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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, March 2, 2022

चर्चा प्लस | रूस-यूक्रेन युद्ध और तेलघानी के बैल | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
रूस-यूक्रेन युद्ध और तेलघानी के बैल
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
       आज अधिकांश लोग नहीं जानते हैं कि तेलघानी किसे कहते हैं? मेरे साथ के या मुझसे बड़ी उम्र के कुछ लोगों को शायद याद होगी तेलघानी। उनमें से कई ने देखी भी होगी। लेकिन समय के साथ लुप्त हो गई वह तेलघानी। आज रूस-यूक्रेन युद्ध के संशय भरे माहौल में तेलघानी को याद करना विचित्र लग सकता है क्योंकि इनका प्रत्यक्षतः आपसी संबंध भी नहीं है। लेकिन राजनीतिक लिप्सा तो एक तेलघानी है जिसमें हम बैल के समान गोल-गोल घूम रहे हैं। युद्ध की दशाएं बदली हैं पर मंशा नहीं। वह भी गोल-गोल घूम रही है।
मैं राजनीति की विद्यार्थी कभी नहीं रही। महाविद्यालय में पहुंच कर जब मैंने बायोलॉजी ग्रुप से सीधे छलांग लगा कर आर्ट ग्रुप में प्रवेश किया तो मेरे सामने कुछेक विकल्प ही थे। मेरा दाखिला पन्ना के छत्रसाल शासकीय महाविद्यालय के कला संकाय में होना था। मैं बीकाॅम करना चाहती थी। लेकिन मुझे पता चला कि बीकाॅम में लड़कियों को एडमीशन नहीं दिया जाता है। इसका कारण अजीब-सा था। मैंने अपनी मां को बताया जिन्हें मैं नन्ना जी कहती थी। कॉलेज के प्राचार्य वर्मा जी थे जिनकी पत्नी नन्ना जी के साथ स्कूल में व्याख्याता थीं। अतः मेरे कहने पर नन्ना जी ने वर्मा आंटी से तय कर के उनके घर जा कर वर्मा जी से इस बारे में बात की कि ‘‘बच्ची बीकॉम में दाखिला चाहती है और वह कह रही है कि उसे दाखिला नहीं दिया जा रहा है।’’ मैं भी वहां मौजूद थी। वर्मा जी ने बड़े शांत भाव से बताया कि जिस समय बीकाॅम की कक्षाएं लगती हैं उस समय आर्ट वाले जा चुके होते हैं और साईंस वाले आए नहीं होते हैं। इस बीच के समय में कोई जिम्मेदार व्यक्ति नहीं होता है जो लड़कियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी ले सके। मामला वहीं ख़त्म हो गया। मुझे बीए में दाखिला लेना पड़ा। आज सोचती हूं तो समझ में नहीं आता है कि क्या बीकाॅम में पढ़ाने वाले प्राध्यापक भी छात्राओं की रक्षा नहीं कर सकते थे? क्या बीकॉम के छात्र इतने उद्दण्ड थे? इन प्रश्नों के उत्तर मुझे आज भी नहीं मिल पाए हैं। बहरहाल, फर्स्ट ईयर का फॉर्म भरते समय मेरे पास विषयवार विकल्प थे-हिन्दी साहित्य, अर्थशास्त्र, इतिहास और राजनीति विज्ञान। बेहद सीमित विकल्प क्यों कि इनमें से मात्र तीन विषय ही चुने जा सकते थे। मैंने चुना हिन्दी साहित्य, अर्थशास्त्र और इतिहास। मजे की बात यह कि एक मात्र मैं ही ऐसी छात्रा थी जिसने राजनीति शास्त्र नहीं लिया था। अतः राजनीतिशास्त्र के पीरियड में मुझे कक्षा के बाहर अकेले खड़े रहना पड़ता था, शेष सभी छात्र-छात्राएं अरस्तू-प्लेटो के सिद्धांतों से जूझते रहते थे। गनीमत ये थी कि मुझे यह कह कर राजनीतिशास़्त्र पढ़ने के लिए बाध्य नहीं किया गया कि ‘‘कक्षा से बाहर अकेली खड़ी रहना एक छात्रा के लिए ठीक नहीं है।’’ ऐसा नहीं है कि मैंने राजनीति बिलकुल नहीं पढ़ी। मैंने राजनीति पढ़ी लेकिन इतिहास के अंतर्गत। समूचे घटनाक्रम के साथ। जिसमें राजनीतिक सिद्धांतों के साथ सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक दशाएं भी शामिल थीं। काॅलेज में मैं इतिहास पढ़ रही थी और घर में आने वाले अख़बार और पत्रिकाएं ईरान-ईराक युद्ध और गाज़ापट्टी के रक्तपात की घटनाएं पढ़ाती थीं। इतिहास के पन्ने अशांत थे और तत्कालीन वर्तमान के पन्ने भी धधक रहे थे। उस समय फस्र्टईयर के कोर्स में प्राचीन भारत का इतिहास पढ़ाया जाता था। सेकंड ईयर के कोर्स में मध्यकालीन भारत का इतिहास और थर्ड ईयर में आधुनिक भारत का इतिहास। इसी क्रम में विश्वइतिहास भी शामिल था। प्रथम विश्वयुद्ध, द्वितीय विश्वयुद्ध, चीन का इतिहास, जापान का इतिहास आदि-आदि। उन दिनों भी इतिहास पढ़ते समय मुझे यही लगता था कि यह मानव संस्कृति का एवं मानव सभ्यता का इतिहास नहीं है अपितु युद्धों का इतिहास है। मुझे समझ में आ गया था कि युद्ध एक ऐसी मानवीय प्रवृत्ति है जो उससे कभी अलग नहीं होगी। 

