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My Editorials - Dr Sharad Singh

Sunday, June 5, 2022

संस्मरण | मंदिरों की नगरी और कोतवाली की गजर | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नवभारत

नवभारत मेंं 05.06.2022 को प्रकाशित/हार्दिक आभार #नवभारत 🙏
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संस्मरण
मंदिरों की नगरी और कोतवाली की गजर
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
      पन्ना शहर का दूसरा नाम है मंदिरों की नगरी। मैंने जब चलना भी नहीं सीखा था तब से अपने कमल मामा की गोद में चढ़ कर उन विशालकाय मंदिरों में जाया करती थी। मंदिरों और देवताओं के बारे में जानने-समझने की क्षमता उन्हीं मंदिरों के प्रांगण में नन्हें पैरों से चलने का अभ्यास करते और खेलते-कूदते मेरे भीतर विकसित हुई। बल्देव जी के मंदिर से मेरा विशेष जुड़ाव रहा। कारण यह कि वह मेरे घर के निकट था और उसका प्रांगण बहुत खुला-खुला और बड़ा-सा था।। अंदर से भी उसका आर्किटेक्चर इस प्रकार का था कि वहां पहुंचकर सब कुछ बहुत बड़ा महसूस होता था। शायद यह पन्ना के मंदिरों के स्थापत्य सौंदर्य की ही देन थी कि बड़े होकर जब मैंने प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व विषय में एम.ए. के फाइनल ईयर में "आर्ट एंड स्कल्पचर" के विषय को स्पेशल पेपर के रूप में चुना। उस विषय से मुझे इतना अधिक लगाव था कि मैं मंदिर स्थापत्य की बारीकियों को बहुत ध्यान से पढ़ती थी, समझती थी और उनके स्ट्रक्चरल प्लान ड्रा भी करती थी। इस प्रश्न पत्र में मुझे 100 में 89 अंक प्राप्त हुए थे। यद्यपि मेरा वह पेपर इतना अच्छा हुआ था कि उसमें मुझे 100 में 100 भी मिल सकते थे, किंतु इतिहास विषय ऐसा है कि जिसमें पूरे के पूरे नंबर नहीं मिलते हैं। यह बात और है कि पीएचडी के लिए विषय चुनते समय मैंने मंदिर स्थापत्य के स्थान पर मूर्तिकला को चुना क्योंकि मूर्ति कला में भी मेरी अगाध रुचि थी। विशेष रूप से प्राचीन मूर्तियों की कलात्मकता में।


  खैर, मैं बात कर रही थी अपने बचपन की। वह बचपन जो निश्चिंत था। खेलकूद में व्यस्त और मस्त रहता था। लेकिन इसी खिलंदड़े बचपन में कहीं अवचेतन में मंदिरों और देवताओं के प्रति आकर्षण तथा श्रद्धा के बीच रोपित होने लगे थे। मेरा परिवार कभी धर्म को लेकर संकीर्ण विचारधारा का नहीं रहा तथा आडंबरों को भी कभी नहीं ओढ़ा। इसीलिए मेरी दृष्टि में हर मंदिर एक समान था, चाहे वह किसी भी संप्रदाय अथवा विचारधारा का हो। मेरे लिए जितना महत्व बल्देव जी के मंदिर था, जुगल किशोर जी के मंदिर था, उतना ही महत्व प्राणनाथ जी के मंदिर का भी था। बल्देव जी का मंदिर पाश्चात्य स्थापत्य पर आधारित है। यह प्रमाण मिलता है कि बलदेव जी के मंदिर की डिजाइन लंदन के सेंट पॉल कैथेड्रल की भांति बनाई गई है। मंदिर के अंदर बहुत बड़ा आराधना स्थल, जिसमें सुचिक्कन बड़े-बड़े ऊंचे स्तंभ बहुत ही आकर्षक लगते हैं। बचपन में तो वह स्तंभ और भी बड़े और ऊंचे लगते थे। मैं और वर्षा दीदी इस स्तंभ के दोनों ओर खड़े होकर एक दूसरे का हाथ पकड़ने का प्रयास करते ताकि हम उसे अपने घेरे में ले लें। लेकिन उन स्तंभों के व्यास इतने चौड़े थे कि हमारी छोटी-छोटी बाहों के घेरे में नहीं आ पाते थे।
       जुगल किशोर जी का मंदिर हमारे घर से कुछ दूर पड़ता था। इसलिए वहां महीने में एक बार ही जा पाते थे। लेकिन वहां जाकर बहुत अच्छा लगता था। वह भी बहुत खूबसूरत मंदिर था। जुगल किशोर जी की प्रतिमा की मुरली में जड़े हुए हीरो़ं पर तो लोकगीत भी प्रचलित है-
       *पन्ना के जुगल किशोर*
       *मुरलिया में हीरे जड़े....*

