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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, March 8, 2022

पुस्तक समीक्षा | परंपरागत कहन की खूबसूरत ग़ज़लें | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 08.03.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई शायर विनीत मोहन ‘फ़िक़्र’ सागरी के ग़़ज़ल संग्रह "अंदाज़-ए-सुखन" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
परंपरागत कहन की खूबसूरत ग़ज़लें
 समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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ग़ज़ल संग्रह - अंदाज़-ए-सुखन
कवि       - विनीत मोहन ‘फ़िक़्र’ सागरी
प्रकाशक    - जिज्ञासा प्रकाशन प्रा.लि., गाजियाबाद - 201013
मूल्य       - 200 रुपए 
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ग़ज़ल एक ऐसी विधा है जो जन्मी भले ही विदेशी भूमि पर, लेकिन भारतीय साहित्य में भी इसने भरपूर अपनत्व पाया है। देश का कोई भी सूबा हो या कोई भी शहर हो, ग़ज़ल कहने वाले मौजूद हैं। अब तो ग़ज़ल विधा भारतीय साहित्य में इतनी रच-बस गई है आंचलिक बोलियों में भी ग़ज़लें कहीं जा रही हैं। मध्यप्रदेश के सागर शहर में ही कई नामचीन शायर हुए हैं। साहित्य के लिए उर्वर सागर की ज़मीन पर विनीत मोहन ‘फ़िक़्र’ सागरी का ग़ज़ल संग्रह ‘‘अदाज़-ए-सुखन’’ आना सुखद है। यूं तो ‘फ़िक़्र’ सागरी के दो और ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं-‘‘ख़ुश्बू-ए-सुखन’’ और ‘‘कारवां-ए-ग़ज़ल’’। ‘‘अदाज़-ए-सुखन’’ में कुल सौ ग़ज़लें हैं। इस संग्रह की ग़जलों पर अपने विचार रखते हुए शाइर मित्रपाल शिशौदिया, देवेन्द्र मांझी तथा अशोक मिजाज़ बद्र ने ‘फ़िक्र’ सागरी की ग़ज़लों को ‘‘ताज़गी की ख़ुश्बू का अहसास’’ कराती ग़ज़लें कहा है। 
‘फ़िक्र’ सागरी जितनी गहराई से ग़ज़ल कहते हैं उतनी ही तन्मयता से उन्होंने साॅनेट्स पर भी काम किया है। काव्य की दो विपरीत विधाओं को साधने के लिए ‘फ़िक्र’ सागरी निरंतर काव्य साधना में लगे रहते हैं। किसी भी विधा को साधने के लिए साधना करना जरूरी है। डॉ. विनीत मोहन औदिच्य ‘फिक्र सागरी’ की गजलें न केवल खुद को एक उम्दा गजल साबित करती हैं बल्कि शायर की मेहनत और साधना की भी गवाही देती हैं। उनके दोनों ही गजल संग्रह बेहतरीन हैं और साहित्य को समृद्ध करने वाले हैं।
‘फिक्र सागरी’ की ग़ज़लों में ताना, उलाहना के साथ ही प्रेम के स्याह-सफ़ेद पक्ष को बखूबी सामने रखा गया है। ये सभी ग़ज़लें उर्दू तासीर की देवनागरी ग़ज़लें हैं जो ज़िन्दगी से बात कराती हैं, मुलाक़ात कराती हैं। संग्रह की पहली ग़ज़ल के शेर देखें-
बढ़ते ही  जा  रहे हैं,  आज़ार  ज़िन्दगी के।
लगते  नहीं हैं  अच्छे,   आसार ज़िन्दगी के।
इक शोख सी ग़ज़ल का उन्वान खो गया ज्यों
फ़ीके से  हो  चले हैं  अशआर ज़िन्दगी के।
शायर अशोक मिजाज बद्र ने फिक्र सागरी की ग़ज़लों अपने विचार प्रकट करते हुए भूमिका के रूप में टिप्पणी की है कि ‘‘फिक्र जी ....अपने जज़्बात का इजहार सीधे और सरल शब्दों में करते हैं उनकी सहजता पूर्ण अभिव्यक्ति भरपूर संप्रेषण भी है जो अपने दिल की बात सभी के दिलों तक पहुंचाने में कामयाब है।’’
संग्रह की कुछ गजलों का कहन वर्षों से चली आ रही परंपरा का अनुकरण करते हुए तय किया गया है जिसमें नयापन तो नहीं है लेकिन संवाद की क्षमता है। उदाहरण के लिए एक गजल के कुछ शेर देखिए-
दर्द का सिलसिला पुराना है 
