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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, July 13, 2022

चर्चा प्लस | ट्रैफिक व्यवस्था की ‘वाट लगाते’ ये नज़ारे | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
ट्रैफिक व्यवस्था की ‘वाट लगाते’ ये नज़ारे
 - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
           देश-दुनिया में बहुत से मसले हैं। कोई परस्पर एक-दूसरे को अपशब्द कह रहा है तो कोई देवी-देवता को लांछित कर रहा है। कहीं आम जनता पर गोलियां बरसाई जा रही हैं तो कहीं राजनेता को गोली मारी जा रही है। मगर हमारी बुनियादी समस्याओं को इन सबसे कोई लेनादेना नहीं है। बुनियादी समस्याओं में से एक है शहर की ट्रैफिक व्यवस्था। यदि मुंबईया में बोला जाए तो वह व्यवस्था जिसकी हमेशा वाट लगी रहती है।
अब जब भी मैं किसी शहर के किसी ऐसे चौराहे से गुज़रती हूं और मुझे वहां आवारा पशु अर्थात् हमारा सम्मानीय गौधन घूमता-टहलता दिखाई देता है तो मुझे वह दिन याद आ जाता है जब मैं पहली बार अपने सागर शहर के स्मार्टसिटी के शानदार कार्यालय में गई थी। वह भी आमंत्रित अथिति के रूप में। उस समय स्वयं को गौरान्वित अनुभव कर रही थी। मेरा मन तब गर्व से भर उठा था जब मैंने बहुत बड़ी स्क्रीन पर शहर की टैफिक व्यवस्था को देखा था। उसे देख कर मेरा प्रभावित होना स्वाभाविक था। आमंत्रितों में मैं अकेली नहीं थी। शहर के अन्य बुद्धिजीवी भी वहां उपस्थित थे। सभी आंखें फाड़ कर उस स्क्रीन पर दिखाई दे रही सड़कों और चौराहों को देख रहे थे। वहां कार्यालय के तत्कालीन अधिकारी एवं कर्मचारी भी मौजूद थे जो हमें ट्रैफिक संचालन की बारीकियां बता रहे थे। उन्हीं में से एक महोदय ने कहा कि ‘‘देखिए हम यहां से बैठे-बैठे किसी भी चैराहे की ट्रैफिक व्यवस्था का कैसे संचालन करते हैं।’’ फिर उन्होंने शहर के सबसे पाॅश-चौराहे यानी सिविल लाईन चैराहे को जूम करके स्क्रीन पर दिखाया। लालबत्ती पर खड़े लोग साफ-साफ दिखाई दे रहे थे। यहां तक कि उनकी गाड़ियों के नंबर भी पढ़े जा सकते थे। तभी उन महोदय ने कहा कि ‘‘देखिए वो जो चैराहे पर उस पीली शर्ट वाले के पास गाय दिख रही है, मैं उसे भगाने के लिए उस पीली शर्ट वाले को यहीं से कहूंगा।’’ उन्होंने जो कहा, वह किया भी। उस पीली शर्ट वाले ने एनाउंसमेंट पर अपने लिए आदेश सुना और उस गाय को वहां से भगा दिया। यह दृश्य दिखा कर वे महोदय प्रफुल्लित हो कर बोले,‘‘देखिए कितनी चाकचैबंद है हमारी ट्रैफिक व्यवस्था।’’
‘‘मगर यह गाय यहां चौराहे पर क्या कर रही है?’’ मेरे मुंह से निकल ही गया। फिर मैंने अपनी बात को तनिक नरम करते हुए कहा कि ‘‘इस तरह के आवारा पशुओं से हादसों का खतरा रहता है। टक्कर होने पर इंसान भी जख़्मी होते हैं और जानवर भी।’’
जाहिर था कि उन्हें मेरी बात पसंद नहीं आई और उन्होंने अनमने भाव से कहा,‘‘पशुओं के विस्थापन की कार्यवाही चल रही है।’’
‘‘मैंने सुना है कि वह तो डेयरी के पशुओं के विस्थापन की योजना है। आवारा पशुओं के बारे में कौन-सी योजना है और कब तक क्रियान्वित होगी?’’ पूछे बिना मुझे भी चैन नहीं रहा।
‘‘उस पर भी कार्य किया जा रहा है।’’ डिप्लोमैटिक जवाब देते हुए उन्होंने मेरे प्रश्नों से नज़रें चुराईं और अन्य लोगों से बातें करने लगे। मैंने फिर भी पूछा कि ‘‘स्मार्टसिटी प्लान में आवारा पशुओं के लिए कांजीहाऊस की व्यवस्था है कि नहीं?’’ मगर उन्होंने मेरा प्रश्न ही अनसुना कर दिया। यूं भी उन्होंने हमें अपना दफ़्तर दिखाने को बुलाया था न कि प्रश्नों के उत्तर देने के लिए। फिर मैं कोई पत्रकार तो हूं नहीं कि उनसे अपना उत्तर पाने के लिए उन पर टूट पड़ती। मैंने भी सोचा कि फिलहाल गौधन पर चर्चा के बजाए संतोषधन से काम चलाया जाए। यह घटना कोरोनाकाल के दूसरी लहर के बाद की और लगभग साल भर पहले की है। तब से आज तक मेरा संतोषधन ज्यों का त्यों है और पशुधन भी सड़कों और चौराहों पर यथावत अड्डा जमाए हुए है। शहर की किसी भी सड़क पर, किसी भी जगह, कभी भी गाय, भैंस का चहलकदमी करते मिल जाना कोई नई बात नहीं है और यह परंपरा बदस्तूर ज़ारी है।

