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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, January 19, 2022

चर्चा प्लस | स्त्रियों की आवाज़ वाया कोरोना आपदा | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह

चर्चा प्लस
स्त्रियों की आवाज़ वाया कोरोना आपदा
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
             
हाल ही में यह तथ्य सामने आया है कि कोविड के टीके से माहवारी में अनियमितता होने लगती है। कोरोना की दूसरी लहर के दौरान यह तथ्य सामने आया था किन्तु घर-परिवार में इसे गंभीरता से नहीं लिया। अकसर देखने में आता है कि स्त्रियों की बातें अमूमन गंभीरता से ली ही नहीं जाती हैं। यदि स्त्री बड़े पद पर है तो भी उसके निर्णय को उसका अधीनस्थ पुरुषवर्ग संदेह की दृष्टि से ही देखता है। स्त्री की सलाह को हल्के से लेना आम बात है। जबकि यह प्रवृत्ति संकट में डाल सकती है।


प्रजनन क्षमता की दृष्टि से स्त्रियों में माहवारी का सबसे अधिक महत्व है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो माहवारी स्त्री की प्रजनन क्षमता को तय करती है। अतः माहवारी चक्र में किसी भी प्रकार का अचानक परिवर्तन होना चिन्ता का विषय होना चाहिए। हर परिवार, हर दंपत्ति अपनी संतति अथवा वंश बढ़ाने के लिए संतान पैदा करना चाहता है। भले ही इस बात को अनदेखा कर दिया जाता है कि यदि संतान नहीं हो पा रही है तो उसका कारण सिर्फ़ स्त्री नहीं बल्कि पुरुष में भी कमी के कारण ऐसा हो सकता है। भारत जैसे विकासशील देश में स्त्रियां अभी भी माहवारी जैसे विषय पर अपने परिजन से भी खुल कर बात नहीं कर पाती हैं। लेकिन योरोप में स्थिति थोड़ी भिन्न है। वहां स्त्रियां अपनी शारीरिक समस्याओं को ले कर जागरूक रहती हैं और खुल कर डाॅक्टरी सलाह लेती हैं। उनकी इसी अगुवाई के कारण वह तथ्य सामने आया जो भारतीय स्त्रियों में भी रहा होगा किन्तु वह प्रमुखता से सामने नहीं आ सका, जिससे उसके संबंध में यहां कोई ठोस वैज्ञानिक अध्ययन भी नहीं हो सका। 
सोन्या अंगेलिका डीन एक योरोपियन महिला हैं जिन्होंने कोविड के दोनों टीके समय पर लगवाए। लेकिन इसके बाद उन्हें माहवारी की गंभीर अनियमित झेलनी पड़ी। सोन्या अंगेलिका डीन ने जो विशेषज्ञ समिति को जो जानकारी दी, वह उन्हीं के शब्दों में -‘‘मुझे बायोनटेक-फाइजर का पहला टीका गर्मियों में लगा था। वैसे तो कुछ लोगों ने मुझे बताया था कि टीका लगने के बाद वे कितना बीमार महसूस कर रहे थे। लेकिन मुझे तसल्ली थी कि मेरे साइड इफेक्ट हल्के-फुल्के ही थे। एक महीने बाद, मुझे दूसरा टीका लगा और उसके बाद मैं अपने परिवार के साथ छुट्टियों पर निकल गईं। यात्रा की शुरुआत में ही मेरे पीरियड आ जाने चाहिए थे। एक दिन मुझे काफी ज्यादा ब्लीडिंग हुई। अगले दिन एक बूंद भी नहीं। फिर एक सप्ताह से ज्यादा समय तक यानी करीब-करीब पूरी छुट्टियों के दौरान मेरा रक्तस्राव होता रहा। ब्लीडिंग बहुत ज्यादा हो रही थी और दर्द भी ज्यादा हो रहा था। मेरे लिए ये सामान्य बात नहीं थी।’’