भीड़ से दूर अब ठिकाना है 
मैं हूं काफिर सभी की नजरों में 
उसके कदमों में यह जमाना है 
जीस्त की उलझनों से हूं वाकिफ 
फर्ज  हर हाल में निभाना है
प्रेम की भावना संवेदना एवं आत्मिक अनुभवों का अभिन्न अंग है। प्रत्येक कवि अथवा शायर कभी न कभी प्रेमासिक्त काव्य रचना करता ही है।  फिक्र सागरी की गजलगोई भी इससे अछूती नहीं है।  इस संग्रह में  प्रेम की भावुकता से परिपूर्ण गजलें भी हैं। बानगी देखिए-
गमे इश्क में मुस्कुराने लगे हैं 
अभी होश अपने ठिकाने लगे हैं 
कभी पास आना कभी दूर जाना 
अदा हुस्न की वो बताने लगे हैं 
इसी स्वर की एक और गजल जिसमें शाइर ने एक समर्पित प्रेमी की भावनाओं को बड़ी  सुंदरता से व्यक्त किया है -
मोहब्बत का सबक जब से पढ़ा है 
जुबां से नाम तेरा ही लिया है 
भले हो बदगुमां अब लाख मुझसे 
यहां हर इम्तिहां  मैंने   दिया है 
जमाना दे भले इल्जाम मुझको 
तेरी अब चाह का बस आसरा है 
अरब में बादशाहों की तारीफ में कसीदे कहे जाते थे। कसीदे के पहले हिस्से को तशबीब कहा जाता था जिसमें हुस्न और शबाब की बातें होती थीं। इसमें खूबसूरती और दिलफ़रेबी का वर्णन रहता था। यह माना जाता है कि समय के साथ तशबीब ने ग़ज़ल के रूप में अपना स्वतंत्र स्वरूप पाया। ग़ज़ल के आरंभिक रूप में प्रेम भावना की प्रधानता रही है। इस परंपरा में आज भी शायरी कही जाती है। शायर फिक्र सागरी की एक ग़ज़ल के ये कुछ शेर देखें-
बज्म में अपनी बुलाओ तो सही 
बिजलियां मुझ पे गिराओ तो सही 
चांद तारे खिल उठेंगे नूर से 
रुख से तुम चिलमन हटाओ तो सही 
चूम लेगी कामयाबी पांव को 
इक कदम आगे बढ़ाओ तो सही 
ऐसा नहीं है कि शायद ‘‘फिक्र’’ सागरी ने सिर्फ इश्क़ मिजाज़ी की ग़ज़लें लिखी हों, इस संग्रह की कुछ ग़ज़लें जमाने के हालात को भी बयां करती हैं।  उन्होंने वर्तमान समाज में स्त्री की दशा को देखा, परखा और समझा है तथा उसे अपनी ग़ज़ल में बखूबी पिरोया है। यह ग़ज़ल उस स्थिति पर भी उंगली उठाती है जिसमें कन्या जन्म को ही भार समझा जाता है और इस दूषित सोच के चलते एक स्त्री को बचपन से लेकर जीवन भर कष्टों का सामना करते रहना पड़ता है-
दुनिया को लगती जो भारी मैं औरत हूं 
काया से रखते सब यारी में औरत हूं 
बोझिल कामों में खपती है बचपन से जो
जाती है मां भी बलिहारी मैं औरत हूं 
अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने का साहस सब में नहीं होता है अधिक लोग ऐसे हैं जो अपनी आंखों के सामने अन्याय होते देखते हैं फिर भी ख़ामोश रहते हैं और कुछ लोगों को व्यवस्था के दबाव में आकर चुप रहना पड़ता है। ऐसे लोगों की ओर संकेत करते हुए शायर ने ये शेर कहे हैं- 
इक धुआं सा फिर उठा है चुप रहो 
वाकया  भीषण  हुआ  है चुप रहो 
चल रहे हैं लोग कुछ अंगार पर 
भेद यह सब पर खुला है चुप रहो 
देवेंद्र माझी द्वारा भूमिका के रूप में टिप्पणी करते हुए कहे गए विचार महत्व रखते हैं कि ‘‘ज्यों ज्यों पन्ने पलटने की प्रक्रिया चलती है इस संग्रह के पृष्ठ रूपी धरातल से नए भावनाओं के पुष्प अपनी ताजगी और खुशबू का अहसास कराते नजर आते हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि साहित्य जगत में गजल के इस संग्रह का भरपूर स्वागत होगा और यह अपना विशेष मुकाम बनाएगा।’’ इस संग्रह की ज्यादातर ग़ज़लें प्रेम की ग़ज़लें हैं अतः यह ग़ज़ल संग्रह उन ग़ज़ल प्रेमियों अधिक पसंद आएगा जो प्रेम भावना में डूबी ग़ज़लें पसंद करते हैं।
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