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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, October 12, 2021

छंदों में निबद्ध जीवन का उत्साह | समीक्षा | समीक्षक - डॉ शरद सिंह


प्रस्तुत है आज 12.10. 2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि पूरन सिंह राजपूत के काव्य संग्रह "फगनौटे पूरण" की  समीक्षा...

आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
छंदों में निबद्ध जीवन का उत्साह
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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कविता संग्रह  - फगनौटे पूरण
कवि         - पूरन सिंह राजपूत
प्रकाशक  - एन.डी. पब्लिकेशन, नई दिल्ली
मूल्य         - 100/-
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कवि पूरन सिंह राजपूत सागर नगर के लोकप्रिय कवि हैं। वे बुंदेली, उर्दू और हिन्दी में काव्य रचनाएं लिखते हैं। 07 नवंबर 1950 को जन्में पूरन सिंह ने दिव्यांग होते हुए भी जीवन में कभी हार नहीं मानी। वे अपने व्यक्तित्व में जितने उत्साह से परिपूर्ण रहते हैं, उतनी ही उत्साहपूर्ण रचनाएं उन्होंने लिखी हैं। ‘‘फगनौटे पूरण’’ उनकी प्रथम काव्यकृति है। इसमें उनकी छांदासिक रचनाएं संग्रहीत हैं। ‘‘फगनौटे’’ का अर्थ है फागुन के प्रभाव से युक्त। फागुन माह सभी बारह माहों में सर्वाधिक उत्साह और उमंग का माह माना गया है। इस माह में प्रकृति भी अपनी पूरी छटा बिखेर रही होती है। जाड़े के जाने और ग्रीष्म के आने के बीच का यह संधिकाल कवियों को सदा लुभाता रहा है। बुंदेलखंड के जनकवि ईसुरी ने जो छंदबंद्ध कविताएं लिखीं वे ‘‘फाग’’ ही कही जाती हैं। जब कि ईसुरी की कविताओं में जीवन श्रृंगार, सामाजिक परिवेश, राजनीति, भक्तियोग, संयोग, वियोग, लौकिकता, शिक्षा चेतावनी, काया, माया आदि सभी कुछ का वर्णन है। अतः जब फागमय काव्य रचनाएं सामने आती हैं तो ईसुरी का काव्य एक मानक अधार के रूप में सामने आ खड़ा होता है। ऐसे में रचनाकार के समक्ष एक बहुत बड़ी चुनौती होती है कि वह अपनी फाग रचनाओं को जीवन के सभी तत्वों से जोड़े और साथ ही उसमें उत्साह और रागात्मकता भी बनाए रखे। डाॅ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर के हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष डाॅ. सुरेश आचार्य ने कवि पूरन सिंह को ईसुरी की परंपरा का कवि माना है। वे लिखते हैं कि-‘‘श्री पूरन सिंह को मैं इसीलिए ईसुरी की परंपरा में मानता हूं, उनकी कविताएं ऋतुराज की प्रशस्ति की कविताएं हैं। वे सरस रचनाकार हैं। वे बारहमास फागुन के उत्साह की तरह हैं इसलिए मैं उनकी विशिष्ट जिजीविषा का प्रशंसक हूं।’’
संग्रह की रचनाओं पर सागर के वरिष्ठ कवि निर्मल चन्द निर्मल, डाॅ. सुरेश आचार्य, मणिकांत चैबे बेलिहाज़, डाॅ लक्ष्मी पाण्डेय तथा डाॅ. श्याम मनोहर सीरोठिया के विचार आरंभिक पृष्ठों पर दिए गए हैं। ‘‘फगनौटे पूरण’’ के संदर्भ में निर्मल चन्द निर्मल टिप्पणी की है कि ‘‘पूरन सिंह ने श्रृंगार के बगीचे में उतर कर वसंत को कलम का माध्यम बना कर मौसम को खंगाला है, इसकी धड़कनों में स्वयं को डुबाया है।’’
छंद के संबंध में कहा जाता है कि ‘छंदों को साधना सरल नहीं होता है’। ‘साधना’ शब्द अपने आप में ही सतत् प्रयास, श्रम और समर्पण का द्योतक है। जो कवि समर्पित भाव से छंदों की शर्तों को स्वीकार करता हुआ उनका पालन कर के काव्य रचता है, वही छंदसाधक कवि कहलाता है। कवि पूरन सिंह को निश्चित रूप से एक छंदसाधक कवि माना जा सकता है। इस संग्रह पर डाॅ. श्याम मनोहर सीरोठिया जहां रचनाओं की प्रकृति पर प्रकाश डालती है, वहीं बहुत रोचक भी है जो संग्रह की रचनाओं को पढ़ने से पूर्व ही पाठक के ‘मूड’ को निर्धारित करने की अहम भूमिका निभाती है। डाॅ. सीरोठिया लिखते हैं कि -‘‘फगनौटे पूरण काव्य के विभिन्न रंगरूपों के पुष्पों के गुलदस्ते की तरह विविधवर्णी एवं आकर्षक है। इस काव्य संग्रह में कवित्त, कुंडलियां, सवैया, गीत, रसिया, मुक्तक, चैकड़ियां, दोहे, ग़ज़ल के मनमोहक रूपों की छटा पाठक मन को सम्मोहित करने में समर्थ है।’’
फागुन के चित्ताकर्षक प्रभाव के व्यतीत हो जाने से पूर्व उसका आनंद उठा लेने के आग्रह से भरी यह काव्य पंक्तियां कवि पूरन सिंह की भाव-क्षमता को बखूबी प्रतिबिम्बित करती है। पंक्तियों में ‘उकता रहा’ का प्रयोग अत्यंत प्रभावी ढंग से किया गया है -
प्रेम की कविता निरंतर गा रहा है फाल्गुन
भावना मन की विकट भड़का रहा है फाल्गुन
मिलन आमंत्रण पुनः भिजवा रहा है फाल्गुन
शीघ्रता कर लो प्रिये, उकता रहा है फाल्गुन