घबरा कर सोन्या अंगेलिका ने पहले गूगल सर्च किया। उससे उन्हें कोई विशेष मदद नहीं मिली। यद्यपि यह जानकारी जरूर मिली कि कुछ अन्य महिलाओं को भी टीका लगवाने के बाद इस तरह की अनियमितताओं का समाना करना पड़ा है। चूंकि इस संबंध में कोई चेतावनी नहीं दी गई थी कि इस प्रकार का साईड इफैक्ट भी हो सकता है अतः महिलाओं का भयभीत होना स्वाभाविक था। इसके बाद महिलाओं की प्रमुखता वाली एक विशेषज्ञ समिति गठित की गई जिसने अध्ययन कर के पाया कि टीके का माहवारी पर कुछ समय के लिए दुष्प्रभाव पड़ा है। लगभग 4,000 महिलाएं जिनमें से कुछ को टीके लगे थे और कुछ को नहीं, उन सभी के डाटा की मदद से, माहवारी के एक ट्रैकिंग ऐप का इस्तेमाल करते हुए शोधकर्ताओं ने पाया कि जिन्हें नया-नया टीका लगा था, उनके माहवारीचक्र में सामान्य की अपेक्षा अहम बदलाव आया था। उनके पीरियड औसतन एक दिन अधिक समय तक चले थे। इस जानकारी से जहां टीके में सुधार संभव हो सकेगा वहीं इस बात की घबराहट भी दूर हो जाएगी कि यह दुष्प्रभाव स्त्री की प्रजनन क्षमता पर गहरा असर डाल सकता है।
वैज्ञानिक, शोध अथवा चिकित्सकीय धरातल पर यह महत्वपूर्ण तथ्य इसलिए सामने आ सका क्यों कि पीड़ित महिलाओं ने अपनी समस्या पर खुल कर चर्चा की और उनके परिजनों ने भी आगे बढ़ कर उनका साथ दिया। जबकि भारत जैसे देश में माहवारी को ले कर अनेक वर्जनाएं आज भी व्याप्त हैं। महिलाओं को यदि माहवारी संबंधी कोई समस्या हो तो वे खुल कर बात नहीं कर पाती हैं। इस संबंध में उन्हें झिझक होती है। क्योंकि यह उनके मन में एक वर्जित विषय के रूप में बैठा हुआ है। अधिक से अधिक वे इस विषय पर बात करेंगी भी तो ऐसी दूसरी महिला से जो ज्ञान के मामले में उसी के समकक्ष रहती है या फिर और कमतर रहती है। स्थिति गंभीर होने पर ही वे किसी महिला चिकित्सक तक पहुंचती हैं। इसका एक सबसे बड़ा कारण यह भी है कि घर का पुरुषवर्ग विशेष रूप से पति भी अपनी पत्नी की गायनिक समस्याओं के प्रति ध्यान नहीं देते हैं और न इस संबंध में उनसे चर्चा करते हैं। यदि पति-पत्नी दोनों के बीच इस संबंध में चर्चा हो भी जाए तो वह परिवार की या किसी परिचित महिला के साथ पत्नी को चिकित्सक के पास जाने की सलाह दे देता है। स्वयं साथ जाने में उसे झिझक महसूस होती है। पढ़े-लिखे तबके में इस संबंध में जागरूकता आती जा रही है लेकिन ग्रामीण अंचलों में बसे परिवारों तथा शहरों में भी घोर परंपरावादी परिवारों में अभी भी पति अपनी पत्नी की गायनिक परेशानियों के बारे में लापरवाही से पेश आते हैं।
