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My Editorials - Dr Sharad Singh

Sunday, January 30, 2022

ग्लोबल होते गोबर का ग्लैमर | व्यंग्य | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नवभारत


मित्रो, प्रस्तुत है आज "नवभारत" के रविवारीय परिशिष्ट "सृजन" में प्रकाशित मेरा व्यंग्य लेख "ग्लोबल होते गोबर का ग्लैमर" ...😀😊😛
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व्यंग्य
ग्लोबल होते गोबर का ग्लैमर
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

ग्लैमर एक ऐसी चीज है जो बड़े-बड़े तपस्वियों के तप भंग करने का माद्दा का रखता है। पुराणों में अनेक ग्लैमर सुंदरियों की चर्चा है जैसे उर्वशी, मेनका, रंभा, संभा आदि-आदि। ग्लैमर का महत्व देवताओं के राजा इन्द्र बखूबी जानते थे। इसीलिए जब उन्हें किसी ऋषि का तप भंग करना होता था तो वे अपनी सभा की ग्लैमर सुंदरी को उसके पास नाचने, गाने, रिझाने भेज दिया करते थे। महर्षि विश्वामित्र भी इससे अछूते नहीं रहे। मेनका स्वर्ग की सबसे सुंदर अप्सरा थी। महान तपस्वी ऋषि विश्वामित्र ने नए स्वर्ग के निर्माण के लिए जब तपस्या शुरू की तो उनके तप से देवराज इन्द्र ने घबराकर उनकी तपस्या भंग करने के लिए मेनका को भेजा। मेनका ने अपने रूप और सौंदर्य से तपस्या में लीन विश्वामित्र का तप भंग कर दिया। दरअसल, इन्द्र ने कभी नहीं चाहा कि कोई उसकी बराबरी कर सके। वाह, कितना अच्छा बाज़ारवादी था इन्द्र। प्रशंसा तो करनी ही पड़ेगी उसकी। आजकल बाज़ारवाद में भी तो यही होता है। अपने प्रोडक्ट की साख बनाए रखने के लिए दूसरे की साख को सिलबट्टे में पीस दिया जाता है। लेकिन यहां बात सिलबट्टे की नहीं हो रही है। यूं भी सिलबट्टा आउटडेटेड हो चला है। इलेक्ट्रिक ग्राइंडर के जमाने में सिलबट्टे को कौन पूछे। अगर बाहों की मसल्स बनानी ही है तो चमचमाते जिम और होमजिम तो हैं ही।
खैर, बात हो रही थी ग्लैमर की। तो अब ग्लैमर की दुनिया में गोबर को भी शानदार जगह मिल गई है। निश्चित रूप से यह गायों के लिए बड़ी खुशखुबरी है। उन्हें गर्व होगा यह जान कर। वरना विलायती फंड से फंडित होने वाले बड़े-बड़े अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में ‘‘काऊ डंग’’ को अस्पृश्य समझा जाता है। मुझे भी यह बात पता नहीं थी क्योंकि मैं तो हिन्दी माध्यम सरकारी स्कूल की छात्रा रही हूं। लेकिन मेरी एक सहेली की बेटी उन दिनों विलायती फंड से फंडित होने वाले अंग्रेजी माध्यम स्कूल में पढ़ती थी। एक दिन मेरे घर में दाल-बाटी बनी तो मैंने सहेली को सपरिवार आमंत्रित किया। मेरी सहेली ने स्पष्टशब्दों में मुझे बताया कि वह और उसके पतिदेव तो आ जाएंगे लेकिन उसकी बेटी नहीं आएगी।
‘‘क्यों, क्या वह बहुत व्यस्त है? एक्जाम-वेक्जाम हैं क्या?’’ मैंने उससे जानना चाहा।
‘‘अरे नहीं, है तो फ़ुर्सत में लेकिन मुझे पता है कि वह नहीं आएगी।’’ मेरी सहेली ने अटपटा सा उत्तर दिया।
‘‘ऐसा क्यों? क्या वह मुझसे नाराज़ है?’’ मैंने पूछा।
‘‘नहीं ऐसी बात नहीं है।‘‘ मेरी सहेली मुझे छोटा-सा उत्तर दे कर रह गई। इस पर मुझे गुस्सा आने लगा।
‘‘बात क्या है? साफ़-साफ़ बताओ!’’ मैंने उससे धमकाने की मुद्रा में पूछा।
‘‘उसे बाटियां पसंद नहीं हैं।’’ मेरी सहेली ने बताया। मगर मुझे यह बात हज़म नहीं हुई। भला कौन होगा जिसे दाल-बाटी पसंद न हों। जिसके मुंह में दांत न हों और नकली बत्तीसी भी न लग पाई हो वह भी दाल में बाटियों को मीड़-मीड़ कर चाव से खाता है। यानी मामला कुछ और है।