सच तो यह है कि पन्ना के हर मंदिर की हर मुख्य प्रतिमा में हीरे जड़े हुए हैं। प्राणनाथ जी के मंदिर में प्रतिमा नहीं है। वहां एक विशाल परिसर में दो मंदिर हैं। एक मंदिर जिसमें भगवान कृष्ण की मुरली रखी हुई है और दूसरा जिसमें प्रणामी संप्रदाय का पवित्र ग्रंथ "कुलजमस्वरूप" रखा है। वहां मंदिर प्रांगण में एक बहुत ऊंचा ध्वज स्तंभ भी है। प्राणनाथ जी का मंदिर हमारे घर से और भी अधिक दूर था। आज के फैलते हुए शहरों के हिसाब से देखा जाए तो यह दूरी किसी एक सेक्टर से दूसरे सेक्टर की कही जा सकती है लेकिन उस समय उस छोटे से शहर के लिए यह दूरी शहर के एक छोर से दूसरे छोर की थी। प्राणनाथ जी का मंदिर जिस स्थान पर स्थित है उसके चारों ओर प्रणामी संप्रदाय को मानने वालों के निवास है। प्रणामी संप्रदाय के इस मंदिर को प्राणनाथ जी का पुण्य धाम कहा जाता है इसीलिए वह मोहल्ला धाम मोहल्ला कहलाता है। वहां संकरी गलियां हैं, पत्थर की फर्शियों से ढंकी हुई। विधिवत नालियों की व्यवस्था युक्त। कम से कम उस समय तो यही स्थिति थी। उन दिनों उस क्षेत्र में स्वच्छता का भी पूरा ध्यान रखा जाता था। जिस दिन हमें प्राणनाथ जी के मंदिर जाना होता था वह दिन हम लोगों के लिए एक पिकनिक जैसा दिन होता था।
        प्रणामी संप्रदाय से जुड़ी एक और विशेषता जिसने बचपन से ही मेरे दिलो-दिमाग पर अपनी छाप छोड़ी वह थी शरद पूर्णिमा पर आयोजित होने वाले 'महारास' की छवि। इस महारास में गुजरात, नेपाल आदि दूर-दूर से श्रद्धालु आते थे। पूरा शहर एक मेला ग्राउंड में तब्दील हो जाता था। एक-दो बार तो ऐसा भी हुआ कि श्रद्धालुओं की संख्या अधिक होने पर उनके ठहरने की व्यवस्था उस स्कूल भवन में की गई जो हमारे हिरणबाग कॉलोनी के परिसर में बना हुआ था। तब मुझे गुजरात से आए हुए संभवत वे कच्छ के निवासी थे, उनकी वेशभूषा और उनके आभूषणों को देखने का अवसर मिला। जो कि मेरे लिए बिल्कुल नई वस्तुएं थीं। प्राणनाथ मंदिर परिसर में शरद पूर्णिमा की रात्रि को सभी श्रद्धालु एकत्र होते और डांडिया रास खेलते थे। वह अद्भुत दृश्य होता था। यह परंपरा आज भी क़ायम है किंतु बाल्यावस्था में वह सब कुछ बहुत कौतूहलमय था।
       प्रणामी संप्रदाय में पूजा के समय घुटने टेक कर, भूमि पर माथा रखकर भूमि को चूमा जाता है। मुझे यह क्रिया बहुत अनोखी और अच्छी लगी थी। मुझे याद है कि एक बार जब मैं प्राणनाथ जी के मंदिर से लौट कर घर आई और मां शाम की पूजन आरती की। उसके बाद हम सब लोगों को भगवान की अलमारी के सामने माथा टेकना था, तब मैंने प्रणामी पद्धति से घुटने टेककर जमीन पर माथा रखते हुए जमीन को चूमा। तब मां ने मुझे समझाया कि यह प्रणामी परंपरा है, हमारे परिवार की परंपरा नहीं है। मुझे अच्छी तरह से याद है कि यह समझाते हुए उन्होंने "धर्म" शब्द का प्रयोग नहीं किया था। उन्होंने यह नहीं कहा था कि यह प्रणामी धर्म में होता है हिंदू धर्म में नहीं। ऐसे शब्दों का प्रयोग न करने के पीछे निश्चित रूप से उनका उद्देश्य यही था कि मेरे बाल मन में धार्मिक भिन्नता की भावना किसी भी तरह मन में न आने पाए।