गाय-भैंस के रूप में मौजूद आवारा पशुधन के अलावा एक जमात और भी मौजूद है जो इस बारिश के मौसम में और ख़तरनाक हो उठती है। इनका जमावड़ा चौराहों पर तो नहीं लेकिन सड़कों पर जरूर रहता है। ये हैं आवारा कुत्तों का झुंड। जिला अस्पताल में रैबीज़ के इंजेक्शन हो या न हों लेकिन शहर की सड़कों पर आवारा कुत्तों के झुंड अवश्य मिल जाते हैं। ये किसी शिकारी की तरह छोटे बछड़ों को घेर कर काट लेते हैं। इंसानी बच्चों को भी इनसे खतरा बना रहता है। ये मोहल्लों में घूमते रहते हैं। कहीं-कहीं तो दस से बारह कुत्ते एक साथ झुंड के रूप में दिखाई दे जाते हैं। यह नजारा वाकई डरा देने वाला होता है। वह कहावत भी है न कि अपने मोहल्ले में तो कुत्ता भी शेर होता है। फिर अगर झुंड में हो तो इन्हें खतरनाक होने में देर नहीं लगती है। ये सायकिल, मोटरसायकिल और चैपहिया वाहनों का पीछा करने लगते हैं जिससे एक्सीडेंट का खतरा गना रहता है। कहने का आशय ये कि स्मार्ट बन रही सिटी में कुलियो-गलियों के ट्रैफिक की वाट लगाने से ये भी नहीं चूकते हैं।

खैर, आवारा पशुओं के साथ जीने की आदत डालते हुए हम स्मार्ट होते जा रहे हैं लेकिन उन इंसानों के लिए कोई नियम-कानून है या नहीं जो चौराहों पर हर मिनट घेराबंदी करते रहते हैं। क्या यह भी स्मार्टसिटी की सौगात है? हर कोई अपने-अपने शहर के चौराहों पर इन्हें देख सकता है। जबकि मुझे ये हमेशा मिलते हैं सिविल लाईन चौराहे पर। इनके भी दो प्रकार हैं। एक मांगने वाले और दूसरे बेचने वाले। चाहे दुपहिया हो या चार पहिया, आपने गाड़ी लालबत्ती पर रोकी नहीं कि ये आपको घेर लेंगे। इनमें महिलाओं और छोटे नाबालिग बच्चों की संख्या अधिक रहती है। पहले इस चैराहे पर एक भी भिखारी या विक्रेता नहीं हुआ करता था किन्तु अब इनकी संख्या बढ़ती जा रही है। बाॅलपेन से लेकर ग्लास-शील्ड तक बेचने वाले इस तरह पीछे पड़ जाते हैं कि जिसे चालू भाषा में ‘‘चेंट जाना’’ ही कहते हैं। यही हाल छोटे बच्चों और औरतों का है जो भीख मांगने के लिए धावा-सा बोल देती हैं। ये लोग तब तक गाड़ी की खिड़की या बाईक के सामने डटे रहते हैं जब तक कि लालबत्ती हरी नहीं हो जाती है। यदि हरी बत्ती देख कर इन लोगों के हटने से पहले किसी ने धोखे से गाड़ी बढ़ा दी तो हादसा होना तो तय मानिए। वैसे इन लोगों को देखते समय मेरे मन में एक यक्ष-प्रश्न कौंध जाता है कि क्या उस बड़ी स्क्रीन पर यह अव्यवस्था दिखाई नहीं देती है? अब यदि मैं यह प्रश्न उनसे पूछने जाऊंगी तो वे मुझे वहां से निकाल बाहर करेंगे और शायद गेटमेन को हिदायत भी दे दें कि इन्हें आइन्दा दफ़्तर में घुसने भी मत देना। प्रश्न पूछ कर परेशान करने वाले लोग किसी को भी अच्छे नहीं लगते हैं। अरे मैडमजी, जैसा है, वैसा चलने दो।

आवारा पशुओं और मांगने, बेचने वालों के अलावा टैफिक नियमों की धज्जियां उड़ाते दिखाई दे जाते हैं वे बाईकर जो हैलमेट तो लगाते ही नहीं हैं, उस पर तीन-तीन, चार-चार एक बाईक पर सवार रहते हैं। ऐसे नियम तोडू बाईकर भी सरसराते हुए हर चौराहे से गुजरते हैं लेकिन मौसमी ढंग से ही उन पर कभी-कभी सख़्ती बरती जाती है, हमेशा नहीं। लगता है कि स्मार्टसिटी की ट्रैफिक व्यवस्था के ज़ेहन में आज भी ‘‘मुकद्दर का सिकंदर’’ वाले हवा में जुल्फें लहराते बाईकर अमिताभ जी की ही छवि समाई हुई है, उन्हें ‘धूम’ का हैलमेटधारी जाॅनइब्राहीम याद नहीं है। खैर, जेब्रा क्रसॅसिंग छू जाए तो चालान आपके घर पहुंचना सुनिश्चित होता है, यही एक अच्छी बात है। नियमों का अगर कड़ाई से पालन नहीं कराया जाए तो उनके होने न होने का कोई अर्थ नहीं है।

वैसे मैं यह भी सोचती हूं कि जब कोई विदेशी हमारे देश, हमारे शहरों में पर्यटन के लिए आता है तो वह सड़कों पर आवारा पशु देख कर भौंचक्का रह जाता है। वैसे ही हमारे संगी-साथी जब विदेश जाते हैं तो उन्हें आवारा पुशधन विहीन सड़कें देख कर बहुत सूना-सूना लगता होगा। अतः अब ट्रैफिक व्यवस्था की वाट लगती है तो लगती रहे, धीरे-धीरे आवारा पशु, बाईकर, मंगते, विक्रेता (चौराहेवाले) आदि भी स्मार्ट हो ही जाएंगे। आमीन!
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