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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, June 7, 2022

पुस्तक समीक्षा | दुनियावी सवालों के ज़वाब ढूंढती ग़ज़लें | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 07.06.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई वरिष्ठ कवि कृष्ण बक्षी जी  के ग़ज़ल संग्रह "चलो ढूंढें ज़वाब अपने" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
दुनियावी सवालों के ज़वाब ढूंढती ग़ज़लें
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ग़ज़ल संग्रह - चलो ढूंढें जवाब अपने
कवि       - कृष्ण बक्षी
प्रकाशक  - बोधी प्रकाशन, सी-46, सुदर्शनपुरा इंडस्ट्रियल एरिया एक्सटेंशन, नाला रोड, 22 गोदाम,जयपुर - 302006
मूल्य      - 150/- 
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न दरिया में  रवानी है चलो ढूंढे जवाब अपने
कहीं ठहरा सा पानी है चलो ढूंढे जवाब अपने
अलहदा कैसे कर दोगे रगों में सबकी बहता है
जो खूं हिंदोस्तानी है चलो ढूंढे जवाब अपने
अज़ब हालात में उलझा के रख दी है जवां पीढ़ी
भटकती-सी जवानी है चलो ढूंढे जवाब अपने
- ये अशआर हैं शायर कृष्ण बक्षी की गजल ‘‘चलो ढूंढे जवाब अपने’’ से। यह ग़ज़ल उनके जिस ताजा ग़जल संग्रह में संग्रहीत है, उसका नाम भी है ‘‘चलो ढूंढे जवाब अपने’’।
वर्तमान परिदृश्य देखते हुए कवि कृष्ण बक्षी महसूस करते हैं कि समाज में हर स्तर पर हर ओर प्रश्नों का अंबार लगा हुआ है, जिनका जवाब ढूंढें बिना हल नहीं निकाला जा सकता है। जो प्रश्न अव्यवस्थाओं को देखकर, असंवेदनाओं को देखकर और विसंगतियों को देखकर मन में उमड़ते-घुमड़ते हैं, वही व्याकुलता का कारण बनते हैं। इसलिए भी उनका जवाब ढूंढना ज़रूरी है। यूं भी प्रश्नों से घिरा हुआ समाज कभी सही ढंग से विकास नहीं कर पाता है।

ग़म ही रह जाते हैं अक्सर गुनगुनाने के लिए
छोड़ देता है कोई जब टूट जाने के लिए
छीन कर के चुलबुल ले गए सारी हंसी
तुमने छोड़ी  तक खुशी न मुस्कुराने के लिए

इसी ग़ज़ल में जो कि आरंभ में इश्क़िया गजल होने का एहसास कराती है, वहीं आगे के शेर ज़िंदगी की पथरीली सच्चाइयों से सामना कराते हैं। जैसे ये शेर हैं-
पी गया है चिमनियों का उनको ज़हरीला धुआं
घर से जो  मजदूर  निकले  कारखाने के लिए
खूब  इस्तेमाल  तुमने  कर लिया  आवाम का
काम आया है फ़क़त जो सर झुकाने के लिए

कवि ने सत्ता के खोखले वादों और दावों पर जहां तंज़ कसा हैं, वहीं सत्ता के इर्द-गिर्द झूठ के मायाजाल को भी उजागर किया है। एक ऐसा मायाजाल जो आमजन को वोटर संख्या अथवा सभाओं की भीड़ से अधिक कुछ नहीं मानती है। कवि कृष्ण बक्षी की ग़ज़लों में भाषाई समृद्धि स्पष्ट दिखाई देती है। प्रचलन में मौजूद शब्दों और मुहावरों को बड़ी सुंदरता से और सटीकता से अपने शेरों में पिरो देते हैं। जैसे यह ग़ज़ल है ‘‘सभाओं ने हमें’’ -
हर कसौटी पर कसा है विपदाओं ने हमें
खूब जांचा खूब परखा आपदाओं ने हमें
सिर्फ हम मोहरे रहे जलसे, जुलूसों के
दांव पर रक्खा हमेशा ही सभाओं ने हमें
साज़िशों वाली अंधेरी कोठरी में क्यूं
बांध रक्खा है अभी तक बादशाहों ने हमें