प्रथम विश्व युद्ध में 30 ज्यादा देश शामिल हुए। इसमें दो धुरी थी। एक ओर 17 से ज्यादा मित्र देश थे, जिनमें सर्बिया, ब्रिटेन, जापान, रूस, फ्रांस, इटली और अमेरिका आदि थे। दूसरी ओर जर्मनी, ऑस्ट्रिया, हंगरी, बुल्गारिया और ओटोमन साम्राज्य  यानी टर्की था। जर्मनी के चांसलर बिस्मार्क के बारे में मशहूर था कि ‘‘वह एक साथ पांच गेंदों से खेलता है और पांचों गेंदे हवा में रहती हैं, एक भी उसके हाथ से गिरती नहीं है।’’ ये गेंदे पांच राष्ट्र की प्रतीक थीं- ऑस्ट्रिया, हंगरी, बुल्गारिया, टर्की और फ्रांस। फ्रांस जल्दी ही बिस्मार्क की चालों को समझ गया और विरोध में उतर आया। युद्ध की भूमिका बन चुकी थी। वही आदिम मुद्दा - वर्चस्व और ज़मीन के टुकड़े का। युद्ध शुरू हुआ चंद देशों के बीच लेकिन जल्दी ही उसने विश्वव्यापी रूप ले लिया। जिसके विस्तार एक जिम्मेदार ब्रिटेन भी था। उस समय ब्रिटेन का उपनिवेशवाद अपने पूरे विस्तार पर था अतः उसके आधीन आने वाले सभी देशों को उस युद्ध का हिस्सा बनना पड़ा।
प्रथम विश्व युद्ध में 43,86,000 सैनिक मारे गए, 83,88,000 घायल हुए और 36,29,000 लापता हुए। इस युद्ध में लगभग 11 लाख भारतीय सैनिकों ने भी भाग लिया था जिनमें से 75 हज़ार शहीद हुए थे। यह 28 जुलाई 1914 से 11 नवंबर 1918 तक चला था।

