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My Editorials - Dr Sharad Singh

Sunday, May 15, 2022

संस्मरण | नीले, हरे रंग और रंगरेजन बड़ी बी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नवभारत


नवभारत मेंं 15.05.2022 को प्रकाशित
हार्दिक आभार #नवभारत 🙏

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संस्मरण
नीले, हरे रंग और रंगरेजन बड़ी बी
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

हमसे न पूछो रंगरेजवा से पूछो
जिसने गुलाबी रंग दिना, दुपट्टा मेरा...
   - ये है फिल्म "पाक़ीज़ा"  के गाने की मशहूर पंक्तियां जिसमें रंगरेज का जिक्र आया है। फारसी शब्द "रंगरेज" भी उन दिनों एक मुहावरे की तरह चलता था। जब मैं छोटी थी तो मुझे याद है कि मेरे बचपन के शहर पन्ना में एक ही रंगरेज परिवार था। दिलचस्प है कि तब मुझे मालूम भी नहीं था कि वे रंगरेज हैं। यद्यपि मैंने उन्हें कपड़ा रंगते देखा था। मिट्टी की बड़ी-बड़ी नांद में गहरा हरा, नीला, काला और लाल रंग का पानी भरा हुआ होता था।
     उस रंगरेज परिवार में मुझे सिर्फ एक सदस्य का नाम याद है। वह नाम था "बड़ी बी"। वस्तुतः यह उनका नाम भी नहीं, मात्र एक संबोधन था। वे परिवार की मुखिया थीं, इसलिए उन्हें बड़ी बी कहा जाता था। हमारे घर के कपड़े भी उन्हीं के यहां रंगने को दिए जाते थे। विशेष रुप से मां की वह साड़ियां जो पर्दे के रूप में उपयोग में लाए जाने के लिए रंगाई जाती थीं।  वर्षों तक हमारे घर में रेडीमेड पर्दों के बजाय साड़ी के पर्दे ही काम में लाए जाते रहे और वे सभी नीले रंग के होते थे।  एक बार मैंने मां से पूछा था कि हम लोग नीले रंग से ही परदे क्यों रंगवाते हैं? तब उन्होंने कहा था कि नीले रंग के पर्दे अच्छे लगते हैं। दरअसल, बड़ी बी के यहां नीले के अलावा हरा, काला और लाल रंग का काम होता था और मां को नीला रंग पसंद था।
    पन्ना शहर में छोटे बाज़ार से बड़े बाज़ार तक जाने वाले मार्ग के बीच में जैन मंदिर से कुछ आगे और  जड़िया परिवार के घर से पहले रंगरेजों का घर था। घर के बाहर मोटे पत्थर की फर्शियों पर वे कपड़ा रंगने का काम करते थे। आमतौर पर नंगे हाथों से ही वे रंगाई का काम करते थे जिसके कारण उनके हाथ लाल, नीले, हरे, काले दिखाई देते थे। यह पक्के रंग उनके हाथों से कैसे छूटते थे यह मुझे पता नहीं। बड़ी बी वही फर्शी पर चौकी डालकर बैठी रहती थीं। वे इस बात का ध्यान  रखती थीं कि कोई काम में कोताही न करने पाए। सभी काम ठीक-ठाक हो। यदि उन्हें कहीं कोई लापरवाही करता दिखाई दे जाता तो वे उसे बुरी तरह झिड़कतीं। वहीं ग्राहकों के साथ उनका व्यवहार बहुत ही नर्म रहता था। मैं भी जब मां के साथ बड़ी बी के पास जाती थी तो बड़ी बी मां को देखकर उनके सम्मान में चौकी से उठ खड़ी होती थीं। फिर मुझे और मां को भी बैठने के लिए चौकियां देती थीं। हम दोनों के बैठने के बाद वे स्वयं बैठती थीं।        