इस संग्रह की ग़ज़लें अपने प्रश्नों के जवाब मांगने के साथ ही हमारे आसपास रच-बस गए झूठ को बखूबी रेखांकित करता है। और हमें आगाह करने का प्रयास करता है कि हमें ज़रूरत है अपने स्वार्थ की गहरी नींद से जागने की। यूं तो शायरी का नाता प्यार- मोहब्बत, ग़म, शिक़ायत, दोस्ती, दुश्मनी आदि इन सब से बहुत क़रीब कर रहा है। लेकिन जब कृष्ण बक्षी अपनी शायरी में दोस्ती-दुश्मनी की बात करते हैं तो उनका अंदाज़ निराला होता है बानगी देखिए -

दर्द अक्सर जब  मुझे पहचान लेता है
बिन सबूतों के ही दुश्मन मान लेता है
बात उठते ही वो मेरे इन सवालों की
पांव से सर तक वो चादर तान लेता है
यह व्यवस्था ही बहुत है जान लेने को
ज़हर का तू किसलिए एहसान लेता है

दर्द पर ही एक ग़ज़ल के कुछ और शेर देखिए जिनमें आंतरिक पीड़ा के साथ ऐतिहासिक उद्धरण का सुंदर सामंजस्य है-

ज़ख्म मेरे आज  मुझसे बात करने पर तुले हैं
और उस पर दर्द तहक़ीक़ात करने पर तुले हैं
सांझ के सूरज बचा कर रख ज़रा सी रोशनी
वक़्त से  पहले सितारे  रात करने पर तुले हैं
वह  हमारे  दौर का  ही  आम सा इंसान है
आप आखिर क्यों उसे सुकरात करने पर तुले हैं

यह माना जाता है कि बड़े बहर की ग़ज़लें कहने से अधिक कठिन होता है छोटी बहर की ग़ज़लें कहना। सच भी है कि कम से कम शब्दों में सब कुछ कह देना एक साहित्यिक कला ही तो है। जो इस कला में पारंगत हो जाता है, वह आसानी से छोटे बहर की सटीक ग़ज़लें भी कह लेता है। इस संग्रह में बड़े बहर के साथ छोटे बहर की भी कई खूबसूरत गजलें हैं। जैसे यह एक गजल है ‘‘रोज़ मरते हैं’’ -
    हम जिसे  बहुत  प्यार करते हैं
    उसकी  नाराज़गी  से डरते हैं
    जिनको होता है खौफ लहरों का
    सिर्फ  पानी  में  वो उतरते हैं
    चल मोहब्बत से पूछ कर देखो
    हम ही करते हैं कि वो भी करते हैं

छोटी बहर की ही एक और ग़ज़ल है जो आजकल के अव्यवस्था भरे माहौल पर तीखा कटाक्ष करती है। शेर देखें -
नए-नए रास्ते निकाल के
ढूंढ रहे हैं हल सवाल के
ग्राम सभा से  लौटे हैं वो
कुछ ताजा मुद्दे उछाल के
आपके घर के बदलो बंधु
बूढ़े  कैलेंडर  दीवाल के

कवि कृष्ण बक्षी का गीत-ग़ज़ल की दुनिया में एक लंबा अनुभव है। वे अपनी ग़ज़ल में जो कुछ कहना चाहते हैं बखूबी कहने की महारत रखते हैं। भाषा भी सरल है, आम बोलचाल की भाषा। इसीलिए उनकी ग़ज़लें, उसे पढ़ने या सुनने वाले से सीधा संवाद करने की ताकत रखती है। ‘‘चलो ढूंढे जवाब अपने’’ संग्रह की तमाम ग़ज़लें शिल्प के लिहाज़  से मुक़म्मल हैं और पठनीय हैं।
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