वस्तुतः मनुष्य अपनी अनुभूतियों को, संवेदनाओं को और विचारों को परस्पर बांटना चाहता है। वह उनके स्वास्फूर्त भावों और विचारों को दूसरों तक पहुंचाना चाहता है और दूसरों के भावों एवं विचारों को जानना चाहता है। उसने पारस्परिक विचार विनिमय के लिए जिस स्थाई अभिव्यक्ति माध्यम को अपनाया वह ही साहित्य कहलाता है। अभिव्यक्ति के अनेक सोपानों को तय करता हुआ साहित्य आज मुख्यतः गद्यात्मक एवं पद्यात्मक दो रूपों में सृजित हो रहा है। पद्य में छंद विधान की दृष्टि से छंदबद्ध और छंदमुक्त दोनों ही प्रकार की कविताएं सम्मिलित की गई है। हिंदी साहित्य में काल विभाजन की दृष्टि से छायावाद युग से पहले सभी प्रायः छंदबद्ध कविता ही लिखते रहे। लेकिन छायावाद के आते-आते साहित्य सृजकों ने शिल्प के स्थान पर भाव को महत्वपूर्ण मान लिया। परिणामतः हिंदी कविता छंदमुक्त होकर जनसामान्य तक पहुंचने लगी। लेकिन अपनी गेयता के गुण के कारण छंदबद्ध कविताएं कभी हाशिए पर नहीं गईं। छंद दो प्रकार के होते हैं- मात्रिक छंद और वर्णिक छंद। वे छंद जिनमें कविता के चरणों में प्रयुक्त मात्राओं को गणना को ही आधार मानकर छंद की रचना की जाती है। अर्थात शिल्प की दृष्टि से कविता में कितने चरण है। प्रत्येक चरण में कितनी मात्राओं का विधान है। कितनी मात्राओं के उपरांत यदि का विधान है। चरण दो प्रकार के होते हैं- समचरण, जहां प्रत्येक चरण में मात्राओं की संख्या बराबर हो जैसे-चैपाई।  तथा, दूसरा विषमचरण।  विषमचरण छंद वे हैं जिनमें यति या विराम के आधार पर चरणों में मात्राओं की संख्या में भिन्नता होती है। जैसे - दोहा , सोरठा आदि।       
वर्णिक छंद वे छंद कहलाते हैं जहां निर्धारित गणों के अनुरूप वर्णों का प्रयोग किया जाता है। हालांकि गणों में भी वर्णों की मात्रा को ही आधार माना जाता है लेकिन छंद विधान की दृष्टि से वर्णों का क्रम निश्चित रहता है। छंद को साधने का पहला सोपान होता है, सही शब्दों का चयन। जिससे लयबद्धता, और प्रत्येक चरणों का वज़न बराबर बना रहे। शब्द चयन की दृष्टि से कवि पूरन सिंह ने अपनी पूरी सिद्धहस्तता प्रदर्शित की है। संग्रह में पूर्वकथन लिखते हुए मणिकांत चैबे बेलिहाज़ ने कवि के शब्द-कौशल पर सटीक टिप्पणी की है-‘‘बहुत सुंदर शब्द संयोजन तथा सतर्कतापूर्वक किया गया शब्द विन्यास इस संग्रह को विशेष बनाते हैं। पूरन सिंह जी की हर कविता उल्लेख तथा टिप्पणी में शामिल हो सकती है।’’
कवि पूरन सिंह ने फागुन के मानसिक प्रभाव को अपनी दृष्टि से आकलित करते हुए उसके प्रत्येक पक्ष को सामने रखा है। एक उदाहरण देखिए -
फागुनी शब्दावली से ही विवादित हो गए
वे प्रखर विद्वान हुरियारे प्रमाणित हो गए
हम मदन ऋतुराज मनसिज से कदाचित हो गए
अंग हैं उत्तुंग, मन के भाव कुत्सित हो गए

