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My Editorials - Dr Sharad Singh

Sunday, March 13, 2022

चलो, अपडेटेशन करें कहावतों का | व्यंग्य | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नवभारत


प्रस्तुत है आज "नवभारत" के रविवारीय परिशिष्ट "सृजन" में प्रकाशित मेरा व्यंग्य लेख "चलो, अपडेटेशन करें कहावतों का" ...😀😊😛
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व्यंग्य
चलो, अपडेटेशन करें कहावतों का
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
       समय के साथ जब राजनीति का ऊंट करवट बदल सकता है और देश की सबसे बड़ी कही जाने वाली पार्टी को एक-दो रन पर आउट कर सकता है तो बोली-भाषा की गाय-बछिया करवट क्यों नहीं बदल सकती है? वह भी तो एक ही मुद्रा में बैठे-बैठे थक जाती है। उसे भी अधिकार है करवट बदलने का। गाय सीधी होती है तथा बछिया तो और भी सीधी होती है। इसलिए ये दोनों बिना किसी शोरशराबे के, बिना किसी सभा या कैम्पैन के ऐसे ही बदलती रहती हैं। चुपचाप, शांतिपूर्वक। समय बदलता है तो आदतें भी बदल जाती हैं। आदतें बदलती हैं तो बातचीत का लहज़ा बदलता है, भाषा भी बदल जाती है। अब बदला-बदली का नमूना देखिए न कि एक जमाने में बेलबाॅटम पहना जाता था। जितनी चैड़ी मोहरी उतनी ज्यादा फैशनेबल। जमाना बदला तो चमड़ी चिपकू अर्थात् स्किनटाईट जींस ने जगह ले ली। अब पैरों की आदत तो मुड़ने की होती है। सीढ़ी चढ़नी है तो घुटने मोड़ने होंगे, कुंर्सी पर भी बैठना है तो घुटने मोड़ने होंगे इसलिए जींस में काटछांट की जाने लगी है। जगह-जगह से कटी जींस पैरों की त्वचा को श्वांस भी देती है और घुटनों को मोड़ने में सहूलीयत भी देती है। भले ऐसी जींस पहन के भिखमंगा दिखें तो दिखते रहें, फैशन तो फैशन है। बेलबाॅटम के जमाने में भी लम्बेबाल वाले लड़के पागल नज़र आते थे। मगर उन्होंने परवाह नहीं की। उस समय वे समय के साथ चल रहे थे, अब हम समय से कदमताल मिला रहे हैं।
जब हम बदल रहे हैं तो हमारी भाषा क्यों न बदले? उसे भी हक है बदलने का। जरूरी है कि नई कहावतों को अपनी पुरानी भाषा में शामिल कर लिया जाए। अब आप कहेंगे कि इससे भाषा की वाट लग जाएगी। तो लगने दीजिए वाट। हम परिवर्तन के टायर को पंक्चर तो नहीं कर सकते हैं। वह तो ट्यूबलेस टायर होता है। थोड़े दचके खाएगा मगर चलता रहेगा, चलता रहेगा। तो आइए देखें कुछ नए मुहावरों को। पहले गोलमोल बातों के लिए कहा जाता था जलेबी जैसे गोल-गोल मत घुमाओ। अब कहा जाना चाहिए कि नूडल्स जैसे मत उलझाओ। क्योंकि आजकल मधुमेह के ख़तरे बढ़ गए हैं। मिठाइयों के बारे में जितना कम सोचा जाए उतना अच्छा। उस पर नवोदित पीढ़ी जलेबियों से अधिक नूडल्स से परिचित है। यदि नवोदित पीढ़ी से कहा जाएगा कि बातों को नूडल्स जैसे मत उलझाओ, तो वह तुरंत समझ जाएगी।
