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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, May 4, 2022

पुस्तक समीक्षा | स्त्रीजीवन के धूसर रंगों को उद्घाटित करती कहानियां | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

प्रस्तुत है आज 03.05.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखिका देवकी भट्ट नायक ‘दीपा’ के कहानी  संग्रह "दूसरा मंगलसूत्र" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
स्त्रीजीवन के धूसर रंगों को उद्घाटित करती कहानियां
 समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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कहानी संग्रह - दूसरा मंगलसूत्र
लेखिका     - देवकी भट्ट नायक ‘दीपा’
प्रकाशक     - भारतीय ज्ञानपीठ, 18, इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड नई दिल्ली-3
मूल्य       -  240 रुपए 
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 सन् 1914, 6 अगस्त को, कथाकार फ्रेंज काफ्का ने अपनी डायरी में लिखा, ‘‘मेरे सपनों के आंतरिक जीवन को चित्रित करने की मेरी प्रतिभा ने अन्य सभी मामलों को पृष्ठभूमि में डाल दिया है। मेरे जीवन में बहुत कुछ घटित हो चुका है, और कुछ भी मुझे कभी संतुष्ट नहीं करेगा।’’ दरअसल यह असंतोष यह बेचैनी ही तो है जो एक कथाकार को जीवन को विश्लेषणात्मक ढंग से देखने, जांचने, परखने और संभावनाओं को व्यक्त करने के लिए प्रेरित करती है। यही कारण है कि हिंदी कथा के पुरोधा प्रेमचंद ‘‘सोजेवतन’’ लिखकर नहीं रुके बल्कि उनके भीतर विद्यमान असंतोष उनसे निरंतर उपन्यास और कहानियां लिखाता गया।
इी प्रकार एक सच यह भी है कि स्त्री के जीवन को केंद्र में रखकर जब एक स्त्री कथा साहित्य रचती है तो उसमें यथार्थ के ताने-बाने बहुत ही कुशलता और गहनता से बुने होते हैं। ‘‘दूसरा मंगलसूत्र’’ लेखिका देवकी भट्ट नायक ‘दीपा’ का प्रथम कहानी संग्रह है। इस कहानी संग्रह में उनकी कुल 21 कहानियां संग्रहीत हंै। ये 21 कहानियां स्त्रीजीवन के उन 21 रंगों का एक ऐसा कोलाज़ निर्मित करती है जिसमें कुछ रंग गहरे हैं तो कुछ फीके हैं इस प्रकार ये कहानियां धूसर रंगों को प्रमुखता से सामने रखती हैं। वस्तुतः जीवन विविध रंगों से बना होता है, वह चाहे स्त्री का हो या पुरुष का। किंतु हमारा सामाजिक ढांचा इस प्रकार है कि जिसमें स्त्री के हिस्से में फीके, धूसर रंग अधिक आते हैं। भले ही उसकी देह पर वस्त्र या साज-सज्जा के रूप में चटक रंग दिखाई दंे लेकिन भीतर से उसके जीवन का त्रासद पक्ष, जो कि प्रायः गोपन रहता है कथा साहित्य के द्वारा हमारे सामने उभर कर आता है। जब हम ऐसे कहानियां पढ़ते हैं तो सोचने पर विवश हो जाते हैं कि कोई स्त्री अपने जीवन में इतनी सारी ऋणात्मकता को कैसे झेल लेती है? एक स्त्री तो दूसरे स्त्री के दुख को प्रायः समझ लेती है किंतु पुरुष वर्ग पूरी तरह से उस पीड़ा को महसूस नहीं कर पाता है। उसके लिए दो दुनिया अलग-अलग होती है-एक घर के भीतर की दुनिया और एक घर के बाहर की दुनिया। अपनी स्त्री को वह घर के भीतर रखना चाहता है, अपने लाभ के लिए उपयोग में लाना चाहता है और अपने से दोयम दर्जे में रखना चाहता है। निस्संदेह यह हर स्त्री और हर पुरुष पर लागू नहीं होता है किंतु लगभग 70 प्रतिशत स्त्री-पुरुषों पर यह स्थिति लागू होती है। शिक्षित वर्ग भी इससे अछूता नहीं है। धनाढ्य वर्ग में भी जहां स्त्रियां आर्थिक रूप से सशक्त दिखाई देती है, वहां भी स्त्री दोयम स्थान ही रखती है। इस सच को चाहे जितना भी नकारा जाए उससे सच नहीं बदलता है और इसी सच को एक कथाकार कुशलता से अपनी कहानियों में पिरो कर एक ऐसा लिबास बुनता है जो स्त्री के अस्तित्व को तो प्रतिष्ठा का लिबास पहनाता है किंतु एक पारदर्शी वस्त्र की भांति समाज की मानसिक नग्नता को उजागर कर देता है।
देवकी भट्ट की कहानियां स्त्री जीवन के संघर्ष को रेखांकित करते हुए उनकी समस्याओं और भावनाओं को सामने रखती हैं। इन कहानियों में ग्रामीण स्त्री भी है और शहरी स्त्री भी। इनमें गरीबीरेखा से नीचे की स्त्री भी है और मध्यमवर्गीय कामकाजी स्त्री भी। यह कहानियां आग्रह करती हैं स्त्री जीवन को समझने की।
संग्रह की प्रथम कहानी ‘‘बाघिन’’। यह पहाड़ों की स्त्री की साहस कथा है जो वस्तुतः किसी भी अंचल की हो सकती है। बस, अंतर इतना ही रहेगा की पहाड़ों में कथा-नायिका को चार पैर के हिंसक पशु का सामना करना पड़ा जबकि अन्य इलाकों में दो पैर के हिंसक पशुओं से भी उसका सामना होता रहता है। पहाड़ों की स्त्री अन्य स्त्रियों की भांति श्रम करती है किंतु उसका श्रम अपने परिवार के लिए होता है अतः उसका न तो मूल्यांकन किया जाता है और न उसके श्रम को महत्व दिया जाता है। कमोवेश यही स्थिति लगभग दुनिया के हर स्थान पर है।
दूसरी कहानी है ‘‘आर्डर’’। संघर्ष का एक ऐसा तिलिस्म रचती है जिसमें अनेक उतार-चढ़ाव मौजूद हैं। स्त्री पर लांछन लगाना सबसे आसान काम होता है। अब यह उस स्त्री पर निर्भर करता है कि वह उस लांछन के आगे घुटने टेक देती है, हार मान लेती है अथवा डटकर मुकाबला करती है और उस लांछन की परवाह किए बिना अपने अस्तित्व को साबित करती है। यह कहानी इन्हीं संभावनाओं के साथ अपने क्लाइमेक्स पर पहुंचती है।