‘‘मुझे तुम्हारी इस बात पर विश्वास नहीं हो रहा है, सही-सही बताओ!’’ मैंने फिर कठोरता से पूछा। तब कहीं जा कर उसने झिझकते हुए बताया कि-‘‘वो... बात ये है कि बाटियां गोबर के कंडे में बनती हैं न, और इसीलिए मेरी बेटी को पसंद नहीं है। वह तो बाटियां देखते ही चिढ़ जाती है कि ये तो काऊ डंग (गोबर) पर बनी हैं, मैं नहीं खा सकती इन्हें। वह तो गोबर या कंडे को हाथ भी लगाना पसंद नहीं करती है। बस, यही कारण है।’’
‘‘यानी उसने आज तक दाल-बाटी खाई ही नहीं?’’ मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। मालवा में रहने वाला जैसे दाल-बाफले खाए बिना नहीं रह सकता है, वैसे ही बुंदेलखंड में रहने वाला दाल-बाटी का स्वाद न चखे, यह कैसे संभव है?
‘‘नहीं, उसके लिए माइक्रोवेव ओवन में बना दिया करती हूं।’’
‘‘पर, वह स्वाद कहां जो कंडे की आग में सिकीं बाटियों में होता है। तुम अपनी बेटी को समझाती क्यों नहीं कि गोबर और कंडा पवित्र वस्तुएं हैं। कंडा तो हवन-पूजन में भी काम में लाया जाता है।’’ मैंने सहेली को उलाहना दिया।
‘‘मैं कई बार समझा चुकी हूं। लेकिन उसके स्कूल में उसे यही सिखाया जाता है कि गोबर ‘‘काऊ डंग’’ होता है। तुम समझ रही हो न!’’ सहेली ने अपनी विवशता प्रकट करते हुए मुझसे कहा।
‘‘ठीक है, मैं समझ गई।’’ अब जबर्दस्ती तो किसी को कुछ खिलाया नहीं जा सकता है। मैंने भी कहा,‘‘उसके लिए मैं कुछ और बना लेती हूं। उसे भी साथ ले आना।’’
इसीलिए जब मैंने ऑन लाईन शाॅपिंग साईट पर ‘‘काऊ डंग केक’’ शब्द पढ़ा और उसके साथ लगा प्रोडक्ट का फोटो देखा तो कुछ जानी-पहचानी-सी चीज लगी। एक और क्लिक करके उस प्रोडक्ट के विवरण पर गई तो मैंने पाया कि यह तो गोबर के कंडों यानी उपलों का विज्ञापन था। करीने से पैक किए गए। एक साईज़ के। किसी खाने की वस्तु के समान। अत्यंत आकर्षक। मार्केटिंग पर एकदम खरे उतरने वाले। उन्हें देख कर मेरी आंखों में आंसू आ गए। ये दुख के नहीं, खुशी के आंसू थे। कम से कम अब मैं उस बालिका का तप भंग करने में क़ामयाब हो जाऊंगी।
चाहे मैं ऑन लाईन शाॅपिंग करूं या न करूं लेकिन अपनी सहेली की बेटी को एक दिन खाने पर अपने घर आमंत्रित ज़रूर करूंगी और उसे यही बताऊंगी कि अब जो मैंने बाटियां बनाई हैं वे लोकल गायों के लोकल गोबर से बने कंडों पर नहीं सेंकी हैं बल्कि ऑन लाईन शाॅपिंग कर मंगाए गए ‘‘काऊ डंग केक’’ की आग में सेंकी गई हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि इंटरनेट मार्केटिंग जेनरेशन वाली वह बालिका उन बाटियों को सहर्ष ग्रहण कर लेगी। आखिर उस ‘‘काऊ डंग केक’’ के पीछे उच्चकोटि के मार्केटिंग डिवीज़न ने महीनों काम किया होगा। आकार, प्रकार, प्रचार, प्रसार सब का ध्यान रखते हुए उसे ग्लैमरस बनाया  होगा। तब कहीं जा कर एक मल्टी नेशनल ऑन लाईन शाॅपिंग साईट पर उसे लांच किया गया होगा। लिहाज़ा, ‘‘काऊ डंग केक’’ के इस ग्लैमर से वह बालिका अछूती कैसे रह सकेगी? अब तो उसे बाटियां खाने में कोई समस्या नहीं होगी। वाकई मैं नतमस्तक हूं ग्लोबल होते गोबर के ग्लैमर के सामने। 
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(नवभारत, 30.01.2022)
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2 comments:

  1. वाकई ताज्जुब मुझे भी हुआ था जब ये विज्ञापन देखा .... ऐसे ही दातुन का भी ग्लेमर हो रहा ... सब वो चीजें बिक रही हैं जिनको लोग गंवारों की सूची में डाल देते थे .
    मारक व्यंग्य .

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    1. हार्दिक धन्यवाद संगीता स्वरूप जी 🌷

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