        प्राणनाथ जी के दोनों मंदिरों में से एक में महामती प्राणनाथ जी का समाधि स्थल भी है। इसलिए उन दिनों गैरप्रणामियों में वहां का प्रसाद खाने का चलन नहीं था। लेकिन इससे उन मंदिरों के प्रति आमजन में श्रद्धा की कोई कमी नहीं थी। हर धर्म, हर संप्रदाय का व्यक्ति प्राणनाथ जी के मंदिर में भी जाया करता था। वहां की आरती बड़ी ही मनोरम होती थी।
        पन्ना में बल्देव जी का मंदिर, जुगल किशोर जी का मंदिर, राम मंदिर आदि विशालकाय मंदिर हैं जिन्हें बचपन से ही  देखने के बाद अब किसी भी मंदिर की विशालता प्रभावित नहीं करती है। उन भव्य मंदिरों की मेरे मन मस्तिष्क पर बहुत गहरी छाप है।
        सुबह और शाम नियत समय पर मंदिरों में घंटे बजाए जाते थे। जो इस बात की सूचना होते थे कि अब आरती का समय हो गया है। निश्चित रूप से यह चलन उस समय आरंभ हुआ होगा जब लोगों के पास घड़ियां नहीं होती थीं। अतः समय की सूचना देने के लिए घंटों का प्रयोग किया जाता था। मंदिरों के साथ ही नगर कोतवाली में भी घंटे बजाए जाते थे। लेकिन यह घंटे किसी आरती की समय सूचना के लिए नहीं बल्कि समय बताने के लिए ही होते थे। यानी हर घंटे घड़ी के अनुसार घंटे बजाए जाते थे। जैसे 1:00 बजे एक घंटा बजता था, 2:00 बजे 2 घंटे, 3:00 बजे 3 घंटे और इसी क्रम में 12:00 12 घंटे बजते थे। चूंकि कोतवाली  हमारे घर से बहुत नज़दीक थी इसलिए उसके घंटे हमेशा सुनाई देते रहे। जब शहर में भीड़ बढ़ने लगी, गाड़ियों की अधिकता हो गई और कोलाहल बढ़ गया तो मंदिरों के घंटों की ध्वनियां उस कोलाहल में विलीन-सी हो गईं। जब मैं कॉलेज में पढ़ती थी, तब मैं और वर्षा दीदी हम दोनों रात को जाग कर पढ़ाई किया करते थे। ज़ाहिर है कि मैं कम देर जागती थी और दीदी देर तक जागा करती थीं। लेकिन जब तक मैं जागती थी तब तक मुझे कोतवाली में बजने वाले घंटे सुनाई देते थे। लेकिन मंदिरों के घंटों की ध्वनि जो 'गजर' कहलाती थी, वह हमारे घर तक आना बंद हो चुकी थी। हमें सिर्फ कोतवाली की गजर ही सुनाई देती थी। दिन को भी और रात को भी। बिना नागा हर घंटे। घड़ी देखने की आवश्यकता नहीं थी यदि उस गजर की आवाज़ पर ध्यान रखा जाता।
      उन घंटो की ध्वनि को गजर क्यों कहते थे यह मुझे समझ में नहीं आता था किंतु आज गजर की याद आने पर वह पुराना गाना कौंध जाता है जो 1950 में बनी फिल्म "बाजी" में फिल्माया गया था। इस फिल्म को दूरदर्शन में देखने का मुझे अवसर मिला था, संभवतः 1987 में। गाने के बोल इस प्रकार थे -
    सुनो गज़र क्या गाए
    समय गुजरता जाए
    ओ रे जीने वाले, ओ रे भोले भाले
    सोना न, खोना न ...

    बहुत सी व्यवस्थाएं समय के साथ बदल जाती हैं। शहरों के परिदृश्य बदल जाते हैं। वातावरण बदल जाता है। किंतु स्मृतियां अतीत को सहेजे रखती हैं। मेरी स्मृतियों में भी मेरे बचपन का शहर यथावत मौजूद है। एक भोला भाला, प्यारा-सा शहर, जिसमें विशालकाय मंदिरों के घंटों के स्वर और कोतवाली के गज़र की ध्वनियां अभी भी गूंज रही हैं।             
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