इस संग्रह में एक कहानी है ‘‘थप्पड़ की गूंज’’। इस कहानी को पढ़ते-पढ़ते सहसा उस फिल्म की याद आ जाती है जिसे 1973 में मनमोहन देसाई ने निर्देशित किया था। फिल्म का नाम था ‘‘आ गले लग जा’’। फिल्म एक ऐसे बच्चे के ट्रीटमेंट पर केंद्र थी जिसका इलाज नहीं हो पा रहा था। फिर डॉक्टर उस बच्चे के साथ कठोरता का व्यवहार करता है जिससे वह ठीक हो जाता है। इस फिल्म ने उस समय बॉक्स ऑफिस पर 1.5 करोड़ रुपए कमाए थे। यह एक सुपर-डुपर हिट फिल्म साबित हुई थी। इसमें शशि कुमार और शर्मिला टैगोर का लीड रोल था। कुछ ऐसी ही मूल कथा है ‘‘थप्पड़ की गूंज’’ की। बहुत कुछ ड्रामेटिक। भले ही कहानी में सकारात्मक पक्ष है किंतु  इसकी नायिका एक शिक्षिका है अतः विद्यार्थी पर कठोरता बरतना उसके लिए उचित नहीं है और यह बात उसे स्वयं भी महसूस होती है। यह कहानी संयोगों का सूत्र पकड़ कर अपने अंत तक पहुंचती है।
शादी-विवाह के बंधन मात्र दो व्यक्तियों को नहीं अपितु दो परिवारों को आपस में जोड़ने का कार्य करते हैं यदि गहराई से जांच-पड़ताल न की जाए तो परिणाम दुखद साबित होते हैं। हमारे भारतीय समाज में ऐसी स्थितियों में स्त्री को ही विषमताओं का सामना करना पड़ता है। ‘‘उनसे पूछ लो’’ कहानी इसी तथ्य की ओर इंगित करती है। जिसमें एक स्त्री अपने ससुरालियों से बिना पूछे अपने मायके भी नहीं जा सकती है, चाहे उसकी मां मरणासन्न ही क्यों न हो।
‘‘कौमुदी’’ माता-पिता की अनदेखी के चलते बाल यौन शोषण की एक ऐसी कथा है जो यह बताती है कि बच्चे तो ‘‘बैड टच’’ और ‘‘गुड टच’’ को ठीक से नहीं समझ पाते हैं किंतु यह माता-पिता का दायित्व बनता है कि वह अपने बच्चों का ध्यान रखें कि कहीं उनके साथ कुछ बुरा तो नहीं घटित हो रहा है क्योंकि इस तरह की घटनाओं का संबंध है भले ही आर्थिक आधार से हो किंतु माता-पिता की सजगता उसे रोक सकती है।
‘‘पूनम का चांद’’ कहानी एक लंपट पुरुष की लिप्सा की कहानी है। इस कहानी का अंत भी अत्यंत ड्रामेटिक है। एक कथाकार के लिए यह तय करना जरूरी है की वह अपनी कहानी का अंत अपनी अभिलाषा के अनुरूप तय करना चाहता है अथवा यथार्थ के अनुरूप रखता है। लेखिका देवकी भट्ट कि अधिकांश कहानियां ड्रामेटिक अंत पर जाकर ठहरती हैं। 