राजनीतिक लिप्सा इतना रक्तपात कर के नहीं रुकी। प्रथम विश्वयुद्ध की समापन की संधियों में ही द्वितीय विश्वयुद्ध के बीज बोए जा चुके थे। प्रथम विश्वयुद्ध ने सभी देशों की आर्थिक कमर तोड़ दी थी। जर्मनी ने विजय प्राप्त की थी लेकिन वह धीरे-धीरे उस आर्थिक मंदी की ग़िरफ्त में आ गया जिसे इतिहास में 1930 की ‘विश्व आर्थिक मंदी’ के नाम से जाना जाता है। जब आमजनता परेशान हो तो उनमें जोश जगाने वाला नेता उन्हें पसंद आता है। एडोल्फ हिटलर ने आमजनता के इस मनोविज्ञान को समझा और उसे जर्मनी का जननायक बनते देर नहीं लगी। राजनीति के इतिहास में एक और युद्ध का पन्ना जुड़ना तय हो गया। यह पहले से अधिक भयानक साबित हुआ। इसमें और अधिक संहारक हथियारों का प्रयोग किया गया। यह सन् 1939 से 1945 तक होने वाला एक विश्वव्यापी युद्ध था। इस युद्ध में दो प्रमुख प्रतिद्वंद्वी गुट धुरी शक्तियां (जर्मनी, इटली और जापान) तथा मित्र राष्ट्र (फ्रांस, ग्रेट ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका, सोवियत संघ और कुछ हद तक चीन) शामिल थे। यह युद्ध मित्र राष्ट्रों तथा धुरी राष्ट्रों के बीच लड़ा गया था। मित्र देशों की अगुवाई अमेरिका, फ्रांस और ग्रेट ब्रिटेन द्वारा किया गया जबकि धुरी शक्तियों का नेतृत्व जर्मनी, इटली और जापान द्वारा किया गया था। इस युद्ध में लगभग 70 देशों की थल-जल-वायु सेनाएं शामिल थी। इसके साथ ही युद्ध में विभिन्न राष्ट्रों के लगभग 10 करोड़ सैनिकों नें भाग लिया था, जिसमें 5 से 7 करोड़ लोगो की जानें गई और 2 करोड़ से अधिक लोग घायल हुए थे। जब यह विश्वयुद्ध अपने चरम पर था तब लगभग 25 लाख से अधिक भारतीय सैनिक पूरे विश्व में धुरी-राष्ट्रों की सेनाओं से लड़ रहे थे। लगभग 87 हजार से अधिक भारतीय सैनिक युद्ध में मारे गए थे। इस विनाशकारी युद्ध में परमाणु बम का भी इस्तेमाल हुआ था, जिसके कारण अनेक लोग बीमारी और भुखमरी का शिकार हुए। हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराए जाने की कलंकित घटना के साथ इस युद्ध का पटाक्षेप हुआ। रूस ने अपार जनहानि सही और उतनी ही प्रशंसात्मक जीवटता का भी परिचय दिया। लेकिन क्या किसी ने भी द्वितीय विश्वयुद्ध से सबक लिया? युद्ध की भयावहता रूस, पोलैंड, आस्ट्रिया, फ्रांस आदि योरोपीय देशों से अधिक कोई नहीं समझ सकता है। क्योंकि उनके घरों भीतर तक रक्त की नदियां बहीं। लेकिन वही रूस आज फिर एक युद्ध छेड़ कर बैठा है। युद्ध के दोषियों की सूची में सिर्फ रूस नहीं है। अमेरिका सामरिक नियंत्रण पाने की आड़ में अवसर तलाशता रहता है। वहीं ईराक, ईरान और अन्य खाड़ी देश कभी भी भड़क जाते हैं। चीन सामरिक तैयारियां करता रहता है। पाकिस्तान को तो उछलने की आदत ही पड़ चुकी है। अफगानिस्तान की वर्तमान दशा हमारी आंखों के सामने है।
आज स्थितियां और अधिक जटिल हो गई हैं। आज जब दो देशों के बीच युद्ध होता है तो बाकी समर्थ देशों के हाथ आर्थिक रूप से बंध जाते हैं। साथ ही ख़तरा है अब जैविक और रासायनिक हथियारों का। जिन्हें बनाना और रखना तो हर देश चाहता है लेकिन इनके प्रयोग से डरता भी है। हर देश जानता है कि तीसरा विश्वयुद्ध समूची मानव जाति के लिए घातक सिद्ध होगा। दूसरी ओर आतंकवादी गतिविधियां और हथियारों का बाज़ार है जो वैश्विक शांति को भंग करने के लिए लालायित रहता है। 

आज कोई भी सशक्त देश अपने गिरेबान में झांकना नहीं चाहता है। इसीलिए मैंने बात शुरू की थी तेलघानी से। जब मैं छोटी थी तब पन्ना शहर में एक तेलघानी हुआ करती थीं। बड़ा बाज़ार में। जहां तक मुझे याद है वे लोग पठान थे। उनके परिवार की औरतें सलवार कुर्ता पहनती थीं। सिर पर दुपट्टा डालती थीं लेकिन तेलघानी चलाने में घर के पुरुषों की मदद करती थीं। बहुत बड़ी-सी ऊखल के चारो ओर दो बैल एक-दूसरे के पीछे गोल-गोल घूमते रहते थे। उनकी आंखों पर इस तरह के पट्टे बंधे होते थे कि वे सामने ही देख सकते थे, साईड में नहीं। इसका कारण नन्ना जी ने बताया था कि इससे उन्हें यह भ्रम बना रहता है कि वे सीधे रास्ते पर कहीं दूर चले जा रहे हैं और इससे वे न तो चकराते हैं और न थकते हैं। यानी वे भ्रम में रहते थे। बैलों के घूमने से ऊखल में रस्सियों से बंधा मूसल भी घूमता था जिससे सरसों, तिल आदि के दाने पिसते थे और उनसे तेल निकलता था। मुझे उस दृश्य को देखने में बहुत मजा आता था। लेकिन यही दृश्य अप्रत्यक्ष रूप से हम राजनीतिक इतिहास से वर्तमान तक जी रहे हैं। हमें भ्रम है कि हम सभ्यता में बहुत आगे निकल आए हैं लेकिन फिर ये युद्ध? ये कौन-सी सभ्यता की निशानी हैं? हम तो तेलघानी के बैलों की तरह छोटे-बड़े युद्धों के पीछे-पीछे घूम रहे हैं। तेलघानी का जमाना चला गया लेकिन युद्धों का नहीं। युद्ध कहीं भी हो दुनिया के हर देश पर उसका असर पड़ता है। इसका ताज़ा उदाहरण हमारे देश का सेंसेक्स है जो युद्ध छिड़ते ही औंधे मुंह जा गिरा। इसका असर कच्चे तेल, पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों पर पड़ता है जिससे कमर टूटती है आमजनता की। काश! हम कभी अपनी युद्ध-प्रवृत्ति को छोड़ पाते और गर्व से कह पाते कि अब हम सही मायने में सम्य और सुसंस्कृत हो गए हैं।            
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(02.03.2022)
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1 comment:

  1. युद्धों की भयावहता और व्यर्थता को बता हुआ सार्थक लेखन

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