समाज और परिवार में आमस्त्रियों की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। वह विज्ञापन आज भी टीवी के पर्दे पर स्त्री की स्थिति की सच्चाई बयान करता है जिसमें बाॅलीबुड अभिनेता अक्षय कुमार अस्पताल की ओर इशारा कर के बीड़ी फूंकते एक व्यक्ति से पूछता है कि यहां कैसे? और वह व्यक्ति लापरवाही से उत्तर देता है कि तुम्हारी भाभी को वही औरतों वाली बीमारी हो गई है। उसका उत्तर देने का अंदाज़ बताता है कि उसे बीमारी की गंभीरता से कोई सरोकार नहीं है। यह एक कड़वा सच है जिसे सेनेटरीपैड के विज्ञापन में बड़ी गंभीरता से सामने रखा गया। इसी विज्ञापन में आगे अक्षय कुमार उसे झिड़कता है कि सिगरेट में फूंकने के लिए तेरे पास पैसे हैं लेकिन सेनेटरीपैड खरीदने को पैसे नहीं है? यही सच्चाई है समाज के एक बड़े हिस्से की जिसे हम मध्यम वर्गीय, निम्न मध्यम वर्गीय या निम्न वर्गीय के रूप में अपने बीच पाते हैं। वस्तुतः हम स्वयं भी उसी का हिस्सा हैं। हर सेनेटरीपैड मंहगा नहीं होता है। सरकार, एन्जियोज़ और अनेक संस्थाएं ग़रीब तबके की महिलाओं के लिए, लड़कियों के लिए सेनेटरीपैड निःशुल्क अथवा न्यूनतम दाम में उपलब्ध कराती हैं। किन्तु इसकी मांग की जानी भी तो ज़रूरी है। जब स्त्री स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों पर स्त्री, पुरुष, परिजन कोई भी पहल नहीं करेगा तो इन मुद्दों का हल कैसे निकलेगा? 
किसी भी दवा अथवा टीके का साईड इफैक्ट होना स्वाभाविक है क्योंकि इस दुनिया में हर इंसान पर पर टीकों का कुछ न कुछ अलग असर होता है। वहीं, साईड इफैक्ट का पता चलने पर स्थिति की गंभीरता का आकलन करने में सुविधा होती है। माहवारी अनियमितता के संबंध में यदि विशेषज्ञ आगाह नहीं कर पाए तो वह इसलिए कि उन्हें इस प्रकार कोई सूचना मिली ही नहीं। कुछ महिलाओं के आगे आने और अपनी समस्या बताने पर आज दुनिया को इस साईड इफैक्ट का पता चल पाया है। जबकि हमें आज भी पता नहीं है कि हमारे देश में कोविड-19 के टीके लगवाने के बाद कितनी महिलाओं को माहवारीचक्र में समस्या का सामना करना पड़ा? अगर यह आंकड़े हमारे देश में सामने आते तो हमारे वैज्ञानिक एवं विशेषज्ञ भी इस दिशा में अध्ययन करते और निदान ढूंढते। यह तो मात्र एक ताज़ा उदाहरण है अन्यथा ऐसी न जाने कितनी समस्याएं हैं जो स्त्रियों के जीवन को प्रभावित करती रहती हैं, जिन पर खुल कर चर्चा करने से स्वयं स्त्रियां, कतराती हैं, डरती हैं अथवा संकोच करती हैं। वस्तुतः समर्थन की कमी उनके मनोबल को तोड़ती है। यह मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी उन्हें अपनी समस्याओं को बताने से रोकता है कि उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लिया जाएगा और उनका मज़ाक बनाया जाएगा। इस आपदा के दौर ने यह एक और सबक दे दिया है कि यदि गंभीर दुष्परिणामों से बचना है तो स्त्रियों की समस्याओं को हल्के में लेने अथवा अनदेखा करने की आदत छोड़नी होगी। यानी स्त्रियों को अपनी समस्याएं बताने में मुखर होना होगा और पुरुषवर्ग को उसे गंभीरता से सुनना और समझना होगा। तरह-तरह की आपदाओं के बीच मानवता को आगे बढ़ाने के लिए यह जरूरी है।  
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