एक कहावत हुआ करती है-‘‘सोलह आने सच’’। अब आज के जमाने में आना-पाई भला कौन जानता है? पहले चार आने में चार समोसे आ जाते थे, ऐसा पड़ोस के दादाजी बताते हैं। अब तो चार आने ही नहीं आते, समोसे क्या खाक आएंगे? अब तो कहावत होनी चाहिए ‘‘सोलह सौ रुपया सच’’ या फिर ‘‘सोलह बिटकाईन सच’’। अब पंद्रह-सोलह रूपयों की इतनी भी कीमत तो बची नहीं है कि उसकी साख की क़समें खाई जाएं या वास्ता दिया जाए। आज के जमाने में बीस रुपए पाव से नीचे अच्छी सब्जी मिलना भी कठिन है। इसलिए सच का भरोसा दिलाने के लिए कम से कम सोलह सौ रुपयों का वास्ता दिया जाना चाहिए। उस पर यदि बिटकाईन का वास्ता दिया जाए तो और सम्मानजनक यानी अपटुडेट लगेगा। यूं भी हम व्हाट्सएप्प विश्वविद्यालय वालों को ‘‘कमस व्हाट्सएप्प’’ की खानी चाहिए। अब आप कहेंगे कि व्हाट्सएप्प पर तो झूठ की सरिता बहती रहती है। तो यह तर्क व्यर्थ है क्योंकि अदालतों में ‘‘गीता’’ पर हाथ रख कर धड़ल्ले से झूठ बोला जाता है तो व्हाट्सएप्प का क्या गुनाह? जिसको झूठ बोलना है वह झूठ बोलेगा ही और जिसको कसमें खानी हैं वह कसम खाएगा ही। तो फिर अपडेट कसम क्यों न खाई जाए? ज़रा आज के जमाने की तो लगेगी।
एक कहावत है -‘‘कुत्ता-बिल्ली की तरह लड़ना’’। अब इसे भी बदल देना चाहिए। जब कोई दो व्यक्ति कुत्ता-बिल्ली की तरह लड़ते- झगड़ते दिखें तो उनसे कहना चाहिए कि ‘‘तुम लोग टीवी डिबेट जैसे क्यों झगड़ रहे हो?’’ दरअसल, टीवी डिबेट का स्टाईल कुत्ते-बिल्ली वाला ही होता है। अब आज आप किसी को कुत्ता-बिल्ली वाला मुहावरा बोलेंगे तो कहीं वह यह न समझ ले कि आपने उसे कुत्ता कहा या बिल्ली कहा। पता चला कि वे दोनों आपस में लड़ना छोड़ कर आपके ऊपर टूट पड़े कि ‘‘हमें कुत्ता क्यों कहा?’’ या ‘‘हमें बिल्ली क्यों कहा?’’ ठंडे दिमाग से सुनने का जमाना तो यूं भी बहुत पहले जा चुका है। आजकल तो दो लोग लड़ते हैं तो तीसरा उनका झगड़ा सुलझाने के बजाए उनकी लड़ाई का वीडियो बनाने टिक जाता है। उस तीसरे को अपनी पोस्ट के वायरल होने के लाख टके के साॅरी लाख लाईक्स के ख़्वाब दिखने लगते हैं।
‘‘गाजर मूली की तरह काटना’’ यह भी एक कहावत है। यह भी अब ओल्डफैशन हो चली है। आज कल हाथ से गाजरमूली काटने का काम सिर्फ शेफ लोग करते हैं, वह भी आमतौर पर कैमरे के सामने। अब तो हैंडी, इलेक्ट्रिक आदि तरह-तरह के कटर आने लगे हैं। घरों में भी बहुतायत सलाद-कटर काम में लाए जाने लगे हैं। यूं भी गाजर, मूली जैसे काटने की धमकी पुरानी हो चली है। अब नया मुहावरा शामिल किया जाना चाहिए कि -‘‘खबरदार जो मुझसे पंगा लिया! तुम्हें सोशल मीडिया पर ट्रोल कर दूंगा।’’ या फिर ‘‘तुम्हें अपने सोशल मीडिया एकाउन्ट से ब्लाॅक कर दूंगा।’’ आजकल यह गाजर, मूली जैसे काटने से अधिक प्रभावी धमकी है। इसलिए इसे मुहावरे के रूप में स्वीकार कर ही लेना चाहिए कि -‘‘ट्रोल करना’’, ‘‘ब्लाॅक करना’’, हैक करना’’ आदि-आदि।