        एक बार मेरी तबीयत खराब हो गई थी मुझे टाइफाइड हो गया था लगभग 2 माह मैं दवाएं खाती हुई बिस्तर पर रही। उस दौरान एक अजीब-सा फितूर मेरे दिमाग में घुस गया था। मैंने मां से जिद की कम से कम ड्राइंग रूम और उसके पीछे वाले कमरे के बीच जो दरवाजा है उस दरवाजे के पर्दे कोकाकोला कलर में रंगवा दीजिए। बड़ी अजीब-सी मांग थी मेरी, जिसका कोई औचित्य नहीं था। घर में नीले रंग के परदे पहले से ही लगे हुए थे। वे पर्दे तभी बदले जाते जब मां की कुछ और पुरानी साड़ियां निकलतीं।  उस दौरान मां की कोई ऐसी साड़ी नहीं थी जिससे वे पहनना छोड़ने वाली हों। लेकिन मेरी बीमारी को ध्यान में रखते हुए उन्होंने बिना सोचे विचारे अपनी एक साड़ी जो गुलाबी रंग की थी, बहुत ही सुंदर, उन पर जंचती भी थी, उसे कोकाकोला रंग में रंगवाने के लिए दे दिया था। जब वह साड़ी रंग कर आई और मां ने उसे सिलकर पर्दे का रूप दे दिया, तब मैंने मां से पूछा था कि आपने पहले कभी नहीं बताया कि बड़ी बी के यहां कोकाकोला कलर में भी कपड़े रंगे जाते हैं। तब उन्होंने बताया था, "बड़ी बी के यहां कोकाकोला कलर में कपड़े कभी  नहीं रंगे जाते हैं। यह तो उन्होंने तुम्हारी विशेष फरमाइश को ध्यान में रखकर लाल रंग और काले रंग को मिलाकर कोकाकोला कलर बनाया है।"  यह सुनकर मुझे बहुत मजा आया। लेकिन अब सोचती हूं तो मुझे लगता है कि मैंने दोनों पर ज्यादती की थी, मां पर भी और बड़ी बी पर भी। मां को अपनी एक साड़ी कुर्बान करनी पड़ी, वह भी मेरी जिद के कारण। बड़ी बी को मेरी ज़िद को ध्यान में रखते हुए अलग से सिर्फ एक साड़ी के लिए  रंग बनाना पड़ा, जोकि निश्चित रूप से एक ज्यादती ही थी ।
        जब मैं बहुत छोटी थी तो मुझे इस बात का एहसास नहीं था कि वह रंगरेज परिवार जिसकी मुखिया बड़ी बी हैं किस जाति, धर्म का है? क्योंकि  मेरा उस मामले से कोई सरोकार नहीं था। थोड़ी बड़ी होने पर मुझे पता चला कि वह रंगरेज परिवार मुस्लिम है।  कॉलेज पहुंचते-पहुंचते मेरी जिज्ञासा और अधिक बढ़ गई। यद्यपि तब तक उनका काम सिमटने लगा था और उनका नाम भी। अब वह रंगरेज के बजाए "कपड़ा डाई करने वाले" कहलाने लगे थे।        
         समय के साथ हमने जिन मुहावरे जैसे शब्दों को खोया उनमें से एक "रंगरेज" भी है। नई पीढ़ी "टाई डाई वालों"  या "डाईर" को तो जानती है लेकिन रंगरेज को नहीं जानती है। अब कपड़ा रंगने की वह पद्धति भी यदाकदा ही देखने को मिलती है। सादे गर्म पानी, सादे ठंडे पानी और पानी में घुले हुए रंगो से भरी हुई नांदें जिनके पास खड़े होने से भाप का एहसास होता था, बिल्कुल उस अपनत्व की उष्मा की तरह जो बड़ी बी लुटाती थीं। मुझे नहीं पता कि आप में से कितने लोगों ने उस पुरानी पद्धति वाले पुराने रंगरेजों को देखा है, लेकिन मैंने देखा था, पन्ना में उस रंगरेज परिवार को बसे हुए और अपना काम करते हुए।
      मुझे पिछले कुछ वर्षों में दो बार बड़ी बी की शिद्दत से याद आई। एक तो तब जब मैं एक कहानी लिख रही थी जिसका मैंने नाम रखा था " मन न रंगाए रंगाए जोगी कपड़ा।"  कबीर की पंक्तियों पर । दूसरे तब मुझे बड़ी बी बहुत याद आती है जब पिछले दिनों मेरी एक परिचित ने पश्चिम बंगाल से अपने स्वयं के हैंडलूम वर्कशॉप से एक साड़ी बुनवाकर मेरे लिए बतौर उपहार भेजी। उस सूती साड़ी का रंग फीका न पड़े इसके लिए क्या उपाय किया जाए यह मैंने सागर में ही निवासरत अपनी एक युवा परिचित श्रीमती स्वाति हल्वे से पूछा तब उन्होंने डाई कलर फिक्सर के बारे में मुझे बताया जोकि कारगर साबित हुआ। उस दौरान मुझे बड़ी बी की बहुत याद आई। शायद उनके यहां भी इसी तरह का कोई कलर फिक्सर काम में लाया जाता रहा होगा। उस रंगरेज परिवार ने पन्ना के अनेक परिवारों के कपड़े रंगे होंगे। पर अपनी विशेषताओं से उन्होंने तो मेरा मन ही अपने रंग में रंग दिया।           
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