‘‘आधे घंटे की आजादी’’ जिसे लेखिका ने ‘संस्मरणात्मक कथा’ कहां है, एक स्त्री की मार्मिक कथा है। पुरुष लाचार अवस्था में होकर भी स्त्री को अपनी सेविका ही मानता है, वहीं दूसरी ओर स्त्री भी स्वयं को सेविका मानने का समझौता करके जिंदगी जीती रहती है। यह कहानी अपने पीछे बहुत से प्रश्न छोड़ जाती है कि क्या इस तरह की परिस्थितियां बदली जा सकती है? क्या स्त्री अपने लाचार अवस्था के पति की बराबरी सहयोगिनी बन सकती है? ये वे प्रश्न हैं जिनके उत्तर पाठकों के मन मस्तिष्क में देर तक विचरण करते रह सकते हैं। इसी तरह एक और संस्मरण कहानी है ‘‘मौनी बाबा’’। यह लोकमंगल का विमर्श रचती है। ‘‘नर्मदा में डुबकी’’, ‘‘पक्यात’’ कहानियां सामाजिक अंतर्विरोधों को रेखांकित करती हैं।  
संग्रह की शीर्षक कहानी ‘‘दूसरा मंगलसूत्र’’ वैवाहिक रिश्ते में मिले छल से स्वयं को निकालने की संघर्ष कथा है। इसमें एक स्त्री अपने पक्ष में उचित निर्णय लेती है और पूर्व अनुभव को याद रखते हुए स्वयं अपना दूसरा मंगलसूत्र बनने का प्रण करती है। इसमें ‘मंगलसूत्र’ नामक वैवाहिक आभूषण को संरक्षण के प्रतीक के रूप में लेते हुए स्वयं की संरक्षिका बनने काआह्वान किया गया है। यह संग्रह की एक सशक्त कहानी है।

लेखिका ने आम बोलचाल की हिन्दी भाषा के साथ ही गढ़वाली और बुंदेली बोली को भी अपने संवादों में अभिव्यक्ति दी है जो पात्रानुसार उचित है तथा कथा के वातावरण से पाठक को जोड़ने में सहायता करती है।
संग्रह के ब्लर्ब पर वरिष्ठ साहित्यकार टीकाराम त्रिपाठी तथा आलोचक एवं कवि महेंद्र सिंह द्वारा लिखित टिप्पणियां है। संग्रह की सभी कहानियां पाठक से संवाद करने को उत्सुक दिखाई देती हैं। यह इन कहानियों की अपनी मौलिक विशेषता है। ये सभी कहानियां स्त्री जीवन के धूसर रंगों को उद्घाटित करती कहानियां हैं। कहानियों का नरेशन प्रभावी है। कथाकार देवकी भट्ट नायक ‘दीपा’ का यह प्रथम कहानी संग्रह है जो इस बात की तस्दीक करता है कि लेखिका अपनी कथायात्रा पूरी गंभीरता से जारी रखना चाहती हैं। समय के साथ कुछ एक कमियों को साधने के बाद निश्चित रूप से वे एक परिपक्व कथाकार के रूप में हिंदी साहित्य जगत में अपना स्थान बनाएंगी, ऐसा मुझे विश्वास है। यह कथा संग्रह पठनीय है एवं रुचिकर है।                   
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