एक कहावत है ‘‘धोबी का गधा’’। अब आप ही बताइए कि आपको कहीं चार पैर वाले गधे दिखाई देते हैं? नहीं न! तो फिर धोबी के गधे और और साहब के गधे को अलग-अलग आईडेंटीफाई कैसे करेंगे? जब गधे सामने हों और वह भी दो-तीन प्रकार के तो आप उनका वर्गीकरण करते हुए उसे कहावत में जड़ सकते हैं लेकिन जब चार पैर वाले गधे नजर ही न आते हों तो ऐसी कहावत का क्या फायदा। भला कौन समझेगा इसे? आजकल तो कपड़े धोने वाले कपड़ों का गट्ठर अपनी मोटरसाईकिल पर लाद कर ले जाते हैं, गधे की पीठ पर नहीं। इसलिए यह कहावत भी आउटडेटेड है। अब नया मुहावरा होना चाहिए ‘‘निजी कंपनी का कर्मचारी’’। यह चपरासी से ले कर सीए तक हो सकता है। सब पर फिट बैठेगी यह कहावत। सिर झुकाए, बिना ना-नुकुर किए काम करते जाइए और खुद को महत्वपूर्ण समझिए। यही दशा तो धोबी के गधे की हुआ करती थी और अब इस दशा से गुजरते हैं निजी कंपनियों के कर्मचारी। काम का बोझा पीठ पर लदा होता है फिर भी यह सोच कर खुश रहते हैं कि हमारे बिना कंपनी का काम नहीं चल सकता है। इसीलिए ‘‘धोबी का गधा’’ के बजाए ‘‘निजी कंपनी का कर्मचारी’’ कहावत अधिक सटीक रहेगी।
बस एक कहावत अजर, अमर और स्थाई है, वह है-‘‘इंडियन टाईम’’। यह लगता है कि कभी पुरानी नहीं पड़ेगी। कभी आउट डेटेड नहीं होगी। चाहे किसी से भेंट करने का समय हो या किसी आयोजन के आरम्भ होने का समय, दस-पन्द्रह मिनट से ले कर दो-तीन घंटे की देरी तो मामूली बात है। पहले देर करना और फिर बत्तीसी दिखाते हुए ढिठाई से उवाचना कि ‘‘अभी देर थोड़े ही हुई है। ये तो इंडियन टाईम है।’’ इसलिए ‘‘इंडियन टाईम’’ वाली कहावत हमेशा समकालीन बनी रहेगी। लेकिन एक कहावत ऐसी है जो पुरानी पड़ चुकी है और उसे बदला जाना चाहिए, वह है-‘‘खाट खड़ी होना’’। अव्वल तो आजकल घरों में खाट होती नहीं है, पलंग होते हैं, सिंगल-पिंगल, किंग साईज़, क्वीन साईज़ आदि-आदि। जहां खाट होती भी है वहां वह बिछी ही रहती है। खडी-वड़ी नहीं की जाती है। इसलिए यह कहावत बदल कर अब कर देनी चाहिए ‘‘वाट लगना’’। यूं तो ये मुंबइया कहावत है और वहां के लिए पुरानी भी है लेकिन अब आजकल यह ‘‘हैशटेग ट्रेंड’’ यानी चलन में बनी रहती है। इसलिए हिन्दी कहावतों में ‘‘वाट लगना’’ को भी सर्वसम्मति स्वीकार किया जाना चाहिए।
तो, ये तो थीं कुछ कहावतें जिनके अपडेटेशन के बारे में मैंने सोचा अब कुछ कहावतों के बारे में आप सोचिए। इससे सोचने की आदत पड़ेगी जो छूटती जा रही है। यानी एक पंथ दो काज। या फिर सोशल मीडिया की कहावत में कहिए कि ‘‘एक पोस्ट से कई शिकार’’। 
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(नवभारत, 13.03.2022)
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