डाॅ. लक्ष्मी पाण्डेय ने भी कवि पूरन सिंह की भाषा और शब्द पर मज़बूत पकड़ को अपने मंतव्य में इन शब्दों में रेखांकित किया है-‘‘पूरन सिंह काव्य रचना के लिए खड़ी बोली हिन्दी के साथ ही बुंदेली, ब्रज भाषा का भी उपयोग करते हैं। हिन्दी में लिखते हुए तत्सम शब्दों का भी सहजता के साथ प्रयोग करते हैं, यह उनकी भाषाई सामाथ्र्य को दर्शाता है।’’ कवि की यह खूबी उनकी कुंडलियों में निखर कर उभरी है-
केशल, कुमकुम अलक्ता, हल्दी रोली रंग
वासंतिक  परिवेश  में  निष्ठुर हुए  अनंग
निष्ठुर हुए अनंग प्रफुल्लित भू नभ  अंचल
मदन झकोरे चलत, चित्त मद्यप अति चंचल
मदमानी सी देह, भाव अति कुत्सित ले कर
रंग, गुलाल, अबीर, महावर, कुमकुम, केशर

फगुनाहट में डूबने का अर्थ यह भी नहीं है कि कवि वर्तमान की स्थितियों से बेख़बर हो गया हो। पूरन सिंह ने जनजीवन की समसामयिकता को बड़ी सुंदरता से अपनी कुंडलिया में पिरोया है-
रंगों के  संबंध में  पूरन  रक्खो  ख़याल
चाईनीज़ गुलाल  में, हुई  खुरदरी खाल
हुई खुरदरी  खाल,  रग-रग  अकड़े हैं
भाभी जी भी कहें- आप  सही पकड़े हैं
उनका यह फरमान सुनो, अब ऐ हुरदंगों
खेलो होली खूब  मगर  प्राकृतिक  रंगों

कुंडलियां की भांति ही कवित्त में भी कवि पूरन सिंह ने अपने काव्य कौशल को साधा है। कवित्त में अनुप्रास अनंकार का बहुत महत्व होता है। अनुप्रास के प्रयोग से कवित्त का अंतः सौंदर्य बढ़ जाता है तथा उसके पठन-प्रवाह में स्वतः ताल उत्पन्न होने लगता है। पूरन सिंह के इस कवित्त को देखिए-
रग-रग पोर-पोर, हियरा की कोर-कोर
तन मन  मरोर  बौर  बसंत  भरने लगा
काम की कमंद फेंकि विंध लिए अंग-अंग
पंच-पुष्प  सरों  का  संधान करने लगा
तन में  मदन बोध,  मन में  मनोज बोध
पीत  परिधान  कुसुमाकर  उतरने लगा
पुष्प मकरंद  निखरो, नयन भए  रतनारे
मनमथ मनसिज  मदन  प्रान हरने लगा

छंदबद्धता में सवैया छंदों का भी अपना विशेष स्थान है। पूरन सिंह ने अपने कवित्त में फगुनाहट के साथ-साथ विविध पौराणिक प्रसंगों को भी पर्याप्त स्थान दिया है। जैसे वे अपने एक कवित्त में द्रोपदी के चीर-हरण और शबरी की व्यथा-कथा का समरण कराते हैं-
जो गजराज पुकार सुनी, तउं दौरत नाथ मकर संहारत।
टेर सुनी उपनय तुम भागत, ध्रुपद सुता तन चीर प्रसारत।।
गीध अजामिल तिय गौतम शबरी दशकंधर गनिका तारत।
पूरन नाथ सुनो विनती हम, राम रटत दिन रैन पुकारत।।

इसी प्रकार एक बहुत ही सुंदर सवैया इस संग्रह में है जिसमें कवि पूरन सिंह ने गोपियों की विरह पीड़ा को अपने समूचे काव्य-कौशल के साथ प्रस्तुत किया है-
कहते न बने, कहते न बने, मन की हम पीर  सहीं कितनी
मिलहौं कबलौं, न मिले अबलौं, हम जानत धीर धरीं कितनी
दिन रात बरस, महिने निकरे, यह सोचत शेष  धरीं कितनी
तुम जानत हो न पता तुमको, अंखियां हर रोज झरीं कितनी

यूं तो संग्रह में गीत, चैकड़ियां और ग़ज़लें भी हैं किन्तु सभी की बानगी यहां देना संभव नहीं है। जिसे छंदबद्ध काव्य में रुचि हो उसे कवि पूरन सिंह का काव्य संग्रह ‘‘फगनौटे पूरण’’ अवश्य पढ़ना चाहिए। यह संग्रह रसबोध जगाने और भावनाओं के प्रवाह में डुबाने में सक्षम है। इसके छंदों में जीवन का वह उत्साह निबद्ध है जिसकी आज के खुरदरे समय में बहुत जरूरत है।
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