो  तारीख़ में  अक़्सर  ये  देखा  वाक़िया।

इस संसार में कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जिसके जीवन में कभी न कभी दुरूह कठिनाइयां नहीं आई हों। यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह कठिनाइयों का किस प्रकार सामना करता है। कवि इटोरिया ने अपने जीवन में कभी कठिनाइयों से हार नहीं मानी। यही बात उन्होंने अपनी इस ग़ज़ल में भी अभिव्यक्त की है, वे लिखते हैं कि -
कहकहे  मेरे  थम  नहीं पाये।
चाहे जीवन में लाख ग़म आये।
मेरी  मस्ती  में  नहीं  कोताही
रुपये-पैसे  भले ही कम आये।

एक सफल व्यवसायी और एक सजग साहित्यकार के रूप में देश के राजनीतिक उतार-चढ़ाव पर सदा उनकी गहरी दृष्टि रही। विशेषता यह कि राजनीति में जो बात उन्हें खटकी उस पर अपनी ग़ज़लों के माध्यम से वे उलाहना देने से नहीं चूके। ऐसा करते समय उनके तेवर स्व. दुष्यंत कुमार त्यागी से कम नहीं दिखते। उनकी यह ग़ज़ल देखिए-
नागफनी  बेखटके  तख़्तनशीन है।
फूल जेल में बंद, वाह क्या सीन है।
रेंग  रहे  हैं  सांप  सेंट्रल हाॅल में
सम्प्रदाय की खूब बज रही बीन है।

इसी तीखे तेवर की एक और उदाहरण देखिए जिसमें कवि इटोरिया के बेबाक उद्गार समाए हुए हैं। ऐसे उद्गार जिनमें आमजन की पीड़ा और आमजन के साथ किए जाने वाले छल-कपट पर तीखा कटाक्ष है-
बदन की झुर्रियों में  दर्द की तहरीर लिक्खी है।
सभी को क़ैद, सबके हाथ में जंजीर लिक्खी है।
हंसी की चिलमनों में जख़्म दिल के ढांपने वालों
तेरे चेहरे पे तेरी  हू-ब-हू  तासीर  लिक्खी है।
जिसे ताउम्र  तू  देता  रहा  फूलों के गुलदस्ते
तेरी गरदन पे तेरे दोस्त की  शमशीर रक्खी है।

अव्यवस्था के विरुद्ध अपना काव्यात्मक हस्ताक्षर करते हुए वे अपने साथी कवियों साहित्यकारों को भी झकझोरते हैं और आह्वान करते हैं कि हर ग़लत का विरोध करना ज़रूरी है। उनके ये शेर देखें-
सुर्खरू लपटों की, तुम अंगार की कविता लिखो।
आज के इस दौर में,  इंकार की कविता लिखो।
खूब कविता लिख चुके हो ज़न्नतों की, स्वर्ग की
अब यही मौजूं है, तुम संसार की कविता लिखो।

कवि निर्मल इटोरिया ने जिस वज़नदारी से ग़ज़लें लिखीं उसी वज़नदारी से मुक्तक भी लिखे। उदाहरण के लिए उनका यह मुक्तक -
अब  बग़ावत  ही   बचा है  रास्ता
कोशिशों से कुछ  नहीं हासिल हुआ।
खूब  बहसें   गर्म   संसद  हाॅल में
एक ही मसला न अब तक हल हुआ।

जहां तक कवि निर्मल इटोरिया के कुंडलिया छंद के छक्कों की बात है तो वे भी अव्यवस्थाओं, चाटुकारी, ग़लत परम्पराओं एवं राजनीति-समाज में आने वाली दुरावस्थाओं पर उंगली उठाते हैं-
बैठ गये हैं  मंच  पर   ऐसे  ओछे  लोग।
बने चिकित्सक जो स्वयं, हैं संक्रामक रोग।।
हैं  संक्रामक  रोग, चोर  दरबान  बने हैं।
जज वे, अपराधों में  जिनके  हाथ सने हैं।।
मगर ज़ुल्म  की  उम्र नहीं  लम्बी होती है।
विप्लव  होते  हैं  जब  मानवता  रोती है।।

‘‘निर्मल नाद’’ काव्य संग्रह की भूमिका साहित्यकार एवं पत्रकार नन्दलाल सिंह ने लिखी है तथा कवयित्री सुसंस्कृति परिहार द्वारा कवि इटोरिया को समर्पित एक कविता भी भूमिका के उपरान्त शामिल है। कुलमिला कर यह काव्य संग्रह जीवन-अनुभवों का काव्यात्मक प्रतिबिम्ब है जिसमें कवि निर्मल इटोरिया ने अपने अनुभवों के बहाने अपने समय को लिख दिया है। इस दृष्टि से निःसंदेह यह एक पठनीय काव्य संग्रह है जो अतीत की काव्यात्मक यात्रा कराने में सक्षम है।
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